Monday, 26 December 2011

असुरक्षित मोबाइल

बड़े अफसोस की बात है कि भारत में कई कंपनियां अपने ग्राहकों के स्वास्थ्य व जीवन के साथ खिलवाड़ करती हैं, लेकिन इससे ज्यादा शर्मनाक व चिंताजनक बात तो यह है कि परोक्ष रूप से सरकार भी उनका साथ देती है। सरकार ने मोबाइल कंपनियों के लिए अनिवार्य कर दिया है कि वे हैंडसेट में विकिरण स्तर देखने की सुविधा दें। सरकार का यह कदम अच्छा तो लगता है, लेकिन वास्तव में अधूरा है। सरकार ने विकिरण घटाने के पुख्ता इंतजाम नहीं किए हैं। इसका नुकसान यह होगा कि मोबाइल कंपनियां ऎसे हैंडसेट बाजार में उतारेंगी, जो गलत जांच करेंगे और विकिरण को वास्तविक स्तर से कम दिखाएंगे। मोबाइल कंपनियों के लिए विकिरण घटाना अनिवार्य नहीं हुआ है, बल्कि सिर्फ दिखाना अनिवार्य हो गया है। स्वास्थ्य और जीवन से बढ़कर कुछ नहीं हो सकता। कम से कम कोई आधुनिक उत्पाद या तकनीकी जरूरत तो कभी भी जिंदगी के मुकाबले भारी नहीं पड़ सकती, लेकिन यह हमारे देश में एक बड़ा दुर्भाग्य है कि सरकारों को अपने लोगों की पर्याप्त चिंता नहीं है। जनता के स्वास्थ्य की कीमत पर भी रूपए-पैसे का कोई धंधा चमक रहा हो, तो सरकार उसे रोकने की बजाय बढ़ावा ही देती है!
देश के असंख्य भोले-भाले लोग इस बात से अत्यंत प्रसन्न हैं कि उनके हाथ में मोबाइल सेट आ गया है, अब वे कहीं से भी किसी से भी बात कर सकते हैं, लेकिन ये लोग नहीं जानते कि मोबाइल हैंडसेड से एक ऎसी इलैक्ट्रो मैग्नेटिक ऊर्जा निकलती है, जो स्वास्थ्य को बहुत नुकसान पहुंचाती है। सरकार ने स्वयं यह इंतजाम किया है कि किसी मोबाइल के विज्ञापन में बच्चे या गर्भवती महिला को नहीं दिखाया जा सकता, लेकिन सरकार को मोबाइल फोन सेवा से लोगों की सुरक्षा के लिए बहुत कुछ करना चाहिए। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि मोबाइल के मसले पर गठित अंतर्मत्रालयी समिति की ज्यादातर अच्छी अनुशंसाओं को सरकार ने नकार दिया है। कुल मिलाकर पिछले दिनों बहुत चिंताजनक संकेत उभरे हैं, कंपनियां मोबाइल टावर लगाने की आजादी में खलल नहीं चाहतीं, वे मोबाइल सेवा को सुरक्षित नहीं बनाना चाहतीं। वे न्यूनतम लागत-अघिकतम मुनाफे के पीछे भाग रही हैं, सुरक्षित तकनीक पर खर्च करना नहीं चाहतीं। ऎसी स्थिति में लोगों को ही संभलना होगा। सरकार ने भी कहा है कि फोन पर बातचीत की बजाय वह एसएमएस करने को बढ़ावा देगी, लेकिन क्या इस कदम से सरकार का कत्तüव्य पूरा हो जाता है? पूरी कीमत चुकाकर भी जब सही व सुरक्षित फोन सेवा नहीं मिल रही है, तो क्या इसके लिए भी लोगों को आंदोलन करना पड़ेगा?


