Monday, 3 December 2018

नारायणन का ‘गाइड’ बनाम देव आनंद का ‘गाइड’

(देव आनंद की पुण्यतिथि 3 दिसंबर के अवसर पर एक शोध का छोटा-सा हिस्सा)

कुछ विश्लेषक राजू गाइड की आलोचना भी करते हैं, उनके अनुसार, राजू के मन में दुर्भावना थी, वह नायिका का अपने स्वार्थ के लिए इस्तेमाल करना चाहता था। हालांकि यह बात पचती नहीं है, जिस राजू ने एक उपेक्षित पीडि़त कलाकार महिला की मदद की, जिस राजू ने उस महिला का करियर बनाने के लिए अपना घर-बार छोड़ दिया, जिस राजू ने अपने प्रेम को बचाने की भरपूर कोशिश की, जिस राजू ने ठुकराए जाने के बाद अपना अलग रास्ता चुन लिया, चुपचाप नायिका की जिंदगी से निकल गया गुमनाम जिंदगी जीने के लिए, ऐसे राजू गाइड को शातिर माना जाए, यह मन नहीं मानता। 
भारत के प्रसिद्ध अंग्रेजी लेखक आर. के. नारायणन ने ‘द गाइड’ उपन्यास की रचना 1958 की थी। देव आनंद यदि उपन्यास आधारित फिल्म बनाते, तो वह फिल्म बॉलीवुड के खांचे के हिसाब से सटीक नहीं बैठती। ‘गाइड’ पहले अंग्रेजी में बनी थी और उसके बाद उसे हिन्दी में बनाया गया। हिन्दी संस्करण में भारतीय फिल्मों की मुख्यधारा के दर्शकों के अनुरूप ‘गाइड’ की कहानी में परिवर्तन किए गए। नारायणन का उपन्यास उस दौर में वयस्क किस्म का था, एक शादीशुदा महिला अपने पति से परे जाकर अपने लिए सुख की तलाश कर रही है। इस उपन्यास के लिए नारायणन को साहित्य अकादमी पुरस्कार भी मिला था। उनके उपन्यास ने साहित्य प्रेमियों को झकझोर कर रख दिया था। देव आनंद पर भी इस उपन्यास का गहरा असर हुआ और उन्होंने नारायणन से इस उपन्यास पर फिल्म बनाने की अनुमति मांगी। बताते हैं कि देव आनंद ने कैलिफोर्निया से ही नारायणन को फोन किया, नारायणन को आश्चर्य हुआ कि देव आनंद जैसा कलाकार उन्हें फोन कर रहा है। नारायणन को सहज विश्वास नहीं हुआ, तो उन्होंने पूछा था, ‘कौन-सा देव आनंद, क्या वह फिल्म स्टार?’ 
बताया जाता है कि सत्यजीत रॉय भी ‘गाइड’ पर फिल्म बनाना चाहते थे। जाहिर है, रॉय अगर ‘गाइड’ बनाते तो कुछ अलग ही कमाल होता। हालांकि इतना तो तय है कि वह फिल्म ‘क्लास’ या विशेष वर्ग के लिए होती, जबकि देव आनंद ने जो ‘गाइड’ बनाई वह ‘मास’ या जन के लिए थी। खैर, यह नारायणन का बड़प्पन था कि उन्होंने अपनी कहानी में कुछ व्यावसायिक परिवर्तनों को मंजूर किया।  

नारायणन का उपन्यास तो स्त्री-पुरुष सम्बंधों को उजागर करने वाली एक अनुपम कृति है। उपन्यास में यह स्पष्ट नहीं होता है या नारायणन ने यह स्पष्ट नहीं होने दिया है कि राजू गाइड सही है या नायिका रोजी-मोहिनी। कभी किसी का पलड़ा भारी होता है, तो कभी किसी का। फिर भी यह बात तय है कि राजू और रोजी, दोनों ने ही एक दूसरे को गढ़ा। जहां रोजी को मुक्त करने या सफल बनाने में राजू का योगदान है, वहीं राजू को मुक्त करने या जीवन में सफल बनाने की ओर ढकेलने में रोजी का योगदान है। एक ओर, राजू दुस्साहस दिखाते हुए रोजी को बड़ी नृत्यांगना के रूप में स्थापित करता है, वहीं रोजी की अनायास चेष्टाएं राजू को एक दुर्घटना-जनित महात्मा के स्वरूप तक पहुंचा देती हैं। यहां यह बात जरूर है कि राजू साधु नहीं बनना चाहता, राजू बलिदान देना नहीं चाहता, वह तो बदनामी से छिप जाना चाहता है, वह अपनी जिंदगी का समाधान तलाशता हुआ या जिंदगी का अगला पड़ाव खोजता हुआ भाग रहा है, लेकिन परिस्थितियां उसे साधु बनाकर एक नई पहचान के जरिए चर्चित कर देती हैं। जबकि रोजी बड़ी नृत्यांगना बनना चाहती है और नृत्यांगना बनने की परिस्थितियां राजू पैदा करता है। कौन सही-कौन गलत का असमंजस नारायणन के पूरे उपन्यास में नजर आता है। कभी लगता है, राजू साजिश कर रहा है, तो कभी लगता है रोजी बेवफाई कर रही है। कभी लगता है रोजी ने राजू को इस्तेमाल कर लिया, तो कभी लगता है, राजू ने रोजी को फंसा लिया। 
इसमें कोई शक नहीं है कि पुरुष प्रधान बॉलीवुड में राजू गाइड को महान बनाने की कोशिश हुई है, जबकि ऐसी कोई कोशिश नारायणन अपने उपन्यास में नहीं करते हैं। उपन्यास में राजू के साधु-अवतार के समय रोजी से उसकी मुलाकात नहीं होती और न मां उससे मिलनी आती है। उपन्यास में राजू मरता भी नहीं है और न अंत में हुई बारिश में लोग भीगते हैं। उपन्यास संपन्न होते हुए बस एक व्यंजना छोड़ जाता है कि हां, बारिश होने वाली है। 
एक और बात ध्यान देने की है कि उपन्यास में राजू को जेल जाने से बचाने के लिए रोजी दिन-रात एक कर देती है। बहुत महंगा वकील करती है, अपने सारे पैसे लुटा देती है, तब जाकर थोड़ी सफलता मिलती है और राजू को ७ साल की बजाय मात्र २ साल की सजा होती है। रोजी ने राजू को बचाने के लिए जो संघर्ष किया है, वह ‘गाइड’ फिल्म से नदारद है। जाहिर है, ‘द गाइड’ का बॉलीवुडीकरण किया गया। बॉलीवुड की फिल्मों में प्रेमिका का न मिल पाना एक बहुत बड़े दुख के रूप में अवतरित होता रहा है और इसी चालू पृष्ठभूमि में ‘गाइड’ फिल्म अपना गहरा दुखांत प्रभाव छोडऩे में कामयाब होती है। 

