Sunday, 9 September 2012

राजनीति बनाम लोकनीति


इलाहाबाद में त्रिवेणी सहाय स्मृति संस्थान द्वारा २ सितम्बर २०१२ को आयोजित सेमिनार में दिया गया मेरा उद्बोधन- विषय था : आज के संदर्भ में राजनीति और राजनेता

राजनीति बनाम लोकनीति

ज्ञानेश उपाध्याय
राजनीति शास्त्र की कोई पुरानी पोथी खोल लीजिए, तो आज की तरह के राजनेता उसमें कदापि नहीं मिलेंगे। आज के दौर में विशेष रूप से भारतीय राजनेताओं और राजनीति की परिभाषा बहुत बदल चुकी है। राजनेता किसे कहा जाए? क्या उसे जो पैसे लेकर तबादले करवाता है, नौकरी दिलवाता है, हर काम के लिए कमीशन लेता है और वोट प्राप्त करने के लिए हाथ जोडक़र खड़ा हो जाता है या उसे जो राजनेता होने का मात्र अभिनय करता है और जिसका धंधा दरअसल कुछ और है?
अंग्रेजी में राजनीति को पोलिटिक्स कहते हैं और यह शब्द ग्रीक भाषा के ‘पॉलिटिकस’ से आया है। पॉलिटिकस का मतलब है - लोगों का, लोगों के लिए, लोगों से सम्बंधित। पश्चिम में राजनीति हमारे यहां से कुछ ज्यादा ईमानदार नजर आती है, इसके अनेक उदाहरण हैं, अमरीकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन वाटरगेट कांड में फंसे थे। पार्टी के लिए फंड जुटाने के लिए वाशिंगटन स्थित वाटरगेट काम्प्लेक्स में स्थित डेमोके्रटिक नेशनल कमेटी के मुख्यालय में डाका डालने का प्रयास हुआ था, पांच लुटेरे पकड़े गए थे। एक तरह से यह साबित हुआ कि राष्ट्रपति के रूप में रिचर्ड निक्सन को पुन: निर्वाचित करवाने के लिए पैसे का जुगाड़ करने के लिए इस चोरी या डकैती की साजिश रची गई थी। निक्सन इस मामले को दबाने में जुटे रहे, झूठ बोलते रहे, वाइट हाउस के वकील जॉन डीन ने इस मामले की जांच के लिए कुछ भी नहीं किया था, लेकिन निक्सन ने विस्तृत जांच के लिए डीन को बधाई तक दे डाली। अंतत: रिचर्ड निक्सन का झूठ सामने आ ही गया। अमरीका में हल्ला हो गया कि झूठा राष्ट्रपति नहीं चलेगा। निक्सन ने ९ अगस्त १९७४ को इस्तीफा दे दिया। निक्सन अमरीका के इकलौते ऐसे राष्ट्रपति रहे, जिन्हें गलत काम करने के कारण राष्ट्रपति पद से इस तरह इस्तीफा देना पड़ा। पश्चिमी देशों में जो ‘पॉलिटिक्स’ होती है, उसमें झूठ बोलकर अगर पकड़े गए, तो फिर बचना मुश्किल है, लेकिन हमारे यहां स्थिति ऐसी नहीं है।
झूठ बोलने के बाद पकड़े गए, तो इतने तरह के बहाने बनाए जाते हैं कि आम आदमी सोच भी नहीं सकता। अव्वल तो यह कोशिश होती है कि राजनेताओं और राजनीति का झूठ बाहर न आने पाए, स्वयं राजनेता पार्टी की सीमा से परे जाकर इसके लिए जीतोड़ प्रयास करते हैं। वही मामले सार्वजनिक होते हैं, जिनमें मिलीभगत का गणित फेल हो जाता है, सत्ता समन्वय की बजाय जहां दुश्मनी काम करने लगती है।
आइए अब राजनीति में चारित्रिक नैतिकता की बात कर लेते हैं। अमरीका के एक और राष्ट्रपति यौनाचार के मामले में फंसे, तो उनके खिलाफ महाभियोग चल पड़ा, उन्हें जार-जार रोना पड़ा, माफी मांगनी पड़ी, तभी देश ने माफ किया। लेकिन हमारे यहां एक बड़े नेता, चार बार मुख्यमंत्री रह चुके नेता ने यौनाचार के मामले में राज्यपाल पद से तो इस्तीफा दिया, लेकिन खुद को अवैध पिता साबित होने से बचाने के लिए मुकदमा लड़ते रहे, अंतत: हार गए, उसके बाद उनकी ओर से जो बयान आया, वह खास गौरतलब है - ‘मुझे अपने तरीके से अपना जीवन जीने का पूरा अधिकार है, मेरे निजी जीवन में झांकने का किसी को अधिकार नहीं।’
क्या यही बात यौनाचार में फंसे बिल क्लिंटन बोल सकते थे? नहीं वे नहीं बोल सकते थे, वहां सार्वजनिक जीवन में आए व्यक्ति का निजी जीवन भी बहुत हद तक जनता की जानकारी के दायरे में रहता है। जबकि हमारे यहां आठ साल से सरकार चला रहे राजनीतिक गठबंधन की मुखिया ने अमरीका में किस बीमारी का इलाज करवाया, इसे गुप्त रखा गया है। मतलब एक बड़े नेता की बीमारी भारत में जनता के मतलब का विषय नहीं है। दूसरे देशों में समय-समय पर नेताओं के हेल्थ बुलेटिन जारी होते हैं। जो पूरे देश के हेल्थ की चिंता कर रहा है, उसके अपने हेल्थ की चिंता क्या देश को नहीं होनी चाहिए? हां, भारतीय राजनीति में यही माना गया है कि नेता जितना बता दें, उसमें विश्वास कर लो, ज्यादा पूछोगे, तो इलाज के दूसरे तरीके आजमाए जाएंगे। अभी उत्तर प्रदेश में ही यह बताया जाता है कि किसी बच्चे ने पूछ लिया कि सरकार लैपटॉप कब बांटेगी, तो उसे हिरासत में ले लिया गया। मतलब यह कि आप सवाल मत पूछिए, चुपचाप सुनिए कि राजनेता या सरकार क्या बोल रही है।
हमारे यहां ऐसा क्यों हुआ? उन्मुक्त जीवन शैली वाले अमरीका में तो राजनीतिक नैतिकता का पैमाना बहुत शानदार है, लेकिन मर्यादाओं में बंधे हमारे देश में राजनीतिक नैतिकता की धज्जियां सरेराह उड़ाई जाती हैं।
क्रमश:

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