Monday, 23 September 2019

फिर कोई धोखे की सोच न सका


पेशवा बाजीराव बल्लाल भट्ट

हमारी मातृभूमि ने अनगिनत वीर दिए हैं, जो किसी परिचय के मोहताज नहीं, लेकिन उनमें चंद वीर ऐसे भी हैं, जिन्हें दुनिया वीरों का वीर मानती है। ऐसे ही एक महावीर बाजी राव बल्लाल भट्ट को तीन सौ साल बाद भी हम भूल नहीं पाए हैं। 18 अगस्त, 1700 को जन्मे बाजी राव का सामरिक ज्ञान विदेशी सैन्य संस्थानों में भी पढ़ाया जाता है। युद्ध कौशल का बखान करने वाली किताबों में उनकी ‘संपूर्ण संग्राम शैली’ या ‘स्कोच्र्ड अर्थ वारफेयर’ को सबसे कारगर माना जाता है।
अपने जीवन में पचास से ज्यादा युद्धों-अभियानों में हिस्सा लेने वाले प्रसिद्ध ब्रिटिश फील्ड मार्शल बर्नार्ड मोंटगोमरी ने अपनी किताब हिस्ट्री ऑफ वारफेयर  में लिखा है कि बाजी राव संभवत: भारत में अब तक के सबसे बेहतरीन घुड़सवार सेनापति थे। उनकी शैली का प्रयोग अमेरिका में गृह युद्ध का अंत करने के लिए भी किया गया और आज भी अनेक सैन्य कमांडर उनकी नकल करने की कोशिश करते हैं। उनके जीवन का ‘वो लम्हा’ जानने से पहले हमें इस सर्वज्ञात तथ्य को ताजा कर लेना चाहिए कि बाजी राव ने कुल 39 वर्ष के जीवन में करीब आठ बड़े, 32 छोटे युद्ध लड़े और पराजय की हवा भी उन्हें कभी छूकर नहीं निकली। युद्ध अर्थात संपूर्ण युद्ध, उसमें कोताही की नोंक बराबर आशंका भी नहीं। युद्ध में रणनीतिक गतिशीलता इतनी तेज कि दुश्मन को पलक झपकाने का मौका न मिले। उसके संचार, परिवहन, आपूर्ति, उद्योग, जनजीवन, सबको ऐसे प्रचंड आक्रमण से बाधित कर देना कि दुश्मन जल्द से जल्द घुटने टेक दे। देश के एक शानदार शहर पुणे की नींव रखने वाले बाजी राव के जीवन में आखिर ‘वो लम्हा’ क्या था, जिसने महावीर बाजी राव को जन्म दिया?

उस दिन किशोर बाजी राव बहुत खुश था, क्योंकि मराठा योद्धा पिता बालाजी विश्वनाथ भी आश्वस्त थे। जिस मराठा ताल्लुकेदार दामाजी थोरट को काबू करने राजा छत्रपति साहू जी महाराज ने भेजा था, वह बिना लडे़ ही समझौते के लिएमान गया था। मराठा एकता का विस्तार होना था, तो बाजी राव अपने पिता के साथ दामाजी के हिंगनगांव स्थित मजबूत छोटे किले में सहर्ष कदम रखते बढ़ रहे थे। तभी वह बात हो गई, जो केवल दामाजी के शातिर दिमाग में थी। घात लगाकर विश्वासघात किया गया, बाप-बेटे को बंदी बना काल कोठरी में डाल दिया गया। मध्ययुगीन बर्बर तरीकों से प्रताड़ना का दौर चला। घोड़ों के मुंह पर चारे का जो झोला बांधा जाता है, वैसे ही झोले में राख भरकर पिता-पुत्र के मुंह पर बांध दिया जाता। पीड़ा पहुंचाने का क्रम दिनोंदिन तेज होता जा रहा था। दामाजी कहने को तो मराठा सरदार था, लेकिन अपनी पूरी नीचता पर उतर आया था। अव्वल दर्जे का लालची, धूर्त और धन के लिए किसी भी स्तर तक गिर जाने वाला। ऐसे निंदनीय व्यक्ति के शिकंजे में फंसे पिता तो उम्मीद छोड़ चुके थे। चौथ-लगान के लुटेरे दामाजी ने राजा छत्रपति के सामने फिरौती की मांग रखी। राजा छत्रपति चूंकि बालाजी विश्वनाथ को बहुत मानते थे, इसलिए उन्होंने फिरौती देकर बला टालना स्वीकार कर लिया।

