Monday, 30 December 2019

स्कूल ने निकाला तो हुनर याद आया

रिचर्ड ब्रेंसन 
(मशहूर उद्यमी)


पढ़ाई उस लड़के के लिए एक ऐसा मुश्किल पहाड़ थी, जिस पर चढ़ना नामुमकिन था। पढ़ाई में आलम ऐसा था कि हर राह-मंजिल पर डांट-फटकार बरसती रहती थी। गणित देखकर दिमाग पैदल हो जाता, विज्ञान सिर के ऊपर से निकल जाता, भाषा ऐसे लंगड़ाती कि पूरे ‘रिजल्ट’ को बिठा देती। कई बार ऐसी पिटाई की नौबत आन पड़ती कि अपना भूगोल ही खतरे में पड़ जाता। हाथ भले पढ़ाई में तंग था, लेकिन दिमाग में बदमाशियां इफरात थीं। हरकतें ऐसी थीं कि एक दिन प्रिंसिपल साहब ने यहां तक कह दिया, ‘यह लड़का या तो जेल पहुंचकर मानेगा या फिर करोड़पति बन जाएगा।’ शिक्षकों ने बहुत पढ़ाया-समझाया, प्रिंसिपल ने भी लाख कोशिशें कीं, लेकिन पढ़ाई उस लड़के के पल्ले नहीं पड़ी, और अंतत: वह दिन आ गया, जब वह लड़का स्कूल से बाहर कर दिया गया। उम्र महज 15 साल थी, मैट्रिक का मुकाम भी दूर रह गया। पढ़ाई छूट गई, अब क्या होगा? मां बैले डांसर थीं और कभी एयर होस्टेस रही थीं। पिता काम लायक भी कामयाब नहीं थे। ऐसे में घर का बड़ा लड़का ही पटरी से उतर गया। जो लोग पढ़ाई के लिए कहते थे, वही पूछने लगे कि अब यह लड़का क्या करेगा? 

एक दिन वह लड़का उसी छूटे स्कूल के बाहर बैठकर सोच रहा था। बाकी लड़के स्कूल जा रहे थे। उनमें से कुछ शायद मुस्करा भी रहे थे। दुनिया में ऐसे लोग बहुत हैं, जो सिर्फ किसी की नाकामी का इंतजार करते हैं, घात लगाए बैठे रहते हैं कि कब किसी को नाकामी का घाव लगे और उस पर नमक छिड़का जाए। ऐसी निर्मम दुनिया में स्कूल ने उसे ऐसे ठुकरा दिया था कि किसी दूसरे स्कूल में दाखिले की सोचना भी फिजूल था। उसके साथ ऐसा क्यों हुआ? वह क्यों न पढ़ सका? कहां कमी रह गई? क्या जिंदगी में आज तक हर काम बुरा ही किया है? वहां बैठे-बैठे पहले तो वह लड़का अपनी तमाम बुरी यादों से गुजरा। बीते लम्हों के हादसों के तमाम मंजर जब खर्च हो गए, तब सोच की सही लय लौटी। दिलो-दिमाग में सवाल पैदा हुआ, क्या आज तक की जिंदगी में कभी उसे तारीफ मिली है? वह कौन-सा काम था, जिसके लिए उसे तारीफ मिली थी? आखिर ऐसा कोई तो काम होगा? फिर उसे याद आया कि उसने एक बार स्कूल की पत्रिका के प्रकाशन में शानदार योगदान दिया था, जिसके लिए उसे सबसे तारीफ हासिल हुई थी। जिसके हाथ में भी वह पत्रिका गई थी, लगभग सभी ने उसेबधाई दी थी।

