दुनिया के प्रसिद्ध लेखक वीलियम शेक्सपीयर (1964-1616) ने जब 1595 में लोककथा रोमियो-जूलियट पर नाटक की रचना की, तब उसका एक संवाद था - व्हाट इज इन ए नेम? मतलब - नाम में क्या रखा है?
तब भारत के बादशाह अकबर (1542-1605) थे। यूरोप में तो तब नाम नहीं बदले, क्योंकि उसकी जरूरत नहीं थी, लेकिन भारत में तब धड़ाधड़ नाम बदलने की शुरुआत हो चुकी थी, क्योंकि यहां तत्कालीन शासन ने इसकी जरूरत महसूस की। शहरों के भारतीय नामों से काफिरों के मजहब की बू आती थी। हजारों स्थानों के नाम बदले गए। भारत को क्या बनाने की चाहत थी, यह बताने की कतई जरूरत नहीं है।
रही बात हम भारतीयों की, तो हम बीती को बिसार देने के लिए प्रसिद्ध हैं। माफ करने में हमें बड़ा आनंद आता है। भले ही कोई हमें माफ न करे। आदत से माफीखोर गौरी को एक ही तो मौका चाहिए था, पृथ्वीराज ने दे दिया। अब भुगतो। तब जब जगहों के नाम बदलते होंगे, तो हमारे पूर्वजों को कितनी तकलीफ होती होगी। इलाहाबाद जब प्रयागराज हो गया है, तब भी हमें तकलीफ हो रही है, लेकिन जब प्रयागराज को इलाहाबाद किया गया होगा, तब क्या हमारे पूर्वजों को तकलीफ नहीं हुई होगी? कहां गए होंगे, वे गुहार लेकर कि हुजूर नाम मत बदलिए। हमारे प्राचीन देश का प्राचीन नाम है, मत बदलिए। रहने दीजिए, नाम में क्या रखा है?
तब मुगल देश में कितने रहे होंगे, एक प्रतिशत या उससे भी कम? लेकिन बादशाही थी, नाम बदल दिया। अब लोकतंत्र है, जनता द्वारा बहुमत से चुनी गई सरकार नाम बदल रही है, तो विरोध हो रहा है। जब नाम इलाहाबाद रखा गया होगा, तब जिन्होंने विरोध किया होगा, उन पूर्वजों का क्या हुआ होगा? किसी ने सोचा है?
दरअसल, राष्ट्र गौरव को पुनर्जिवित करना ही होगा, दूसरा कोई उपाय नहीं है, दुनिया ने दूसरा कोई उपाय भारत के पास छोड़ा भी नहीं है। सारी संस्कृतियां अपनी जड़ों को मजबूत कर रही हैं और हम अपनी अंजुरियों में मट्ठा लिए अपनी जड़ें खोज रहे हैं। जहां भी भारतीय संस्कृति की कोई जड़ दिख जाती है, थोड़ा-सा मट्ठा उसमें डाल देते हैं कि जड़ ही खत्म कर दो। सेकुलरिटी को बचाने का ठेका हमारे नाम से ही दुनिया की संसद में पारित हुआ था! यह ठेका तो हमारे नाम से मुगल बादशाहों ने तभी उठा लिया था, जब धड़ाधड़ नाम बदले जा रहे थे। तब नाम बदलने वाले हमारे असली पूर्वज हैं, गुलामों-मुगलों से पहले हमारे जो पूर्वज थे, वो गलत लोग थे। उनको सेकुलरिटी की थोड़ी भी चिंता नहीं थी। उन्हें पहले से ही सोच-समझकर चलना चाहिए था कि इस देश की माटी पर मुस्लिम भी आने वाले हैं और ईसाई भी, तो थोड़े से नाम मुस्लिम हिसाब से भी कर लो और थोड़े-से ईसाई भी, जो थोड़ा-सा बच जाए, वह बेचारा हिन्दू!
राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने संस्कृति के चार अध्याय में सांप्रदायिकता पर बहुत अच्छा लिखा है - उनके लिखने का सार यह है कि इस देश के मुसलमान यह भूल नहीं पा रहे कि उन्होंने सैंकड़ों वर्ष हिन्दुओं पर शासन किया है। तो दूसरी ओर, हिन्दू यह नहीं भूल पा रहे कि मुस्लिम शासन के दौरान हिन्दुओं पर खूब अत्याचार हुए थे, चार धाम की यात्रा के लिए भी टैक्स अदा करना पड़ता था।
अब प्रश्न यह उठता है कि नाम बदलना भी तो अत्याचार का ही हिस्सा है? पहले भी था और आज भी है। आज के विद्वान यह बोल रहे हैं कि हम आज अत्याचार क्यों होने दें? सही है, अत्याचार नहीं होने देना चाहिए। नाम बदलने की एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया होनी चाहिए। नामों को लेकर भावुक होने की जरूरत नहीं है। सरकार मनमानी न करे। सरकार जनमत के अनुरूप चले। कोई नाम बदला जा रहा है, तो उस पर मतदान करा लिया जाए। लोगों की जो मर्जी हो, वह नाम रख दिया जाए।
दूसरी बात, हमें कट्टर मुस्लिम देशों से कुछ भी नहीं सीखना चाहिए, ये देश नहीं जानते कि वे दुनिया का कितना नुकसान कर रहे हैं। आदर्श मुस्लिम देश भी हैं, इंडोनेशिया जैसे, जिन्होंने धर्म बदला है, पूर्वज नहीं बदले। हमें ऐसे देशों का भी ध्यान रखना चाहिए और उनके आसपास रहना चाहिए। सेकुलरिटी इस देश की नशों में है, वह कहीं नहीं जाने वाली। उस भारतीय परंपरागत छतरी को सही रखना होगा, जिसके नीचे सेकुलरिटी के लिए जगह है। हमने तो यहां तक मान लिया है कि हिन्दू कोई धर्म नहीं है, लेकिन जीवन शैली ही सही, उसे तो बचाया जाए? अगर अपनी इस छतरी को नहीं बचाएंगे, तो दूसरी छतरियों के मालिकों को देख लीजिए, क्या वे आपका स्वागत करने को तैयार हैं? क्या किसी अन्य इलाहाबाद में प्रयागराज संभव है?
नामों को लेकर भावुक होने की कोई जरूरत नहीं है। नाम में क्या रखा है? बचाइए, अच्छी परंपराओं को। बचाइए उन परंपराओं को जो स्त्री को शक्ति बनाती हैं और पुरुषों को मर्यादा में रखती हैं। बचाइए उस समाज को, जो कुम्हार की तरह काम करता है, देख-रेख करता है, भटक जाओ, तो रास्ता बताता है, प्यासे को पानी पिलाता है, भूखों के लिए गांव के बाहर पेड़ों पर भोजन रख देता है। सोचता रहता है कि हमारे आसपास कोई भूखा न सो जाए। सुनिश्चित करता है कि हमारे आसपास कोई लूट न लिया जाए।
बचाइए, केवल पूर्वजों के रखे नाम ही नहीं, पूर्वज के किए अच्छे काम भी बचाइए।
तब भारत के बादशाह अकबर (1542-1605) थे। यूरोप में तो तब नाम नहीं बदले, क्योंकि उसकी जरूरत नहीं थी, लेकिन भारत में तब धड़ाधड़ नाम बदलने की शुरुआत हो चुकी थी, क्योंकि यहां तत्कालीन शासन ने इसकी जरूरत महसूस की। शहरों के भारतीय नामों से काफिरों के मजहब की बू आती थी। हजारों स्थानों के नाम बदले गए। भारत को क्या बनाने की चाहत थी, यह बताने की कतई जरूरत नहीं है।
रही बात हम भारतीयों की, तो हम बीती को बिसार देने के लिए प्रसिद्ध हैं। माफ करने में हमें बड़ा आनंद आता है। भले ही कोई हमें माफ न करे। आदत से माफीखोर गौरी को एक ही तो मौका चाहिए था, पृथ्वीराज ने दे दिया। अब भुगतो। तब जब जगहों के नाम बदलते होंगे, तो हमारे पूर्वजों को कितनी तकलीफ होती होगी। इलाहाबाद जब प्रयागराज हो गया है, तब भी हमें तकलीफ हो रही है, लेकिन जब प्रयागराज को इलाहाबाद किया गया होगा, तब क्या हमारे पूर्वजों को तकलीफ नहीं हुई होगी? कहां गए होंगे, वे गुहार लेकर कि हुजूर नाम मत बदलिए। हमारे प्राचीन देश का प्राचीन नाम है, मत बदलिए। रहने दीजिए, नाम में क्या रखा है?
तब मुगल देश में कितने रहे होंगे, एक प्रतिशत या उससे भी कम? लेकिन बादशाही थी, नाम बदल दिया। अब लोकतंत्र है, जनता द्वारा बहुमत से चुनी गई सरकार नाम बदल रही है, तो विरोध हो रहा है। जब नाम इलाहाबाद रखा गया होगा, तब जिन्होंने विरोध किया होगा, उन पूर्वजों का क्या हुआ होगा? किसी ने सोचा है?
