Wednesday, 17 October 2018

नाम में क्या रखा है?

दुनिया के प्रसिद्ध लेखक वीलियम शेक्सपीयर (1964-1616) ने जब 1595 में लोककथा रोमियो-जूलियट पर नाटक की रचना की, तब उसका एक संवाद था - व्हाट इज इन ए नेम? मतलब - नाम में क्या रखा है? 
तब भारत के बादशाह अकबर (1542-1605) थे। यूरोप में तो तब नाम नहीं बदले, क्योंकि उसकी जरूरत नहीं थी, लेकिन भारत में तब धड़ाधड़ नाम बदलने की शुरुआत हो चुकी थी, क्योंकि यहां तत्कालीन शासन ने इसकी जरूरत महसूस की। शहरों के भारतीय नामों से काफिरों के मजहब की बू आती थी। हजारों स्थानों के नाम बदले गए। भारत को क्या बनाने की चाहत थी, यह बताने की कतई जरूरत नहीं है। 
रही बात हम भारतीयों की, तो हम बीती को बिसार देने के लिए प्रसिद्ध हैं। माफ करने में हमें बड़ा आनंद आता है। भले ही कोई हमें माफ न करे। आदत से माफीखोर गौरी को एक ही तो मौका चाहिए था, पृथ्वीराज ने दे दिया। अब भुगतो। तब जब जगहों के नाम बदलते होंगे, तो हमारे पूर्वजों को कितनी तकलीफ होती होगी। इलाहाबाद जब प्रयागराज हो गया है, तब भी हमें तकलीफ हो रही है, लेकिन जब प्रयागराज को इलाहाबाद किया गया होगा, तब क्या हमारे पूर्वजों को तकलीफ नहीं हुई होगी? कहां गए होंगे, वे गुहार लेकर कि हुजूर नाम मत बदलिए। हमारे प्राचीन देश का प्राचीन नाम है, मत बदलिए। रहने दीजिए, नाम में क्या रखा है? 
तब मुगल देश में कितने रहे होंगे, एक प्रतिशत या उससे भी कम? लेकिन बादशाही थी, नाम बदल दिया। अब लोकतंत्र है, जनता द्वारा बहुमत से चुनी गई सरकार नाम बदल रही है, तो विरोध हो रहा है। जब नाम इलाहाबाद रखा गया होगा, तब जिन्होंने विरोध किया होगा, उन पूर्वजों का क्या हुआ होगा? किसी ने सोचा है? 
दरअसल, राष्ट्र गौरव को पुनर्जिवित करना ही होगा, दूसरा कोई उपाय नहीं है, दुनिया ने दूसरा कोई उपाय भारत के पास छोड़ा भी नहीं है। सारी संस्कृतियां अपनी जड़ों को मजबूत कर रही हैं और हम अपनी अंजुरियों में मट्ठा लिए अपनी जड़ें खोज रहे हैं। जहां भी भारतीय संस्कृति की कोई जड़ दिख जाती है, थोड़ा-सा मट्ठा उसमें डाल देते हैं कि जड़ ही खत्म कर दो। सेकुलरिटी को बचाने का ठेका हमारे नाम से ही दुनिया की संसद में पारित हुआ था! यह ठेका तो हमारे नाम से मुगल बादशाहों ने तभी उठा लिया था, जब धड़ाधड़ नाम बदले जा रहे थे। तब नाम बदलने वाले हमारे असली पूर्वज हैं, गुलामों-मुगलों से पहले हमारे जो पूर्वज थे, वो गलत लोग थे। उनको सेकुलरिटी की थोड़ी भी चिंता नहीं थी। उन्हें पहले से ही सोच-समझकर चलना चाहिए था कि इस देश की माटी पर मुस्लिम भी आने वाले हैं और ईसाई भी, तो थोड़े से नाम मुस्लिम हिसाब से भी कर लो और थोड़े-से ईसाई भी, जो थोड़ा-सा बच जाए, वह बेचारा हिन्दू!  
राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने संस्कृति के चार अध्याय में सांप्रदायिकता पर बहुत अच्छा लिखा है - उनके लिखने का सार यह है कि इस देश के मुसलमान यह भूल नहीं पा रहे कि उन्होंने सैंकड़ों वर्ष हिन्दुओं पर शासन किया है। तो दूसरी ओर, हिन्दू यह नहीं भूल पा रहे कि मुस्लिम शासन के दौरान हिन्दुओं पर खूब अत्याचार हुए थे, चार धाम की यात्रा के लिए भी टैक्स अदा करना पड़ता था।  
अब प्रश्न यह उठता है कि नाम बदलना भी तो अत्याचार का ही हिस्सा है? पहले भी था और आज भी है। आज के विद्वान यह बोल रहे हैं कि हम आज अत्याचार क्यों होने दें? सही है, अत्याचार नहीं होने देना चाहिए। नाम बदलने की एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया होनी चाहिए। नामों को लेकर भावुक होने की जरूरत नहीं है। सरकार मनमानी न करे। सरकार जनमत के अनुरूप चले। कोई नाम बदला जा रहा है, तो उस पर मतदान करा लिया जाए। लोगों की जो मर्जी हो, वह नाम रख दिया जाए। 
दूसरी बात, हमें कट्टर मुस्लिम देशों से कुछ भी नहीं सीखना चाहिए, ये देश नहीं जानते कि वे दुनिया का कितना नुकसान कर रहे हैं। आदर्श मुस्लिम देश भी हैं, इंडोनेशिया जैसे, जिन्होंने धर्म बदला है, पूर्वज नहीं बदले। हमें ऐसे देशों का भी ध्यान रखना चाहिए और उनके आसपास रहना चाहिए। सेकुलरिटी इस देश की नशों में है, वह कहीं नहीं जाने वाली। उस भारतीय परंपरागत छतरी को सही रखना होगा, जिसके नीचे सेकुलरिटी के लिए जगह है। हमने तो यहां तक मान लिया है कि हिन्दू कोई धर्म नहीं है, लेकिन जीवन शैली ही सही, उसे तो बचाया जाए? अगर अपनी इस छतरी को नहीं बचाएंगे, तो दूसरी छतरियों के मालिकों को देख लीजिए, क्या वे आपका स्वागत करने को तैयार हैं? क्या किसी अन्य इलाहाबाद में प्रयागराज संभव है? 
नामों को लेकर भावुक होने की कोई जरूरत नहीं है। नाम में क्या रखा है? बचाइए, अच्छी परंपराओं को। बचाइए उन परंपराओं को जो स्त्री को शक्ति बनाती हैं और पुरुषों को मर्यादा में रखती हैं। बचाइए उस समाज को, जो कुम्हार की तरह काम करता है, देख-रेख करता है, भटक जाओ, तो रास्ता बताता है, प्यासे को पानी पिलाता है, भूखों के लिए गांव के बाहर पेड़ों पर भोजन रख देता है। सोचता रहता है कि हमारे आसपास कोई भूखा न सो जाए। सुनिश्चित करता है कि हमारे आसपास कोई लूट न लिया जाए। 
बचाइए, केवल पूर्वजों के रखे नाम ही नहीं, पूर्वज के किए अच्छे काम भी बचाइए। 