पत्रिका का प्रकाशन अकेला ऐसा काम था, जिससे उस लड़के को कुछ समय के लिए ही सही, स्कूल में शोहरत नसीब हुई थी। लड़के ने अपना हुनर खोज लिया था, उसे अपनी काबिलियत दिख गई थी। उसे लग गया था कि यही वह काम है, जो वह सबसे बेहतर कर सकता है। वह उठा, पूरे जोश के साथ स्कूल के अंदर गया और अभिवादन के बाद प्रिंसिपल से बोला, ‘सर, आप कहते हैं, मैं कुछ नहीं कर सकता, लेकिन एक काम है, जो मैं बेहतर कर सकता हूं, जिसके लिए मुझे आपसे तारीफ भी मिल चुकी है। मैं छात्रों के लिए एक अच्छी पत्रिका निकालूंगा। आपसे मदद की उम्मीद रहेगी।’ प्रिंसिपल भी उसका जोश देख खुश हो गए। उन्होंने लड़के को मदद के आश्वासन और शुभकामनाओं के साथ विदा किया। फिर क्या था, वह लड़का दिन-रात पत्रिका की तैयारी में जुट गया। पैसा, संसाधन, सामग्री, सहयोग इत्यादि वह जुटाता गया। छात्रों को ही नहीं, उनके अभिभावकों को भी अपने शीशे में उतारने में वह लड़का इतना माहिर था कि सभी ने मिलकर उसकी मदद की और सवा साल की बेजोड़ मेहनत के बाद उसकी पत्रिका स्टूडेंट  का पहला अंक 1 जनवरी, 1968 को बाजार में आ गया। वह पत्रिका छात्रों, शिक्षकों और अभिभावकों के बीच हाथों-हाथ ऐसी बिकी कि सबने उस 17 साल के लड़के रिचर्ड ब्रेंसन को सिर-आंखों पर बिठा लिया। 

ब्रेंसन बहुत कम उम्र में दूसरों के लिए नजीर बन गए। वह समझ गए थे, जिंदगी में वही काम करना चाहिए, जो हम सबसे बेहतर कर सकते हैं या जिसमें हम सबसे ज्यादा हुनरमंद हैं या जिसके लिए लोग हमारी तारीफों के पुल बांधते हों। ब्रेंसन के एक हुनर ने उनके लिए आगे बढ़ने की ऐसी राह बना दी कि उन्होंने कभी पलटकर नहीं देखा। आज वह वर्जिन ग्रुप की 400 से ज्यादा सफल कंपनियों के मालिक हैं और दुनिया के मशहूर अमीरों में उनकी गिनती होती है। नाकामियों से निकलने के लिए अपने गिरेबां में कैसे झांकना पड़ता है, रिचर्ड ब्रेंसन इसकी बेहतरीन मिसाल हैं। गौर कीजिएगा, जिस लड़के को कभी स्कूल से निकाल दिया गया था, उस लड़के की कामयाबी आज दुनिया के तमाम सर्वश्रेष्ठ प्रबंधन संस्थानों और विश्वविद्यालयों में पढ़ाई जाती है। -

जीते जी छप गई मौत की खबर

अल्फ्रेड नोबेल (वैज्ञानिक-उद्यमी)


जिंदगी है, तो इम्तिहान भी हैं। एक इम्तिहान खत्म, तो दूसरा शुरू। इस बेरहम दुनिया में इम्तिहान मौत के बाद भी पीछा नहीं छोड़ते। अच्छा है, आदमी ऐसे चला जाता है कि फिर नहीं लौटता यह देखने कि दुनिया ने उसे आखिरी इम्तिहान में पास किया या फेल? लेकिन यहां तो अजीब ही वाकया हो गया। आदमी जिंदा था और अखबार में उसकी मौत की सुर्खियां थीं। आदमी अपनी ही मौत की खबर पढ़ रहा था। खबर का शीर्षक था, ‘मौत के सौदागर की मौत।’ खबर ऐसे लिखी गई थी, मानो दुनिया उसकी मौत के इंतजार में बैठी थी और उसकी मौत से सबने राहत का एहसास किया। उस आदमी को लग रहा था कि दुनिया उसका आखिरी इम्तिहान ले चुकी है, जिसमें उसे फेल कर दिया गया है और उसे ढंग से शोक संवेदना भी नसीब नहीं हो रही है।  

वह आदमी कोई और नहीं, बल्कि अल्फ्रेड नोबेल थे, जिनकी दौलत और नाम से आज दुनिया का सबसे प्रतिष्ठित सम्मान दिया जाता है। दरअसल, 13 अप्रैल, 1888 को छपी वह खबर गलत थी। मौत अल्फ्रेड नोबेल की नहीं, बल्कि उनके बड़े भाई लडविग नोबेल की हुई थी। नोबेल बंधुओं में सबसे कामयाब लडविग दुनिया के चुनिंदा अमीरों में एक थे, पर अल्फ्रेड के लिए गुस्सा इस कदर था कि उनकी मौत की खबर छप गई। उस लम्हे ने अल्फ्रेड को हिलाकर रख दिया, क्या दुनिया उसके बारे में इतना खराब सोचती है? अल्फ्रेड आजीवन अकेले रहे थे। पूरी जिंदगी वैज्ञानिक जुनून और तिजारत पर कुर्बान थी। अरब-खरब में दौलत थी, पर कुल जमा जिंदगी का निचोड़ यह कि ‘मौत के सौदागर की मौत।’