As editorial in rajasthan patrika today, written by me. 26-12-2011

Sunday, 25 December 2011

आज कैसे हैं अटल बिहारी वाजपेयी



अटल बिहारी वाजपेयी के जन्मदिन पर संडे जैकेट तैयार करते हुए एक जिज्ञासा थी कि आज अटल जी कैसे हैं? तो पहले जाने-माने पत्रकार रामबहादुर राय बात हुई और उसके बाद अटल जी के प्रेस सलाहकार रह चुके श्री अशोक टंडन जी से बात हुई। जो जानकारियां मिली हैं, पेश हैं।
- अटल बिहारी वाजपेयी दिल्ली स्थिति अपने सरकारी मकान में रहते हैं। कहीं आते-जाते नहीं हैं। खासकर वर्ष २००९ के आखिर में लकवे के आघात के कारण उनका ज्यादातर समय बिस्तर पर आराम करते बीतता है। उनकी स्थिति में सुधार हुआ है, लेकिन वे काफी कमजोर हो गए हैं। दिन में दो बार उन्हें ब्हील चेयर पर बैठाकर घुमाया जाता है। उनके परिजन व सेवक उनकी सेवा में लगे रहते हैं।
- स्मरण शक्ति कमजोर हो गई है। कोई मिलने आता है, तो अक्सर उन्हें याद दिलाना पड़ता है। करीबियों को अच्छी तरह पहचानते हैं। डॉक्टरों की सलाह भी है कि उन्हें कम ही लोगों व करीबियों से मिलने दिया जाए। उन्हें आज भी पत्र आते हैं, जिसका जवाब उनसे पूछकर उनके सचिव देते हैं। पिछले दिनों उनकी स्मरण शक्ति में कुछ सुधार हुआ है। आज जन्मदिन पर भी कुछ ही लोग उनसे मिल सकेंगे।
- सुनाई भी कुछ कम देता है और आवाज भी भर्राती है। एक वाक्य पूरा बोलने में जोर आता है। कभी हंसी-ठट्ठा और भाषण के शौकीन रहे अटल जी के आसपास शांति पसरी रहती है। वे किताब या अखबार नहीं पढ़ते, केवल टीवी देख लेते हैं। डॉक्टरों की सलाह से रूटीन का जीवन है। संयोग की बात है कि इन दिनों अटल जी के सहयोगी रहे पूर्व रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडिस की भी लगभग ऐसी ही स्थिति है।
- पूर्व सांसद और पूर्व प्रधानमंत्री होने के नाते उन्हें पेंशन मिलती है, जिससे उनका काम चलता है। पद के जोर पर धन-वैभव अर्जित करने के प्रमाण कहीं आस-पास भी नजर नहीं आते हैं।

Monday, 19 December 2011

वाइ दिस कोलावेरी?

