Thursday, 26 July 2012

भीड़ को किसने ठेका दिया

एक तरफ, स्त्रियों का यौन शोषण-छेड़छाड़-प्रताडऩा, तो दूसरी ओर, यौन मुक्ति की पराकाष्ठा। दोनों ही खबरें असम से आईं, दोनों ने ही भारतीय समाज को विचलित किया। पहले आई एक विधायक की खबर, जिन्होंने डेढ़-दो साल की बच्ची और पति को छोडक़र बिना तलाक लिए अपने फेसबुक फ्रेंड से विवाह रचा लिया। कहा गया कि उन्हें ऐसा करने का अधिकार था, उन्होंने ऐसा किया, तो क्या गलत किया। तलाक न लेने की बात भूल जाइए, छोटी बच्ची को पीछे छोड़ आने की बात भूल जाइए, देखिए कि स्त्री उसी स्वच्छंदता और यौन मुक्ति का आनंद ले रही है, जो पुरुष लेते आए हैं। प्रशंसा न ऐसे पुरुष की हुई है, न ऐसी स्त्री की होगी, तो दोनों ही निंदा के पात्र रहेंगे। लेकिन निंदा से तो शायद अब सरोकार ही खत्म होता जा रहा है, अपने सुख के आगे बाकी सारी नैतिकताएं-मर्यादाएं फालतू की बातें होती जा रही हैं।
बराबरी का सिद्धांत महिलाएं लागू करना चाहती हैं, वे पुरुषों की नकल करना चाहती हैं, लेकिन उन्हें यह ध्यान रखना चाहिए कि इसी समाज में अच्छे पुरुष भी रहते हैं, केवल वो बुरे पुरुष ही नहीं, जो अधिसंख्य महिलाओं को आकर्षित कर रहे हैं। आजादी का मतलब कदापि यह नहीं है कि बुरे पुरुषों का अनुगमन किया जाए। बुराई हर युग में हर हाल में बुराई थी और बुराई ही रहेगी।
उस महिला विधायक ने जो किया, वह गलत था, उनके माता-पिता ने भी अपनी बेटी का विरोध किया, लेकिन उनके खिलाफ भीड़ ने जो किया, वह तो और भी गलत था। यह भीड़ कौन है? उसके नाम से नैतिकता का ठेका किसने छोड़ा है?
ऐसी ही एक भीड़ उसी गुवाहाटी में सडक़ों पर जुटी थी, लेकिन उसने नैतिकता का ठेका नहीं उठाया। इस बार भीड़ के पास एक नाबालिग लडक़ी के साथ छेड़छाड़ करने और उसके कपड़े फाडऩे, उसे घसीटने, दबोचने का ठेका था? जिसे मिला, उसी ने हाथ साफ कर लिया? शायद भीड़ ने सोचा होगा कि लडक़ी बार से निकलकर आ रही है, इसलिए उसके साथ छूट ली जा सकती है? क्या रात को कोई लडक़ी घर से निकले, तो उसका आशय यही निकाला जाए कि वह दबोचे जाने के लिए ही निकल रही है? यह कैसा समाज है, जो दो तरह की भीड़ लगाने लगा है। एक भीड़ है, जिसके पास नैतिकता का ठेका है और दूसरी भीड़ जिसने नैतिकता की धज्जियां उड़ाने का ठेका ले रखा है।
यह एक बहुत बड़ा खतरा है, हम भीड़ को हलके से ले रहे हैं, जबकि यह हमारे समाज के लिए बहुत बड़ी चिंता की बात है। कोई हत्या या अपराध केवल इसलिए छोटा नहीं हो जाता कि उसे भीड़ ने अंजाम दिया है। भीड़ को तो ज्यादा कड़ा दंड मिलना चाहिए। भीड़ अकसर गलती ही करती है या शायद अब ज्यादा करने लगी है। भले और सज्जन लोग भीड़ में जाने से बचने लगे हैं। लोकतंत्र के भीड़तंत्र में बदलने का यह खतरा ऐसा है कि जिस पर सरकारों को गौर करना चाहिए। किसी को सजा देना या किसी का शोषण करना भीड़ का काम नहीं है, लेकिन अगर वह ऐसा कर रही है, तो यह हमारी व्यवस्था की विफलता है, यह भीड़ नहीं, समाज के टूटने का एक प्रतीक है। समाज टूट रहा है और इस टूट के गुस्से, झेंप, निराशा को वह सामूहिक रूप से निकाल रहा है। किन्तु वास्तव में यह क्षणिक आवेश है, जो समाज को और तोड़ेगा। दो लोग अगर किसी को पीट रहे हैं और हाव-भाव से अगर लग जाए कि पिटने वाला कमजोर है या पिट सकता है, तो दूसरे लोग भी हाथ साफ करने उतर आते हैं।
ऐसा फिल्मों में होता है, गुंडों की टोली जब आती है, तो मजबूर होकर एक आदमी दरवाजा खोलकर निकलता है, फिर दूसरा, तीसरा, चौथा, धीरे-धीरे सब निकल आते हैं और मुट्ठी भर गुंडे भाग खड़े होते हैं या फिर मारे जाते हैं, लेकिन यह असली जिंदगी में ठीक नहीं है। यह सोचना पड़ेगा कि थोड़ी ही देर में सडक़ पर चलते-चलते यह फैसला कोई नहीं कर सकता कि कौन भला है और कौन बुरा। फिर क्यों लोग गाड़ी रोककर पिटने वाले पर हाथ साफ करते हुए चल निकलते हैं? मानो चोरी का आरोप पर्याप्त हो जांच पड़ताल की कोई जरूरत न हो। कुछ लोगों के हाथों में तो खुजली होती है, किसी के भी फटे में टांग अड़ा देते हैं और भीड़तंत्र को मजबूत कर देते हैं। सजा देने का काम पुलिस का है। नैतिकता सिखाने का काम समाज और बड़े-बुजुर्गों का है, अगर वे यह काम पूरी सभ्यता व शालीनता के साथ नहीं कर रहे हैं, तो उन्हें धिक्कार है। भीड़तंत्र को खत्म करने के उपाय करने ही चाहिए, वरना संभव है आज उनकी तो कल हमारी बारी होगी। हम बताना चाहेंगे कि हम निर्दोष हैं, लेकिन लोग तो अपने हाथ साफ करके ही मानेंगे, भले हमारा कुछ भी हो जाए, हम रहें न रहें।

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