महज 11-12 साल के रहे बाजी राव के दिलो-दिमाग पर इस घटना का गहरा असर हुआ। बाजी राव ने हिंगनगांव की दुखद-निर्मम कैद से निकलकर शुद्ध युद्ध कौशल पर काम किया। उनकी अपनी नीति बन गई कि यदि युद्ध के लिए निकले हो, तो किसी पर विश्वास नहीं करो। पिता ने यही गलती की थी। जब बंदी बनाकर उन्हें दामाजी के सामने पेश किया गया, तब पिता ने पूछा, ‘दामाजी, तुमने तो बेल वृक्ष और हल्दी के नाम पर शपथ ली थी कि छल नहीं करोगे, किंतु यह क्या किया?’ थोराट ने कुटिल हंसी के साथ कहा था, ‘तो इसमें क्या है? बेल आखिर एक पेड़ ही तो है और हल्दी तो हम रोज ही खाते हैं।’ 

उस लम्हे या झटके ने बाजी राव को आमूलचूल बदल दिया। एक वर्ष बाद तो वह स्वयं युद्ध पर जाने लगे। वह किसी भी तरह की विपरीत स्थिति पैदा होने पर प्रहार के लिए इतने चौकस और तैयार रहते थे कि उनके विरोधी और दुश्मन उनसे मिलने में भी डरते थे। ऐसी युद्धनीतियां रचने लगे, जिनमें घोखा खाने या हारने की रत्ती भर गुंजाइश नहीं होती थी। मात्र 20 की उम्र में मराठा साम्राज्य के पेशवा (प्रधानमंत्री-सेनापति) बन गए। जब बाजी राव ने दक्खन के नवाब-निजाम को घेरकर झुकने को मजबूर कर दिया, तब शपथ दिलाने की बारी आई। बाजी राव ने कुरान  मंगवाई और कहा, ‘ईमान वाले हो, तो पाक कुरान  पर हाथ रखकर कायदे से कसम खाओ कि मुगलों और मराठों की लड़ाई में कभी नहीं पड़ोगे।’ तब निजाम ने बाजी राव की बहादुरी और चतुराई के आगे सिर झुका दिया था, और दुनिया तो आज भी झुकाती है।

