Monday, 18 June 2012

मां के लिए

कोई एक हो, तो पूछूं
दर्द कैसा है मां।
हर बार समेटकर छिपा लेती है मां
लेकिन बड़े दर्द कूदकर झांकते हैं
सामने खड़े हो जाते हैं
शायद जैसे हम खड़े हैं!

कोई एक हो, तो पूछूं
दवा ले ली क्या मां?
पोटली में छिपा लेती है मां
अपनी दवाइयां तरह-तरह की
जो बढ़ती गई लगातार
झुर्रियों की तरह।
मैंने मां में होते देखी है,
दर्द और दवा की लड़ाई।
रात हारकर, सुबह जीतते देखा है।
अफसोस, मां
मैं मां न हो सकूंगा।

मैं या मां या दर्द या दवा
बड़ा होने में सबकी हार है।
बड़े होकर सब बिखर जाते हैं,
समेटते भी रहते हैं
ताकि फिर बिखेर सकें।

पर मां अब सिर्फ समेटती है
अपने काम
और अपना समय
पर हमारे बिखरे को
वह समेटती नहीं,
सजाती है।

कोई एक हो
तो याद करूं
मां के साथ समय
अनगिनत
चल रहे हैं
पिता के पीछे-पीछे।

1 comment:

मन्टू कुमार said...

Is subject par bahuton ne likha hai,,par aapka kuchh alag h,bahut khub hai...