Tuesday 1 November, 2011

छठ, बिहारी और देश

छठ पूजा (सूर्य षष्टि व्रत) पर गांव चला जाता हूं, इस बार नहीं जा पाया। यह ऐसा महान लोक पर्व है, जिसके करीब आते ही बिहारियों के आसपास की फिजा बदल जाती है। मैं अक्सर कहता हूं, शायद ही कोई ऐसा बिहारी होगा, जिसे छठ का गीत सुनकर बिहार की याद नहीं आती। मैं तो बिहार में नहीं रहा, राउरकेला-उड़ीसा में जन्मा, वहीं पला-बढ़ा, लेकिन वहां भी बिहारी समाज अच्छी खासी संख्या में है। होश संभाला, तो मां को छठ पूजा करते पाया। छठ की यादें आज भी ताजा हैं, रिक्शा से पहले शाम और फिर सुबह के समय कोयल नदी के तट पर जाते थे, जो घर से करीब पांच किलोमीटर दूर बहती थी। साइकिल रिक्शावाले उड़ीसा के ही स्थानीय आदिवासी समाज के थे, लेकिन वे भी न केवल खुद नहा-धोकर आते थे, बल्कि रिक्शा भी धुलता था। पवित्रता का महत्व वे भी जान गए थे, छठ का ऐसा प्रभाव पड़ा था कि उन्हें भी घाट पर पहुंचने की जल्दी होती थी और हम बच्चों को भी। हम बच्चे जिस रिक्शावाले के रिक्शे पर बैठते थे, उसका नाम रामलाल था। रामलाल इसलिए अच्छा था, क्योंकि वह दूसरे रिक्शेवाले से आगे बढक़र रिक्शा चलाता था। पहले राउरकेला में भी छठ घाटों पर केवल बिहारी होते थे, वह भी कम संख्या में, लेकिन धीरे-धीरे उड़ीसा और बंगाली समाज के लोग भी तट पर श्रद्धा भाव के साथ आने लगे। भीड़ बढ़ती गई। भीड़ आज और बढ़ गई होगी और श्रद्धा भी, मैं तो आखिरी बार उड़ीसा में १९९५ की छठ में शामिल हुआ था। उसके बाद राउरकेला छूट गया, छठ नहीं छूटा, क्योंकि यह कोई छूटने वाली चीज नहीं है।
मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं कि मगध की संस्कृति का वैभव छठ काल में चरम पर होता है। बिहार देखना हो, तो आप छठ के समय वहां जाइए और देखिए कि बिहार वास्तव में क्या है। १९६०-६५ के बाद के वर्षों में बिहारियां को इतनी गालियां मिली हैं कि उसकी खूबियां भी मजाक का विषय बनती रही हैं। अब तो खैर देश के हर शहर में बिहारी हैं और छठ भी मनाते हैं, लेकिन हर शहर में एक दौर ऐसा भी रहा, जब बिहारी सिर पर डाला या टोकरी को पीले या लाल कपड़े से ढककर ईंख के गुच्छे थामे, दीप जलाए हुए, छठ के गीत गाते जब किसी तालाब या नदी के किनारे पहुंचते थे, तो दूसरे लोगों को आश्चर्य होता था। वे सोचते थे कि आज बिहारियों को क्या हो गया है। शाम के समय भी सजधज कर तैयार होकर तालाब या नदी के तट पर आते हैं और फिर दूसरे दिन सुबह अंधेरे में ही तट पर पहुंचकर उसे रोशन कर देते हैं, बिहारियों को ये क्या हो जाता है? मैंने दिल्ली के भी छठ का आनंद लिया है, शायद ही ऐसा कोई पर्व होगा, जब दिल्ली वाले यमुना के किसी किनारे को साफ करते होंगे, दिल्ली वालों ने तो मानो यमुना को गंदा करने का ठेका ही ले रखा है, यह श्रेय बिहारियों को दिया जाना चाहिए कि यमुना के कुछ तट छठ के बहाने साफ हो जाते हैं, हरियाणा से आने वाली नहर में पानी छूटता है, उस नहर के भी कई तट साफ हो जाते हैं। कई तटों पर तो स्थायी सीढिय़ां बनी हैं, पहले बिहारी समाज के लोग ही मिट्टी काटकर सीढ़ीनुमा तट बना लेते थे। छठ के बहाने बड़े शहरों में भी तटों पर कुछ तो सकारात्मक हुआ है, वरना ऐसे कितने त्योहार भारत में हैं, जिनके चलते तालाबों, नदियों के तटों की सफाई होती है?