जो गीत नई धुन में हमें रुलाते हैं, दिल को झकझोरते हैं, उस पर मरहम लगाते हैं, वो हमें कुछ देर तक झुमाने में कामयाब हो जाते हैं। दक्षिण के गायक धनुष के कोलावेरी गीत के साथ भी ऐसा ही हुआ। हमारी दुनिया में देवदासपना हमेशा से पसंद किया गया है। यह बात केवल भारत की नहीं है, दुनिया में हर कहीं कोलावेरी या ‘किलर रेज’ या मरने या मारने पर उतारू भावना वाले गीत पसंद किए जाते रहे हैं। यह कहा जा रहा है कि दक्षिण और उत्तर भारत को इस कोलावेरी गीत ने अपनी तरह से एक कर दिया है, लेकिन वास्तव में इतना कह देना ही पर्याप्त नहीं होगा। अक्सर हिंगलिश को लेकर शिकायत होती है, जबकि यह कोलावेरी गीत तमिलिश में है। यानी तमिल के भी शब्द हैं और इंगलिश के भी। यह एक तरह से देवदासपने का एक मोबाइल संस्करण है। भानुमती के कुनबे की तरह यहां केवल भावनाएं ही नहीं मिलतीं, शब्द भी मिलते हैं, अलग-अलग जगह से आकर धुनें भी मिलती हैं, इसमें नई तकनीक लगती है, यू ट्यूब लगता है और गीत देखते-देखते पूरी दुनिया में किसी संक्रमण की तरह फैल जाता है। तो क्या ऐसा पहली बार हुआ है? नहीं ऐसा पहली बार नहीं हुआ है, हां यह जरूर पहली बार हुआ है कि देवदासपने को इलेक्ट्रॉनिक संचार माध्यमों का साथ मिला है, इंटरनेटीय सोशल मीडिया माध्यमों का साथ मिला है। पहले गीतों को सुनने के स्रोत कम हुआ करते थे।
जब ग्रामोफोन का जमाना था, थोड़ा-बहुत रेडियो भी सुना जाने लगा था, देश आजाद भी नहीं हुआ था, १९४६ में के. एल. सहगल ने एक गीत गाया था, ‘जब दिल ही टूट गया, तो जीके क्या करेंगे . . . वह गीत उस जमाने में सुपर हिट हुआ था। साधन सीमित थे, लेकिन जिसे भी जहां भी मिला था, उसने सहगल के गीत को सुना था। जमाना बदल गया, आज गाने की वह शैली युवाओं में हंसी का मुद्दा भी बन जाती है। लेकिन के.एल. सहगल ने जब दिल ही टूट गया, गाया था, तब लोगों को वाकई महसूस हुआ था कि हां कोई दिल टूटा है, जबकि वह जमाना ऐसा था कि देश को आजादी मिलने ही वाली थी। इस गाने में ऐसा देवदासपना था कि जिसने सभी को छू लिया था। सहगल या सैगल को इस गीत के लिए हमेशा याद किया जाएगा। हां, हो सकता है, देश विभाजन के दर्द ने भी इस गीत को लोकप्रिय बनाया हो।
त्रासदी की भावना वाले सैड सांग तो बहुत बने, लेकिन शूप सांग अर्थात टूटे दिल का गीत या प्यार में विफलता का कोलावेरी जैसा गीत जब भी आया है, दुनिया ने उसे दिल से लगाया है। कई बार तो ऐसा लगता है कि दुनिया को ऐसे गीतों का इंतजार रहता है। १९६० में जब मुगल-ए-आजम आई थी, तबमुहब्बत की झूठी कहानी पे रोए, गाने ने झकझोर कर रख दिया था। जहां एक ओर ‘जब प्यार किया, तो डरना क्या’ गीत था, वहीं दूसरी ओर, ‘मुहब्बत की झूठी कहानी पे रोए’ गाने ने न जाने कितने दिलों को सुकून दिया। इस गाने पर अनेक पैरोडियां बनीं। १९६९ में मुकेश का एक गाना ‘चांदी की दीवार न तोड़ी, प्यार भरा दिल तोड़ दिया, एक धनवान की बेटी ने निर्धन का दामन छोड़ दिया’ आया, इस गीत में अमीरी गरीबी का फासला था, फिर भी इसे खूब पसंद किया गया, वह इंदिरा गांधी का गरीबी हटाओ का दौर था। १९७० में हीर रांझा का गीत ‘ये दुनिया ये महफिल मेरे काम की नहीं,’ गली-गली में गूंजा। रफी की आवाज ने दीवाना बना दिया था। उसके बाद जिस गीत ने युवाओं को बहुत प्रभावित किया, वह था १९७७ में आया ‘क्या हुआ तेरा वादा’। इसने रिकॉर्ड तोड़ दिए। यह गीत आज भी टूटे दिल आशिकों को सहारा बनता है।