Tuesday, 16 October 2018

प्रशांत बाबू अब क्या करेंगे?

प्रसिद्ध चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर पिछले महीने जनता दल यूनाइटेड में शामिल हुए थे और उम्मीद के अनुरूप ही उन्हें पार्टी का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनाया गया है। प्रशांत किशोर एक कुशल युवा हैं, जिनकी मदद नरेन्द्र मोदी ने भी प्रधानमंत्री बनने की दौड़ में ली थी। वे २०१३-२०१४ में नरेन्द्र मोदी के मुख्य रणनीतिकार थे और फिर वर्ष २०१५ में वे नीतीश कुमार के रणनीतिकार बन गए। उनकी रणनीति से केन्द्र में भाजपा सत्ता में आई, तो अगले साल बिहार में हार गई और नीतीश-लालू सत्ता में आ गए। 
पहला स्वाभाविक प्रश्न यह उठता है कि वह क्या रणनीति थी, जिसकी बदौलत नरेन्द्र मोदी सत्ता में आए थे। क्या जो बड़े-बड़े वादे किए गए थे, जो जुमले उछाले गए थे, उनके पीछे भी प्रशांत किशोर का हाथ था? बड़े-बड़े वादे करके सत्ता में आने की जिस रणनीति का खुलासा विगत दिनों गडकरी जी ने किया था, उसमें प्रशांत किशोर का कितना हाथ है? चूंकि प्रशांत किशोर राजनीति में आ गए हैं, तो ऐसे प्रश्न उनसे पूछे ही जाएंगे।
अब प्रश्न यह उठता है कि जनता दल यूनाइटेड में राष्ट्रीय उपाध्यक्ष पद का क्या अर्थ है। क्या वे पार्टी को राष्ट्रीय स्तर पर अर्थात बिहार से बाहर दूसरे राज्यों में फैलाने का काम करेंगे? क्या पार्टी उनकी रणनीति की बदौलत दूसरे राज्यों में पैर जमा लेगी? बिहार में शराबबंदी, अपराधियों पर थोड़ी रोक और भ्रष्टाचार के विरुद्ध कुछ कदमों को छोड़ दीजिए, तो अभी भी विकास की वह रफ्तार नहीं है, जो युवाओं को पलायन से रोक सके। रोज हजारों युवा बिहार छोडऩे को मजबूर हैं और बिहार सरकार की नीति कहती है कि जो बिहारी बाहर चले गए हैं, उन्हें लौटने की कोई जरूरत नहीं है। बिहार को विकास करता हुआ, तभी माना जाएगा, जब वहां लोगों को समय पर तनख्वाह मिलने लगेगी, जब वहां से युवाओं को पलायन रुकेगा। 
अभी एक दिन पहले ही कुछ बिहारी युवाओं से बात हो रही थी, जो अहमदाबाद में काम करते हैं। उनके मन में एक डर है और असुरक्षा बोध भी। असुरक्षा बोध इस बात को लेकर भी है कि वे अगर बिहार लौट भी गए, तो आगे जीवन का क्या होगा? बिहार में ९-१० हजार की नौकरी भी नहीं मिलती। इतने ही रुपयों के लिए युवा अपनी जमीन से दूर कहीं जाकर मेहनत करते हैं। मार खाते हैं, अपशब्द झेलते हैं। क्यों? 
नीतीश कुमार तो सोच ही रहे होंगे, लेकिन अब प्रशांत किशोर को भी सोचना चाहिए कि बिहार में ऐसा कब तक होगा? लालू प्रसाद यादव या उनका परिवार बिहार के विकास का कोई मॉडल पेश करेगा, कहना मुश्किल है। नीतीश कुमार और प्रशांत किशोर जैसे सुलझे हुए नेताओं से बिहारियों को उम्मीद है। उन्हें पैमाने पर खरा उतरना चाहिए। राजनीति में अच्छे लोग आएं, तो कामयाब होने की कोशिश भी करें। भ्रष्टाचार रुके, निवेश आमंत्रित किया जाए। सरकार अपराध को बिल्कुल रोके, ताकि निवेश सुरक्षित रहे और बढ़े। 
पता नहीं, अब कोई नीतीश कुमार को सुशासन बाबू बोलता है या नहीं? मजाक उड़ाने के लिए नहीं, बल्कि प्रेरित करते रहने के लिए भी उन्हें सुशासन बाबू बोलते रहना चाहिए, ताकि उन्हें याद रहे कि वे क्यों मुख्यमंत्री बनाए गए हैं। प्रशांत किशोर के पास एक अच्छा दिमाग है, वे उसे अपनी पार्टी को राष्ट्रीय स्तर पर मजबूत करने के लिए इस्तेमाल करें, तो जरूरी नहीं कि सफलता मिल ही जाए। 
तो प्रशांत किशोर को ऐसा क्या करना होगा, जो नीतीश कुमार भी अभी तक नहीं कर पाए हैं। दरअसल, जरूरी है कि बिहार को एक ब्रांड बनाया जाए। उसके दामन पर लगे दाग मिटाए जाएं। बिहार को सशक्त बनाया जाए, बिहार को आदर्श राज्य बनाया जाए। नीतीश को मुख्यमंत्री के रूप में १२ से ज्यादा वर्ष मिल चुके हैं, रणनीति से १२ और वर्ष भी मिल जाएंगे, लेकिन बिहार कैसा होगा? क्या ऐसा बिहार कभी बनेगा, जो बाहर के राज्य के लोगों को भी खूब रोजगार देगा?  क्या ऐसा बिहार बनेगा, जहां से रोजगार के लिए कोई दुखी युवा पलायन नहीं करेगा? जहां कोई मां बाहर गए अपने बेटे के लिए नहीं रोएगी, जहां बेटा अपनी आंखों के सामने रहेगा? कम से कम ऐसे युवाओं को तो रोका जाए, जो अपना जिला-जवार छोड़ते हुए गमछा-रूमाल गीले कर देते हैं। कम से कम ऐसे किसी युवा को तो बाहर न जाना पड़े, जिस पर पूरा परिवार निर्भर है।
आखिर बिहार में इतने विरह गीत क्यों लिखे जाते हैं और कब तक लिखे जाएंगे? अकेली औरतें, माताएं, मजबूर पिता-दादा आखिर कब तक शहर की बाट जोहते रहेंगे? घर के लडक़ों को चंपारण, दरभंगा, छपरा, सिवान, आरा, पटना, गया, सुपौल, मोतीहारी जैसे शहरों में कब नौकरी मिलने लगेगी? बिहार की टे्रेनें कब तक मजदूरों को बाहर ले जाती रहेंगी? अब समय आना चाहिए, जब ये टे्रनें बाहर से मजदूर लेकर आएं। बिहार की मिट्टी को सब जानते हैं कि वह सोना उगल सकती है। जब वह सोना उगलने लगेगी, तो बिहार ब्रांड बन जाएगा, उस दिन नीतीश-प्रशांत की पार्टी अपने आप राष्ट्रीय पार्टी बन जाएगी। 