सच्चाई की दुनिया में सपनों का यह कारोबार उतना ही सफल है, जितनी कि ‘गाइड’ फिल्म। अपनी समग्रता में ‘गाइड’ फिल्म संगीत, दुख, विरह, बेवफाई का एक खेल रचती है और इस खेल में देव आनंद सच्चे नायक बनकर उभरते हैं, दर्शकों की गहरी सहानुभूति और प्रेम अर्जित करते हैं। 

फिर भी ‘गाइड’ इस मामले में क्रांतिकारी फिल्म है कि उसने नायक-नायिका को ढंग से मिलने नहीं दिया। अंतत: दोनों की मुलाकात हुई, लेकिन कुछ ही पल में हमेशा के लिए बिछड़ गए। इस फिल्म का एक भारतीय फिल्मी खेल बहुत यादगार बना, जब साधु राजू के चरण छूकर रोजी ने अपनी मांग का स्पर्श किया, यानी प्यार और समर्पण का संकेत। यहां यह लगता है कि ‘गाइड’ में कथित प्रचलित भारतीय नारी को उच्चता प्रदान करने की कोशिश की गई है। फिल्म में संदेश यह है कि जहां स्त्री अपने रखवाले पति या प्रेमी के लिए समर्पित रहे, वहीं पुरुष समग्र समाज के लिए कुर्बान हो जाए। ‘गाइड’ में नायक जहां एक ओर नायिका के प्रेम का शिकार होता है, वहीं वह समाज के लिए कुर्बान होने के लिए भी बाध्य हो जाता है। 
इसमें कोई शक नहीं कि नारायणन का गाइड महान नहीं था, लेकिन देव का गाइड महान हुआ और यह महानता दरअसल दुख से उपजी।  
वाकई, दुख से गुजरे बिना सच्ची समझ नहीं आती। ‘देवदास’ देखे बिना दिलीप कुमार को, ‘मेरा नाम जोकर’ देखे बिना राज कपूर को और ‘गाइड’ देखे बिना देव आनंद को नहीं समझा जा सकता। तीनों ही फिल्मों में दुख एक खास अवस्था में है। दुख ही वह निर्णायक तत्व है, जो दिलीप, राज और देव जैसे महानायक गढ़ता है। 
जब गाइड में देव यह संवाद बोलते हैं, तो दर्शकों को झकझोर कर रख देते हैं...
‘बहुत राह देखी, एक ऐसी राह पे
जो तेरी रहगुजर भी नहीं।’
यहां एक साथ, दिलीप कुमार के देवदास और राज कपूर के राजू जोकर की याद हो आती है। तीनों की ओर से यह वाक्य सार्थक व्यंजित होता लगता है। दुनिया से जाते-जाते देवदास ने भी पारो के लिए यही कहा होगा और ‘मेरा नाम जोकर’ में राजू जोकर ने भी मीनू मास्टर उर्फ मीना से बिछड़ते हुए यही कहा होगा और देव तो खैर ‘गाइड’ में कह ही रहे हैं। 
शायद ‘गाइड’ के बाद राज कपूर के लिए ‘मेरा नाम जोकर’ रचना बहुत आसान हो गया होगा। ‘मेरा नाम जोकर’ में नायिका मीना की ओर से दिया गया दुख जोकर राजू के लिए ज्यादा बड़ा है, क्योंकि जब जरूरत थी, तब मीना ने ही पीछे से पुकारा था, मोरे अंग लग जा बालमा... और जब जरूरत पूरी हो गई, तो बड़ी आसानी से किसी और को अपना बालमा बना लिया। दोनों राजुओं में से कोई नीचता पर नहीं उतरा। यहां खास बात यह कि दोनों राजुओं ने अपना चोला तो बदला, एक राजू साधु बन गया, तो एक राजू जोकर बन गया, लेकिन दोनों में से कोई बदला लेने की मानसिकता में नहीं आया।  
तो किसी को भी यह भ्रम नहीं होना चाहिए कि देव आनंद के हिस्से में केवल प्यार आया था। यहां संदेश बिल्कुल साफ है, प्रेम केवल मस्ती का नाम नहीं है, उसके साथ दुख और दर्द भी पैकेज में शामिल हैं। किसी के जीवन में चुनौती प्रेम की उतनी नहीं है, जितनी प्रेम में उपजे दुख और दर्द की है। 
यहां मशहूर शाइर जिगर मुरादाबादी का शेर याद कीजिए -
ये इश्क नहीं आसां, बस इतना समझ लीजे
एक आग का दरिया है और डूब के जाना है।

Wednesday, 17 October 2018

नाम में क्या रखा है?