१९८० के दशक में भी कई गीत आए, लेकिन १९९० में खासकर पाकिस्तान से एक आवाज आई, जिसने सरहद को भुला दिया। पाकिस्तानी गायक अताउल्लाह खान ने गाया, ‘अच्छा सिला दिया तुने मेरे प्यार का, यार ने ही लूट लिया घर यार का।’ यह एक ऐसी आवाज थी, जो कोलावेरी जैसे कम से कम तीन-चार गानों को साथ लेकर थोक में आई थी। ‘इधर जिंदगी का जनाजा उठेगा, उधर जिंदगी उनकी दुल्हन बनेगी।’ और ‘इश्क में हम तुम्हें क्या बताएं, किस कदर चोट खाए हुए हैं।’ वह इंटरनेट का जमाना नहीं था, लोग वीसीपी और वीसीआर से फिल्में देखते थे, मोबाइल की तो कल्पना ही नहीं थी। अताउल्लाह खान साहब खूब सुने गए, टूटे दिलों का सहारा बने। उनके गाए गीतों को सोनू निगम, मुहम्मद अजीज, अनुराधा पौडवाल, उदित नारायण और न जाने कितने भारतीय गायकों ने गाया। १९९४ में गुलशन कुमार ने अपने छोटे भाई साहब किशन कुमार को लेकर फिल्म भी बना डाली बेवफा सनम। उस दौर अताउल्लाह खान के बारे में कई तरह की अफवाह भी उड़ी थीं कि उन्हें उनकी प्रेमिका ने धोखा दे दिया है, प्रेमिका को मारकर वह जेल में हैं, फांसी का इंतजार कर रहे हैं और इसी इंतजार के दौरान उनके दिल से ये गीत फूटे हैं। अफवाहें आज भी फैलती हैं, लेकिन उनका निदान भी जल्दी हो जाता है, लेकिन पहले तो कानों-कान ही अफवाह फैलती थी और निदान होने में महीनों लग जाते थे। अखबार इत्यादि भी फिल्मों और गीत-संगीत में कोई खास रुचि नहीं लेते थे, पेज-३ का तो सपना भी नहीं देखा गया था। बहरहाल, अताउल्लाह खान आज भी जीवित हैं और पाकिस्तान के पंजाब प्रांत में बहुत सम्मान के साथ रह रहे हैं।
अताउल्लाह खान की जो लोकप्रियता है, धनुष उसके आधे पर भी नहीं हैं। चमके तो अल्ताफ रजा भी थे, जिन्होंने गाया था, ‘तुम तो ठहरे परदेसी साथ क्या निभाओगे’, लगता था, टूटे दिलों को आवाज मिल गई। हर तरफ अल्ताफ छा गए थे। रेडियो से टीवी और फिर सिनेमा के बड़े परदे पर भी वे परदेसी के जलवे बिखेरने लगे थे।
बहरहाल, अच्छा सिला और कोलावेरी में काफी फर्क है। कोलावेरी में कहानी तो है, लेकिन टुकड़ों में, टूटते भाव व अल्फाज में। जबकि अच्छा सिला में पूरी कहानी है। ऐसी कहानी कि जिस पर फिल्म बन गई थी।
तो देवदासपने के गाने पहले भी बनते थे, लेकिन कहना न होगा, उन्हें जन-जन का इलेक्ट्रॉनिक साथ नहीं मिलता था।
कोलावेरी के अनेक संस्करण बने हैं, लेकिन उसकी असली ख्याति की परीक्षा छह महीने बाद होगी, अगर यह गीत लोगों की जुबान पर टिक गया, अंताक्षरियों में शामिल हो गया, तो वाकई उसका लोहा मान लेना होगा। यह देखने वाली बात होगी कि यह ‘किलर रेज’ टिकती कितनी है।

