Thursday, 26 July 2012

बिहार के लिए एक बातचीत



बिहार की कला संस्कृति और युवा विभाग की मंत्री-बक्सर से विधायक डा.सुखदा पांडेय से यह वार्ता ई मेल के जजिये हुई थी, इसका समाचार पत्र में कहीं एक जगह प्रयोग नहीं कर पाया, अतः यहाँ पेश है-

प्र. - राजस्थान और बिहार के पर्यटन आपको क्या फर्क नजर आता है, राजस्थान तो इस मामले में बिहार से बहुत आगे है?
उ.—राजस्थान की खूबसूरती और इसकी बहुरंगी संस्कृति हमेशा से ही दुनिया भर के लोगों को आकर्षित करती रही है। यही के किलों का स्थापत्य, मंदिरों की सुंदरता,यहां के लोकजीवन में इतने रंग हैं कि शायद ही कोई राजस्थान से मुंह फेर सकता है। जाहिर है, राजस्थान के लोगों ने अपनी विशेषताओं को सहेज कर सुरक्षित रखा है, इसीलिए भारत में पर्यटकों के लिए आज राजस्थान सबसे बडा आकर्षण है। यह सच है कि बिहार के पास एतिहासिक और धार्मिक महत्व के स्थानों की कमी नहीं, खास कर भगवान महावीर और महात्मा बुद्ध से जुडी स्मृतियां तो बिहार के कोने कोने में हैं, लेकिन यह भी सच है कि बिहार के कृषि आधारित समाज में इन स्थानों को कभी पर्यटन स्थल के रूप में विकसित करने की कोशिश नहीं हो सकी। हमारी सरकार ने इस जरूरत को महसूस किया और पिछले छः वर्षों में पर्यटन के विकास की दिशा में कई कदम उठाए, जिसमें एक बिहार महोत्सव है, हम आपके घर आकर आपको आमंत्रित कर रहे हैं। खजुराहो महोत्सव की तरह हमने भी राजगीर, वैशाली, कुण्डलपुर, पटना साहिब जैसे स्थानों पर राष्ट्रीय स्तर के कार्यक्रमों की शुरुआत की है। पर्यटकों के लिए बेहतर सुविधाओं की व्यवस्था की गई है।

प्र. - आज भी युवा बिहार छोड़ने के लिए मजबूर हो रहे हैं, उन्हें बिहार में ही रोकने के लिए क्या कदम उठाए गए हैं?
उ.—हमारे लिए बिहार की युवा आबादी गर्व की बात है। आज यदि पूरी दुनिया में बिहार की छवि बदल रही है, तो इसमें युवाओं की बडी भूमिका है। बिहार के युवाओं ने तमाम राष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगिताओं में ही सफलता हासिल नहीं की, बल्कि सिनेमा, टेलीविजन और नाटक जैसे क्षेत्रों में अपनी उल्लेखनीय पहचान दर्ज कर रहे हैं। रही बात बिहार में नौकरी की, तो आपको आश्चर्य होगा कि विदेशों में सफलता हासिल कर चुके युवा भी आज गर्व के साथ बिहार लौट रहे हैं। इसके साथ यह भी सच है कि बिहार के युवा देश भर में नौकरियां कर रहे हैं, लेकिन इसमें शर्म की क्या बात है। देश में विभिन्न कारणों से एक दूसरे राज्य में आने जाने की परंपरा तो पुरानी है,कोई व्यवसाय के लिए जाते हैं, तो कोई रोजगार के लिए। बिहार में कई उद्योगों की शुरुआत होने वाली है, हम चाहेंगे कि देश भर से लोग हमारे यहां भी नोकरियां करने आएं। राष्ट्रीय एकता की दिशा में यह जरूरी भी है।

प्र.— बिहार जैसे पिछड़े राज्य को विशेष राज्य का दर्जा दिलाने के लिए क्या किया जा रहा है?