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Tuesday, 17 September 2019

मेरा खेल खत्म हो गया था


मुस्तफा कमाल पाशा, तुर्की गणराज्य के संस्थापक

मानो सब कुछ खत्म हो गया था। उस्मानी सल्तनत के सिपाही घात लगाए बैठे थे। तुर्की के इस्तांबुल शहर के उस फ्लैट पर 24 वर्षीय सैन्य कप्तान को पहुंचते ही पकड़ लिया गया। सामान्य किसान परिवार से आए उस वीर युवा के सैन्य करियर पर शुरुआत में ही अंत की मुहर लग गई। कैद से निकलने की रत्ती भर गुंजाइश नहीं थी। अरब दुनिया में, और वह भी सुल्तान व खलीफा के दौर में रहम की उम्मीद कौन कर सकता था? निष्ठा पर शक की सुई जरा भी घूम जाए, तो सीधे मौत की सजा दी जाती थी या किसी देश या मोर्चे पर मरने भेज दिया जाता था।
उस दिन सुल्तान के सिपाही जिस युवा को बहुत आसानी से पकड़कर ले जा रहे थे, वह था भावी दुनिया का सर्वश्रेष्ठ सैन्य कमांडर, राजनीतिज्ञ मुस्तफा कमाल पाशा, जिन्हें पूरी दुनिया ने अतातुर्क के नाम से जाना। उस समय युवा मुस्तफा की आंखों के आगे वे दृश्य बार-बार उभर रहे थे, जब एक रात फेथी नाम का पुराना दोस्त फटेहाल मिलने पहुंचा था। सेना से बर्खास्त हो चुके फेथी ने गिड़गिड़ाकर कहा था, ‘मेरे पास न तो पैसे हैं और न कहीं सिर छिपाने की जगह।’ साथियों ने फेथी को उसी फ्लैट में रख लिया, जिसे मुस्तफा ने विचार-विमर्श के लिए किराये पर ले रखा था। दो दिन बाद जब फिर मिलने का मौका आया, तो गाज गिर गई। बाकी साथी पहले ही पकड़ लिए गए थे। फेथी ने दगा किया था, वह सल्तनत का गुप्तचर निकला।
सैन्य कॉलेज से साथ पढ़कर निकले मुस्तफा और उनके साथी तो देश की बेहतरी पर चिंतन करते थे, लेकिन उन्हें नहीं पता था कि उन पर नजर रखी जा रही है। उस्मानी सल्तनत की अदालत में कड़ी पूछताछ होती और फिर अंधेरे कमरों में धकेल दिया जाता। वे बहुत भारी, ठहरे हुए उदास दिन थे। कभी मां, कभी बहन, तो कभी प्यारे गृहनगर सलोनिका की याद आती, कभी देश सेवा के अधबने सपने सताते, कभी सेना में बने-बनाए करियर की मौत नजर आती।
मुस्तफा कमाल पाशा ने बाद में खुद बताया, ‘वो लम्हा मेरी जिंदगी का ऐसा मोड़ था, जिसने मेरे काम करने और सोचने के तरीके को पूरी तरह से बदलकर रख दिया।’ उन्होंने गहराई से सोचा कि नीति-रणनीति में गलती कहां हुई? उन्होंने तभी फैसला कर लिया था कि यदि कैद से निकलकर फिर जिंदगी मिली, तो एक भी गलती नहीं दोहराएंगे, मगर करेंगे वही, जो अपने और अपने वतन तुर्की के लिए बेहतर होगा।