दुनिया के प्रसिद्ध लेखक वीलियम शेक्सपीयर (1964-1616) ने जब 1595 में लोककथा रोमियो-जूलियट पर नाटक की रचना की, तब उसका एक संवाद था - व्हाट इज इन ए नेम? मतलब - नाम में क्या रखा है? 
तब भारत के बादशाह अकबर (1542-1605) थे। यूरोप में तो तब नाम नहीं बदले, क्योंकि उसकी जरूरत नहीं थी, लेकिन भारत में तब धड़ाधड़ नाम बदलने की शुरुआत हो चुकी थी, क्योंकि यहां तत्कालीन शासन ने इसकी जरूरत महसूस की। शहरों के भारतीय नामों से काफिरों के मजहब की बू आती थी। हजारों स्थानों के नाम बदले गए। भारत को क्या बनाने की चाहत थी, यह बताने की कतई जरूरत नहीं है। 
रही बात हम भारतीयों की, तो हम बीती को बिसार देने के लिए प्रसिद्ध हैं। माफ करने में हमें बड़ा आनंद आता है। भले ही कोई हमें माफ न करे। आदत से माफीखोर गौरी को एक ही तो मौका चाहिए था, पृथ्वीराज ने दे दिया। अब भुगतो। तब जब जगहों के नाम बदलते होंगे, तो हमारे पूर्वजों को कितनी तकलीफ होती होगी। इलाहाबाद जब प्रयागराज हो गया है, तब भी हमें तकलीफ हो रही है, लेकिन जब प्रयागराज को इलाहाबाद किया गया होगा, तब क्या हमारे पूर्वजों को तकलीफ नहीं हुई होगी? कहां गए होंगे, वे गुहार लेकर कि हुजूर नाम मत बदलिए। हमारे प्राचीन देश का प्राचीन नाम है, मत बदलिए। रहने दीजिए, नाम में क्या रखा है? 
तब मुगल देश में कितने रहे होंगे, एक प्रतिशत या उससे भी कम? लेकिन बादशाही थी, नाम बदल दिया। अब लोकतंत्र है, जनता द्वारा बहुमत से चुनी गई सरकार नाम बदल रही है, तो विरोध हो रहा है। जब नाम इलाहाबाद रखा गया होगा, तब जिन्होंने विरोध किया होगा, उन पूर्वजों का क्या हुआ होगा? किसी ने सोचा है? 
दरअसल, राष्ट्र गौरव को पुनर्जिवित करना ही होगा, दूसरा कोई उपाय नहीं है, दुनिया ने दूसरा कोई उपाय भारत के पास छोड़ा भी नहीं है। सारी संस्कृतियां अपनी जड़ों को मजबूत कर रही हैं और हम अपनी अंजुरियों में मट्ठा लिए अपनी जड़ें खोज रहे हैं। जहां भी भारतीय संस्कृति की कोई जड़ दिख जाती है, थोड़ा-सा मट्ठा उसमें डाल देते हैं कि जड़ ही खत्म कर दो। सेकुलरिटी को बचाने का ठेका हमारे नाम से ही दुनिया की संसद में पारित हुआ था! यह ठेका तो हमारे नाम से मुगल बादशाहों ने तभी उठा लिया था, जब धड़ाधड़ नाम बदले जा रहे थे। तब नाम बदलने वाले हमारे असली पूर्वज हैं, गुलामों-मुगलों से पहले हमारे जो पूर्वज थे, वो गलत लोग थे। उनको सेकुलरिटी की थोड़ी भी चिंता नहीं थी। उन्हें पहले से ही सोच-समझकर चलना चाहिए था कि इस देश की माटी पर मुस्लिम भी आने वाले हैं और ईसाई भी, तो थोड़े से नाम मुस्लिम हिसाब से भी कर लो और थोड़े-से ईसाई भी, जो थोड़ा-सा बच जाए, वह बेचारा हिन्दू!  
राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने संस्कृति के चार अध्याय में सांप्रदायिकता पर बहुत अच्छा लिखा है - उनके लिखने का सार यह है कि इस देश के मुसलमान यह भूल नहीं पा रहे कि उन्होंने सैंकड़ों वर्ष हिन्दुओं पर शासन किया है। तो दूसरी ओर, हिन्दू यह नहीं भूल पा रहे कि मुस्लिम शासन के दौरान हिन्दुओं पर खूब अत्याचार हुए थे, चार धाम की यात्रा के लिए भी टैक्स अदा करना पड़ता था।  
अब प्रश्न यह उठता है कि नाम बदलना भी तो अत्याचार का ही हिस्सा है? पहले भी था और आज भी है। आज के विद्वान यह बोल रहे हैं कि हम आज अत्याचार क्यों होने दें? सही है, अत्याचार नहीं होने देना चाहिए। नाम बदलने की एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया होनी चाहिए। नामों को लेकर भावुक होने की जरूरत नहीं है। सरकार मनमानी न करे। सरकार जनमत के अनुरूप चले। कोई नाम बदला जा रहा है, तो उस पर मतदान करा लिया जाए। लोगों की जो मर्जी हो, वह नाम रख दिया जाए। 
दूसरी बात, हमें कट्टर मुस्लिम देशों से कुछ भी नहीं सीखना चाहिए, ये देश नहीं जानते कि वे दुनिया का कितना नुकसान कर रहे हैं। आदर्श मुस्लिम देश भी हैं, इंडोनेशिया जैसे, जिन्होंने धर्म बदला है, पूर्वज नहीं बदले। हमें ऐसे देशों का भी ध्यान रखना चाहिए और उनके आसपास रहना चाहिए। सेकुलरिटी इस देश की नशों में है, वह कहीं नहीं जाने वाली। उस भारतीय परंपरागत छतरी को सही रखना होगा, जिसके नीचे सेकुलरिटी के लिए जगह है। हमने तो यहां तक मान लिया है कि हिन्दू कोई धर्म नहीं है, लेकिन जीवन शैली ही सही, उसे तो बचाया जाए? अगर अपनी इस छतरी को नहीं बचाएंगे, तो दूसरी छतरियों के मालिकों को देख लीजिए, क्या वे आपका स्वागत करने को तैयार हैं? क्या किसी अन्य इलाहाबाद में प्रयागराज संभव है? 
नामों को लेकर भावुक होने की कोई जरूरत नहीं है। नाम में क्या रखा है? बचाइए, अच्छी परंपराओं को। बचाइए उन परंपराओं को जो स्त्री को शक्ति बनाती हैं और पुरुषों को मर्यादा में रखती हैं। बचाइए उस समाज को, जो कुम्हार की तरह काम करता है, देख-रेख करता है, भटक जाओ, तो रास्ता बताता है, प्यासे को पानी पिलाता है, भूखों के लिए गांव के बाहर पेड़ों पर भोजन रख देता है। सोचता रहता है कि हमारे आसपास कोई भूखा न सो जाए। सुनिश्चित करता है कि हमारे आसपास कोई लूट न लिया जाए। 
बचाइए, केवल पूर्वजों के रखे नाम ही नहीं, पूर्वज के किए अच्छे काम भी बचाइए। 

