Wednesday, 11 January 2012

बिग बॉस पांच और नैतिकता

बिग बॉस में होने वाली तमाम नाटकीयता, फिक्सिंग, पक्षपात और आरोपों के बावजूद मुझे यह स्वीकार करने में कोई हिचक नहीं कि बिग बॉस मेरा एक प्रिय कार्यक्रम रहा था। मुझे पहले के चार बिग बॉस पसंद आए, लेकिन पांचवां बिग बॉस ऐसा था, जिसे देखते हुए मुझे लगा कि अब पहले वाली बात नहीं रही।
एक तो हाउस मेट्स का चयन ही घटिया स्तर का था। बुद्धू बक्से से चमके चेहरों की भरमार थी। अंतिम पांच हाउस मेट्स में चार - जूही परमार, सिद्धार्थ, स्काई और अमर टीवी से ही चमके हैं। अव्वल तो बिग बॉस पांच का घर झगड़ों, गुटबाजी और अतार्किकता का गढ़ था। हंसी-ठिठोली, भावनात्मक लमहे, संगीतमय लमहे, मिलने-जुलने के लमहे कम ही रहे। टास्क पर कैमरा कम था और झगड़े पर ज्यादा। शायद बिग बॉस के सम्पादक ऐसे लोग थे, जिन्हें दूसरों के फालतू झगड़ों में ज्यादा आनंद आता है। मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि रागेश्वरी के घर से निकलने के बाद से बिग बॉस का माहौल और प्रभाव लगातार गिरता गया और उठा तब जब ऑस्ट्रेलियन क्रिकेटर एंड्र्यू साइमंड्स का आगमन हुआ। आती क्या खंडाला को जब उन्होंने हाथी का रुंडाला गाया, तो वास्तव में बिग बॉस के घर में ऐसे ठहाके गूंजे, जिसके लिए यह घर ही नहीं, बिग बॉस के प्रेमी भी तरस गए थे।
वरना इस बार घर में न तो कोई हंसोड़ गया, न कोई गवैया और न कोई गंभीर कलाकार। सारे नौसिखियों ने इसमें भागीदारी की और केवल खुद से प्यार किया। सबकी नजर एक करोड़ रुपए पर थी।
सबसे बुरा तब हुआ, जब एक ऐसी हस्ती घर में पहुंची, जिसका परिचय खुलकर नहीं दिया जा सकता और उस भाषा में दिया भी नहीं गया, जो बिग बॉस के घर की भाषा है। पोर्नोग्राफी की इंडस्ट्री की उपयोगिता पर कोई सामाजिक विवेचना मेरी नजर में नहीं आई है। पोर्नोग्राफी निजता का निर्मम विस्फोट है। खुशी के अभाव पर विलाप है। सतत रुदन है। इसमें न केवल निजता के चिथड़े उड़ जाते हैं, बल्कि मानवीयता भी सवालों के घेरे में आ जाती है, उसमें स्वाभाविकता तो नहीं के बराबर होती है। उसकी नाटकीयता एक ऐसे लोग में ले जाती है, जहां कामसूत्र के रचनाकार वात्स्यायन भी नहीं ले गए थे। ताले टूटने का मतलब ही है कि चोरी या फिर चोरी को आमंत्रण। चोरों को जब यह समाज स्वीकार नहीं करता, तो फिर किसी पोर्न कर्मी को कैसे करेगा? ये किसी दूसरी दुनिया के लोग हैं, एक लंबी-चौड़ी भटकी हुई इंडस्ट्री, पैसा कमाने का सबसे आसान जरिया। अमरीका में तो इससे नाम भी कमाते हैं लोग, जैसे सनी लियोन ने कमाया और पहुंच गई भारत। वह हुआ, जो नहीं होना चाहिए था। यह देश नगरवधुओं और आम्रपालियों को स्वीकार कर सकता है, लेकिन माफ कीजिएगा, पोर्न कर्मियों के लिए कोई जगह नहीं है और होनी भी नहीं चाहिए। नगरवधुओं और आम्रपालियों की भी निजता रही है, उन्होंने कभी अपनी निजता का व्यापार नहीं किया, पोर्नोग्राफी आखिर क्या सिखाती है, सहज प्रेम के अभाव का शोकगीत! यह देश उत्सवों का देश रहा है, शोकगीतों का नहीं।
बेशक, इस शोकगीत को रोकना सरकार का काम था। कहा जाता है, जो सरकारें अपने लोगों को अच्छा शासन नहीं देतीं, रोजी-रोटी नहीं देतीं, ऐसी सरकारें खुलेपन के साथ आम लोगों का मनोरंजन करती हैं, ताकि आम लोग बेहोश रहें। अन्ना को कुछ देर के लिए ही सही, भूल जाएं और सनी पर चर्चा करें। अपने देश में सनी का मतलब है सुनील मनोहर गावस्कर और सनी देवोल, और यही मतलब बचा रहना चाहिए। जो नया मतलब खड़ा किया जा रहा है, वह हमारे समाज और टीवी इंडस्ट्री को दुखद रसातल में ले जाएगा। कूड़े की किस्मत ही यही है कि उसे पीछे फेंका जाए, आगे कतई नहीं। हमारी मनोरंजन इंडस्ट्री को कपड़े खोलने या दूसरों से खुलवाने के इस दुखद स्तर तक नहीं जाना चाहिए। मनोरंजन की दुनिया इतनी संकुचित नहीं है, उसमें अभी बहुत गुंजाइश है।
जिनके पास मसाले नहीं हैं, या जिनके मसाले खत्म हो चुके हैं, ऐसे महेश भट्ट की दुकानदारी क्या अब पोर्नकर्मी संभालेंगे? क्या भट्ट साहब का यही ‘सारांश’ है?
अगर सनी लियोन के विचारों की नारीवादी विवेचना करें, तो भी वह टिकती नहीं है। वह साफ कहती है, उसने पैसे के लिए यह काम किया। ज्यादा और ज्यादा पैसा मिलता गया और वह अपने क्षेत्र में आगे बढ़ती चली गई। छिपाकर किया गया एक ऐसा काम, जिसे उसके पिता-माता नहीं देख सकते। लेकिन वह पिता कैसा है, जो कहता है, बेटी, तुझे जो करना था, बताकर करना था, लेकिन अब जो भी करना ठीक से करना।
क्या यहां परिवार और समाज के शव की सड़ांध नहीं आ रही है?

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