Sunday, 10 November 2019

पूरब देश उड़ चला परिंदा

इब्न बतूता, यायावर
भय से बुरा हाल था। आसमान में तेज हवाओं के बीच भी पसीने का आलम था। एक बहुत बड़ा परिंदा अपने पंख फैलाए पूरब की ओर उड़े जा रहा था और उसके पंखों में फंसा इंसान मजबूर था। फर्र-फर्र करते पंखों के बीच थर्र-थर्र कांपते इंसान के हाथ में कुछ नहीं था। कूदकर भागना तो दूर, नीचे देखना भी दुश्वार था। आसमान में खूब ऊंचाई पर पक्षी कभी इधर मुड़ता, कभी उधर मुड़ता, लेकिन कुल सफर तो पूरब की ओर ही था। एक बेहतर इंसान उम्मीद की डोर से बंधा होता है, यही सोचता है कि कभी न कभी तो यह परिंदा मुझे जमीन पर उतारेगा या यह भी हो सकता है, थोड़ा नीचे आए, तो मैं ही कूद भागूं। खूब देर तक परिंदा उड़ता गया और पूरब की ओर एक सघन हरे-भरे अनूठे देश पर उड़ने लगा और फिर धीरे से जमीन पर आकर उसने उस इंसान को उतरने दिया। इंसान के उतरते ही परिंदा फिर उड़ चला। इंसान की मुसीबतें कभी खत्म नहीं होतीं, एक मुसीबत गई, तो दूसरी सताने लगी कि परिंदा तो छोड़कर जा रहा है। घबराया इंसान जोर-जोर से पुकारने लगा, ओ परिंदे, ओ यायावर सुनो, रुको, मुझे यहां अनजाने इलाके में न छोड़ जाओ... रुको... ठहरो...।
...और वह इंसान उठ-बैठा, ख्वाब टूट गया। आज से करीब 700 साल पहले जिसने यह ख्वाब देखा था, दुनिया आज उसे इब्न बतूता के नाम से पहचानती है। इधर कुछ दिनों से यही होता आया था, जब भी नींद आती, यही ख्वाब लौट आता और जब ख्वाब टूटता, तो नींद उड़ जाती। यह क्यों आता है? खैर, उस रात यह ख्वाब मिस्र के अलेक्जेंड्रिया में तब आया था, जब इब्न बतूता एक सूफी शेख मुर्शीदी के डेरे की छत पर आराम फरमा रहे थे। कहते हैं, अच्छे संत इसलिए जागते हैं कि दुनिया ढंग से सो सके। जब ख्वाब टूटा, तब भी शेख मुर्शीदी जाग रहे थे, उन्हें हलचल-सी लगी, तो उन्होंने आवाज लगाकर बतूता से पूछा, ‘क्या हुआ? सब ठीक तो है?’ बतूता भी मानो इंतजार में थे। बार-बार आने वाले ख्वाब का किस्सा सिलसिलेवार सुना डाला और पूछा, ‘हुजूर, मतलब बताइए, यह क्या ख्वाब है?’ शेख मुर्शीदी ने लाजवाब मुस्कान के साथ कहा, ‘तुम्हें पूरब देश जाना है। उस ओर तुम्हारे कदम और पड़ाव तुम्हारी किस्मत में दर्ज हैं?’ बतूता की आंखें आश्चर्य से फैल गईं, ‘पूरब, मतलब एशिया... भारत...?’ शेख ने मुस्कराकर कहा, ‘नहीं जाओगे, तो शायद तुम्हारा ख्वाब और तुम्हारे ख्वाब का र्पंरदा तुम्हें चैन नहीं लेने देगा।’
गौर करने की बात है, उन्हीं दिनों बतूता को अलेक्जेंड्रिया में ही एक और सूफी संत बुरहम-अल-दीन मिल गए। चर्चा चली, तो पूरब देश पहुंच गई। पूरब की चर्चा करते संत की आंखों में चमक बेमिसाल हो गई। वह पूरा पूरब घूम चुके थे। संत ने बतूता से कहा, ‘लगता है, तुम्हें दूर देश घूमने का बड़ा शौक है। तो सुनो, जब तुम सिंध पहुंचना, तो मेरे भाई रुकोनुद्दीन से मिलना, भारत में भाई फरीदुद्दीन से मिलना और जब चीन पहुंच जाओ, तो वहां तुम्हारी मुलाकात भाई बुरहानुद्दीन से होगी। इनको मेरा हाल सुनाना, कहना, मैं बहुत याद करता हूं।’ 
बतूता का मन खुशी से झूम उठा कि क्या लाजवाब संत है, दुनिया देख रखी है और दुआ कर रहा है कि मैं भी दुनिया देखूं। जिंदगी को मानो मकसद मिल गया। 1304 ई. में इब्न बतूता तेंजियर, मोरक्को में जन्मे थे। 1325 में वह हज के लिए घर से निकले। लगभग एक साल में 3,500 किलोमीटर का सफर तय कर वह अलेक्जेंड्रिया पहुंचे थे, अभी मक्का-मदीना काफी दूर थे। कभी गधे पर, कभी घोड़े, कभी ऊंट, कभी नाव से और कभी पैदल ही, कभी अकेले, कभी किसी कारवां के साथ बढ़ते रहे। वह मक्का-मदीना पहुंचे, तो वहीं दो-तीन साल रह गए, लेकिन अलेक्जेंड्रिया के वो लम्हे, वो संत उन्हें हमेशा पूरब की ओर जाने के लिए उकसाते रहे और एक दिन वह निकल पड़े। ठीक वैसे ही, जैसे इधर-उधर मुड़ता पक्षी पूरब देश में उतरा था। उनके पैरों में मानो पंख लगे थे। 1332 के आसपास भारत पहुंच गए। यह वही देश था, जहां ख्वाब वाला परिंदा उन्हें बार-बार उतार जाता था। वह बहुत अच्छे खानदानी काजी थे। दिल्ली में सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक के दरबार में काजी हो गए। यहां उनकी जिंदगी के आठ बेहतरीन साल बीते और फिर यहां से वह चीन के लिए निकल गए, वैसे ही इधर-उधर मुड़ते-घूमते। आखिरकार करीब 30 साल यायावरी के बाद घर लौटे। उन्होंने 44 देशों को देखा और 1,20,000 किलोमीटर से भी ज्यादा का सफर तय किया। मोरक्को के सुल्तान के हुक्म पर वह अपने लंबे सफर का पूरा किस्सा करीब दो वर्ष तक सुनाते रहे, जिसे इब्न जूजे ने लिखा। किताब बनी- रेहला अर्थात सफर, जिसमें दर्ज हैं सूफी संत और ख्वाब का वह परिंदा।
As published in Hindustan - 21 sept, 2019