Tuesday, 16 October 2018

प्रशांत बाबू अब क्या करेंगे?

प्रसिद्ध चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर पिछले महीने जनता दल यूनाइटेड में शामिल हुए थे और उम्मीद के अनुरूप ही उन्हें पार्टी का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनाया गया है। प्रशांत किशोर एक कुशल युवा हैं, जिनकी मदद नरेन्द्र मोदी ने भी प्रधानमंत्री बनने की दौड़ में ली थी। वे २०१३-२०१४ में नरेन्द्र मोदी के मुख्य रणनीतिकार थे और फिर वर्ष २०१५ में वे नीतीश कुमार के रणनीतिकार बन गए। उनकी रणनीति से केन्द्र में भाजपा सत्ता में आई, तो अगले साल बिहार में हार गई और नीतीश-लालू सत्ता में आ गए। 
पहला स्वाभाविक प्रश्न यह उठता है कि वह क्या रणनीति थी, जिसकी बदौलत नरेन्द्र मोदी सत्ता में आए थे। क्या जो बड़े-बड़े वादे किए गए थे, जो जुमले उछाले गए थे, उनके पीछे भी प्रशांत किशोर का हाथ था? बड़े-बड़े वादे करके सत्ता में आने की जिस रणनीति का खुलासा विगत दिनों गडकरी जी ने किया था, उसमें प्रशांत किशोर का कितना हाथ है? चूंकि प्रशांत किशोर राजनीति में आ गए हैं, तो ऐसे प्रश्न उनसे पूछे ही जाएंगे।
अब प्रश्न यह उठता है कि जनता दल यूनाइटेड में राष्ट्रीय उपाध्यक्ष पद का क्या अर्थ है। क्या वे पार्टी को राष्ट्रीय स्तर पर अर्थात बिहार से बाहर दूसरे राज्यों में फैलाने का काम करेंगे? क्या पार्टी उनकी रणनीति की बदौलत दूसरे राज्यों में पैर जमा लेगी? बिहार में शराबबंदी, अपराधियों पर थोड़ी रोक और भ्रष्टाचार के विरुद्ध कुछ कदमों को छोड़ दीजिए, तो अभी भी विकास की वह रफ्तार नहीं है, जो युवाओं को पलायन से रोक सके। रोज हजारों युवा बिहार छोडऩे को मजबूर हैं और बिहार सरकार की नीति कहती है कि जो बिहारी बाहर चले गए हैं, उन्हें लौटने की कोई जरूरत नहीं है। बिहार को विकास करता हुआ, तभी माना जाएगा, जब वहां लोगों को समय पर तनख्वाह मिलने लगेगी, जब वहां से युवाओं को पलायन रुकेगा। 
अभी एक दिन पहले ही कुछ बिहारी युवाओं से बात हो रही थी, जो अहमदाबाद में काम करते हैं। उनके मन में एक डर है और असुरक्षा बोध भी। असुरक्षा बोध इस बात को लेकर भी है कि वे अगर बिहार लौट भी गए, तो आगे जीवन का क्या होगा? बिहार में ९-१० हजार की नौकरी भी नहीं मिलती। इतने ही रुपयों के लिए युवा अपनी जमीन से दूर कहीं जाकर मेहनत करते हैं। मार खाते हैं, अपशब्द झेलते हैं। क्यों? 
नीतीश कुमार तो सोच ही रहे होंगे, लेकिन अब प्रशांत किशोर को भी सोचना चाहिए कि बिहार में ऐसा कब तक होगा? लालू प्रसाद यादव या उनका परिवार बिहार के विकास का कोई मॉडल पेश करेगा, कहना मुश्किल है। नीतीश कुमार और प्रशांत किशोर जैसे सुलझे हुए नेताओं से बिहारियों को उम्मीद है। उन्हें पैमाने पर खरा उतरना चाहिए। राजनीति में अच्छे लोग आएं, तो कामयाब होने की कोशिश भी करें। भ्रष्टाचार रुके, निवेश आमंत्रित किया जाए। सरकार अपराध को बिल्कुल रोके, ताकि निवेश सुरक्षित रहे और बढ़े। 
पता नहीं, अब कोई नीतीश कुमार को सुशासन बाबू बोलता है या नहीं? मजाक उड़ाने के लिए नहीं, बल्कि प्रेरित करते रहने के लिए भी उन्हें सुशासन बाबू बोलते रहना चाहिए, ताकि उन्हें याद रहे कि वे क्यों मुख्यमंत्री बनाए गए हैं। प्रशांत किशोर के पास एक अच्छा दिमाग है, वे उसे अपनी पार्टी को राष्ट्रीय स्तर पर मजबूत करने के लिए इस्तेमाल करें, तो जरूरी नहीं कि सफलता मिल ही जाए। 
तो प्रशांत किशोर को ऐसा क्या करना होगा, जो नीतीश कुमार भी अभी तक नहीं कर पाए हैं। दरअसल, जरूरी है कि बिहार को एक ब्रांड बनाया जाए। उसके दामन पर लगे दाग मिटाए जाएं। बिहार को सशक्त बनाया जाए, बिहार को आदर्श राज्य बनाया जाए। नीतीश को मुख्यमंत्री के रूप में १२ से ज्यादा वर्ष मिल चुके हैं, रणनीति से १२ और वर्ष भी मिल जाएंगे, लेकिन बिहार कैसा होगा? क्या ऐसा बिहार कभी बनेगा, जो बाहर के राज्य के लोगों को भी खूब रोजगार देगा?  क्या ऐसा बिहार बनेगा, जहां से रोजगार के लिए कोई दुखी युवा पलायन नहीं करेगा? जहां कोई मां बाहर गए अपने बेटे के लिए नहीं रोएगी, जहां बेटा अपनी आंखों के सामने रहेगा? कम से कम ऐसे युवाओं को तो रोका जाए, जो अपना जिला-जवार छोड़ते हुए गमछा-रूमाल गीले कर देते हैं। कम से कम ऐसे किसी युवा को तो बाहर न जाना पड़े, जिस पर पूरा परिवार निर्भर है।
आखिर बिहार में इतने विरह गीत क्यों लिखे जाते हैं और कब तक लिखे जाएंगे? अकेली औरतें, माताएं, मजबूर पिता-दादा आखिर कब तक शहर की बाट जोहते रहेंगे? घर के लडक़ों को चंपारण, दरभंगा, छपरा, सिवान, आरा, पटना, गया, सुपौल, मोतीहारी जैसे शहरों में कब नौकरी मिलने लगेगी? बिहार की टे्रेनें कब तक मजदूरों को बाहर ले जाती रहेंगी? अब समय आना चाहिए, जब ये टे्रनें बाहर से मजदूर लेकर आएं। बिहार की मिट्टी को सब जानते हैं कि वह सोना उगल सकती है। जब वह सोना उगलने लगेगी, तो बिहार ब्रांड बन जाएगा, उस दिन नीतीश-प्रशांत की पार्टी अपने आप राष्ट्रीय पार्टी बन जाएगी। 

