Thursday, 27 October 2011
उठती उंगलियों को तोड़ती सत्ता
Tuesday, 11 October 2011
जेपी के जन्मदिन पर कुछ भावुक नोट्स
इंदिरा गांधी के अलावा जयप्रकाश नारायण मास लीडर हुए, इसमें कोई शक नहीं है। देश की दिशा को बदल दिया, कई लोग कहेंगे कि उनकी सम्पूर्ण क्रांति तो युवाओं का संघर्ष थी, लेकिन जयप्रकाश नारायण के प्रतीक हुए बिना या छत्रछाया के बिना वह आंदोलन उस तरह से संभव नहीं था, जिस तरह से वह संभव हुआ। जयप्रकाश नारायण ने राजनीति की पूरी दिशा बदल दी।
उसके बाद जिस नेता का मैं नाम लूंगा, उस पर विवाद हो सकता है, लेकिन यह नाम लालकृष्ण आडवाणी का है, जिन्होंने प्रगतिशील भारत में हिन्दू नवजागरण का बिगुल बजाया। भारत की न केवल दिशा बदल गई, बल्कि भारतीय समाज की दशा बदल गई। आडवाणी ने जो राजनीतिक आंदोलन चलाया, उसी पर अटल बिहारी वाजपेयी खड़े हुए। वाजपेयी जी बड़े लोकप्रिय व स्वीकार्य नेता थे, लेकिन आडवाणी अगर न होते, तो वाजपेयी प्रधानमंत्री तो कदापि नहीं बन पाते। हम इसे यों भी कह सकते हैं कि सत्ता तो आडवाणी ने हासिल की थी, और सत्ता के लिए समझौते अटल जी ने किये। या यों भी कह सकते हैं कि सत्ता तो आडवाणी के नेतृत्व में हासिल की गयी और समझौते अटल जी के नेतृत्व में किये गए. हालांकि एक सच यह भी है कि आडवाणी की रथयात्रा के पीछे गोविंदाचार्य और प्रमोद महाजन का दिमाग काम कर रहा था। यह सच है, रथ यात्रा लेकर आडवाणी ही निकले थे, राम मंदिर आंदोलन को उन्होंने ही चरम पर पहुंचाया था और १९९६ में जब सरकार बनाने का मौका मिला, तो उन्होंने अटल जी का नाम प्रस्तावित कर दिया।
पंडित नेहरू ने नींव रखी। इंदिरा गांधी ने देश की दिशा को बदला, जयप्रकाश ने भी देश को बदला और आडवाणी ने भी देश में एक रास्ता तैयार किया, हां, उस रास्ते की निंदा हो सकती है, होती ही रही है। इस बीच अनेक नेता भारत में हुए, गांधी जी तो राम मनोहर लोहिया को भविष्य का नेता मानते थे, और यह मानते थे कि उनकी विरासत को लोहिया ही संभालेंगे, लेकिन लोहिया मास लीडर नहीं बने, जयप्रकाश बन गए।
वैसे अब आडवाणी भी बूढ़े हो गए हैं। बीस साल पहले जो बात उनमें थी, वह तो अब वे चाहकर भी नहीं पैदा कर सकते। तब के आडवाणी और आज के आडवाणी में काफी फर्क है। मुझे याद है, १९९० की रथ यात्रा और जय श्रीराम के नारे। राउरकेला में ही बिलकुल मेरे सामने से गुजरा था आडवाणी का रथ, खूब भीड़ थी, जय श्रीराम का बड़ा जोर था, आडवाणी ने नमस्कार किया, हाथ हिलाया, जब जय श्रीराम का नारा जोर से लगा, तो मुझे याद है, मेरे हाथ भी आसमान की ओर उठ गए थे, मुझे लगा था कि जय श्रीराम का नारा लगा लेने में कोई बुराई नहीं है। आज जब समीक्षा करता हूं वह आंदोलन किसलिए था, क्यों था, उससे क्या मिला, तो दुख होता है, अपने देश की राजनीति और लोगों की समझ पर भी थोड़ा तरस आता है।