बिहारी स्वभाव से संकोची रहे हैं, दूसरे समाजों में झुककर, समझौते करते हुए मिलना उनका स्वभाव रहा है। इसमें कोई शक नहीं है कि इस देश को बांधकर रखने में मारवाडिय़ों और बिहारियों का सबसे ज्यादा योगदान है। ये भारत में हर जगह मिल जाएंगे। दुर्गम जगहों पर सडक़ बनानी हो, जान भी खतरे में हो, तो बिहारी मजदूर खटते हुए मिल जाते हैं। असम हो या अरुणाचल या लद्दाख, बिहारियों को देखा जा सकता है। पंजाब में खेती करने से लेकर कन्याकुमारी के घाटों पर मछली ढोने तक। बिहारियों ने अपने लोक पर्व को कभी नहीं भुनाया, उसे बाजार के हवाले नहीं किया, उसे पूरी श्रद्धा और भक्ति के साथ मनाते रहे हैं। भारत के दूसरे प्रांत के लोग कहीं पहुंचते हैं, तो तुरंत संगठित हो जाते हैं, लेकिन बिहारी एक ऐसा समुदाय है, जिसने कहीं जाकर काली बाड़ी जैसा कोई प्रयोग नहीं किया। बिहारियों को केवल एक तट चाहिए छठ मनाने के लिए। दिल्ली सरकार भले ही सरकारी छुट्टी दे या न दे, बिहारी तो छठ मनाएंगे। बैंडबाजे के साथ मनाएंगे, हर्षोल्लास के साथ मनाएंगे। बिहारी के साथ अन्याय कहां नहीं हुआ, मुंबई में भी उन्हें छठ मनाने से रोकने वाले आगे आ जाते हैं। देश को सस्ते बिहारी मजदूर चाहिए, गुजरात को चाहिए, पंजाब को चाहिए, दिल्ली, कोलकाता, मुंबई को चाहिए, क्योंकि बिहारी ज्यादा मेहनती होते हैं, लेकिन बिहारियों की विशेषताओं को भी तो स्वीकार किया जाए, बिहारियों को केवल वोट बैंक न समझा जाए। मैं मीडिया में हूं, कहीं चोरी-डकैती हो, तो सबसे पहला शक बिहारियों पर किया जाता है। मैंने अज्ञानता में बहुतेरे लोगों को यह कहते सुना है कि बिहारियों ने माहौल बिगाड़ रखा है। मैं यह जरूर जानना चाहूंगा कि देश में कौन राज्य ऐसा है, जहां अपराध या अपराधी पैदा नहीं होते।
हालांकि यह सच है कि छठ के समय बिहार में ऐसी हवा चलती है कि अपराध कम हो जाते हैं। एक ऐसा पर्व, जिसमें जाति का बंधन नहीं, घाटों पर सूप और कलसूप देखकर कोई जाति के सवाल नहीं उठाता। बहुतों को आश्चर्य होगा, लेकिन मुसलमान भी छठ करते हैं। पुरुष भी छठ कर सकते हैं, महिलाएं भी। यह पर्व थोड़ा कठिन है, करवां चौथ जैसा नहीं है कि सुबह से शाम तक भूखे रहे और चांद देखने के बाद पार्टी मना ली। छठ में लगभग दो दिन का उपवास होता है और ध्यान दीजिएगा, जल पीना भी वर्जित है। इस सम्पूर्ण उपवास अवधि को कितना भी कम किया जाए, डेढ़ दिन से कम नहीं किया जा सकता। उपवास कठिन है, इसलिए छठ पर खतरा बताया जाता है। जिस संयम-व्रत-शुद्धता-संकल्प-इच्छाशक्ति की मांग यह पर्व करता है, क्या उसकी पूर्ति आधुनिक होते बिहारी कर पाएंगे, क्या झारखंड, बिहार उत्तर प्रदेश में यह पर्व धीरे-धीरे हाशिये पर होता चला जाएगा? आप भी जाइए, किसी छठ घाट पर, देखिए, क्या भीड़ कम हो रही है, मुझे तो ऐसा नहीं लगता। जूहू बीच से पटना घाट तक छठ का साम्राज्य बढ़ता चला जा रहा है। देश में जगह-जगह से आवाज गूंज रही है : केरवा जे फरेला घवद से, ओपर सूगा मेडराय... समझ में न आए, तो किसी बिहारी से पूछिए, उसे ढूंढऩे के लिए ज्यादा दूर नहीं जाना पड़ेगा। बिहार आपके पास आ गया है। आपके घाटों पर बस दो वक्त रहेंगे बिहारी और फिर अपने-अपने काम पर लग जाएंगे। जय छठ, जय हिन्द।

2 comments:

baby said...

oye yaar ramlal yad hai aur motilal ko bhul gaya. dono mein race hota tha aur hamesha motilal hi jitata tha. woh sunahari yaden kabhi bhula nahi jaa sakta

manglam said...

छठ के बहाने बिहारियों के मर्म को छूने वाली और गौरव को रेखांकित करने वाली बात कही है आपने...बहुत ही अच्छी प्रवाहपूर्ण अभिव्यक्ति...हार्दिक बधाई.....