Thursday, 11 October 2018

सुनो तो गंगा ये क्या सुनाए

सत्ता के धूम-धड़ाके में फिर एक आवाज दम तोड़ गई। एक और गांधी गंगा के लिए शहीद हो गए। आई.आई.टी. में प्रोफेसर रह चुके जी.डी. अग्रवाल गंगा के प्रेम में साधु हो गए थे। १११ दिन उपवास करने के बाद परमधाम चले गए। उन्हें झूठ से मना लेने की झूठी और छोटी-छोटी कोशिशें होती रहीं, वे नहीं माने, तो सरकार भी नहीं मानी। गंगा नदी को तो खत्म ही करना है। आज गंगा का क्या काम? लोग नहीं सुधर रहे, तो सरकार ने सुधरने का ठेका तो नहीं ले रखा। बहने दीजिए, अपने बल पर जितने दिन बह जाए गंगा, वैसे ही सबको पता है कि इस नदी को एक दिन सूख जाना है, तो इसे क्यों बचाया जाए ? 
राज कपूर ने फिल्म बनाई थी, जिसमें गाना था - राम तेरी गंगा मैली हो गई, पापियों के पाप धोते-धोते...
बेशर्म पापी ऐसे-ऐसे कि थक नहीं रहे हैं। इस गीत की शुरुआत इन पंक्तियों से होती है - 
सुनो तो गंगा ये क्या सुनाए कि मेरे तट पर वो लोग आए।
जिन्होंने ऐसे नियम बनाए कि प्राण जाए पर वचन न जाए। 
अब तो वचन का क्या अर्थ? एक सत्ताधारी नेता जी ने साफ बता दिया कि हमें अंदाजा नहीं था कि हम सत्ता में आ जाएंगे, तो हमने बड़े-बड़े वचन दे दिए, अब लोग हमें गिनाते हैं और हम हंसते हैं।  
तो लीजिए, हंसी-हंसी में एक प्रोफेसर साधु चला गया, क्योंकि उसका संघर्ष गांधीवादी था। कान खोलकर सुन लीजिए, गांधियों को अब गोली नहीं मारी जाती, उन्हें अपनी मौत मरने के लिए छोड़ दिया जाता है। 
वाकई गांधी जी होते, तो बड़े खुश होते कि भारत सरकार ने पहली बार इतने बड़े पैमाने पर स्वच्छता और शौचालय निर्माण का काम अपने हाथों में लिया है, लेकिन वे इस बात से दुखी भी होते कि गंगा की सफाई युद्धस्तर पर नहीं हो रही है और एक साधु को उपवास करके मरने दिया गया। एक और छोटे गांधी हैं अन्ना हजारे - बताते हैं कि वे इसी डर से उपवास से बच रहे हैं कि कहीं सरकार मरने के लिए छोड़ न दे। उपवास वही करे, जो मरने की ठाने। 
क्या आपको नहीं दिख रहा, देश के ज्यादातर लोग अपने स्वार्थ का इस तरह पीछा कर रहे हैं कि आज के गांधियों का देशवासियों से भरोसा हिल गया है। यह मौत वाकई शहादत है, यह आतंकित करने के लिए होने दी गई है, यह इस बात का भी संकेत है कि गंगा यदि संपूर्ण और स्वच्छ चाहिए, तो संघर्ष को और बड़ा करना होगा। कहां हैं गांधीवादी, जरा गिनिए तो एक छतरी के नीचे कितने आए हैं? कहां हैं विपक्षी, गिनिए, एक मंच पर कितने दिख रहे हैं? ऐसा कतई नहीं है कि सरकार सुनती नहीं है, सुनाने वाले में दम चाहिए। जिसमें दम है, वह सुना रहा है, जिसमें दम नहीं, उसे तो दम तोडऩा ही है।
ऐसा भी नहीं है कि अचानक से ऐसी सरकार हमारे देश में आ गई है। सभ्यता, संवेदना, मानवीयता की जो सिलसिलेवार गिरावट हुई है, उसके फलस्वरूप ही ऐसी सरकार सत्ता में चुनकर आई है। कोई चुनी हुई सरकार कतई तानाशाह नहीं होती, वह केवल उसकी सुनती है, जिसमें दम होता है। अच्छाइयों को भुलाकर, स्वार्थ में लगे हुए, मौकापरस्त लोगों से भरे समाज में क्या इतना दम है कि वह सरकार से अपने काम करवा ले? उनके काम कतई नहीं होंगे, जो एकजुट नहीं हैं। उनके काम कतई नहीं होंगे, जिनको मात्र वोट चाहिए या जिनको वोट के बदले अपने लिए कोई उपहार चाहिए? उनके काम कतई नहीं होंगे, जिनके मन में मैल है? 
हमने इस शहर को, इस गंगा को स्वयं गंदा किया है और हम उम्मीद लगाए बैठे हैं कि कोई साफ कर जाए। ये कैसे होगा? किसी न किसी तरह से हम भ्रष्ट हैं या भ्रष्टाचार को अपने सामने होते देख रहे हैं, तो फिर हम कैसे ये उम्मीद कर सकते हैं कि सरकार पूरी ईमानदार होगी। बड़े रसूखदार लोग जब बिना बेल्ट, बिना हेलमेट सडक़ पर पकड़े जाते हैं, तो फोन उसी सरकारी मंत्री-संत्री को लगाते हैं, जो उन्हें कानून के जाल से निकाल सके। ऐसे पत्रकार हैं, जो किसी को चिडिय़ाघर दिखाने ले जाते हैं, तो वहां भी दो फोन लगाते हैं कि १०-१० रुपए का टिकट न लेना पड़े। फोन लगाते हैं कि पार्किंग का पैसा, टोल का पैसा न देना पड़े, अब बताइए ऐसे पत्रकार को क्या लाभ, अगर भ्रष्टाचार खत्म हो जाए। लिखना अलग चीज है और उसे जीना अलग चीज। कहां-कहां तक आप गिनेंगे। साधु-महात्माओं के दरबार का क्या हाल है? क्या वहां आचरण में भ्रष्टाचार नहीं है?  धर्म क्षेत्र में अनेक लोग होंगे, जो सोच रहे होंगे कि वो साधु तो पागल था, जो गंगा जी के लिए मर मिटा। छप्पन भोग खाओ भाई, गंगा जी के लिए आप सारे साधु चिंतित हो गए, तो गंगा साफ न हो जाएगी। 
बताते हैं कि एक बार किसी संगठन ने मदर टेरेसा को अमरीका में ही रहने के लिए मनाने की बड़ी कोशिश की। मदर कोलकाता छोडऩे को तैयार नहीं थीं। उन्हें कहा गया कि यहीं एक छोटा कोलकाता बना दिया जाएगा, तब मदर ने प्रश्न किया - गंगा कहां से लाओगे? 
विदेश से आई एक ईसाई लडक़ी ने गंगा का मोल समझ लिया, क्योंकि उसके मन में गंगा बहने लगी। वाकई हमारे मन वाली गंगा पहले गंदी हुई, उसके बाद तो बाहर वाली को गंदा होना ही था, हो गई। सिसक रही है, पुकार रही है कि समझो, मैं मात्र नदी नहीं हूं। नदियों का पानी तो सड़ जाता है, मेरा नहीं। क्यों? सोचो... सोचो...

