इब्न बतूता, यायावर |
...और वह इंसान उठ-बैठा, ख्वाब टूट गया। आज से करीब 700 साल पहले जिसने यह ख्वाब देखा था, दुनिया आज उसे इब्न बतूता के नाम से पहचानती है। इधर कुछ दिनों से यही होता आया था, जब भी नींद आती, यही ख्वाब लौट आता और जब ख्वाब टूटता, तो नींद उड़ जाती। यह क्यों आता है? खैर, उस रात यह ख्वाब मिस्र के अलेक्जेंड्रिया में तब आया था, जब इब्न बतूता एक सूफी शेख मुर्शीदी के डेरे की छत पर आराम फरमा रहे थे। कहते हैं, अच्छे संत इसलिए जागते हैं कि दुनिया ढंग से सो सके। जब ख्वाब टूटा, तब भी शेख मुर्शीदी जाग रहे थे, उन्हें हलचल-सी लगी, तो उन्होंने आवाज लगाकर बतूता से पूछा, ‘क्या हुआ? सब ठीक तो है?’ बतूता भी मानो इंतजार में थे। बार-बार आने वाले ख्वाब का किस्सा सिलसिलेवार सुना डाला और पूछा, ‘हुजूर, मतलब बताइए, यह क्या ख्वाब है?’ शेख मुर्शीदी ने लाजवाब मुस्कान के साथ कहा, ‘तुम्हें पूरब देश जाना है। उस ओर तुम्हारे कदम और पड़ाव तुम्हारी किस्मत में दर्ज हैं?’ बतूता की आंखें आश्चर्य से फैल गईं, ‘पूरब, मतलब एशिया... भारत...?’ शेख ने मुस्कराकर कहा, ‘नहीं जाओगे, तो शायद तुम्हारा ख्वाब और तुम्हारे ख्वाब का र्पंरदा तुम्हें चैन नहीं लेने देगा।’
गौर करने की बात है, उन्हीं दिनों बतूता को अलेक्जेंड्रिया में ही एक और सूफी संत बुरहम-अल-दीन मिल गए। चर्चा चली, तो पूरब देश पहुंच गई। पूरब की चर्चा करते संत की आंखों में चमक बेमिसाल हो गई। वह पूरा पूरब घूम चुके थे। संत ने बतूता से कहा, ‘लगता है, तुम्हें दूर देश घूमने का बड़ा शौक है। तो सुनो, जब तुम सिंध पहुंचना, तो मेरे भाई रुकोनुद्दीन से मिलना, भारत में भाई फरीदुद्दीन से मिलना और जब चीन पहुंच जाओ, तो वहां तुम्हारी मुलाकात भाई बुरहानुद्दीन से होगी। इनको मेरा हाल सुनाना, कहना, मैं बहुत याद करता हूं।’
बतूता का मन खुशी से झूम उठा कि क्या लाजवाब संत है, दुनिया देख रखी है और दुआ कर रहा है कि मैं भी दुनिया देखूं। जिंदगी को मानो मकसद मिल गया। 1304 ई. में इब्न बतूता तेंजियर, मोरक्को में जन्मे थे। 1325 में वह हज के लिए घर से निकले। लगभग एक साल में 3,500 किलोमीटर का सफर तय कर वह अलेक्जेंड्रिया पहुंचे थे, अभी मक्का-मदीना काफी दूर थे। कभी गधे पर, कभी घोड़े, कभी ऊंट, कभी नाव से और कभी पैदल ही, कभी अकेले, कभी किसी कारवां के साथ बढ़ते रहे। वह मक्का-मदीना पहुंचे, तो वहीं दो-तीन साल रह गए, लेकिन अलेक्जेंड्रिया के वो लम्हे, वो संत उन्हें हमेशा पूरब की ओर जाने के लिए उकसाते रहे और एक दिन वह निकल पड़े। ठीक वैसे ही, जैसे इधर-उधर मुड़ता पक्षी पूरब देश में उतरा था। उनके पैरों में मानो पंख लगे थे। 1332 के आसपास भारत पहुंच गए। यह वही देश था, जहां ख्वाब वाला परिंदा उन्हें बार-बार उतार जाता था। वह बहुत अच्छे खानदानी काजी थे। दिल्ली में सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक के दरबार में काजी हो गए। यहां उनकी जिंदगी के आठ बेहतरीन साल बीते और फिर यहां से वह चीन के लिए निकल गए, वैसे ही इधर-उधर मुड़ते-घूमते। आखिरकार करीब 30 साल यायावरी के बाद घर लौटे। उन्होंने 44 देशों को देखा और 1,20,000 किलोमीटर से भी ज्यादा का सफर तय किया। मोरक्को के सुल्तान के हुक्म पर वह अपने लंबे सफर का पूरा किस्सा करीब दो वर्ष तक सुनाते रहे, जिसे इब्न जूजे ने लिखा। किताब बनी- रेहला अर्थात सफर, जिसमें दर्ज हैं सूफी संत और ख्वाब का वह परिंदा।
As published in Hindustan - 21 sept, 2019