राजेंद्र प्रसाद, आजाद भारत के पहले राष्ट्रपति
बाबू साहबों का वहां बड़ा जलवा था। एक से बढ़कर एक बाबू साहब! उनकी गिनती के लिए उनके डेरों से कुछ दूर बैठना पड़ता था। सुबह से रात तक चूल्हों से उठते धुएं की लड़ियां गिनने से पता चल जाता था, जितने चूल्हे जल रहे हैं, उतने ही बाबू साहब लोग आराम फरमा रहे हैं। आज से 102 साल पहले अंग्रेजों के गुलाम भारत के चंपारण में यही तो हो रहा था, जिसे मोहनदास करमचंद गांधी नाम के वकील सहन नहीं कर पा रहे थे। खास तो यह कि वे सभी बड़े साहब या बड़का बाबू लोग भी वकील थे। नील उत्पादक किसानों को न्याय दिलाने की लड़ाई में शामिल होने गांधीजी के नेतृत्व में चंपारण आए थे। ऐसे-ऐसे वकील कि उस जमाने में महज सलाह देने के 10 हजार रुपये तक वसूल लेते थे। क्या मजाल कोई एक रुपये की भी रियायत ले जाए।
देश के योग्य और विद्वान वकील ऐसे बिखरे हुए थे, तो देश के आम लोग कितने बिखरे हुए होंगे? एक दिन रहा नहीं गया, तो गांधीजी ने वकीलों को फटकारा, यहां हम आठ-दस अपनी ही मंडली के साथी साथ भोजन नहीं कर सकते, सबका भोजन साथ पक नहीं सकता, तो क्या हम करोड़ों देशवासियों को एकजुट कर पाएंगे? हम आंदोलन के लिए आए हैं, लेकिन यहां किसानों और अंग्रेजों को क्या संदेश दे रहे हैं? क्या यहां हम यह बताने आए हैं कि हम कितने बंटे हुए हैं, हमारा दाना-पानी भी साथ संभव नहीं है?
गांधीजी की इस फटकार ने स्तब्ध कर दिया। शानदार कपड़े और रहन-सहन के शौकीन मालदार वकीलों के लिए यह फटकार बिल्कुल नई बात थी। वकील मंडल में हर एक का अपना रसोइया था और हर एक की अलग रसोई। वे 12 बजे रात तक भोजन करते, मनमाना खाना खाते, लेकिन उस दिन गांधीजी की अकाट्य दलील के आगे सारे वकील निरुत्तर हो गए। उन्हीं वकीलों में 33 वर्षीय राजेंद्र प्रसाद भी शामिल थे, जो जाति-पांति के भेद को मुस्तैदी से मानते आए थे। ब्राह्मण छोड़कर किसी दूसरी जाति के आदमी का छुआ दाल-भात इत्यादि, जिसे कच्ची रसोई भी कहते हैं, कभी नहीं खाते थे। राजेंद्र प्रसाद सामंती सुविधाओं में रचे-बसे थे। स्कूल-कॉलेज के दिनों में ही छपरा से कलकत्ता (अब कोलकाता) तक, उनके साथ विशेष नौकर-चाकर रहते थे। आदत से मजबूर, वह चंपारण में आंदोलन करने गए, तो वहां भी नौकर और रसोइया ले गए। सच है कि गांधीजी ने उस दिन बुरी तरह डांटा था, सहयोगी वकील साथ छोड़ जाएंगे, ऐसा खतरा था। संकेत स्वयं गांधीजी की जीवनी में है, उन्होंने संभलते-संभालते लिखा है, ‘मेरे और मेरे साथियों के बीच इतनी मजबूत प्रेमगांठ बंध गई थी कि हममें कभी गलतफहमी हो ही नहीं सकती थी। वे मेरे शब्दबाणों को प्रेम-पूर्वक सहते थे।’
बेशक विद्वान वही है, जो किसी अनुभवी की फटकार से भी सीखता हो। गांधीजी की यह बात राजेंद्र प्रसाद के मन में बैठ गई, ‘जो लोग एक काम में लगे हैं, मान लो कि वे सब एक जाति के हैं।’ गांधी जी की फटकार के बाद तमाम रसोइयों की विदाई हो गई थी। भोजन संबंधी नियम बने, जिनका पालन अनिवार्य कर दिया गया। सब निरामिषहारी नहीं थे, लेकिन तब भी दो रसोई की सुविधा नहीं रखी गई। एक ही रसोई रह गई, जिसमें मात्र निरामिष भोजन पकता था। भोजन सादा रखने का आग्रह था, इससे आंदोलन के खर्च में भी बड़ी बचत होने लगी। काम करने की शक्ति बढ़ी और समय की भी बचत हुई। राजेंद्र प्रसाद के चिंतन और जीवन में आमूल-चूल परिवर्तन आ गया। लगभग सप्ताह भर की सोचकर चंपारण गए थे, लेकिन वहां आंदोलन और समाज सेवा का काम ऐसे फैला कि महीनों बीत गए। जब लौटे, तो पटना में घर पर नौकर-चाकर सब यथावत इंतजार में थे, लेकिन उनका मजा पहले जैसा नहीं रह गया था। वह पूर्ण रूप से आत्मनिर्भर, सहज और सरल बन गए थे। तीसरे दर्जे में सफर की आदत पड़ गई थी। जहां तक हो सके, पैदल ही चलकर पहुंचने लगे थे।
चंपारण के उन लम्हों को याद करते हुए उन्होंने अपनी जीवनी में लिखा है, ‘हम सब लोग एक-दूसरे की बनाई रसोई खाने लगे, जबकि हममें कई जातियों के लोग थे। जिंदगी में सादगी भी बहुत आ गई। अपने हाथों से कुएं से पानी भरना, नहाना, कपड़े साफ कर लेना, अपने जूठे बर्तन धोना, रसोई घर में तरकारी बनाना, चावल धोना इत्यादि सब काम हम खुद किया करते।’
अपने सारे काम खुद करने वाले राजेंद्र प्रसाद आजाद भारत के पहले राष्ट्रपति बने। वह तमाम वैभवों से घिरे देश के सर्वोच्च पद पर रिकॉर्ड 12
साल रहे, लेकिन चंपारण में ‘साहबी’ ऐसे छूटी कि फिर ख्वाब में भी न लौटी।
प्रस्तुति : ज्ञानेश उपाध्याय
2 comments:
मैं सीवान,बिहार का रहने वाला हूँ।राजेन बाबू के वंश परंपरा से भी जुड़ा हूँ।इस छोटे किन्तु महत्वपूर्ण लेख से काफी गर्वान्वित महसूस कर रहा हूँ।काफी कुछ लिखा जाना शेष है, मगर उम्मीद है राजेन बाबू के सांसदीय योगदान को समग्रता से समझा और समझाया जाय,नहीं तो संविधान बाबा अंबेडकर तक ही सिमटकर रह जायेगा।आपकी लेखनी की दमदार पहल की जरूरत है।
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