Tuesday, 2 October 2018

गांधी जी के 4 पुत्र

हरिलाल गांधी
(1888-1948)

गांधी जी के सबसे बड़े पुत्र हरिलाल इंग्लैण्ड से वकालत करना चाहते थे, लेकिन गांधी जी ने विरोध जताया। गांधी मानते थे कि अंग्रेजी पद्धति की शिक्षा से भारतीय आंदोलन में कोई खास मदद नहीं मिलेगी। हरिलाल विद्रोही हो गए, 23 की उम्र में हरिलाल ने घर छोड़ दिया। पिता को परेशान करने के लिए इस्लाम धर्म कबूल कर लिया, हालांकि बाद में हिन्दू धर्म में लौट आए। इनका विवाह 18 की आयु में गुलाब वोहरा से हुआ था। 1918 में पत्नी की मृत्यु के बाद गांधी जी से उनके सम्बंधों में खींचतान काफी बढ़ गई थी। इनका जीवन अच्छा नहीं बीता। गांधी जी के निधन के चार महीने बाद लीवर की बीमारी से पीडि़त हरिलाल ने 18 जून 1948 को देह त्याग दी। हरिलाल के जीवन पर ‘गांधी माई फादर’ नाम की फिल्म भी बनी थी। इनके दो पुत्र और दो पुत्रियां हुईं, जिनमें से तीन के परिवार आगे चल रहे हैं। 

मणिलाल गांधी
(1892-1956)

मणिलाल गांधी ने अपने जीवनकाल में मुख्यतौर पर प्रेस का काम किया। गांधी तो भारत लौट आए, लेकिन मणिलाल दक्षिण अफ्रीका में ही रह गए। उन्होंने वहां गांधी आश्रम फिनिक्स फार्म को किसी तरह से संभाला। चरित्र के मामले में गांधी जी उनसे खुश नहीं रहते थे। गांधी जी के भारत लौटने के बाद मणिलाल को आजादी मिली। बाद में मणिलाल पिता से मिलने भारत आए थे और अपने तीखे उलाहनों से उन्हें परेशान भी किया था। वे अपनी विफलताओं के लिए पिता को जिम्मेदार मानते थे। 1927 में सुशीला मशरूवाला से उनकी शादी हुई, जिनका निधन 1988 में हुआ। इन्होंने दक्षिण अफ्रीका में ‘इंडियन ओपिनियन’ अंग्रेजी-गुजराती पत्रिका में वर्ष 1917 से काम शुरू किया। 1920 में उक्त पत्रिका के संपादक बने और मृत्यु तक इस पद पर रहे। इनके दो बेटियों और एक बेटे का परिवार आगे चल रहा है।

