Friday 12 June, 2009

ये किसकी बदबू है?

कोई शक नहीं, पिछड़े हुओं को हर कोई लतियाता है। मिसाल के लिए बिहार आने-जाने वाली ट्रेनों को देख लीजिए। या तो पूरी ट्रेन फटीचर होगी या फिर एक-दो ऐसी बॉगी जोड़ दी जाएगी कि उसमें सवार लोग पछताते-रोते-गरियाते मजबूरन सफर तय करेंगे। सहरसा-अमृतसर जनसेवा एक्सप्रेस को तो देखने की भी जरूरत नहीं है, केवल सूंघ लीजिए, तो उल्टी के आसार बन आते हैं। सीवान स्टेशन पर दूसरी बार जनसेवा एक्सप्रेस से सामना हुआ, तो देख- सूंघकर मन घबराने लगा। ऐसा लगा मानो, घोड़े की लीद से भरी ट्रेन प्लेटफार्म पर आ लगी हो। ट्रेन में बनियान या नंगे बदन ठसाठस भरे लगभग एक रंग के बिहारी मजदूरों की आंखें ट्रेन के अंदर पसरे अंधेरे में चमक रही थीं। एक अजीब तरह की निष्ठुरता- निर्लिप्तता का भाव उनकी आंखों में तारी था। शायद वे अगर निष्ठुर न हों, तो भूखों मारे जाएं। बॉगियों में शौचालय तो थे, लेकिन वहां भी उनकी खिड़कियों से मजदूर सांस ले रहे थे। ट्रेन में जो जहां था, बस वहीं रुका हुआ था। एक पर एक। मजदूरों ने ऊपर सीटों के बीचों बीच गमछियां-धोतियां बांधकर भी बर्थ बना रखे थे। बाहुबली सहाबुद्दीन की वजह से कुख्यात सीवान में सात घंटे लेट से आ रही दिल्ली जाने वाली लिच्छवी एक्सप्रेस का इंतजार करते हुए जनसेवा एक्सप्रेस को देखते मुझे मानवता पर भी संदेह हुआ।
वो कौन-सी परिस्थितियां हैं, जो मानव को पशु समान जीने को मजबूर कर रही हैं? सहरसा, सुपौल, मधेपुरा और बिहार के अन्य बेहद पिछड़े इलाकों में किन कमीनों ने विकास के पहियों को जाम कर रखा है? अव्वल तो इस ट्रेन का नाम ही अपने आप में मजाक है, यह कैसी जनसेवा हो रही है? गरीबों को गाय-गोरू के समान सफर करने पर मजबूर किया जा रहा है?
मेरी आंखों के सामने सीवान स्टेशन पर एक गरीब मजदूर का परिवार चढ़ने में नाकाम हो रहा था। तब दो कुली उन्हें चढ़ाने के लिए आगे आए। आपातकालीन खिड़की में मोटा लट्ठ घुसेड़कर एक कुली ने कुछ जगह तैयारी की, दूसरे कुली ने मजदूरों के दोनों बच्चों को पहले चढ़ाया, फिर मजदूर को चढ़ाया गया, अंदर जिंदगियां ठसाठस हो रही थीं, ट्रेन चलने की सीटी बजा चुकी थी, लगा कि मजदूर की बीवी छूट जाएगी। लट्ठ वाले कुली ने एक बार फिर खिड़की के अंदर लट्ठ घुसेड़कर जौहर दिखाया, तब किसी तरह से दूसरे कुली ने मजदूर की पत्नी को उठाकर खिड़की से अंदर टांग दिया, तभी ट्रेन चल पड़ी। कुछ गरीब प्लेटफार्म पर दौड़ते रह गए कि दरवाजे पर ठसे मजदूरों को दया आ जाए, तो कुछ कमजोर मजदूरों की आंखों की कगार पर आंसू आ गए कि ट्रेन फिर छूट गई।
अब मैं और दावे के साथ कह सकता हूं। हां, मैंने देखी है गरीबी। अब मुझे एक सवाल बहुत परेशान कर रहा है कि वह बदबू किसकी थी? जनसेवा एक्सप्रेस की या बिहार की या देश की या देश के निकम्मे अंधे तंत्र की?
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4 comments:

श्यामल सुमन said...

ये बदबू अंधे तंत्र की ही है भाई। कौन इस हाल में जीना चाहेगा? आपकी चिन्ता से सहमत हूँ।

गया रेल में बैठकर शौचालय पास।
जनसाधारण के लिए यही व्यवस्था खास।।

सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.

Unknown said...

atyant dukhdaayi
sharmnaak !

परमजीत सिहँ बाली said...

यह बदबू हमारे देश की राजनिति के कारण पैदा हो रही है।दुख होता है इस प्रकार का नारकीय जीवन देख कर।

pushpendrapratap said...

kya kahane kikhe khub sara .jai ho jai ho.