खैर, कुछ महीने की कैद के बाद उनकी जिंदगी में नई सुबह हुई। हालात ऐसे बने कि उस्मानी सल्तनत को जंग के लिए कई मोर्चों पर प्रशिक्षित कमांडरों की जरूरत पड़ी। कैद से निकालकर मुस्तफा को राजधानी से बहुत दूर सीरिया के सैन्य मोर्चे पर भेज दिया गया। उसके बाद नित नई जंग और बेमिसाल हौसले का सिलसिला चला। मुस्तफा को सुल्तान के करीबी कमांडरों ने देश के सबसे कठिन मोर्चों पर भेजना शुरू किया। साजिश तो यही होती कि किसी मोर्चे पर मुस्तफा शहीद हो जाएं। मुस्तफा यह जानते थे, उन्होंने स्वयं कहा है, ‘मैं अक्सर मौखिक या लिखित आलोचना कर देता। इससे विशेष रूप से बूढ़े कमांडर आहत हो जाते थे। दंडस्वरूप ही मुझे कमांडर बना दिया गया, पर उनके गुस्से को मैंने आशीर्वाद में बदल दिया। जब मैं कमांडर बना, तो सारी यूनिटें मेरे साथ अभ्यास में शामिल होने लगीं। मुझे सुनने अफसर जुटने लगे।’
वह गिरफ्तारी और कैद के उन लम्हों में किया गया चिंतन ही था कि मुस्तफा जिंदगी में फिर कभी जासूसों या दुश्मनों के हाथ नहीं आए। देश के लिए लड़ी गई एक भी जंग नहीं हारे। संयोग है कि आज से सौ साल पहले, यानी 7 अगस्त, 1919 को वह नेशनलिस्ट कांग्रेस के चेयरमैन बनाए गए थे। संगठन-प्रबंधन की खूबियों से भरे मुस्तफा जिस भी काबिल कमांडर या विद्वान से मिलते, उसे हमेशा के लिए अपना बना लेते। अपनी लकीर इतनी लंबी करते गए कि दुश्मनों की लकीरें बौनी होती गईं। अपने ईद-गिर्द उन्होंने ऐसा मजबूत घेरा बना लिया कि जब एक दफा सुल्तान ने उनकी गिरफ्तारी का हुक्म दिया, तो कोई कमांडर हुक्म बजाने आगे नहीं आया। वह पुलिस तो शर्म से गड़ रही थी, जो कभी मुस्तफा के लिए घात लगाए बैठी थी। 5 अगस्त, 1921 को नेशनल असेंबली ने उन्हें बुलाकर देश का कमांडर इन चीफ नियुक्त किया। 24 की उम्र में जिस नौजवान का अंत होने वाला था, वह 42 की उम्र में तुर्की गणराज्य का पहला राष्ट्रपति बन गया। मुस्तफा के नेतृत्व में एक दिन वह भी आया, जब सुल्तान और खलीफा का अंत हुआ। उनका तुर्की गणराज्य सबसे आधुनिक, सबसे प्रगतिशील देश के रूप में हमेशा के लिए मिसाल बन गया। यह मंजिल शायद उन्हें न मिली होती, अगर एक दोस्त की दगाबाजी ने उन्हें जेल न पहुंचा दिया होता।