उ.—बिहार के लिए विशेष राज्य के दर्जे की मांग हमारी सरकार लगातार करती रही है। जहां भी अवसर मिला मुख्यमंत्री जी ने स्वयं इस मुद्दे को पूरी तार्किकता से उठाया। पटना मे आयोजित बिहार ग्लोबल समिट में आए मोंटेक सिंह आहलूवालिया समेत सभी अर्थशास्त्रियों की इस पर मोटामोटी सहमती भी देखी गयी, इसके बावजूद यदि केन्द्र सरकार इस मामले पर टालमटोल कर रही है, तो यह सिवा असंवेदनशीलता के क्या कहा जा सकता है। यूं भी मंहगाई हो या राष्ट्रीय सुरक्षा का मामला केन्द्र सरकार की असंवेदनशालता कोई नई बात नहीं है।

भीड़ को किसने ठेका दिया

एक तरफ, स्त्रियों का यौन शोषण-छेड़छाड़-प्रताडऩा, तो दूसरी ओर, यौन मुक्ति की पराकाष्ठा। दोनों ही खबरें असम से आईं, दोनों ने ही भारतीय समाज को विचलित किया। पहले आई एक विधायक की खबर, जिन्होंने डेढ़-दो साल की बच्ची और पति को छोडक़र बिना तलाक लिए अपने फेसबुक फ्रेंड से विवाह रचा लिया। कहा गया कि उन्हें ऐसा करने का अधिकार था, उन्होंने ऐसा किया, तो क्या गलत किया। तलाक न लेने की बात भूल जाइए, छोटी बच्ची को पीछे छोड़ आने की बात भूल जाइए, देखिए कि स्त्री उसी स्वच्छंदता और यौन मुक्ति का आनंद ले रही है, जो पुरुष लेते आए हैं। प्रशंसा न ऐसे पुरुष की हुई है, न ऐसी स्त्री की होगी, तो दोनों ही निंदा के पात्र रहेंगे। लेकिन निंदा से तो शायद अब सरोकार ही खत्म होता जा रहा है, अपने सुख के आगे बाकी सारी नैतिकताएं-मर्यादाएं फालतू की बातें होती जा रही हैं।
बराबरी का सिद्धांत महिलाएं लागू करना चाहती हैं, वे पुरुषों की नकल करना चाहती हैं, लेकिन उन्हें यह ध्यान रखना चाहिए कि इसी समाज में अच्छे पुरुष भी रहते हैं, केवल वो बुरे पुरुष ही नहीं, जो अधिसंख्य महिलाओं को आकर्षित कर रहे हैं। आजादी का मतलब कदापि यह नहीं है कि बुरे पुरुषों का अनुगमन किया जाए। बुराई हर युग में हर हाल में बुराई थी और बुराई ही रहेगी।
उस महिला विधायक ने जो किया, वह गलत था, उनके माता-पिता ने भी अपनी बेटी का विरोध किया, लेकिन उनके खिलाफ भीड़ ने जो किया, वह तो और भी गलत था। यह भीड़ कौन है? उसके नाम से नैतिकता का ठेका किसने छोड़ा है?
ऐसी ही एक भीड़ उसी गुवाहाटी में सडक़ों पर जुटी थी, लेकिन उसने नैतिकता का ठेका नहीं उठाया। इस बार भीड़ के पास एक नाबालिग लडक़ी के साथ छेड़छाड़ करने और उसके कपड़े फाडऩे, उसे घसीटने, दबोचने का ठेका था? जिसे मिला, उसी ने हाथ साफ कर लिया? शायद भीड़ ने सोचा होगा कि लडक़ी बार से निकलकर आ रही है, इसलिए उसके साथ छूट ली जा सकती है? क्या रात को कोई लडक़ी घर से निकले, तो उसका आशय यही निकाला जाए कि वह दबोचे जाने के लिए ही निकल रही है? यह कैसा समाज है, जो दो तरह की भीड़ लगाने लगा है। एक भीड़ है, जिसके पास नैतिकता का ठेका है और दूसरी भीड़ जिसने नैतिकता की धज्जियां उड़ाने का ठेका ले रखा है।