रामदास गांधी
(1896-1969)

गांधी जी के तीसरे पुत्र रामदास पिता के सच्चे भक्त थे। उन्होंने कभी भी पिता को नाराज करने वाले काम नहीं किए। उन्होंने पिता के अनुशासन में रहकर जीवन बिताया। गांधी जी रामदास जी को अपना सबसे अच्छा बेटा कहा करते थे। रामदास ने स्वतंत्रता आंदोलन में भी भाग लिया, इस दौरान कई बार जेल भी गए। जिसके फलस्वरूप इनके स्वास्थ्य पर भी बुरा प्रभाव पड़ा। इनकी शादी 1927 में गांधी जी की मर्जी से साबरमती आश्रम की सदस्या निर्मला से हुई थी। निर्मला को आश्रम में नीमू बहन के नाम से जाना जाता था। अपने पति की मृत्यु के बाद नीमू बहन ने साबरमति आश्रम में ही अपना बाकी समय बिताया। खास बात यह थी कि रामदास अपने तीनों भाइयों से ज्यादा दिन तक जीवित भी रहे। इन्होंने ही अपने पिता को मुखाग्नि दी थी। इनकी दो बेटियों और एक बेटे का परिवार चल रहा है।

देवदास गांधी
(1900-1957)

देवदास गांधी का जन्म दक्षिण अफ्रीका में हुआ था और अपने यौवनकाल में भारत आए थे। गांधी जी के बेटों में ये सबसे ज्यादा पढ़े-लिखे और लोकाचार में कुशल थे। स्वतंत्रता आंदोलन में हिस्सा लिया और जेल भी गए। इन्होंने 1933 में चक्रवर्ती राजगोपालाचारी की पुत्री लक्ष्मी से विवाह किया। इस विवाह
का विरोध न केवल राजगोपालाचारी, बल्कि गांधी जी ने भी किया था। देवदास गांधी अपने समय के प्रतिष्ठित पत्रकार थे, हिन्दुस्तान टाइम्स के संपादक भी हुए। पिता के ब्रह्मचर्य सम्बंधी प्रयोगों का उन्होंने हमेशा विरोध किया, पिता की विराट छवि को लेकर सदा सजग रहे। इनकी एक बेटी और तीन बेटों का परिवार आगे चल रहा है। 

Wednesday, 13 June 2018

हमको क्षमा करो भगवान!


