Sunday, 29 March 2009

यादों को किसने रोका है


ताउम्र हमको इक यही अफसोस रहेगा


कि हम न मुस्कुरा सके आपकी तरह।


सुरों और गीतों का अंबार था लगा,


पर हम न गुनगुना सके आपकी तरह।


(मुझे अपने कुछ पुराने शेर याद आ गए, जो कॉलेज के अंतिम दिनों में लिखे गए थे। उसे मैंने अब यों पूरा किया है -


आज भी बातें पुरानी जर्रा-जर्रा याद हैं,


हम कुछ नहीं भुला सके आपकी तरह।


करते-करते कोशिश थक गए हैं हम


दिल को न समझा सके आपकी तरह।

Sunday, 22 March 2009

आईपीएल क्यों नहीं?

भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड ने आईपीएल टूर्नामेंट विदेश में कराने का जो फैसला लिया है, वह अभी अंतिम भले न हो, लेकिन आयोजन विदेश में होता है, तो भारत के लिए दुखद होगा। जब तमाम देशों के क्रिकेट खिलाड़ी भारत में खेलते हैं, तो जाहिर है, देश का सम्मान बढ़ता है। क्रिकेट जगत में भारत के महाशक्ति होने का अहसास होता है, लेकिन जब आईपीएल टूर्नामेंट किसी पराए देश में आयोजित होगा, तब हमारे क्रिकेटीय अभिमान पर नकारात्मक असर पड़ेगा। यह हमारी सरकारों की नाकामी है। सरकार चुनाव की वजह से आईपीएल को सुरक्षा देने की स्थिति में नहीं है। पहले केन्द्र सरकार ने रोड़ा लगाया, फिर राज्य सरकारों ने एक-एक कर मजबूरियों का बखान कर दिया। केन्द्रीय गृह मंत्री पी. चिदंबरम ने क्रिकेट प्रेमियों को निराश किया है। चिदंबरम के इशारे पर तीन बार आईपीएल टूर्नामेंट के कार्यक्रम को बदला गया, लेकिन इसके बावजूद बात नहीं बनी। अंततः चिदंबरम ने कह दिया, `चिंता केवल मतदान तिथियों पर होने वाले आईपीएल मैचों की नहीं है, चिंता समग्र सुरक्षा की है।ं अब दुनिया भर के क्रिकेट प्रेमी भारत में सुरक्षा को लेकर चिंतित हो जाएंगे। सरकार को सुरक्षा के मद्देनजर हाथ खड़े करते देखना दुखद है। इस स्थिति के लिए शुद्ध रूप से सरकार दोषी है।

दरअसल, भारत में नेताओं की सुरक्षा सबसे महत्वपूर्ण है। पुलिस बहुत हद तक केवल नेताओं की सुरक्षा के लिए ही तैनात की जाती है। ऐसे-ऐसे नेता हैं, जिनके पीछे सौ-सौ पुलिस वाले डोलते हैं। कटु सत्य है, चुनावी मौसम में सरकारें केवल नेताओं की सुरक्षा को लेकर चिंतित हैं, जनता की सुरक्षा की परवाह अगर हमारी सरकारों को होती, तो सुरक्षा बलों और पुलिस बल में निर्धारित पद खाली न पड़े होते। हमारे सुरक्षा इंतजाम इतने पुख्ता होते कि चुनाव के साथ-साथ आईपीएल टूर्नामेंट भी होता।

संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक, एक लाख लोगों की सुरक्षा के लिए 222 पुलिस वाले होने चाहिए, लेकिन भारत में महज 143 पुलिस वाले हैं। आंकड़े बताते हैं, सशस्त्र पुलिस बलों 13.८ प्रतिशत और नागरिक पुलिस बल में 9.8 प्रतिशत पद खाली हैं। निर्धारित पद भी जरूरत से कम हैं। नेता चाहें, तो अपने सुरक्षा में सौ-सौ पुलिसकर्मी रखें, लेकिन कृपया जनता को भगवान भरोसे न छोड़ें। बात सुरक्षा-रक्षा की हो रही है, तो बताते चलें कि थल सेना में 23.8 प्रतिशत, नौसेना में 16.7 प्रतिशत और वायु सेना में 12 प्रतिशत अफसरों के पद खाली हैं।