उन लम्हों में बड़े भाई की मौत का गम तो था ही, पर छोटे भाई एमिल की मौत भी ख्यालों में उमड़ने लगी। एमिल नोबेल परिवार में कॉलेज जाने वाले पहले सदस्य थे। प्रयोगों में बड़े भाई अल्फ्रेड की मदद करते थे। उन दिनों नाइट्रोग्लिसरीन से ताकतवर और इस्तेमाल के काबिल विस्फोटक बनाने की जद्दोजहद जारी थी। इस खोज की कमान अल्फे्रड के हाथों में थी। ऐसे तरल विस्फोटक को मुकम्मल रूप दिया जा रहा था, जिसे एक जगह से दूसरी जगह ले जाना ज्यादा आसान हो। उस दिन न जाने क्या कमी रह गई, प्रयोगशाला में भयंकर विस्फोट हुआ। वह दिन था,  3 सितंबर, 1864, इस हादसे में छोटा भाई चार सहयोगियों के साथ शहीद हो गया। महज इत्तफाक था कि तब अल्फ्रेड वहां मौजूद नहीं थे। तब भी अखबारों ने इस खोज के खिलाफ बहुत छापा, पर अल्फ्रेड पर कोई असर नहीं हुआ। अपने सबसे छोटे बेटे को खोकर पिता तो इतने गमजदा हुए कि इस खोज से ही पीछे हट गए, लेकिन उन दिनों अल्फ्रेड पर मानो जुनून सवार था। वह हादसे भुलाकर आगे बढ़े और लगभग तीन साल की मेहनत से एक मुकम्मल विस्फोटक डायनामाइट ईजाद करने में कामयाब हो गए।

अल्फ्रेड को विस्फोटक और हथियार बनाने का ऐसा चस्का था कि वह लगातार अपनी धुन में लगे रहे। कभी पलटकर नहीं सोचा कि दुनिया उनके बारे में क्या सोचती है। खदानों और पत्थर तोड़ने में तो डायनामाइट और अन्य विस्फोटक काम आते ही थे, जंगों में भी उनके विस्फोटक लोगों की मौत का सामान बनने लगे थे। सबसे बढ़कर यह कि अल्फ्रेड को अपने ऐसे आविष्कारों पर बड़ा गुरूर था। सोचने का ढंग ही अलहदा था। वह आसानी से दूसरों को नाराज कर देते थे। सच बोलने वालों से एक बार ऐसी चिढ़ हुई कि कह दिया, सच्चा आदमी आमतौर पर झूठा होता है। उम्मीद को सच की नग्नता छिपाने का परदा मानते थे। 

आगे बढ़ने के लिए अल्फ्रेड ने किसी की परवाह नहीं की थी। अपनी मौत की खबर पढ़कर उस दिन निर्मम-निराशावादी इंसान का सामना पहली बार इस बात से हुआ था कि दुनिया उससे नफरत करती है। जब भी दुनिया में उसके बनाए विस्फोटकों से कोई मारा जाता है, लोग उसे कोसते हैं। विस्फोटकों ने युद्ध को बदल दिया है। अब युद्ध में वीरता की नहीं, धोखे की जीत होने लगी है। जो पहले डायनामाइट बिछा गया, वह जीत गया। उस फ्रेंच अखबार ने उस दिन बिना रियायत यह भी लिखा था, ‘यह वही आदमी है, जो पहले से ज्यादा तेजी से अधिक लोगों को मारने के तरीके खोजकर अमीर हुआ है।’ 

उस दिन अल्फ्रेड की जिंदगी तो नहीं बदली, लेकिन उनकी सोच के ढांचे दरक गए। वह छवि सुधार की कोशिशों में लग गए, ताकि दुनिया उन्हें अच्छे रूप में भी याद करे, और आखिरकार अपनी मौत से एक साल पहले उन्होंने देशों की सीमाओं से परे दुनिया के योग्यतम लोगों को नोबेल सम्मान देने का फैसला किया। उनकी ही दौलत से नोबेल सम्मान बंटते 118 साल बीत चुके हैं। सभ्य दुनिया में अब कोई नहीं कहता कि अल्फ्रेड नोबेल मौत का सौदागर 

