जात-पात से परे एक जगदगुरु : स्वामी रामानन्द
बनारस के एक अत्यंत पवित्र-ज्ञानी जुलाहे कबीर को गुरु की तलाश थी। उन्हें पता लगा कि गुरु के बिना सफलता नहीं मिलेगी। उनके मन में महान संत स्वामी रामानन्द जी को गुरु बनाने की इच्छा जागी। उस दौर में स्वामी रामानन्द बनारस ही नहीं, बल्कि देश-दुनिया के एक महान संत थे, उनके हजारों शिष्य थे, उनका आध्यात्मिक-सामाजिक दायरा बहुत विशाल और जात-पात से परे था। कबीर जानते थे कि उनका शिष्य बनना सहज नहीं है, अत: उन्होंने एक उपाय किया। सुबह मुंह अंधेरे रामानन्द जी स्नान करने के लिए श्रीमठ, पंचगंगा घाट की सीढिय़ां उतरते थे। एक रात कबीर उन्हीं सीढिय़ों पर उस जगह लेट गए, जहां से होकर रामानन्द जी गुजरते थे। स्नान के लिए गुरु जी पंचगंगा घाट की सीढिय़ां उतरते आए और उनका पांव कबीर पर पड़ गया। स्वाभाविक ही बहुत अफसोस और अपराधबोध के साथ अंधेरे में ही झुककर रामानन्द जी ने कबीर को उठा लिया और कहा, 'राम-राम कहो, कष्ट दूर होगा।Ó
फिर क्या था, कबीर को राम मंत्र मिल गया, गुरु मिल गए। पूरे बनारस में यह बात आग की तरह फैल गई कि जुलाहे कबीर को रामानन्द जी जैसे संत ने अपना शिष्य बना लिया। बात रामानन्द जी तक पहुंची, तो उन्हें ध्यान नहीं आया कि उन्होंने कबीर नाम के किसी व्यक्ति को शिष्य बनाया है। अब लोग कबीर के पास पहुंचे, घेर-घारकर श्रीमठ लेकर आए, ताकि रामानन्द जी से सामना कराया जा सके, ताकि शिष्य होने का सच सामने आए। जब कबीर को लेकर कई लोग श्रीमठ पहुंचे, तब श्रीमठ की अपनी गुफा में रामानन्द जी रामजी की पूजा में लगे थे। सब बाहर बैठकर प्रतीक्षा करने लगे। कबीर भी बैठ गए और ध्यान लगाया कि गुरु जी क्या कर रहे हैं। गुरु जी तब परेशान थे कि माला छोटी पड़ रही थी, छोटी माला रामजी को कैसे पहनाई जाए। कबीर से रहा न गया, उन्होंने मन ही मन कहा, 'मलवा तुर के गलवा में पहिराय दीं।Ó(माला तोड़कर गले में पहना दीजिए)। योगबल का प्रभाव था, यह आवाज गुरु जी तक पहुंच गई, उन्होंने तत्काल माला की डोर तोड़ी और रामजी के गले में डालकर पुन: बांध दी। उनके मन में यह प्रश्न आश्चर्य के साथ उठ रहा था कि समस्या का समाधान बताने वाली यह आवाज कहां से आई। वे तत्काल अपनी गुफा से बाहर निकले और पूछा कि यह आवाज किसकी थी, मलवा तुर के गलवा में पहिराय दीं। सब चुप थे, कबीर ने कहा, गुरुजी यह मैंने सोचा था।
गुरु तत्काल जान गए कि यह शिष्य मामूली नहीं है। छोटी जात का जुलाहा है, तो क्या हुआ। उन्होंने कबीर को शिष्य स्वीकार कर लिया। रामानन्द जी अद्भुत गुरु थे, कई खेमों में बंटे भारतीय समाज में उन्होंने उद्घोष किया था, जात-पात पूछे नहीं कोई, हरि को भजे से हरि का होई। उनके परम शिष्यों में वस्त्र बुनने वाले कबीर ही नहीं थे, उनके परम शिष्यों में चर्मकार रैदास या रविदास भी शामिल थे, जो चमड़े का काम करते थे। उनके परम शिष्यों में धन्ना जाट भी थे और संत सेन भी, जो लोगों के बाल बनाते थे। रामानन्द जी एक ऐसे गुरु थे, जिन्होंने भारतीय समाज को एकजुट करके एक ऐसी राह दिखाई, जिस पर देश आज भी चल रहा है। ऊंच-नीच को न मानने वाला भारतीय संविधान तो बाद में बना, लेकिन मध्यकाल में यह नींव रामानन्द जी ने रख दी थी। वे एक ऐसे गुरु थे, जिनका श्रीमठ आज भी कायम है और उनके शिष्यों के भी पंथ चल रहे हैं।
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