Friday, 20 June 2008

चुभ गया कोटा का कांटा

कोटा से कल ही लौटा, लेकिन खड़े गणेश जी मंदिर की अव्यवस्था को भूल नहीं पा रहा हूं। अव्वल तो बुधवार, 18 जून को पूरे चालीस मिनट लाइन में खड़े होने के बाद दर्शन सुलभ हुए और जब गणेश जी को एक छोटे से कमरे में फूलों से लदे-ढके देखा, तो मन दुखी हो गया। कमरे में दरवाजे के अंदर दरवाजा था, गांवों में एक कमरे वाले जो छोटे मंदिर हुआ करते हैं, उससे भी छोटा है खड़े गणेश जी का मंदिर, लेकिन उसके आसपास तामझाम इतना ज्यादा है कि लगता है, किसी विशाल मंदिर में दर्शन के लिए जा रहे हों। करीब दो-सौ मीटर दूर मंदिर का मुख्य गेट है, उसके अंदर सौ मीटर तक फुहारों की दिखावटी व्यवस्था है, संगमरमर बिछाया गया है, मंदिर के बाहर विशाल प्रांगण है, लेकिन गणेश जी के खड़े होने के लिए इतनी कम जगह है कि गणेश जी शायद ही वहां खड़ा होना पसंद करेंगे।
खड़े गणेश जी को देखकर अपने जयपुर में मोती डुंगरी वाले गणेश जी की याद आ गई। जमीन आसमान का फर्क। यहां बैठे हुए गणेश जी वाकई काफी जगह लेकर बैठाए गए हैं, देखकर मन प्रसन्न हो जाता है, लेकिन कोटा में खड़े गणेश जी की दुर्दशा आहत करती है। अंदर जाकर मालूम हुआ कि केवल दो पंडितों के खड़े होने की जगह है, इसलिए लोगों को काफी देर तक लाइन में लगना पड़ता है। गणेश जी को हाथ जोड़कर मन से मैंने प्रणाम किया और बिना तिलक, बिना प्रसाद बाहर निकल आया। मंदिर की बाईं ओर दीप-अगरबत्ती की जगह थी, तो दाईं ओर शिव मंदिर, यहां भी मन बहुत दुखी हुआ। शिवलिंग पर कथित शिव भक्तों ने मिसे हुए लड्डुओं का ढेर लगा रखा था, जल-दूध के प्रेमी शंकर जी को लोग जबरन लड्डू खिला रहे थे। यह शुद्ध बेवकूफी है। शिवलिंग पर लड्डू पोतने वालों की जितनी निंदा की जाए, कम है। वैसे अपने जयपुर में भी भगवानों की फोटुओं पर लड्डू-पेड़ा चिपकाकर लोग बड़े खुश होते हैं कि भोग सीधे भगवान को खिला दिया। पढ़े- लिखे -अपढ़ लोग खिलाने और चिपकाने का फर्क नहीं जानते?
हम खुद अपने साथ ऐसा व्यवहार पसंद नहीं करेंगे, जैसा व्यवहार हम भगवानों के साथ कर रहे हैं। क्या भगवान को सांस लेने की जरूरत नहीं है? क्या उनके मुंह-नाक में लड्डू-पेड़ा ठूंस देना चाहिए? कोई अगर हमारे मुंह-नाक-शरीर में लड्डू लीप दे, तो क्या हम उसे लगे हाथ पांच गालियां नहीं सुनाते हैं? क्या ईश्वर को हम पर रोष नहीं आता होगा? बहरहाल, कोटा में खड़े गणेश जी के मंदिर के बाहर जितने पैसे खर्च किए गए हैं, उतने पैसे से मंदिर के गर्भगृह को आसानी से बड़ा बनाया जा सकता था, खड़े गणेश जी को ठीक से खड़े होने की जगह दी जा सकती थी? लेकिन मंदिरों और भगवानों को बाजारू उत्पाद बनाकर-सजाकर बेचने का शौक रखने वालों को कौन समझाए? लोभी-भोगी पंडितों का वर्ग भी तो इसमें शामिल है?
एक और बात बता दूं, खड़े गणेश जी मंदिर और उसके आसपास मुझे कोई भी स्वयंसेवक, व्यवस्थापक या पुलिस वाला नजर नहीं आया। कोटा का यह कांटा न जाने कब तक मेरे दिल में चुभेगा और याद आएंगे, कमरे में कैद गणेश जी और लड्डुओं में गुम शिव जी।

2 comments:

manglam said...

आपके ब्लॉग का शीषॅक देखकर तो यही लगा कि वसुंधरा सरकार ने आरक्षण की जो रेवड़ियां बांटी हैं, उससे उत्पन्न हुई कोटे की स्थिति पर आपने अपना ददॅ साझा किया हो, लेकिन आद्योपांत पढ़ने के बाद हकीकत सामने आई। क्या सटीक उपाय सुझाया है आपने, मंदिर पर किए गए खचॅ के समय थोड़ी समझदारी दिखाई गई होती तो खड़े गणेश जी को ठीक से खड़े होने की जगह दी जा सकती थी। दूसरी बात, भारतीय पूजन परंपरा भी ईश्वर को खुद के स्थान पर मानकर पूजा करने की ही रही है, तभी तो मंदिरों में मंगला से लेकर शयन आरती तक की झांकी होती है। अन्यथा प्राणिमात्र को जीवन देने वाला परमेश्वर कभी सो सकता है। आशा है, आपकी सलाह से आम आदमी प्रभु की पूजा या प्रसाद अपॅण करने की सही तकनीक समझ पाएगा तथा कोटा के लोग आज न कल आपके दिल में लगा कांटा निकालने की पहल करेंगे।

राजीव जैन said...

मैं भी 1997 में पीएमटी की कोचिंग के लिए कोटा में था। एक आध बार आप वाले खड़े गणेशजी के मंदिर भी गया हूं। आपने बिल्कुल सही बात की ओर ध्यान आकृष्ट किया है। शायद हमारे fद्ववेदीजी (दिनेशरायजी) कोटा वालों तक इस बात को पहुंचा सकें। वैसे पुराने मंदिरों की दुर्दशा कमोबेश हर जगह एक ही जैसी तरह हो रही है। अपन के मोती डूंगरी गणेशजी की किस्मत ठीक है कि उनका मैनेजमेंट एक ट्रस्ट के पास है और आजकल तो यहां अंबानीजी भी आते रहते हैं !