डर को धूल चटाकर जीता आसमान



सबिहा गोचेन (पहली महिला फाइटर पायलट)


क्रांति होती है, देश आजाद होता है, तो सारे लड़के एक साथ आजाद हो जाते हैं, लेकिन क्या लड़कियां भी वैसे ही आजाद होती हैं? दुनिया में लड़कियों को क्यों अनसुना कर दिया जाता है? लड़कों की किस्मत में सब कुछ है और लड़कियों की किस्मत में सिर्फ रसोई, गुलामी और सबकी सेवा? और ऊपर से यह सवाल भी कि लड़कियां आखिर करती क्या हैं? लड़कों की जिंदगी बढ़ती है, लेकिन लड़कियों की ठहरी-सी रहती है, जैसी मेरी ठहरी है? तुर्की देश के बुर्सा शहर में 12-13 साल की अनाथ लड़की सबिहा के मन में ऐसे ही ख्याल उमड़ते रहते थे। नए गणराज्य तुर्की में जश्न का माहौल था, लेकिन सबिहा की जिंदगी गम के स्याह अंधेरे में थी। अर्मेनिया नरसंहार में मां की गोद छिन गई, पिता का साया न रहा, तो किस्मत ने अनाथालय ला पटका, जहां खैरात से टुकड़ा भर रोटी और टुकड़ा भर पढ़ाई नसीब होने लगी थी। उस बच्ची की जिंदगी में सब कुछ टुकड़ा-टुकड़ा था, सिवाय गम के। वह दूसरे बच्चों को सज-धजकर अच्छे स्कूलों में जाते देखती, तो उसके आंसू बह निकलते। काश! मैं भी अच्छे स्कूल जाती, अच्छे कपड़े पहनती, अच्छी जगह रहती। 

संयोग की बात है, उन्हीं दिनों तुर्की गणराज्य के संस्थापक राष्ट्रपति मुस्तफा कमाल पाशा बुर्सा आए हुए थे। जहां वह ठहरे थे, वहां उन्हें आते-जाते सबिहा रोज दूर से देखती थी। मिलने की इच्छा जागती। अब पूरे देश के पिता मुस्तफा क्या एक अनाथ, लाचार, गरीब और अकेली लड़की की सुनेंगे? कई बार उसके कदम उठते, लेकिन फिर ठहर जाते। कभी डर का बोझ बढ़कर बैठा देता, तो कभी हिचक पांव में बेड़ियां डाल देती। कुछ दिन ऐसे ही चला। पता नहीं कब, राष्ट्रपति राजधानी अंकारा के लिए निकल जाएंगे? अभी मिल पाने की थोड़ी गुंजाइश है, लेकिन बाद में हो सकता है, उन्हें देखना भी नामुमकिन हो जाए। लेकिन एक दिन, हिचक और डर को दरकिनार कर सबिहा चल पड़ी, जो होगा, देखा जाएगा, कोशिश तो करूं कि जिंदगी में आगे कोई अफसोस न रहे। वह बढ़ती गई, सुरक्षा घेरों को बेहिचक-बेरोक पार करती गई। उसने महसूस किया कि जब कोई आत्म-विश्वास से भरपूर चलता है, तो दुनिया भी नहीं टोकती। उसने आगे बढ़कर राष्ट्रपति का अभिवादन किया और कहा, ‘मुझे आपसे बात करनी है?’ राष्ट्रपति ने गौर किया, एक छोटी लड़की कुछ कहना चाहती है, ‘क्या बात है?’