मैंने रामबहादुर राय जी से कहा कि मुझे याद नहीं आता कि भाजपा ने सत्ता में रहते हुए जेपी को याद किया हो, या भाजपा के मंच पर जेपी की तस्वीरें लगी हों, तो फिर अचानक आडवाणी जी को जेपी के गांव सिताब दियारा से रथयात्रा की क्यों सूझी, यह तो जेपी का दुरुपयोग है? राय साहब की यादें ताजा हो गईं। उन्होंने बताया, हां, बिल्कुल सही है, भाजपा ने सत्ता में रहते हुए जेपी को भुला दिया था। आडवाणी उप प्रधानमंत्री थे, २००२ जेपी का जन्मशती वर्ष था, हम लोगों को उम्मीद थी कि जेपी की जन्मशती ठीक उसी तरह से मनाई जाएगी, जैसे काग्रेस ने महात्मा गांधी की मनाई थी, लेकिन राजग सरकार का मन साफ नहीं था। मेनका गांधी को जन्मशती मनाने की योजना बनाने वाली समिति का अध्यक्ष बना दिया गया। कहना न होगा, मेनका गांधी की आपातकाल के दौरान क्या भूमिका थी, वह किस के पक्ष में थी । जेपी तो आपातकल के खिलाफ थे, लेकिन जो आपातकाल के साथ थीं, उन्हें ही जेपी जन्मशती आयोजन के लिए बनी समिति का अध्यक्ष बना दिया गया? क्या आडवाणी इस बात को नहीं जानते थे?
जाहिर है, राजग को जेपी को याद करने की औपचारिकता का निर्वहन करना था, जो उसने बखूबी किया। आडवाणी पता नहीं किस मुंह से सिताब दियारा से रथयात्रा शुरू कर रहे हैं? जेपी का गांव जब पूछेगा कि बताओ, तुम २००२ में कहां थे, तब आडवाणी क्या जवाब देंगे? भला हो, चंद्रशेखर जेपी को याद कर लिया गया। वरना सरकारों के भरोसे अगर रहते, तो शायद जेपी का गांव गंगा-सरयू की धार में बह गया होता।
कभी-कभी बहुत दुख होता है? राजनीति इतनी गिरी हुई, निकम्मी और मौकापरस्त कैसे हो गई?
कुछ दोष राममनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण जैसे लोगों का भी है। लोहिया गांधी जो को बहुत प्रिय थे, जयप्रकाश तो गांधी जी आर्थिक, सामाजिक, पारिवारिक हर तरह की मदद लेने की स्थिति में थे। लोहिया और जेपी के पास जो ऊर्जा थी, वह आज कहां है, समाज में दिखती क्यों नहीं? किताबों, भाषणों और यादों में लगातार बेवजह टहल रही है उनकी ऊर्जा। लोहिया नहीं होंगे, जेपी नहीं होंगे, तो जाहिर है, आडवाणियों की रथयात्रा निकलेगी, राजाओं-कलमाडियों की रैली निकलेगी। अन्ना जैसी जनता आकर बताएगी कि सच्ची राजनीति क्या होती है. धूर्त, चापलूस, शिथिल मंत्रियों और जरूरत से ज्यादा समय गंवाने वाले प्रधानमंत्री क्यों हैं?
इसका एक बड़ा कारण है, न तो लोहिया राजनीति में पांव जमा सके और न जेपी ने आगे आकर मोर्चा संभाला। जेपी को तो पहली केंद्र सरकार में मंत्री बनने का प्रस्ताव खुद पंडित नेहरू ने दिया था, जेपी ने २५ शर्तें थोपकर नेहरू को निराश कर दिया। जेपी को मौके कई मिले, लेकिन पीछे हट गए, पीछे हटने का एक कारण उनका समाजवादी खेमा भी रहा, जिसमे अगर पांच नेता होते, तो पांच तरह की आवाजें भी आती थीं। विचार से भारी-भरकम और संभावनाशील नेताओं ने एक दूसरे को काटते-काटते इतना हल्का बना लिया कि सत्ता का मैदान हल्के लोगों की भीड़ से बोझिल होने लगा। फिर भी जेपी के नाम से एक आंदोलन है, लेकिन लोहिया के नाम से तो वह भी नहीं है?