Thursday, 11 October 2018

सुनो तो गंगा ये क्या सुनाए

सत्ता के धूम-धड़ाके में फिर एक आवाज दम तोड़ गई। एक और गांधी गंगा के लिए शहीद हो गए। आई.आई.टी. में प्रोफेसर रह चुके जी.डी. अग्रवाल गंगा के प्रेम में साधु हो गए थे। १११ दिन उपवास करने के बाद परमधाम चले गए। उन्हें झूठ से मना लेने की झूठी और छोटी-छोटी कोशिशें होती रहीं, वे नहीं माने, तो सरकार भी नहीं मानी। गंगा नदी को तो खत्म ही करना है। आज गंगा का क्या काम? लोग नहीं सुधर रहे, तो सरकार ने सुधरने का ठेका तो नहीं ले रखा। बहने दीजिए, अपने बल पर जितने दिन बह जाए गंगा, वैसे ही सबको पता है कि इस नदी को एक दिन सूख जाना है, तो इसे क्यों बचाया जाए ? 
राज कपूर ने फिल्म बनाई थी, जिसमें गाना था - राम तेरी गंगा मैली हो गई, पापियों के पाप धोते-धोते...
बेशर्म पापी ऐसे-ऐसे कि थक नहीं रहे हैं। इस गीत की शुरुआत इन पंक्तियों से होती है - 
सुनो तो गंगा ये क्या सुनाए कि मेरे तट पर वो लोग आए।
जिन्होंने ऐसे नियम बनाए कि प्राण जाए पर वचन न जाए। 
अब तो वचन का क्या अर्थ? एक सत्ताधारी नेता जी ने साफ बता दिया कि हमें अंदाजा नहीं था कि हम सत्ता में आ जाएंगे, तो हमने बड़े-बड़े वचन दे दिए, अब लोग हमें गिनाते हैं और हम हंसते हैं।  
तो लीजिए, हंसी-हंसी में एक प्रोफेसर साधु चला गया, क्योंकि उसका संघर्ष गांधीवादी था। कान खोलकर सुन लीजिए, गांधियों को अब गोली नहीं मारी जाती, उन्हें अपनी मौत मरने के लिए छोड़ दिया जाता है। 
वाकई गांधी जी होते, तो बड़े खुश होते कि भारत सरकार ने पहली बार इतने बड़े पैमाने पर स्वच्छता और शौचालय निर्माण का काम अपने हाथों में लिया है, लेकिन वे इस बात से दुखी भी होते कि गंगा की सफाई युद्धस्तर पर नहीं हो रही है और एक साधु को उपवास करके मरने दिया गया। एक और छोटे गांधी हैं अन्ना हजारे - बताते हैं कि वे इसी डर से उपवास से बच रहे हैं कि कहीं सरकार मरने के लिए छोड़ न दे। उपवास वही करे, जो मरने की ठाने। 
क्या आपको नहीं दिख रहा, देश के ज्यादातर लोग अपने स्वार्थ का इस तरह पीछा कर रहे हैं कि आज के गांधियों का देशवासियों से भरोसा हिल गया है। यह मौत वाकई शहादत है, यह आतंकित करने के लिए होने दी गई है, यह इस बात का भी संकेत है कि गंगा यदि संपूर्ण और स्वच्छ चाहिए, तो संघर्ष को और बड़ा करना होगा। कहां हैं गांधीवादी, जरा गिनिए तो एक छतरी के नीचे कितने आए हैं? कहां हैं विपक्षी, गिनिए, एक मंच पर कितने दिख रहे हैं? ऐसा कतई नहीं है कि सरकार सुनती नहीं है, सुनाने वाले में दम चाहिए। जिसमें दम है, वह सुना रहा है, जिसमें दम नहीं, उसे तो दम तोडऩा ही है।