चिंता क्रिकेट की नहीं है, क्योंकि क्रिकेट की लोकप्रियता पर लगाम लगाना सरकार के वश में नहीं है। चिंता तो सुरक्षा की है, जिसकी वजह से क्रिकेट का एक रंगारंग आयोजन खटाई में पड़ने वाला है। पुलिसकर्मी कम हैं और उनके पास उपलब्ध संसाधनों का तो और भी बुरा हाल है। आतंकी हमलों से विचलित सरकार रिस्क लेना नहीं चाहती, तो न ले, लेकिन सुरक्षा के मोर्चे पर उसकी पोल फिर एक बार खुल गई है।

Saturday, 21 March 2009

माइक पाण्डेय और विश्व जल दिवस


माइक पाण्डेय मतलब पर्यावरणविद्, ग्रीन ऑस्कर विजेता, कैमरामैन, फिल्मकार, अर्थ मैटर्स जैसे सफल कार्यक्रम के निर्माता, निर्देशक, एंकर। उन्होंने पर्यावरणविद के रूप में सबसे ज्यादा काम किए हैं। कैमरा या स्पेशल इफेक्ट का काम तो उनके निर्देशन में उनकी टीम ही करती है। कैमरामैन के रूप में उन्होंने `रजिया सुल्तानं फिल्म में सबको चौंकाया था। धर्मेन्द्र , हेमा और न जाने कितनी फिल्मी हस्तियों के करीबी माइक पाण्डेय मूलतः तो गोरखपुर के पास के हैं, लेकिन कीनिया में जन्म हुआ, इंग्लैंड और अमेरिका में पढ़ाई की। उन्हें काम के लिए भारत ज्यादा व्यापक लगा, वे यहीं बस गए। खूब काम किए। पर्यावरणविद के रूप में वनों और लोक जीवन को करीब से देखने वाले विशेषज्ञ के रूप में। इसमें कोई शक नहीं है कि हिन्दी में पर्यावरणविद् को वैसे भी बहुत ख्याति नहीं मिल पाती है, क्योंकि हम अभी भी पर्यावरण या वन के महत्व को ढंग से नहीं समझ सके हैं।

माइक पाण्डेय से मेरी एक सीधी मुलाकात है। अमर उजाला में रहते हुए। चिराग दिल्ली में उनके निवास पर लंबी बातचीत मुझे काफी कुछ याद है। उन्होंने पृथ्वी के प्रति मुझे सोचने पर विवश कर दिया था। उन्होंने ही मुझे बताया था, स्विट्जरलैंड में ऐसी झीलें हैं, जिनके पानी को सीधे पीया जा सकता है और अमेरिका दुनिया का सबसे प्रदूषित देश है। उन्होंने ही मुझे समझाया था कि बाघ बिना पृथ्वी पर कोई नहीं रह पाएगा। शनिवार, 21 मार्च को फिर उनसे फोन पर लंबी बात हुई, वे मुझे पहले से भी ज्यादा चिंतित नजर आए। पृथ्वी और पर्यावरण के प्रति प्रेम और दर्द से भरे हुए। बातचीत में उनकी निराशा साफ महसूस हो रही थी। एक रोष भी था।

