पेशवा बाजीराव बल्लाल भट्ट
हमारी मातृभूमि ने अनगिनत वीर दिए हैं, जो किसी परिचय के मोहताज नहीं, लेकिन उनमें चंद वीर ऐसे भी हैं, जिन्हें दुनिया वीरों का वीर मानती है। ऐसे ही एक महावीर बाजी राव बल्लाल भट्ट को तीन सौ साल बाद भी हम भूल नहीं पाए हैं। 18 अगस्त, 1700 को जन्मे बाजी राव का सामरिक ज्ञान विदेशी सैन्य संस्थानों में भी पढ़ाया जाता है। युद्ध कौशल का बखान करने वाली किताबों में उनकी ‘संपूर्ण संग्राम शैली’ या ‘स्कोच्र्ड अर्थ वारफेयर’ को सबसे कारगर माना जाता है।
अपने जीवन में पचास से ज्यादा युद्धों-अभियानों में हिस्सा लेने वाले प्रसिद्ध ब्रिटिश फील्ड मार्शल बर्नार्ड मोंटगोमरी ने अपनी किताब हिस्ट्री ऑफ वारफेयर में लिखा है कि बाजी राव संभवत: भारत में अब तक के सबसे बेहतरीन घुड़सवार सेनापति थे। उनकी शैली का प्रयोग अमेरिका में गृह युद्ध का अंत करने के लिए भी किया गया और आज भी अनेक सैन्य कमांडर उनकी नकल करने की कोशिश करते हैं। उनके जीवन का ‘वो लम्हा’ जानने से पहले हमें इस सर्वज्ञात तथ्य को ताजा कर लेना चाहिए कि बाजी राव ने कुल 39 वर्ष के जीवन में करीब आठ बड़े, 32 छोटे युद्ध लड़े और पराजय की हवा भी उन्हें कभी छूकर नहीं निकली। युद्ध अर्थात संपूर्ण युद्ध, उसमें कोताही की नोंक बराबर आशंका भी नहीं। युद्ध में रणनीतिक गतिशीलता इतनी तेज कि दुश्मन को पलक झपकाने का मौका न मिले। उसके संचार, परिवहन, आपूर्ति, उद्योग, जनजीवन, सबको ऐसे प्रचंड आक्रमण से बाधित कर देना कि दुश्मन जल्द से जल्द घुटने टेक दे। देश के एक शानदार शहर पुणे की नींव रखने वाले बाजी राव के जीवन में आखिर ‘वो लम्हा’ क्या था, जिसने महावीर बाजी राव को जन्म दिया?
उस दिन किशोर बाजी राव बहुत खुश था, क्योंकि मराठा योद्धा पिता बालाजी विश्वनाथ भी आश्वस्त थे। जिस मराठा ताल्लुकेदार दामाजी थोरट को काबू करने राजा छत्रपति साहू जी महाराज ने भेजा था, वह बिना लडे़ ही समझौते के लिएमान गया था। मराठा एकता का विस्तार होना था, तो बाजी राव अपने पिता के साथ दामाजी के हिंगनगांव स्थित मजबूत छोटे किले में सहर्ष कदम रखते बढ़ रहे थे। तभी वह बात हो गई, जो केवल दामाजी के शातिर दिमाग में थी। घात लगाकर विश्वासघात किया गया, बाप-बेटे को बंदी बना काल कोठरी में डाल दिया गया। मध्ययुगीन बर्बर तरीकों से प्रताड़ना का दौर चला। घोड़ों के मुंह पर चारे का जो झोला बांधा जाता है, वैसे ही झोले में राख भरकर पिता-पुत्र के मुंह पर बांध दिया जाता। पीड़ा पहुंचाने का क्रम दिनोंदिन तेज होता जा रहा था। दामाजी कहने को तो मराठा सरदार था, लेकिन अपनी पूरी नीचता पर उतर आया था। अव्वल दर्जे का लालची, धूर्त और धन के लिए किसी भी स्तर तक गिर जाने वाला। ऐसे निंदनीय व्यक्ति के शिकंजे में फंसे पिता तो उम्मीद छोड़ चुके थे। चौथ-लगान के लुटेरे दामाजी ने राजा छत्रपति के सामने फिरौती की मांग रखी। राजा छत्रपति चूंकि बालाजी विश्वनाथ को बहुत मानते थे, इसलिए उन्होंने फिरौती देकर बला टालना स्वीकार कर लिया।
महज 11-12 साल के रहे बाजी राव के दिलो-दिमाग पर इस घटना का गहरा असर हुआ। बाजी राव ने हिंगनगांव की दुखद-निर्मम कैद से निकलकर शुद्ध युद्ध कौशल पर काम किया। उनकी अपनी नीति बन गई कि यदि युद्ध के लिए निकले हो, तो किसी पर विश्वास नहीं करो। पिता ने यही गलती की थी। जब बंदी बनाकर उन्हें दामाजी के सामने पेश किया गया, तब पिता ने पूछा, ‘दामाजी, तुमने तो बेल वृक्ष और हल्दी के नाम पर शपथ ली थी कि छल नहीं करोगे, किंतु यह क्या किया?’ थोराट ने कुटिल हंसी के साथ कहा था, ‘तो इसमें क्या है? बेल आखिर एक पेड़ ही तो है और हल्दी तो हम रोज ही खाते हैं।’
उस लम्हे या झटके ने बाजी राव को आमूलचूल बदल दिया। एक वर्ष बाद तो वह स्वयं युद्ध पर जाने लगे। वह किसी भी तरह की विपरीत स्थिति पैदा होने पर प्रहार के लिए इतने चौकस और तैयार रहते थे कि उनके विरोधी और दुश्मन उनसे मिलने में भी डरते थे। ऐसी युद्धनीतियां रचने लगे, जिनमें घोखा खाने या हारने की रत्ती भर गुंजाइश नहीं होती थी। मात्र 20 की उम्र में मराठा साम्राज्य के पेशवा (प्रधानमंत्री-सेनापति) बन गए। जब बाजी राव ने दक्खन के नवाब-निजाम को घेरकर झुकने को मजबूर कर दिया, तब शपथ दिलाने की बारी आई। बाजी राव ने कुरान मंगवाई और कहा, ‘ईमान वाले हो, तो पाक कुरान पर हाथ रखकर कायदे से कसम खाओ कि मुगलों और मराठों की लड़ाई में कभी नहीं पड़ोगे।’ तब निजाम ने बाजी राव की बहादुरी और चतुराई के आगे सिर झुका दिया था, और दुनिया तो आज भी झुकाती है।
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