ऐसा भी नहीं है कि अचानक से ऐसी सरकार हमारे देश में आ गई है। सभ्यता, संवेदना, मानवीयता की जो सिलसिलेवार गिरावट हुई है, उसके फलस्वरूप ही ऐसी सरकार सत्ता में चुनकर आई है। कोई चुनी हुई सरकार कतई तानाशाह नहीं होती, वह केवल उसकी सुनती है, जिसमें दम होता है। अच्छाइयों को भुलाकर, स्वार्थ में लगे हुए, मौकापरस्त लोगों से भरे समाज में क्या इतना दम है कि वह सरकार से अपने काम करवा ले? उनके काम कतई नहीं होंगे, जो एकजुट नहीं हैं। उनके काम कतई नहीं होंगे, जिनको मात्र वोट चाहिए या जिनको वोट के बदले अपने लिए कोई उपहार चाहिए? उनके काम कतई नहीं होंगे, जिनके मन में मैल है? 
हमने इस शहर को, इस गंगा को स्वयं गंदा किया है और हम उम्मीद लगाए बैठे हैं कि कोई साफ कर जाए। ये कैसे होगा? किसी न किसी तरह से हम भ्रष्ट हैं या भ्रष्टाचार को अपने सामने होते देख रहे हैं, तो फिर हम कैसे ये उम्मीद कर सकते हैं कि सरकार पूरी ईमानदार होगी। बड़े रसूखदार लोग जब बिना बेल्ट, बिना हेलमेट सडक़ पर पकड़े जाते हैं, तो फोन उसी सरकारी मंत्री-संत्री को लगाते हैं, जो उन्हें कानून के जाल से निकाल सके। ऐसे पत्रकार हैं, जो किसी को चिडिय़ाघर दिखाने ले जाते हैं, तो वहां भी दो फोन लगाते हैं कि १०-१० रुपए का टिकट न लेना पड़े। फोन लगाते हैं कि पार्किंग का पैसा, टोल का पैसा न देना पड़े, अब बताइए ऐसे पत्रकार को क्या लाभ, अगर भ्रष्टाचार खत्म हो जाए। लिखना अलग चीज है और उसे जीना अलग चीज। कहां-कहां तक आप गिनेंगे। साधु-महात्माओं के दरबार का क्या हाल है? क्या वहां आचरण में भ्रष्टाचार नहीं है?  धर्म क्षेत्र में अनेक लोग होंगे, जो सोच रहे होंगे कि वो साधु तो पागल था, जो गंगा जी के लिए मर मिटा। छप्पन भोग खाओ भाई, गंगा जी के लिए आप सारे साधु चिंतित हो गए, तो गंगा साफ न हो जाएगी। 
बताते हैं कि एक बार किसी संगठन ने मदर टेरेसा को अमरीका में ही रहने के लिए मनाने की बड़ी कोशिश की। मदर कोलकाता छोडऩे को तैयार नहीं थीं। उन्हें कहा गया कि यहीं एक छोटा कोलकाता बना दिया जाएगा, तब मदर ने प्रश्न किया - गंगा कहां से लाओगे? 
विदेश से आई एक ईसाई लडक़ी ने गंगा का मोल समझ लिया, क्योंकि उसके मन में गंगा बहने लगी। वाकई हमारे मन वाली गंगा पहले गंदी हुई, उसके बाद तो बाहर वाली को गंदा होना ही था, हो गई। सिसक रही है, पुकार रही है कि समझो, मैं मात्र नदी नहीं हूं। नदियों का पानी तो सड़ जाता है, मेरा नहीं। क्यों? सोचो... सोचो...