उन्होंने कहा, `कालिदास की कथा सब जानते हैं, वे जिस डाल पर बैठे थे, उसी को काट रहे थे। हम आज के कालिदास हैं। हम जीवन की जिस डाल पर बैठे हैं, उसी को काट रहे हैं। पृथ्वी हमारे लिए है, पानी हमारे लिए है, लेकिन हम दोनों को नष्ट कर रहे हैं। अपनी खाद्य सुरक्षा और जीवन चक्र को मुसीबत में डाल रहे हैं। जहां तक भारत की बात है, तो पहले भारत ऐसा नहीं था। महाभारत काल में भी जगह-जगह कुंड, सरोवर का जिक्र आता है। देश में अनेक गांव हैं, जहां पोखर-सरोवर आज भी हैं, लेकिन हम उन्हें खत्म करते जा रहे हैं। हमारी राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में ही एक समय 500 कुंड थे, लेकिन उनको पाट दिया गया। उन पर कॉलोनियां बना दी गई। अब दिल्ली पानी के लिए तरस रही है। वहां जरूरत भर का पानी नहीं मिल पा रहा है, तो बाकी देश की कल्पना कर लीजिए। न जाने कितने कुंड और सरोवर पाट दिए गए हैं। क्या हम आज के कालिदास नहीं हैं?

उन्होंने जानकारी दी। - नदियों को बचाने के लिए केवल हिम पर्वतों का बचाना ही जरूरी नहीं है, जंगलों को भी बचाना जरूरी है। दक्षिण भारत में करीब 300 नदियां जंगलों से ही निकलती हैं। माइक आजकल कुछ आध्यात्मिक और पारंपरिक ज्ञान प्रेमी भी हो गए हैं। उन्होंने बताया, `गौतम बुद्ध ने कहा था, `पृथ्वी से उतना ही लीजिए, जितना जरूरी है। गुरुनानक देव ने कहा, `एक परिवार की तरह रहिए। लेकिन हम क्या कर रहे हैं? हमें अपने महान पूर्वजों की सलाह की कोई परवाह नहीं है। हम न केवल अपने पूर्वजों का अनादर कर रहे हैं, बल्कि पृथ्वी पर जीवन का अनादर कर रहे हैं। पानी के लिए पैसा नहीं है, लेकिन इराक में 4 अरब डॉलर प्रतिदिन युद्धोन्माद पर खर्च किया जा रहा है। हम कहते हैं, युद्ध नहीं होना चाहिए, लेकिन एटम बम बनाते हैं। दिक्कत यहीं है। जो जरूरी है, वह नहीं किया जा रहा है और जो जरूरी नहीं है, उस पर धन लुटाया जा रहा है।

Friday, 13 March 2009

जम्हूरियत की किरकिरी

आतंकवादियों या कट्टरपंथियों से मुकाबले के लिए जिस तरह की छवि के नेता होने चाहिए, वैसे नेता पाकिस्तान में नहीं हैं। जब कोई दागदार नेता मुल्क का नेतृत्व करता है, तो जाहिर है, उससे देश को अंतत: घाटा होता है और गलत काम करने वाले लोगों का मनोबल बढ़ता है। आज पाकिस्तान में आतंकवादी खुद को मजबूत पा रहे हैं, तो वास्तव में यह जरदारी, गिलानी और कियानी जैसों की कमजोरी है। जरदारी ने नवाज शरीफ और उनके भाई शाहबाज शरीफ के साथ जो किया है, वह जम्हूरियत नहीं है। जम्हूरियत केवल सत्ता पक्ष की जिम्मेदारी नहीं है। यह विपक्ष की भी जिम्मेदारी है। जम्हूरियत हड़पने की चीज नहीं है, बांटने की चीज है, लेकिन जरदारी तो बेनजीर भुट्टो की मौत के बाद से ही हड़पने में जुटे हैं। अब भी वक्त है, पाकिस्तान में जम्हूरियत पसंद नेताओं को एकजुट होना होगा। वरना एक दूसरे को अयोग्य ठहराने की जद्दोजहद में मुल्क उन फौजियों के हाथों में चला जाएगा, जिन्होंने अब तक पाकिस्तान की फजीहत करवाने के अलावा और कुछ नहीं किया है।