यह एक बहुत बड़ा खतरा है, हम भीड़ को हलके से ले रहे हैं, जबकि यह हमारे समाज के लिए बहुत बड़ी चिंता की बात है। कोई हत्या या अपराध केवल इसलिए छोटा नहीं हो जाता कि उसे भीड़ ने अंजाम दिया है। भीड़ को तो ज्यादा कड़ा दंड मिलना चाहिए। भीड़ अकसर गलती ही करती है या शायद अब ज्यादा करने लगी है। भले और सज्जन लोग भीड़ में जाने से बचने लगे हैं। लोकतंत्र के भीड़तंत्र में बदलने का यह खतरा ऐसा है कि जिस पर सरकारों को गौर करना चाहिए। किसी को सजा देना या किसी का शोषण करना भीड़ का काम नहीं है, लेकिन अगर वह ऐसा कर रही है, तो यह हमारी व्यवस्था की विफलता है, यह भीड़ नहीं, समाज के टूटने का एक प्रतीक है। समाज टूट रहा है और इस टूट के गुस्से, झेंप, निराशा को वह सामूहिक रूप से निकाल रहा है। किन्तु वास्तव में यह क्षणिक आवेश है, जो समाज को और तोड़ेगा। दो लोग अगर किसी को पीट रहे हैं और हाव-भाव से अगर लग जाए कि पिटने वाला कमजोर है या पिट सकता है, तो दूसरे लोग भी हाथ साफ करने उतर आते हैं।
ऐसा फिल्मों में होता है, गुंडों की टोली जब आती है, तो मजबूर होकर एक आदमी दरवाजा खोलकर निकलता है, फिर दूसरा, तीसरा, चौथा, धीरे-धीरे सब निकल आते हैं और मुट्ठी भर गुंडे भाग खड़े होते हैं या फिर मारे जाते हैं, लेकिन यह असली जिंदगी में ठीक नहीं है। यह सोचना पड़ेगा कि थोड़ी ही देर में सडक़ पर चलते-चलते यह फैसला कोई नहीं कर सकता कि कौन भला है और कौन बुरा। फिर क्यों लोग गाड़ी रोककर पिटने वाले पर हाथ साफ करते हुए चल निकलते हैं? मानो चोरी का आरोप पर्याप्त हो जांच पड़ताल की कोई जरूरत न हो। कुछ लोगों के हाथों में तो खुजली होती है, किसी के भी फटे में टांग अड़ा देते हैं और भीड़तंत्र को मजबूत कर देते हैं। सजा देने का काम पुलिस का है। नैतिकता सिखाने का काम समाज और बड़े-बुजुर्गों का है, अगर वे यह काम पूरी सभ्यता व शालीनता के साथ नहीं कर रहे हैं, तो उन्हें धिक्कार है। भीड़तंत्र को खत्म करने के उपाय करने ही चाहिए, वरना संभव है आज उनकी तो कल हमारी बारी होगी। हम बताना चाहेंगे कि हम निर्दोष हैं, लेकिन लोग तो अपने हाथ साफ करके ही मानेंगे, भले हमारा कुछ भी हो जाए, हम रहें न रहें।