Wednesday, 7 December 2011

माननीय, अब माफ कर दीजिए

जरूरी नहीं है कि माननीय लोग जो भी टिप्पणी करें, वह माननीय ही हो। न्यायमूर्ति महोदय ने जब पहले डंडा भांजा था, तब मुझे वाकई खुशी हुई थी कि चलो प्रेस परिषद में अब रौनक हो जाएगी, लेकिन न्यायमूर्ति महोदय शायद यह भूल रहे हैं कि बार-बार एक ही डंडा भांजने वाले ग्वालों से भैंसें भी नहीं डरा करतीं।
विदर्भ में किसानों की आत्महत्या से ८८ वर्षीय देव आनंद की मौत की तुलना कदापि माननीय नहीं हो सकती। मौका एक ऐसे फिल्म वाले की मौत का था, जो दुर्लभ किस्म का था। एक ऐसा कलाकार जो अपने समय के समाज को अच्छी तरह समझता था। जिस दिन देव आनंद साहब का निधन हुआ, उस दिन प्रयाग शुक्ल जी मुझे बता रहे थे कि देव आनंद हिन्दी के बड़े कवि अज्ञेय जी से मिलने उनके कार्यालय आए थे। हिन्दी समाज में जो भी अज्ञेय जी से मिल चुका है, वह जानता है कि अज्ञेय से मिलना कितना मुश्किल और जटिल था। देव आनंद और उनके भाइयों के साहित्यिक
सरोकार किसी से छिपे नहीं थे। आर.के. लक्ष्मण के उपन्यास गाइड पर फिल्म बनाने का जोखिम उठाना कोई मामूली बात नहीं है। देव आनंद समाज से बहुत अच्छी तरह से जुड़े हुए थे, आपातकाल के विरोध में जिन बड़े अभिनेताओं ने आवाज उठाई, उसमें देव आनंद सबसे आगे थे। उन्होंने तो राजनीतिक पार्टी तक बना डाली। उनका जीवन अपने आप में एक सबक है। उनसे कम से कम दस गुण तो भारतीय समाज सीख ही सता है।
ऐसे देव आनंद के निधन का
समाचार अगर कोई पत्रकार पहले पृष्ठ पर नहीं छापेगा, तो बिलकुल यह माना जाना चाहिए कि उसने पत्रकारिता का ककहरा ठी से नहीं पढ़ा है।
न्यायमूर्ति साहब के साथ शायद यह दिक्कत है कि वे हिन्दी के अखबार नहीं पढ़ते हैं, अंग्रेजी वालों की चम
-दम में रहते हैं। हिन्दी अखबारों ने तो भारतीय सामाजि और आर्थि मुद्दों पर इतना छापा है कि समेटने की हिम्मत कोई नहीं कर सता। बार-बार यह हना कि पत्रकारों को प्राथमिता का ध्यान नहीं है, एक बेहद हल्की टिप्पणी है और उन लोगों का अपमान भी है, जो गंभीरता से पत्रकारिता कर रहे हैं। पत्रकारिता ने कभी न्यायमूर्ति का अपमान नहीं किया होगा, क्योंकि हमारे कानूनों ने भी न्यायमूर्तियों को ‘पवित्र गाय’ मान रखा है। किन्तु माफ कीजिएगा, न्यायमूर्ति जी, पत्रकारिता या पत्रकारों के संरक्षण के लिए अलग से कोई कानून नहीं है, इसलिए पत्रकारिता और पत्रकारों की धज्जियां सरेआम उड़ाई जाती हैं। जिसका मन करता है, वही प्राथमिकता और पेज थ्री के नाम पर पत्रकारिता और पत्रकारों को उपदेश सुना जाता है।
उपदेश देना बहुत आसान है। मैं जानना चाहूंगा कि अच्छे पत्रकारों और अच्छी पत्रकारिता के संरक्षण के लिए न्यायमूर्ति महोदय ने आज तक क्या किया है? उस दिन देव आनंद के निधन के समाचार के अलावा भी सामाजिक और आर्थि
