Sunday, 6 June 2010

बिहार से फिर लौटकर

मेरे बचपन का बिहार अर्थात गर्मी की छुट्टियों वाला बिहार, पके आम, घोड़ागाड़ी, बैलगाड़ी, खेत-खलिहान, बंसवारी, बगीचों, अनथक धमा-चौकड़ी वाला बिहार, गांव के साप्ताहिक बाजार वाला बिहार, गांव के सुन्दर मंदिर वाला बिहार। अब पीछे छूटता जा रहा है। मैं उसे पकड़ नहीं पा रहा हूं और उसकी मुझे पकडऩे में कोई रुचि नहीं है। वह शायद चाहता है कि मेरे जैसी थोड़ी समझ वाले लोग बाहर रहें, ताकि उसका कारोबार निर्विघ्न चलता रहे। बदलते बिहार में चिन्ताएं दूसरी दिशा में मुडऩे लगी हैं। बढ़ती उम्र के साथ आंखें कुछ और देखने-खोजने लगी हैं। मेरे लिए अब एक सांस्कृतिक, सामाजिक, मानसिक आघात की तरह होने लगी हैं बिहार यात्राएं। अब मजा कम आता है और तकलीफ ज्यादा होती है। अंधेरा पहले लगता था कि केवल बाहर है, लेकिन सबसे ज्यादा अंधेरा तो लोगों के दिलों में बस गया है। विकास की गाड़ी ठहर गई है, कहीं कोई नरेगा नहीं है, है तो बस लूट है। नीतीश कुमार जहां जाते हैं, वहां सड़कों को कामचलाऊं बना दिया जाता है, जैसे हमारे गांव शीतलपुर बाजार से गुजरने वाली मुख्य सड़क (एकमा-मांझी) को बना दिया गया। सड़क पर बने गड्ढों को मिट्टी और गिट्टी से भर दिया गया है। जब बारिश शुरू होगी, तो नीतीश कुमार बिहार के इस पिछड़े इलाके में झांकने भी नहीं आ पाएंगे। यहां के स्थानीय नेता हमेशा की तरह दूसरों के चेहरे पर अपनी बड़ी गाडिय़ों के बड़े पहियों से कीचड़ उछालते हुए लापरवाह गुजर जाएंगे। विकास का रायता बुरी तरह फैल जाएगा। सड़कों पर बड़े आराम से गड्ढे खोद जाएगी बारिश। अपने गांव में बिजली का मुझे बचपन से इंतजार है। वह आती है, सरकारी बाबुओं की तरह हाजिरी बनाती है और चली जाती है। परंपराओं का पतन हो रहा है। अच्छी बातें बीत रही हैं। खराब बातें जम रही हैं। जर्रा-जर्रा बेईमान होने का बेताब नजर आता है। ज्यादातर लोगों की आंखों में ईष्र्या में सनी बदमाशी नजर आती है। लाज के मोटे-मोटे परदों को लोग बेलेहाज फाड़ रहे हैं। क्रोध से जी मचल जाता है, नायकत्व जागने लगता है कि कुछ किया जाए। आखिर क्यों?
जो अच्छा है,
सिमटकर थोड़ा बचा है।
जो बुरा है,
चादर फाड़कर पसरा है।

रिस रही अच्छाई,
सिलन से बेहाल दीवारों पर
बचे हैं बस नारे
जिन्हें कोई लिख जाता है
बार-बार बचाकर नजरें।
लिखने-लिखवाने वालों से
मैं समझना चाहता हूं
नारों का सच।

यहां का सच
बाहर नारों से ढंक जाता है
अंदर सिलन से उधड़ जाता है
लेकिन पहलू दो ही नहीं
अनेक हैं।
दीवार में सीमेंट कम
ज्यादा मिट्टी है,
ईंटें कम
बेडौल पत्थर अधिक हैं।
शायद दीवार बनाई नहीं
केवल दिखाई गई है।

या शायद केवल आभास है
कि खड़ी है दीवार।

तभी तो
जो अच्छा है,
सिमटकर थोड़ा बचा है।
जो बुरा है,
चादर फाड़कर पसरा है।

3 comments:

Anonymous said...

lagta hain aapne samwedanshil hokar bihar ki hakiat nahi dekhi.

jo badhali hain aap jaise samjhadar loge ke palayan k karan.
sanjay

Gyanesh upadhyay said...

jyada samvedansheel hone se kya bihar ki koi aur hakikat dekhegi? palayan karne waale khud ko hi nahin, bihar ko bhi bacha rahen hain, kripya palayan karne walon ko gali na den,
waise maaf kijiyega maine kabhi palayan nahih kiya, mera janm orissa mey hua tha. main bihar ka karjdaar nahin hun, lekin ek din khud ko sacha bihari jaroor sabit karoonga,
mujhe prerit karne ke liye aapko bahut-bahut dhanywaad.

kala-waak.blogspot.in said...

बिहार के जरिए आपने समय के सच से रु-ब-रु करवाया है...संयोग से कुछ समय पहले ललित कला अकादेमी और बिहार संस्क्रती विभाग द्वारा आयोजित नेशनल आर्ट वीक में जाना हुआ था. हकीकत वाही है जो आपने बयाँ की..
बहरहाल, संवेदनाओं में आपने बिहार के आज को जिया है, बेहद मार्मिक काव्य पंक्तियों है...
आपकी रचना के जरिये साझा हो गए हैं आपके साथ मेरे भी जज्बात.
डॉ. राजेश कुमार व्यास