Tuesday, 24 July 2012

चुन-चुन शिष्य बनाया : आदि शंकराचार्य




जगदगुरु आदि शंकराचार्य बहुत कम आयु में ही ऐसे संत-विद्वान-गुरु के रूप में प्रतिष्ठित हो गए थे कि उनकी कीर्ति पताका आज तक फहरा रही है। उनके मठ-शिक्षा केन्द्र आज भी विराजमान हैं और ज्ञान-धन से समृद्ध हैं। उनके हजारों शिष्य थे, जिनमें से चार शिष्यों को उन्होंने जगदगुरु शंकराचार्य बनाया। उनके एक परम प्रिय शिष्य थे सनन्दन, जो गुरु के ज्ञान में आकंठ डूबे रहते थे। सनन्दन को गुरु पर अटूट विश्वास था। एक बार सनन्दन किसी काम से अलकनन्दा के पार गए हुए थे। आदि शंकराचार्य अपने दूसरे शिष्यों को यह दिखाना चाहते थे कि सनन्दन उन्हें क्यों ज्यादा प्रिय हैं। उन्होंने तत्काल सनन्दन को पुकारा, सनन्दन शीघ्र आओ, शीघ्र आओ। अलकनन्दा के उस पर आवाज सनन्दन तक पहुंची, उन्होंने समझा गुरुजी संकट में हैं, इसलिए उन्होंने शीघ्र आने को कहा है। वे भाव विह्वल हो गए। नदी का पुल दूर था, पुल से जाने में समय लगता। गुरु पर अटूट विश्वास था, उन्होंने गुरु का नाम लिया और तत्क्षण जल पर चल पड़े। नदी पार कर गए। आदि शंकराचार्य ने प्रभावित होकर उनका नाम रखा - पद्मपाद। पद्मपाद बाद में गोवद्र्धन मठ पुरी के पहले शंकराचार्य बने।
उनके दूसरे परम शिष्य मंडन मिश्र उत्तर भारत के प्रकाण्ड विद्वान थे, जिनको शास्त्रार्थ में आदि शंकराचार्य ने पराजित किया था। मंडन मिश्र की पत्नी उभयभारती से आदि शंकराचार्य का शास्त्रार्थ जगत प्रसिद्ध है। यहां सिद्ध हुआ कि अध्ययन और मनन ही नहीं, बल्कि अनुभव भी अनिवार्य है। अनुभव से ही सच्चा ज्ञान होता है। मंडन मिश्र को उन्होंने सुरेश्वराचार्य नाम दिया और दक्षिण में स्थित शृंगेरी मठ का पहला शंकराचार्य बनाया।
एक गांव में प्रभाकर नामक प्रतिष्ठित सदाचारी ब्राह्मण रहता था। उन्हें केवल एक ही बात का दुख था कि उनका एक ही पुत्र पृथ्वीधर जड़ और गूंगा था। लोग उसे पागल भी समझ लेते थे, बच्चे उसकी पिटाई करते थे, लेकिन वह कुछ न कहता था। परेशान माता-पिता पृथ्वीधर को आदि शंकराचार्य के पास ले गए और बालक को स्वस्थ करने की प्रार्थना की। आदि शंकराचार्य ने कुछ सोचकर उस बालक से संस्कृत में कुछ सवाल किए। चमत्कार हुआ, बालक भी संभवत: ऐसे प्रश्न की प्रतीक्षा में था, उसने संस्कृत में ही बेजोड़ जवाब दिए। गुरु ने एक जड़ से दिखने वाले बच्चे में भी विद्वता को पहचान लिया था, उन्होंने उस बालक को शिष्य बनाते हुए नया नाम दिया - 'हस्तामलक। हस्तामलक ही बाद में भारत के पश्चिम में स्थित शारदा पीठ-द्वारकाधाम के प्रथम शंकराचार्य बने।
शृंगेरी में निवास करते समय आदि शंकराचार्य को गिरि नामक एक शिष्य मिला। वह विशेष पढ़ा-लिखा नहीं था, लेकिन आज्ञाकारिता, कर्मठता, सत्यवादिता और अल्पभाषण में उसका कोई मुकाबला न था। वह गुरु का अनन्य भक्त था। एक दिन वह गुरुजी के कपड़े धोने गया, उधर आश्रम में कक्षा का समय हो गया, बाकी शिष्य आदि शंकराचार्य से अध्ययन प्रारम्भ करने को कहने लगे, जबकि गुरुजी गिरि की प्रतीक्षा करना चाहते थे। कुछ शिष्यों ने गिरि के ज्ञान और उसके अध्ययन की उपयोगिता पर प्रश्न खड़े किए, तो आदि शंकराचार्य को अच्छा नहीं लगा। उन्होंने गिरि को तत्क्षण व्यापक ज्ञान उपलब्ध कराकर असीम कृपा की और यह प्रमाणित कर दिया कि अनन्य गुरु भक्ति से कुछ भी प्राप्त किया जा सकता है। गिरि को उन्होंने तोटकाचार्य नाम दिया और बाद में उत्तर में स्थापित ज्योतिर्पीठ का प्रथम शंकराचार्य बनवाया।