उस सजा-ए-मौत ने पीछा नहीं छोड़ा

लियो टॉलस्टॉय
हमें सभ्य होने में सदियां लगी हैं। इन सदियों में खून, पसीने और आंसुओं की अनगिन बूंदें बही हैं, तभी मानवता की मजबूत धारा चली है। मानवता की ऐसी ही धारा में फ्रांस का शहर पेरिस आज दुनिया के शालीनतम शहरों में शुमार है, लेकिन कभी पेरिस भी बर्बरता का गढ़ था। वहां उस सुबह एक खुली जगह पर करीब 15,000 दर्शकों की भीड़ जुटी थी। कभी सन्नाटा पसर जाता, तो कभी कोलाहल। नजरें बार-बार उस युवक की ओर उठ जाती थीं, जिसे घेरे सिपाही खड़े थे। भीड़ में रुक-रुककर फुसफुसाहट फैलती थी कि लुटेरा है, हत्यारा है, शक्ल से सामान्य लगता है, लेकिन कर्म बुरे हैं, तो सिपाही पकड़ लाए हैं। जज ने फैसला सुना दिया है और सजा का तमाशा देखने भीड़ जुटी है।

एकाएक सन्नाटा गहरा हो जाता है, एक तीखी चीख गूंजती है, धारदार तलवार चलती है और उस युवक का सिर धड़ से अलग जमीन पर जा गिरता है। कुछ लोग देख पाते हैं, कुछ नजरें चुरा लेते हैं, तो कुछ तत्क्षण निकल पड़ते हैं। उसी भीड़ में नौजवान लियो टॉलस्टॉय भी हैं, बुरी तरह स्तब्ध। पल भर में गर्दन नीचे उतर आई! नीचे उतरकर भी आंखें कुछ देर देखती रहीं, धड़ ढेर होकर कुछ देर पूर्णता को तड़पता रहा। क्या यही इंसानियत है? क्या इन्हीं लोगों को इंसान कहते हैं? क्या इन्हीं का पाप अपने माथे लेकर ईसा मसीह सूली चढ़ गए थे?  एक अजीब-सा दर्द लियो की

