Monday, 18 June 2012

पिता के लिए

फिर गांव छूट गए पिता
या दूर शहर में छूट गया मैं
या छोड़ गए वे मुझे
अनेक बकाया कामों के जंगल में।
दुष्कर किनारों के बीच टंगे अंधेरों में झूलते
तरह-तरह की आवाजों में पुकारते काम
किन्हीं अबूझ जीवों की तरह
डरवाने और घने काम।

मैं सोचता हूं,
छोड़ दूं
पिता कर लेंगे,
लेकिन छूट जाता है
काम जैसे छूट गया हूं मैं।

शायद पिता के जाने से
नाराज हैं काम
मुझसे किए नहीं मानते,
अनगिनत छोटे-बड़े
ढूढ़ते हैं पिता को
जैसे ढूढ़ते थे पिता उन्हें
पूरे दिन व दिल
कारीगर की तरह,
वो भाग-भाग कर पकड़ते थे,
मानो छोड़ दिया तो भाग जाएंगे काम।
लेकिन अब नहीं भागते काम
निठल्ले ढेर-ढहे रहते हैं
बिस्तर से दरवाजे तक
रसोई से रोशनदान तक
पिता की जगह को ताकते
कि इधर से ही निकलेंगे पिता
कि ठीक यहां से पलटकर देखेंगे
कि कुछ ठहरकर याद करेंगे पिता
और झट से हठ ठान कर
उठा लेंगे कोई काम।

बेताब हैं कुछ काम
कि उन्हें उठा ले कोई,
जिसे सुधरा गए थे पिता
वह नल फिर टपक रहा है,
उसकी आवाज चुनौती पहुंचा रही है
पिता की जगह तक
आओ पिता आओ,
इस निकम्मे बेटे पर न छोड़ो
जो कभी छोड़ आता है,
तो कभी खुद छूट जाता है,
छोडऩे-छूटने की आदत नहीं छोड़ता।
आओ पिता आओ।

रिस रहा है मेरी आंखों से
टप-टप और
भीग रही है
मेरे दिल में
पिता की जगह।

यह भी एक काम है
आंसू पोंछने का
जो छूट जाएगा
पिता के लिए।