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Monday, 23 July 2012

जात-पात से परे एक जगदगुरु : स्वामी रामानन्द




बनारस के एक अत्यंत पवित्र-ज्ञानी जुलाहे कबीर को गुरु की तलाश थी। उन्हें पता लगा कि गुरु के बिना सफलता नहीं मिलेगी। उनके मन में महान संत स्वामी रामानन्द जी को गुरु बनाने की इच्छा जागी। उस दौर में स्वामी रामानन्द बनारस ही नहीं, बल्कि देश-दुनिया के एक महान संत थे, उनके हजारों शिष्य थे, उनका आध्यात्मिक-सामाजिक दायरा बहुत विशाल और जात-पात से परे था। कबीर जानते थे कि उनका शिष्य बनना सहज नहीं है, अत: उन्होंने एक उपाय किया। सुबह मुंह अंधेरे रामानन्द जी स्नान करने के लिए श्रीमठ, पंचगंगा घाट की सीढिय़ां उतरते थे। एक रात कबीर उन्हीं सीढिय़ों पर उस जगह लेट गए, जहां से होकर रामानन्द जी गुजरते थे। स्नान के लिए गुरु जी पंचगंगा घाट की सीढिय़ां उतरते आए और उनका पांव कबीर पर पड़ गया। स्वाभाविक ही बहुत अफसोस और अपराधबोध के साथ अंधेरे में ही झुककर रामानन्द जी ने कबीर को उठा लिया और कहा, 'राम-राम कहो, कष्ट दूर होगा।Ó
फिर क्या था, कबीर को राम मंत्र मिल गया, गुरु मिल गए। पूरे बनारस में यह बात आग की तरह फैल गई कि जुलाहे कबीर को रामानन्द जी जैसे संत ने अपना शिष्य बना लिया। बात रामानन्द जी तक पहुंची, तो उन्हें ध्यान नहीं आया कि उन्होंने कबीर नाम के किसी व्यक्ति को शिष्य बनाया है। अब लोग कबीर के पास पहुंचे, घेर-घारकर श्रीमठ लेकर आए, ताकि रामानन्द जी से सामना कराया जा सके, ताकि शिष्य होने का सच सामने आए। जब कबीर को लेकर कई लोग श्रीमठ पहुंचे, तब श्रीमठ की अपनी गुफा में रामानन्द जी रामजी की पूजा में लगे थे। सब बाहर बैठकर प्रतीक्षा करने लगे। कबीर भी बैठ गए और ध्यान लगाया कि गुरु जी क्या कर रहे हैं। गुरु जी तब परेशान थे कि माला छोटी पड़ रही थी, छोटी माला रामजी को कैसे पहनाई जाए। कबीर से रहा न गया, उन्होंने मन ही मन कहा, 'मलवा तुर के गलवा में पहिराय दीं।Ó(माला तोड़कर गले में पहना दीजिए)। योगबल का प्रभाव था, यह आवाज गुरु जी तक पहुंच गई, उन्होंने तत्काल माला की डोर तोड़ी और रामजी के गले में डालकर पुन: बांध दी। उनके मन में यह प्रश्न आश्चर्य के साथ उठ रहा था कि समस्या का समाधान बताने वाली यह आवाज कहां से आई। वे तत्काल अपनी गुफा से बाहर निकले और पूछा कि यह आवाज किसकी थी, मलवा तुर के गलवा में पहिराय दीं। सब चुप थे, कबीर ने कहा, गुरुजी यह मैंने सोचा था।
गुरु तत्काल जान गए कि यह शिष्य मामूली नहीं है। छोटी जात का जुलाहा है, तो क्या हुआ। उन्होंने कबीर को शिष्य स्वीकार कर लिया। रामानन्द जी अद्भुत गुरु थे, कई खेमों में बंटे भारतीय समाज में उन्होंने उद्घोष किया था, जात-पात पूछे नहीं कोई, हरि को भजे से हरि का होई। उनके परम शिष्यों में वस्त्र बुनने वाले कबीर ही नहीं थे, उनके परम शिष्यों में चर्मकार रैदास या रविदास भी शामिल थे, जो चमड़े का काम करते थे। उनके परम शिष्यों में धन्ना जाट भी थे और संत सेन भी, जो लोगों के बाल बनाते थे। रामानन्द जी एक ऐसे गुरु थे, जिन्होंने भारतीय समाज को एकजुट करके एक ऐसी राह दिखाई, जिस पर देश आज भी चल रहा है। ऊंच-नीच को न मानने वाला भारतीय संविधान तो बाद में बना, लेकिन मध्यकाल में यह नींव रामानन्द जी ने रख दी थी। वे एक ऐसे गुरु थे, जिनका श्रीमठ आज भी कायम है और उनके शिष्यों के भी पंथ चल रहे हैं।
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