नसों में उतरकर ठहर गया। दिल बार-बार पूछने लगा, क्या यही तमाशा दिखाने लाए थे? दिमाग सांत्वना देता, ऐसी सजा का तमाशा कभी देखा नहीं था, इसीलिए आए, तजुर्बा तो हुआ। दिल पूछता, माना कि वह अपराधी था, लेकिन किसी का पुत्र, भाई, पति या पिता भी तो होगा। दिमाग अड़ जाता, कानून अंधा होता है और अपराध करने वाला मात्र अपराधी। दिल तड़पता, यह तो असभ्यता है, ऐसी सजा और वह भी खुलेआम? दिमाग समझाता, ताकि सब देखें, सबक सीखें। उस दिन भीड़ तो तमाशा देखकर निकल गई, लेकिन लियो मानो वहीं ठहर गए। पता नहीं, तमाशा बार-बार लौटता था या लियो खुद उस तमाशे में बार-बार लौट आते थे। कुल मिलाकर, वह सजा-ए-मौत ऐसे साथ लगी कि फिर न छूटी। 

वह वर्ष 1857 का कोई दिन रहा होगा, 28 वर्षीय लियो के दिल और दिमाग में मानवता और तार्किकता की जो जंग शुरू हुई, उसने दुनिया को एक बेहतरीन दानी, समाजसेवी इंसान और साहित्यकार दिया। लियो तो रूसी सैनिक थे, युद्ध लड़ चुके थे। हालांकि उनका मन युद्ध के लिए बना ही नहीं था। युद्ध से छूटे, तो यूरोप घूमने निकले, पेरिस पहुंच गए, बर्बर तमाशा देखा। लियो उस लुटेरे-हत्यारे का नाम भी नहीं भूल पाए, उसका नाम था फ्रांसिस रिचेक्स। लियो ने अपनी डायरी में लिखा है, ‘मैं सात बजे सुबह उठ गया और एक सरेआम सजा-ए-मौत देखने गया। एक तगड़े, श्वेत, ऊंची गर्दन और तनी हुई छाती वाले व्यक्ति ने एक धार्मिक ग्रंथ को चूमा और फिर... मौत।

कितना संवेदनहीन...? मुझे इसके पीछे कोई मजबूत धारणा नहीं मिली। मैं राजनीति का आदमी नहीं हूं। नैतिकता और कला, प्यार और समझ का मुझे पता है। गिलोटिन (सिर कलम करने का एक तरीका) ने मेरी नींद उड़ा दी और बरबस मेरे दिमाग में लौटती रही। उस तमाशे ने मुझ पर ऐसी छाप छोड़ी कि मैं भुला नहीं पाऊंगा। मैंने युद्ध में कई बार भयावहता देखी है। युद्ध में अगर मेरी मौजूदगी में एक आदमी को टुकड़े-टुकड़े कर दिया जाता, तो यह उतना खतरनाक नहीं होता, लेकिन यहां तो सरल और सुरुचिपूर्ण व्यवस्था के तहत उन्होंने एक मजबूत, स्वस्थ आदमी को पल भर में मार डाला।... न्यायिक लोग ईश्वर के नियम को निभाने की ढीठ और अभिमानी इच्छा रखते हैं। न्याय उन वकीलों द्वारा तय किया जाता है, जिनमें से हर एक खुद को सम्मान, धर्म और सच्चाई पर खरा मानता है। आदमी के बनाए ऐसे कई नियम बकवास हैं। सच्चाई यह है कि राज्य न केवल शोषण के लिए है, बल्कि मुख्य रूप से अपने नागरिकों को भ्रष्ट करने की एक साजिश भी है।... मेरे लिए राजनीति के नियम-कायदे भयानक झूठ हैं।... मेरी यह मान्यता कम से कम कुछ हद तक मुझे राहत दिलाती है। आज के बाद ऐसी कोई चीज न मैं देखने कभी जाऊंगा और न मैं कभी किसी सरकार की सेवा करूंगा।’ 

वह समाजसेवा को समर्पित हो गए। किताब लिखकर जो भी कमाते थे, दान कर देते थे। राजनीति के प्रति लियो के ऐसे दर्द से ही प्रेरित होकर महात्मा गांधी और अनेक दिग्गज नेताओं ने सत्य-प्रेम-अहिंसा की राजनीति से सभ्यता का नया इतिहास लिख दिया। फ्रांस में 1939 में ही ऐसी सजा का तमाशा थम गया और अब कानून की किताबें भी ऐसी बर्बरता से अपना दामन छुड़ा चुकी हैं।

As Published In Hindustan - 15 Spt- 2019