Tuesday, 2 October 2018

गांधी जी के 4 पुत्र

हरिलाल गांधी
(1888-1948)

गांधी जी के सबसे बड़े पुत्र हरिलाल इंग्लैण्ड से वकालत करना चाहते थे, लेकिन गांधी जी ने विरोध जताया। गांधी मानते थे कि अंग्रेजी पद्धति की शिक्षा से भारतीय आंदोलन में कोई खास मदद नहीं मिलेगी। हरिलाल विद्रोही हो गए, 23 की उम्र में हरिलाल ने घर छोड़ दिया। पिता को परेशान करने के लिए इस्लाम धर्म कबूल कर लिया, हालांकि बाद में हिन्दू धर्म में लौट आए। इनका विवाह 18 की आयु में गुलाब वोहरा से हुआ था। 1918 में पत्नी की मृत्यु के बाद गांधी जी से उनके सम्बंधों में खींचतान काफी बढ़ गई थी। इनका जीवन अच्छा नहीं बीता। गांधी जी के निधन के चार महीने बाद लीवर की बीमारी से पीडि़त हरिलाल ने 18 जून 1948 को देह त्याग दी। हरिलाल के जीवन पर ‘गांधी माई फादर’ नाम की फिल्म भी बनी थी। इनके दो पुत्र और दो पुत्रियां हुईं, जिनमें से तीन के परिवार आगे चल रहे हैं। 

मणिलाल गांधी
(1892-1956)

मणिलाल गांधी ने अपने जीवनकाल में मुख्यतौर पर प्रेस का काम किया। गांधी तो भारत लौट आए, लेकिन मणिलाल दक्षिण अफ्रीका में ही रह गए। उन्होंने वहां गांधी आश्रम फिनिक्स फार्म को किसी तरह से संभाला। चरित्र के मामले में गांधी जी उनसे खुश नहीं रहते थे। गांधी जी के भारत लौटने के बाद मणिलाल को आजादी मिली। बाद में मणिलाल पिता से मिलने भारत आए थे और अपने तीखे उलाहनों से उन्हें परेशान भी किया था। वे अपनी विफलताओं के लिए पिता को जिम्मेदार मानते थे। 1927 में सुशीला मशरूवाला से उनकी शादी हुई, जिनका निधन 1988 में हुआ। इन्होंने दक्षिण अफ्रीका में ‘इंडियन ओपिनियन’ अंग्रेजी-गुजराती पत्रिका में वर्ष 1917 से काम शुरू किया। 1920 में उक्त पत्रिका के संपादक बने और मृत्यु तक इस पद पर रहे। इनके दो बेटियों और एक बेटे का परिवार आगे चल रहा है।

रामदास गांधी
(1896-1969)

गांधी जी के तीसरे पुत्र रामदास पिता के सच्चे भक्त थे। उन्होंने कभी भी पिता को नाराज करने वाले काम नहीं किए। उन्होंने पिता के अनुशासन में रहकर जीवन बिताया। गांधी जी रामदास जी को अपना सबसे अच्छा बेटा कहा करते थे। रामदास ने स्वतंत्रता आंदोलन में भी भाग लिया, इस दौरान कई बार जेल भी गए। जिसके फलस्वरूप इनके स्वास्थ्य पर भी बुरा प्रभाव पड़ा। इनकी शादी 1927 में गांधी जी की मर्जी से साबरमती आश्रम की सदस्या निर्मला से हुई थी। निर्मला को आश्रम में नीमू बहन के नाम से जाना जाता था। अपने पति की मृत्यु के बाद नीमू बहन ने साबरमति आश्रम में ही अपना बाकी समय बिताया। खास बात यह थी कि रामदास अपने तीनों भाइयों से ज्यादा दिन तक जीवित भी रहे। इन्होंने ही अपने पिता को मुखाग्नि दी थी। इनकी दो बेटियों और एक बेटे का परिवार चल रहा है।

देवदास गांधी
(1900-1957)

देवदास गांधी का जन्म दक्षिण अफ्रीका में हुआ था और अपने यौवनकाल में भारत आए थे। गांधी जी के बेटों में ये सबसे ज्यादा पढ़े-लिखे और लोकाचार में कुशल थे। स्वतंत्रता आंदोलन में हिस्सा लिया और जेल भी गए। इन्होंने 1933 में चक्रवर्ती राजगोपालाचारी की पुत्री लक्ष्मी से विवाह किया। इस विवाह
का विरोध न केवल राजगोपालाचारी, बल्कि गांधी जी ने भी किया था। देवदास गांधी अपने समय के प्रतिष्ठित पत्रकार थे, हिन्दुस्तान टाइम्स के संपादक भी हुए। पिता के ब्रह्मचर्य सम्बंधी प्रयोगों का उन्होंने हमेशा विरोध किया, पिता की विराट छवि को लेकर सदा सजग रहे। इनकी एक बेटी और तीन बेटों का परिवार आगे चल रहा है।