उज्जैन में रामघाट, क्षिप्रा नदी का मनोरम तट। हम जब वहां पहुंचे, तो शाम हो रही थी और झाल, मंजीरे, घंटियां बजने लगी थीं, आरती शुरू हो गई थी, नदी के पार भी आरती हो रही थी। सूर्य अस्ताचल में जा चुके थे, हल्की रात घिर रही थी, एक ऊंची जगह पर खड़े होकर मैं निहार रहा था, चारों ओर। यही वह पावन स्थान है, जो सदियों से सिंहस्थ कुंभ के केन्द्र में रहा है। यही वह जगह है, जहां करोड़ों तपस्वियों, महा-मानवों, ऋषियों ने स्नान किया होगा। न जाने कितनी पूजा हुई होगी, न जाने यहां कितना दान हुआ होगा। न जाने कितने लोग मिले होंगे और कुछ बिछड़ भी गए होंगे।
आरती की घंटियों के अनहद नाद के बीच समय तेजी से सरक रहा है, किन्तु अब क्षिप्रा नहीं सरक रही। सुना है, नर्मदा का जल अब क्षिप्रा के जल को सरकाएगा, क्षिप्रा में नर्मदा का जल बहेगा। . . .अब मध्य प्रदेश सरकार की योजना साकार हो गई है, नर्मदा जल क्षिप्रा में बहने लगा है। सिंहस्थ कुंभ २०१६ की तैयारियां शुरू हो गई हैं।
नदी जोड़ की यह योजना क्या धार्मिक आधार पर सही है? जिन नदियों को जिन नदियों के साथ मिलना था, उन्हें ईश्वर ने स्वयं मिला दिया, किन्तु अब हम मानव नदियों को मिला रहे हैं। सरकारों को चाहिए था कि वे धर्म से जुड़ी तमाम नदियों को बचातीं, किन्तु उन्होंने ऐसा नहीं किया। उन्हें यही ज्यादा सहज लगा कि नदियों को नदियों से मिला दो, जो काम ईश्वर ने नहीं किया, वह हम कर रहे हैं, हमारी सरकारें कर रही हैं।
तो अब क्षिप्रा में स्नान कीजिए और ध्यान रखिए कि उसमें वास्तव में नर्मदा जल बह रहा है। क्या कहेंगे क्षिप्रा स्नान या नर्मदा स्नान? सरकारों ने नहीं सोचा, आप सोचिए. . .