सिताब दियारा से आडवाणी का रथ जब निकलेगा, तो क्या जेपी की आत्मा खुश होगी, यह सवाल पूछना ही चाहिए। हममें यह कमी है कि हम पूछकर चुप हो जाते हैं, जबकि पूछना सतत प्रक्रिया है, जो जारी रहनी चाहिए। रथ लेकर निकले हर रथी से पूछना चाहिए कि बताओ, ध्वंस करोगे या निर्माण?
तेलंगाना का शीघ्र हो समाधान
आंध्र के अनेक नेता दिल्ली में हैं, केन्द्रीय नेताओं व मंत्रियों से उनकी मुलाकात हो रही है, लेकिन कोई यह नहीं बता रहा कि बातचीत किस दिशा में जा रही है। आंदोलन कर रहे लोगों का संयम जवाब देने लगा है। 12, 13, 14 अक्टूबर को रेल रोकने का ऎलान हो गया है। आंध्र में अगर रेलों को रोका गया, तो दक्षिण भारत व उत्तर भारत के बीच रेल संपर्क काफी हद तक बाघित हो जाएगा।
इससे जो स्थितियां बनेंगी, शायद सरकार को उनका पूरा आभास नहीं है।
जिम्मेदार नेता अभी भी तेलंगाना मामले के राजनीतिक समाधान के मूड में हैं। अतीत की तरह तेलंगाना के कितने नेताओं को मंत्री बनाया जाएगा? तेलंगाना के मसले पर अब राजनीति रूकनी ही चाहिए। जो प्रदेश कभी तेजी से आगे बढ़ रहा था, जिस हैदराबाद का पूरी दुनिया में नाम है, उस शहर के नाम पर बट्टा लग रहा है। आंदोलन की वजह से जो नुकसान हुआ है या जो नुकसान आने वाले दिनों में सरकारें होने देना चाहती हैं, उनकी भरपाई कैसे होगी? प्रधानमंत्री तेलंगाना मसले को सुलझाने के लिए कुछ समय चाहते हैं, लेकिन उन्होंने यह नहीं बताया कि कितना समय? लोग भूले नहीं हैं, यह वही केन्द्र सरकार है, जिसने तेलंगाना गठन का मन बना लिया था और घोषणा भी कर दी गई थी, लेकिन पांव पीछे खींच लिए गए और राजनीति शुरू हो गई। बहुत दुख की बात है, अपने देश को दिनों-दिनों तक चलने वाले आंदोलनों का रोग-सा लग गया है।
आंदोलन गुर्जरों का हो, अन्ना या तेलंगाना का, जब तक पानी सिर के ऊपर से नहीं बहता, सरकारों के साये में कोरी बातचीत की राजनीति चलती रहती है। केन्द्र सरकार को ध्यान रखना चाहिए समस्याओं को सिर्फ संवाद में उलझाने पर समस्याएं बढ़ती हैं, घटती नहीं। सरकार और वोटों के शौकीन राजनेता क्या यह बता पाएंगे कि तेलंगाना के उन बच्चों का क्या दोष है, जो स्कूल नहीं जा पा रहे हैं? उन तेलंगानावासियों का क्या दोष है, जिन्हें दशकों से तेलंगाना का सपना दिखाया गया है? जब नए राज्य गठन के विगत अनुभव अच्छे रहे हैं, तो फिर तेलंगाना पर राज्य व देश का साधन व समय खराब नहीं करना चाहिए। समाधान जल्द होना चाहिए।
मेरे द्वारा लिखा गया एक सम्पादकीय