सरोकार के समाचार व विचार अखबारों में प्रकाशित हुए थे, लेकिन लगता है न्यायमूर्ति महोदय देव आनंद को ही देखते रहे। मुझे लगता है, वे भी एक डंडा लेकर साधारणीकरण में जुटे हैं। वे चाहते हैं कि तमाम तरह के पत्रकारों को हांक कर एक ही तबेले में पहुंचा दें, जो कि संभव नहीं है। अभिव्यक्ति की आजादी का लक्ष्य कोई एक तबेला नहीं है। अभिव्यक्ति की आजादी का मतलब ही यह है कि सबकी अपनी-अपनी अभिव्यक्ति होगी और सब जरूरी नहीं हैं कि एक ही तबेले या एक ही मंजिल पर पहुंचना चाहें। न्यायमूर्ति महोदय को ऐसी साधारण वैचारिकी से बचना चाहिए। उन्होंने बड़े मुंह से छोटी बात कही है, जो शोभा नहीं देती। साधारणीकरण या जेनरलाइज करके वे वही काम कर रहे हैं, जो अधिसंख्य पत्रकारों ने किया है, हर बात को जेनरलाइज करके देखना। समाचार-विचार को साधारण और अशिक्षित व आम लोगों के अनुकुल बनाते-बनाते पत्रकारिता ने अपना भाषाई और वैचारिक स्तर गिरा लिया है, यह गिरा हुआ स्तर अचानक से ऊपर नहीं आएगा।
आपकी प्राथमिकता देव आनंद की मौत का समाचार नहीं है, तो कोई बात नहीं, करोड़ों दूसरे लोग भी हैं, जो देव आनंद को पढऩा और याद करना चाहते हैं। न्यायमूर्ति महोदय अगर यह सोच रहे हैं कि विदर्भ के किसानों की आत्महत्या ही रोज प्रथम पृष्ठ पर छाई रहे, तो यह अन्याय है। अदालतों में हर तरह के मुद्दे आते हैं, क्या अदालतों ने कभी प्राथमिकता तय की है? क्या अदालतों ने कभी यह कहा है कि देखिए, पहले सारे हत्या के प्रकरणों को हम प्राथमिकता के आधार पर निपटाएंगे और चोरी के मामले को बाद में देखा जाएगा। कोई भी न्यायमूर्ति यह नहीं कहता कि छेड़छाड़ की तो सुनवाई ही भूल जाइए, पहले हत्या का मुकदमा निपटाया जाएगा। अदालतों ने कभी नहीं कहा कि पहले हम गरीबों के शोषण से निपट लेते हैं और बाद में अमीरों के आपसी झगड़े निपटाएंगे।
लगता है, न्यायमूर्ति महोदय किसी दूसरी दुनिया से आए हैं। अगर विदर्भ में किसान आत्महत्या कर रहे हैं, तो क्या इसके लिए मीडिया दोषी है? न्यायमूर्ति महोदय किसानों की मौत के लिए उस सरकार को क्यों नहीं रोज सुबह उठकर गरियाते हैं, जिसने उन्हें नियुक्त किया है? किसान आत्महत्या कर रहे हैं, तो इसके लिए सरकारें दोषी हैं? यह काम या यह नाकामी सरकार की है, उसे कोसा जाना चाहिए। यहां मीडिया को कोसने का तो कोई मतलब ही नहीं है। मीडिया पहले कालाहांडी के लिए खूब कागद कारे कर चुका है और विदर्भ के लिए भी कर रहा है।
माफ कीजिएगा, मीडिया के लिए जन्म और मृत्यु, दोनों ही समाचार हैं। शहर में मौतें होती रहती हैं, लेकिन उनकी वजह से शादियां नहीं रुकतीं, शादियों में नाच-गाना नहीं रुकता। शायद न्यायमूर्ति जी इस बात को भूल गए हैं।
न्यायमूर्ति महोदय को गरीबों की चिंता का शानदार शहर बसाने से पहले एक बार सरकार से भी पूछ लेना चाहिए कि सरकार क्या चाहती है। सरकार तो विलास ही पसंद करेगी, क्योंकि जो सरकारें अपनी जनता को खुश नहीं कर पाती हैं, वे देश में विलास को ही बढ़ावा देती हैं। वे चाहती हैं कि लोग मनोरंजन में उलझे रहें, सरकारी विफलता व भ्रष्टाचार की बात न करें। माननीय की इच्छा व प्रयासों के अनुरूप सामाजिक-आर्थिक प्राथमिकता जब पूरी तरह से छा जाएंगी, तो सबसे ज्यादा तकलीफ सरकारों को ही होगी, मीडिया तो हमेशा की तरह आलोचना झेल लेगा, लेकिन क्या न्यायमूर्ति महोदय झेल पाएंगे?