दरअसल, राष्ट्र गौरव को पुनर्जिवित करना ही होगा, दूसरा कोई उपाय नहीं है, दुनिया ने दूसरा कोई उपाय भारत के पास छोड़ा भी नहीं है। सारी संस्कृतियां अपनी जड़ों को मजबूत कर रही हैं और हम अपनी अंजुरियों में मट्ठा लिए अपनी जड़ें खोज रहे हैं। जहां भी भारतीय संस्कृति की कोई जड़ दिख जाती है, थोड़ा-सा मट्ठा उसमें डाल देते हैं कि जड़ ही खत्म कर दो। सेकुलरिटी को बचाने का ठेका हमारे नाम से ही दुनिया की संसद में पारित हुआ था! यह ठेका तो हमारे नाम से मुगल बादशाहों ने तभी उठा लिया था, जब धड़ाधड़ नाम बदले जा रहे थे। तब नाम बदलने वाले हमारे असली पूर्वज हैं, गुलामों-मुगलों से पहले हमारे जो पूर्वज थे, वो गलत लोग थे। उनको सेकुलरिटी की थोड़ी भी चिंता नहीं थी। उन्हें पहले से ही सोच-समझकर चलना चाहिए था कि इस देश की माटी पर मुस्लिम भी आने वाले हैं और ईसाई भी, तो थोड़े से नाम मुस्लिम हिसाब से भी कर लो और थोड़े-से ईसाई भी, जो थोड़ा-सा बच जाए, वह बेचारा हिन्दू!
राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने संस्कृति के चार अध्याय में सांप्रदायिकता पर बहुत अच्छा लिखा है - उनके लिखने का सार यह है कि इस देश के मुसलमान यह भूल नहीं पा रहे कि उन्होंने सैंकड़ों वर्ष हिन्दुओं पर शासन किया है। तो दूसरी ओर, हिन्दू यह नहीं भूल पा रहे कि मुस्लिम शासन के दौरान हिन्दुओं पर खूब अत्याचार हुए थे, चार धाम की यात्रा के लिए भी टैक्स अदा करना पड़ता था।
अब प्रश्न यह उठता है कि नाम बदलना भी तो अत्याचार का ही हिस्सा है? पहले भी था और आज भी है। आज के विद्वान यह बोल रहे हैं कि हम आज अत्याचार क्यों होने दें? सही है, अत्याचार नहीं होने देना चाहिए। नाम बदलने की एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया होनी चाहिए। नामों को लेकर भावुक होने की जरूरत नहीं है। सरकार मनमानी न करे। सरकार जनमत के अनुरूप चले। कोई नाम बदला जा रहा है, तो उस पर मतदान करा लिया जाए। लोगों की जो मर्जी हो, वह नाम रख दिया जाए।
दूसरी बात, हमें कट्टर मुस्लिम देशों से कुछ भी नहीं सीखना चाहिए, ये देश नहीं जानते कि वे दुनिया का कितना नुकसान कर रहे हैं। आदर्श मुस्लिम देश भी हैं, इंडोनेशिया जैसे, जिन्होंने धर्म बदला है, पूर्वज नहीं बदले। हमें ऐसे देशों का भी ध्यान रखना चाहिए और उनके आसपास रहना चाहिए। सेकुलरिटी इस देश की नशों में है, वह कहीं नहीं जाने वाली। उस भारतीय परंपरागत छतरी को सही रखना होगा, जिसके नीचे सेकुलरिटी के लिए जगह है। हमने तो यहां तक मान लिया है कि हिन्दू कोई धर्म नहीं है, लेकिन जीवन शैली ही सही, उसे तो बचाया जाए? अगर अपनी इस छतरी को नहीं बचाएंगे, तो दूसरी छतरियों के मालिकों को देख लीजिए, क्या वे आपका स्वागत करने को तैयार हैं? क्या किसी अन्य इलाहाबाद में प्रयागराज संभव है?
नामों को लेकर भावुक होने की कोई जरूरत नहीं है। नाम में क्या रखा है? बचाइए, अच्छी परंपराओं को। बचाइए उन परंपराओं को जो स्त्री को शक्ति बनाती हैं और पुरुषों को मर्यादा में रखती हैं। बचाइए उस समाज को, जो कुम्हार की तरह काम करता है, देख-रेख करता है, भटक जाओ, तो रास्ता बताता है, प्यासे को पानी पिलाता है, भूखों के लिए गांव के बाहर पेड़ों पर भोजन रख देता है। सोचता रहता है कि हमारे आसपास कोई भूखा न सो जाए। सुनिश्चित करता है कि हमारे आसपास कोई लूट न लिया जाए।
बचाइए, केवल पूर्वजों के रखे नाम ही नहीं, पूर्वज के किए अच्छे काम भी बचाइए।