Monday, 30 December 2019

जीते जी छप गई मौत की खबर

अल्फ्रेड नोबेल (वैज्ञानिक-उद्यमी)


जिंदगी है, तो इम्तिहान भी हैं। एक इम्तिहान खत्म, तो दूसरा शुरू। इस बेरहम दुनिया में इम्तिहान मौत के बाद भी पीछा नहीं छोड़ते। अच्छा है, आदमी ऐसे चला जाता है कि फिर नहीं लौटता यह देखने कि दुनिया ने उसे आखिरी इम्तिहान में पास किया या फेल? लेकिन यहां तो अजीब ही वाकया हो गया। आदमी जिंदा था और अखबार में उसकी मौत की सुर्खियां थीं। आदमी अपनी ही मौत की खबर पढ़ रहा था। खबर का शीर्षक था, ‘मौत के सौदागर की मौत।’ खबर ऐसे लिखी गई थी, मानो दुनिया उसकी मौत के इंतजार में बैठी थी और उसकी मौत से सबने राहत का एहसास किया। उस आदमी को लग रहा था कि दुनिया उसका आखिरी इम्तिहान ले चुकी है, जिसमें उसे फेल कर दिया गया है और उसे ढंग से शोक संवेदना भी नसीब नहीं हो रही है।  

वह आदमी कोई और नहीं, बल्कि अल्फ्रेड नोबेल थे, जिनकी दौलत और नाम से आज दुनिया का सबसे प्रतिष्ठित सम्मान दिया जाता है। दरअसल, 13 अप्रैल, 1888 को छपी वह खबर गलत थी। मौत अल्फ्रेड नोबेल की नहीं, बल्कि उनके बड़े भाई लडविग नोबेल की हुई थी। नोबेल बंधुओं में सबसे कामयाब लडविग दुनिया के चुनिंदा अमीरों में एक थे, पर अल्फ्रेड के लिए गुस्सा इस कदर था कि उनकी मौत की खबर छप गई। उस लम्हे ने अल्फ्रेड को हिलाकर रख दिया, क्या दुनिया उसके बारे में इतना खराब सोचती है? अल्फ्रेड आजीवन अकेले रहे थे। पूरी जिंदगी वैज्ञानिक जुनून और तिजारत पर कुर्बान थी। अरब-खरब में दौलत थी, पर कुल जमा जिंदगी का निचोड़ यह कि ‘मौत के सौदागर की मौत।’

उन लम्हों में बड़े भाई की मौत का गम तो था ही, पर छोटे भाई एमिल की मौत भी ख्यालों में उमड़ने लगी। एमिल नोबेल परिवार में कॉलेज जाने वाले पहले सदस्य थे। प्रयोगों में बड़े भाई अल्फ्रेड की मदद करते थे। उन दिनों नाइट्रोग्लिसरीन से ताकतवर और इस्तेमाल के काबिल विस्फोटक बनाने की जद्दोजहद जारी थी। इस खोज की कमान अल्फे्रड के हाथों में थी। ऐसे तरल विस्फोटक को मुकम्मल रूप दिया जा रहा था, जिसे एक जगह से दूसरी जगह ले जाना ज्यादा आसान हो। उस दिन न जाने क्या कमी रह गई, प्रयोगशाला में भयंकर विस्फोट हुआ। वह दिन था,  3 सितंबर, 1864, इस हादसे में छोटा भाई चार सहयोगियों के साथ शहीद हो गया। महज इत्तफाक था कि तब अल्फ्रेड वहां मौजूद नहीं थे। तब भी अखबारों ने इस खोज के खिलाफ बहुत छापा, पर अल्फ्रेड पर कोई असर नहीं हुआ। अपने सबसे छोटे बेटे को खोकर पिता तो इतने गमजदा हुए कि इस खोज से ही पीछे हट गए, लेकिन उन दिनों अल्फ्रेड पर मानो जुनून सवार था। वह हादसे भुलाकर आगे बढ़े और लगभग तीन साल की मेहनत से एक मुकम्मल विस्फोटक डायनामाइट ईजाद करने में कामयाब हो गए।

अल्फ्रेड को विस्फोटक और हथियार बनाने का ऐसा चस्का था कि वह लगातार अपनी धुन में लगे रहे। कभी पलटकर नहीं सोचा कि दुनिया उनके बारे में क्या सोचती है। खदानों और पत्थर तोड़ने में तो डायनामाइट और अन्य विस्फोटक काम आते ही थे, जंगों में भी उनके विस्फोटक लोगों की मौत का सामान बनने लगे थे। सबसे बढ़कर यह कि अल्फ्रेड को अपने ऐसे आविष्कारों पर बड़ा गुरूर था। सोचने का ढंग ही अलहदा था। वह आसानी से दूसरों को नाराज कर देते थे। सच बोलने वालों से एक बार ऐसी चिढ़ हुई कि कह दिया, सच्चा आदमी आमतौर पर झूठा होता है। उम्मीद को सच की नग्नता छिपाने का परदा मानते थे। 

आगे बढ़ने के लिए अल्फ्रेड ने किसी की परवाह नहीं की थी। अपनी मौत की खबर पढ़कर उस दिन निर्मम-निराशावादी इंसान का सामना पहली बार इस बात से हुआ था कि दुनिया उससे नफरत करती है। जब भी दुनिया में उसके बनाए विस्फोटकों से कोई मारा जाता है, लोग उसे कोसते हैं। विस्फोटकों ने युद्ध को बदल दिया है। अब युद्ध में वीरता की नहीं, धोखे की जीत होने लगी है। जो पहले डायनामाइट बिछा गया, वह जीत गया। उस फ्रेंच अखबार ने उस दिन बिना रियायत यह भी लिखा था, ‘यह वही आदमी है, जो पहले से ज्यादा तेजी से अधिक लोगों को मारने के तरीके खोजकर अमीर हुआ है।’ 

उस दिन अल्फ्रेड की जिंदगी तो नहीं बदली, लेकिन उनकी सोच के ढांचे दरक गए। वह छवि सुधार की कोशिशों में लग गए, ताकि दुनिया उन्हें अच्छे रूप में भी याद करे, और आखिरकार अपनी मौत से एक साल पहले उन्होंने देशों की सीमाओं से परे दुनिया के योग्यतम लोगों को नोबेल सम्मान देने का फैसला किया। उनकी ही दौलत से नोबेल सम्मान बंटते 118 साल बीत चुके हैं। सभ्य दुनिया में अब कोई नहीं कहता कि अल्फ्रेड नोबेल मौत का सौदागर 

1 comment:

Anonymous said...

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