Sunday, 4 December 2011

राजेन्द्र प्रसाद की याद

४ दिसम्बर देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद की जयंती थी, लेकिन सरकार ने उनकी याद में एक सेंटीमीटर विज्ञापन भी नहीं जारी किया, आपने अगर उनके नाम का विज्ञापन देखा हो, तो बताइएगा। वैसे यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है। मनमोहन सिंह की ‘राजा’ टीम राजेन्द्र बाबू को भूल चुकी है। राहुल गांधी का तो राजेन्द्र बाबू से सम्बंधित सवालों के जरिये मुश्किल भरा टेस्ट लिया जा सकता है। राजेन्द्र बाबू परीक्षाओं में हमेशा टॉप करते थे, उनको देश का संविधान पूरा याद था, वे इतने तेज थे कि दस साल पहले किसी कागज पर देखा गया कोई नम्बर तक उन्हें याद रहता था। ऐसे राजेन्द्र बाबू को भुला देने से किसी बाबू-अधिकारी का कुछ नहीं बिगड़ता। आज के सांसद तो संसद में बिना काम के भी पूरे पैसे लेते हैं, जबकि राजेन्द्र बाबू अपना पूरा वेतन भी नहीं लेते थे। वे उतना ही पैसा लेते थे, जितने में उनका काम चल जाए। हालांकि आज के नेताओं से पूछा जाए कि बताइए कितना वेतन चाहिए, तो नेता बोलेंगे कि आप जितना भी वेतन दे सकें, हमारे लिए कम पड़ेंगे।
राजेन्द्र बाबू का मानना था कि हमारी स्वतंत्रता तभी बचेगी, जब हम अपनी जरूरतों को सीमित करेंगे। लेकिन आज तो होड़ जरूरतों को बढ़ाते-फैलाते जाने की है। बस अपनी स्वतंत्रता बची रहे, उसके लिए दूसरों को परतंत्र बनाए रखने की चेष्टा हमेशा होती है।
मनमोहन सिंह की सरकार ने मान लिया है कि बुरे दौर में अच्छे लोगों के विज्ञापनों की जरूरत नहीं है। अच्छे लोगों की फोटुएं भी दीवारों से उतरती चली जाएंगी। अच्छे लोगों की मूर्तियां टूट जाएंगी, तो फिर नई नहीं बनेंगी, उनकी जगह बुरे लोगों की मूर्तियां ले लेंगी। भूल जाइए कि राजेन्द्र बाबू जैसा ईमानदार व्यक्ति इस देश का १२ साल तक राष्ट्रपति रहा और तीसरी बार भी बन जाता, लेकिन स्वयं इनकार कर दिया। लोग कहते हैं, देश में दो ही राष्ट्रपति टक्कर के हुए हैं, एक राजेन्द्र बाबू और दूसरे एपीजे अब्दुल कलाम। ईमानदार मनमोहन सिंह की सरकार ने कलाम को दूसरी बार राष्ट्रपति नहीं बनने दिया, एक बार राष्ट्रपति रहकर ही कलाम राजेन्द्र बाबू के स्तर को छू गए। आज राजेन्द्र बाबू के विज्ञापन नहीं छप रहे हैं, आज से चालीस-पचास साल बाद शायद कलाम के भी विज्ञापन नहीं छपेंगे। अभी भी नहीं छपते हैं। कोई कांग्रेसी कलाम का नाम नहीं लेता, क्योंकि वे कांग्रेस के आदमी नहीं हैं, लेकिन राजेन्द्र प्रसाद तो कांग्रेस के सिपाही थे, उनका नाम क्यों नहीं लिया जाता? यह सवाल कांग्रेस नेताओं से पूछा जाना चाहिए।
राजेन्द्र बाबू को बिहार में भी बहुत याद नहीं किया जाता, उन पर आरोप लगते हैं कि उन्होंने बिहार के लिए कुछ नहीं किया, पूरे देश को अपना मानते रहे, लेकिन देखिए, राजेन्द्र बाबू न अपने बिहार के रहे और न देश के, देश उन्हें भूल चुका है और बिहार के पास उन्हें याद करने के बहाने नहीं हैं। जीरादेई और पटना में उन्हें याद करने की कहीं-कहीं रस्में भर बची हैं। राजेन्द्र बाबू बचे हैं, तो बस सामान्य ज्ञान की किताबों में, क्योंकि वहां से उन्हें कोई सरकार चाहकर भी नहीं हटा सकती।