‘मदद मांगने आई हूं। आप सबके लिए कुछ न कुछ कर रहे हैं, क्या आप मेरी मदद करेंगे? मेरा कोई नहीं है, अनाथ हूं, गरीब हूं, लेकिन मैं बोर्डिंग स्कूल में पढ़ना चाहती हूं। हिम्मत जुटाकर आपके पास बहुत आस लिए आई हूं, मेरे लिए कुछ कीजिए..।’ देखने वाले चकित थे, कहां से आ गई यह लड़की,  लेकिन वह तो सिर्फ राष्ट्रपति को देख रही थी, तब दुनिया को क्या देखना? वर्षों बाद जो शख्स गौर से दुखड़ा सुन रहा था, उसे निडर होकर लड़की सुनाए जा रही थी। पूरी बातें सुनने के बाद राष्ट्रपति ने उस अनाथ के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘अब तुम अनाथ नहीं हो, आज से मैं तुम्हारा पिता हूं। चलो उस घर, जहां तुम्हारा यह पिता रहता है।’ अनाथालय से राष्ट्रपति भवन के बीच यही वह छोटा-सा लम्हा था, जिसने हिचक और डर को धूल चटाकर सबिहा की जिंदगी को आमूल-चूल बदल दिया। वह राष्ट्रपति भवन में अकेली नहीं थीं, उनकी करीब तेरह बहनें और एक भाई साथ रहते थे। सबको राष्ट्रपति ने गोद ले रखा था, लेकिन इन सभी में सबसे खास निकली सबिहा। अच्छी पढ़ाई, अच्छी संगत में जिंदगी संवर गई। जब वह 21 की हुई, परंपरागत पढ़ाई पूरी होने वाली थी, तब पिता ने नाम दिया, सबिहा गोचेन। गोचेन का अर्थ है- आसमानी अर्थात आकाश का।

इस नाम ने सबिहा को नई ऊर्जा से भर दिया। पिता एक बार वायु सेना के करतब दिखाने ले गए। सबिहा के दिमाग में पायलट बनने का जुनून सवार हो गया। पिता ने हामी भर दी। फिर शुरू हुई पुरुषों में अकेली महिला पायलट की ट्रेनिंग। सीखते-सीखते सबिहा दुनिया की पहली महिला फाइटर पायलट बन गईं। दुश्मनों पर बम बरसाने और कामयाब लौटने का उनका रिकॉर्ड दुनिया भर में पायलटों और महिलाओं को प्रेरित करता है। सबिहा की जिंदगी आज भी साबित करती है कि लड़कियां डर और हिचक के पार निकल जाएं, तो शक्ति बन जाती हैं। सबिहा जैसी बेटियों और माताओं ने ही मुस्तफा को प्रेरित किया और महिलाओं को मताधिकार देने वाला तुर्की दुनिया का अग्रणी देश बना। सबिहा हमेशा मिसाल रहेंगी। उनके जिंदा रहते ही तुर्की की राजधानी इस्तांबुल में विशाल अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा बना, जिसका नाम रखा गया : सबिहा गोचेन इंटरनेशनल एयरपोर्ट। 

प्रस्तुति : ज्ञानेश उपाध्याय

साहबी ऐसे छूटी कि फिर न लौटी


राजेंद्र प्रसाद, आजाद भारत के पहले राष्ट्रपति


बाबू साहबों का वहां बड़ा जलवा था। एक से बढ़कर एक बाबू साहब! उनकी गिनती के लिए उनके डेरों से कुछ दूर बैठना पड़ता था। सुबह से रात तक चूल्हों से उठते धुएं की लड़ियां गिनने से पता चल जाता था, जितने चूल्हे जल रहे हैं, उतने ही बाबू साहब लोग आराम फरमा रहे हैं। आज से 102 साल पहले अंग्रेजों के गुलाम भारत के चंपारण में यही तो हो रहा था, जिसे मोहनदास करमचंद गांधी नाम के वकील सहन नहीं कर पा रहे थे। खास तो यह कि वे सभी बड़े साहब या बड़का बाबू लोग भी वकील थे। नील उत्पादक किसानों को न्याय दिलाने की लड़ाई में शामिल होने गांधीजी के नेतृत्व में चंपारण आए थे। ऐसे-ऐसे वकील कि उस जमाने में महज सलाह देने के 10 हजार रुपये तक वसूल लेते थे। क्या मजाल कोई एक रुपये की भी रियायत ले जाए। 


देश के योग्य और विद्वान वकील ऐसे बिखरे हुए थे, तो देश के आम लोग कितने बिखरे हुए होंगे? एक दिन रहा नहीं गया, तो गांधीजी ने वकीलों को फटकारा, यहां हम आठ-दस अपनी ही मंडली के साथी साथ भोजन नहीं कर सकते, सबका भोजन साथ पक नहीं सकता, तो क्या हम करोड़ों देशवासियों को एकजुट कर पाएंगे? हम आंदोलन के लिए आए हैं, लेकिन यहां किसानों और अंग्रेजों को क्या संदेश दे रहे हैं? क्या यहां हम यह बताने आए हैं कि हम कितने बंटे हुए हैं, हमारा दाना-पानी भी साथ संभव नहीं है?