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खबरदार, मेरा बेटा फेरीवाला, कभी नहीं

एंड्रयू कारनेगी, प्रसिद्ध उद्योगपति







हां, मां भगवान का रूप होती है। उस दिन यही रूप अपलक देख रहा था 12 वर्षीय बच्चा एंड्रयू। अचंभित और कुछ भयभीत। मां से लगकर खड़ा चार वर्षीय भाई टॉम तो और भी सशंकित था। डनफर्मलाइन, स्कॉटलैंड से पलायन कर पिट्सबर्ग, अमेरिका आए गरीब परिवार के लिए वे कड़ी परीक्षा के दिन थे। जुलाहे पिता विलियम का काम कभी ऐसे मंदा पड़ जाता कि रोटियों के लाले पड़ जाते। ऐसे में, एक रिश्तेदार ने सुझाव दिया था, ‘एंड्रयू को घूम-घूमकर सजावटी सामान बेचने के काम में लगा दो, कुछ कमाई हो जाया करेगी।’
इसी सलाह पर मां मार्गरेट भड़क उठी थीं। मां का वह रौद्र रूप दुर्लभ था। परेशानी के बावजूद वह पूरे दर्प से गरजी थीं, ‘क्या, मेरा बेटा फेरीवाला बनेगा? असभ्य लोगों के बीच जाकर घाटों पर सजावटी सामान बेचेगा? खबरदार, मेरा बेटा फेरी नहीं लगाएगा, कभी नहीं। इससे अच्छा तो मैं उसे अलेघेनी नदी में फेंक दूं।’ सलाहकार की एक न चली, मुंहतोड़ जवाब मिल गया। उन्होंने साफ कर दिया था कि उनके बेटे पराए देश में जूझते बेरोजगारों की भीड़ में कतई शामिल नहीं होंगे, वे किसी अच्छी जगह दिमाग लगाएंगे। सम्मानजनक काम ही करेंगे।
यही वो लम्हा है, जब एंड्रयू को लग गया कि जीवन में मां जैसा कोई नहीं मिलेगा। पिता खूब जूझकर भी विफल हो जाते, लेकिन मां सूझ-बूझ से सफल हो जातीं। ऐसी मां के सशक्त साये में एंड्रयू बढ़ते गए और एक दिन इतने बड़े हो गए कि दुनिया उन्हें सबसे अमीर इंसान एंड्रयू कारनेगी (1835-1919) के रूप में देखने-पहचानने लगी, लेकिन वह अपने दिल से वो लम्हा कभी नहीं भुला पाए। जब भी किस्मत गिराती, चुनौतियों की बौछार होती, तो मां बचाव में खड़ी नजर आतीं और उनके वे शब्द गूंजने लगते, ‘खबरदार, मेरा बेटा...फेरीवाला...कभी नहीं।’ अदम्य साहस, श्रेष्ठता, नवाचार और परिश्रम पर भरोसे से भरपूर मां, जिसने पराए देश अमेरिका आकर भी अपने बच्चों को कभी दर-दर भटकने न दिया, देर रात तक जगकर जूते गांठती थीं, ताकि बच्चों पर कोई आंच न आए। रिश्तेदार को फटकारने के बाद मां ने उसी दिन बच्चों को साफ हिदायत दी थी, ‘लक्ष्य सबसे ऊंचा रखना।’ इस सलाह को कारनेगी ताउम्र दिलो-दिमाग से लगाए रहे। मां ने गरीबी के बावजूद अपने बच्चों को हमेशा अच्छे कपड़े पहनाए, ताकि उनमें हीनता बोध न आए। बचत और निवेश में माहिर मां ने उन्हीं लम्हों में बच्चों को चेता दिया था, ‘तुम कौड़ी का ध्यान रखो, अशर्फी अपना ध्यान खुद रख लेगी।’
बेशक, कारनेगी कौड़ी-कौड़ी से होते हुए ही दुनिया के सबसे बड़े खजाने के मालिक बने। कपड़े के कारखाने में छोटी नौकरी से शुरू करते हुए संसार की सबसे बड़ी इस्पात कंपनी के मालिक बनने तक की उनकी यात्रा में वो लम्हा कदम-दर-कदम काम आया। उसी लम्हे से जुड़ा एक और लम्हा भी है, जो उन्हें रह-रहकर याद आ जाता था। उन्होंने मां से कहा था, ‘मां, एक दिन जब मैं अमीर हो जाऊंगा, तब हम चार घोड़ों वाली गाड़ी पर सवारी करेंगे।’ तब किशोर बेटे के सपने में मां ने अपना सपना जोड़ते हुए कहा था, ‘यहां वैसा होने से क्या फायदा, अगर डनफर्मलाइन का कोई शख्स हमें वैसे न देख सके?’
तो संघर्ष से एक दिन वह भी आया, जब दुनिया के चंद बड़े अमीरों में शुमार हो चुके कारनेगी अपनी मां को पूरी तैयारी के साथ अपने जन्मस्थान डनफर्मलाइन ले गए। अपने धरती पुत्र के उद्यम और दौलत का कीर्तिमान देखने मानो पूरा इंग्लैंड उमड़ पड़ा। इंग्लैंड का यह वही शहर था, जहां से कारनेगी परिवार परेशान होकर अमेरिका गया था। उन गलियों और इलाकों से गुजरते हुए मां मार्गरेट भाव-विभोर थीं। वह एक आराधना के सफल होने की खुशी थी, जो उनकी आंखों से बार-बार छलक रही थी। करीब 33 साल पहले जहां से फटेहाल निकले थे, ठीक वहीं मां-बेटे का शाही स्वागत हो रहा था। एंड्रयू कारनेगी लंबे समय तक अमेरिका ही नहीं, बल्कि दुनिया के सबसे अमीर इंसान रहे। कमाने में अव्वल आए, तो दान-पुण्य में भी अव्वल रहे। लोक-उपकार के न जाने कितने संस्थान उन्होंने शुरू किए, जो आज भी चल रहे हैं।
वह अपनी सच्ची शक्ति मां को कभी खोना नहीं चाहते थे। मां और मां की सेवा में ऐसी श्रद्धा थी कि उनके जीवित रहते, बेटे ने विवाह नहीं किया। मां जब छोड़ गईं, तब 51 की उम्र में विवाह हुआ और जो इकलौती बेटी हुई, तो उसे उन्होंने वही नाम दिया, जो मां का नाम था- मार्गरेट। उस दिन मां यदि अपने बेटे को फेरीवाला बन जाने देतीं, तो एंड्रयू कारनेगी की जिंदगी न जाने किधर मुड़कर खो गई होती।

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