गांधीजी की इस फटकार ने स्तब्ध कर दिया। शानदार कपड़े और रहन-सहन के शौकीन मालदार वकीलों के लिए यह फटकार बिल्कुल नई बात थी। वकील मंडल में हर एक का अपना रसोइया था और हर एक की अलग रसोई। वे 12 बजे रात तक भोजन करते, मनमाना खाना खाते, लेकिन उस दिन गांधीजी की अकाट्य दलील के आगे सारे वकील निरुत्तर हो गए। उन्हीं वकीलों में 33 वर्षीय राजेंद्र प्रसाद भी शामिल थे, जो जाति-पांति के भेद को मुस्तैदी से मानते आए थे। ब्राह्मण छोड़कर किसी दूसरी जाति के आदमी का छुआ दाल-भात इत्यादि, जिसे कच्ची रसोई भी कहते हैं, कभी नहीं खाते थे। राजेंद्र प्रसाद सामंती सुविधाओं में रचे-बसे थे। स्कूल-कॉलेज के दिनों में ही छपरा से कलकत्ता (अब कोलकाता) तक, उनके साथ विशेष नौकर-चाकर रहते थे। आदत से मजबूर, वह चंपारण में आंदोलन करने गए, तो वहां भी नौकर और रसोइया ले गए। सच है कि गांधीजी ने उस दिन बुरी तरह डांटा था, सहयोगी वकील साथ छोड़ जाएंगे, ऐसा खतरा था। संकेत स्वयं गांधीजी की जीवनी में है, उन्होंने संभलते-संभालते लिखा है, ‘मेरे और मेरे साथियों के बीच इतनी मजबूत प्रेमगांठ बंध गई थी कि हममें कभी गलतफहमी हो ही नहीं सकती थी। वे मेरे शब्दबाणों को प्रेम-पूर्वक सहते थे।’ 


बेशक विद्वान वही है, जो किसी अनुभवी की फटकार से भी सीखता हो। गांधीजी की यह बात राजेंद्र प्रसाद के मन में बैठ गई, ‘जो लोग एक काम में लगे हैं, मान लो कि वे सब एक जाति के हैं।’ गांधी जी की फटकार के बाद तमाम रसोइयों की विदाई हो गई थी। भोजन संबंधी नियम बने, जिनका पालन अनिवार्य कर दिया गया। सब निरामिषहारी नहीं थे, लेकिन तब भी दो रसोई की सुविधा नहीं रखी गई। एक ही रसोई रह गई, जिसमें मात्र निरामिष भोजन पकता था। भोजन सादा रखने का आग्रह था, इससे आंदोलन के खर्च में भी बड़ी बचत होने लगी। काम करने की शक्ति बढ़ी और समय की भी बचत हुई। राजेंद्र प्रसाद के चिंतन और जीवन में आमूल-चूल परिवर्तन आ गया। लगभग सप्ताह भर की सोचकर चंपारण गए थे, लेकिन वहां आंदोलन और समाज सेवा का काम ऐसे फैला कि महीनों बीत गए। जब लौटे, तो पटना में घर पर नौकर-चाकर सब यथावत इंतजार में थे, लेकिन उनका मजा पहले जैसा नहीं रह गया था। वह पूर्ण रूप से आत्मनिर्भर, सहज और सरल बन गए थे। तीसरे दर्जे में सफर की आदत पड़ गई थी। जहां तक हो सके, पैदल ही चलकर पहुंचने लगे थे। 


चंपारण के उन लम्हों को याद करते हुए उन्होंने अपनी जीवनी में लिखा है, ‘हम सब लोग एक-दूसरे की बनाई रसोई खाने लगे, जबकि हममें कई जातियों के लोग थे। जिंदगी में सादगी भी बहुत आ गई। अपने हाथों से कुएं से पानी भरना, नहाना, कपड़े साफ कर लेना, अपने जूठे बर्तन धोना, रसोई घर में तरकारी बनाना, चावल धोना इत्यादि सब काम हम खुद किया करते।’ 


अपने सारे काम खुद करने वाले राजेंद्र प्रसाद आजाद भारत के पहले राष्ट्रपति बने। वह तमाम वैभवों से घिरे देश के सर्वोच्च पद पर रिकॉर्ड 12 
साल रहे, लेकिन चंपारण में ‘साहबी’ ऐसे छूटी कि फिर ख्वाब में भी न लौटी।
प्रस्तुति : ज्ञानेश उपाध्याय