विगत जुलाई के महीने में उस दिन शाम पुरी जगन्नाथ धाम के शंकराचार्य निश्चलानंद सरस्वती जी जगन्नाथ मंदिर प्रबंधन से जुड़े दो पदाधिकारियों से बात कर रहे थे और उन्होंने अपने स्वभाव के अनुरूप ही दोटूक कहा - मंदिर लुटेरों का अड्डा बन गया है, वहां धर्म के अनुरूप आचरण नहीं हो रहा है।
दोनों पदाधिकारी स्तब्ध और बेचैन थे कि सुधार के लिए कुछ किया जाए। शंकराचार्य ने दोटूक कथन जारी रखा, सुधार हो, परन्तु आप लोग पहले मन बना लीजिए। वैसे भी मंदिर के मामलों में मेरी कौन सुन रहा है? 
पुरी का यही सच है कि पुरी के मंदिर प्रबंधन के कार्य से शंकराचार्य को पूरी तरह से दूर कर दिया गया है। पुरी में धर्म का जो सबसे आधिकारिक पद है, धर्म की जो सबसे ऊंची ध्वजा है, वही उपेक्षित है, तो फिर मंदिर प्रबंधन किस तरह से जगन्नाथ मंदिर का संचालन कर रहा होगा, अंदाजा लगाया जा सकता है। मंदिर में तो दक्षिणा उगाही में दक्ष लोग ही अपना राजपाट चला रहे हैं और उन्होंने पुरी के धार्मिक राजा गजपति जी को नाम के लिए आगे कर रखा है। गजपति की मजबूरी है कि उन्हें जो राजा मानेगा, उनके साथ ही वे रहेंगे। शंकराचार्य के संरक्षण में चलने में समस्या यह है कि रीति-नीति सबकुछ धर्म के अनुरूप करना पड़ेगा। दक्षिणा उगाही में नहीं, बल्कि पूजा-कर्म में दक्ष बनना पड़ेगा। धर्म के नाम पर दुकानें चलाने में आसानी हो, इसीलिए शंकराचार्य जी को मंदिर प्रबंधन ने भुला दिया है।  
एक बात यह भी गौर करने की है कि निश्चलानंद जी को शंकराचार्य की गद्दी पर बैठे २६ वर्ष होने जा रहे हैं। वे ओडिय़ा समझ लेते हैं, लेकिन हिन्दी और संस्कृत में ही बोलते हैं। खांटी ओडिया बोलने वाले पंडों से दूरी की एक वजह यह भी है। एक बात यह भी है कि लंबे समय तक पुरी शंकराचार्य को देश और धर्म की ङ्क्षचता के लिए जाना गया है, देश उन्हें सुनता है, किन्तु पुरी के पंडे उन्हें नहीं पूछते। शंकराचार्य के सेवकों में भोजपुरीभाषी ही ज्यादा दिखते हैं। पुरी मंदिर और शंकराचार्य के गोवर्धन मठ के बीच की दूरी डेढ़ किलोमीटर भी नहीं है, परन्तु मंदिर के मुकाबले यहां २ प्रतिशत लोग भी नहीं आते। गोवर्धन मठ पूरी तरह से धार्मिक रीति, नीति, परंपरा, पवित्रता, स्वच्छता, शास्त्र, शिक्षा, वेद पाठ के साथ विराजमान है, किन्तु जगन्नाथ पुरी के मंदिर को देखकर दुख होता है। मंदिर प्रबंधन और पंडों के दुव्र्यवहार की चर्चा तो देश की सर्वोच्च अदालत तक पहुंच गई है। दर्शन करने वालों को यहां श्रद्धालु नहीं, बल्कि धन पशु मानकर हांका-लूटा जाता है। मंदिर में धक्का-मुक्की, डांट फटकार, लड़ाई, झगड़ा बहुत आम बात है। श्रद्धा से खिलवाड़ इस कदर है कि आप विशाल मंदिर में कहीं भी हाथ जोडक़र दो मिनट खड़े नहीं हो सकते। आपको कोई न कोई दक्षिणा-लोभी आवाज देने लगेगा। आप ध्यान नहीं देंगे, तो श्राप देने की मुद्रा में आने में समय नहीं लगाएगा। आप जिस पंडे के चंगुल में फंस जाएंगे, वह पंडा आपको बार-बार सावधान करेगा कि इधर-उधर मत देखना-यहां बहुत लूट होती है। यहां पंडे तभी एकजुट होते हैं, जब उनके व्यवसाय पर आंच आती है, वरना वे अपनी कमाई बढ़ाने की लालच में दूसरे सभी पंडों को फर्जी बताने से भी नहीं चूकते। आपने मंदिर परिसर में एक पंडा कर लिया है, तो फिर आप उस पंडे के गुलाम हैं। वो जहां बोले, वहां पैसे रखिए। 
प्रसाद के काउंटर पर आपकी पर्ची कटेगी। पर्ची पांच हजार रुपए से ८०० रुपए तक होगी। पंडा चाहेगा कि आप अधिकतम की पर्ची कटवाएं, ताकि उतना ही ज्यादा उसका कमीशन हो जाए। आपको जो रसीद मिलेगी, उसे पंडा रख लेगा। कमीशन वह आपके सामने नहीं लेगा। वह पहले आपको भीड़ के साथ दर्शन करवाएगा। आप ठसाठस भीड़ में रहते हुए किसी तरह करीब ५० मीटर दूर से भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा के विग्रह देख सकेंगे। भगवान के दर्शन के लिए जो अवसर, भाव, जगह चाहिए, वह आपको कतई नसीब नहीं होगी। इस दौरान आपके सामने आरती की थालियां लेकर कम से कम ६-७ पंडे खड़े रहेंगे, जो आपके दर्शन में हर संभव बाधा पहुंचाएंगे। किसी तरह आप विग्रह की एक झलक देखेंगे और आगे बढ़ जाएंगे। फिर दक्षिणा का पंडा-दौर शुरू होगा। यदि महाप्रसाद का समय हो गया होगा या यदि आप महाप्रसाद की मांग करेंगे, तो पंडा आपको महाप्रसाद उपलब्ध कराएगा। महाप्रसाद का समय नहीं हुआ हो, तो फिर भले ही आपने पांच हजार की पर्ची कटवाई है, आपको थोड़ा-सा सूखा भोग उपलब्ध करा दिया जाएगा। वह भोग भले ही कहीं बाहर से खरीदा गया हो, लेकिन बताया यही जाएगा कि मंदिर के गर्भगृह में चढ़ा भोग है। आप पूरा मंदिर घूमना-ठीक से दर्शन करना चाहेंगे, किन्तु पंडा जल्दी से जल्दी आपसे दक्षिणा वसूल कर छुटकारा पाना चाहेगा, ताकि किसी ताजा जजमान को पकड़ सके।
कलयुग में पाप तय है, किन्तु भगवान के घर में यदि इतना पाप है, तो यही कहना चाहिए कि वाकई भगवान जगन्नाथ की कृपा से ही सबकुछ चल रहा है। आप मंदिर का रसोई मंडप देख लीजिए, जहां स्वच्छ भारत भगवान भरोसे ही है। मुंह बिना ढके रसोई पकने लगी है। जमीन पर रखकर सामग्री तैयार की जा रही है। गंगा और यमुना नाम के दो कूपों से मंदिर की जलापूर्ति होती है, उनका हाल भी बुरा है। पानी की आपूर्ति में जंग लगे टीन का भी इस्तेमाल होने लगा है। भगवान और भगवान के लाखों भक्तों के लिए यहां भोग-प्रसाद बनता है, किन्तु पवित्रता का स्तर वह नहीं है, जो होना चाहिए। भक्ति और श्रद्धा के अनुरूप सुधार की तत्काल आवश्यकता है। 
लक्ष्मी जी की इस रसोई में ११५ से ज्यादा व्यंजन पकते हैं। दोपहर और शाम, दोनों समय भगवान को ५६ भोग लगाए जाते हैं, यहां शुद्धता और पवित्रता की जांच सबसे आवश्यक है। भगवान दयासिन्धु हैं, वे मौन रहेंगे! भगवान ने विदुर के घर प्रेम से दिया गया केले का छिलका भी बड़े प्रेम से भोग लगाया था, भगवान ने द्रौपदी के खाली बर्तन का एक सूखा दाना भी स्वीकार किया था, भगवान तो सुदामा के एक मु_ी सूखे चिवड़े से भी तृत्प हो गए थे। बेशक, भगवान मनुष्यों की तरह भोजन नहीं करते, वे तो हर चढ़ाई गई वस्तु को केवल स्वीकार करते हैं। उनका स्वीकार संसार के लिए है, किन्तु वह पवित्र और शुद्ध तो हो, उस भाव से पूर्ण तो हो, जिस भाव से शबरी ने भगवान को बेर चढ़ाए थे। 
कहां गए पंडों के वो पूर्वज, जो घर से नहा-खाकर भोग बनाने मंदिर आते थे? पवित्र मन से मुंह पर कपड़ा बांध कर एक-एक दाने और एक-एक बूंद जल को पूरी शुद्धता के साथ भगवान के लिए पकाते थे? अब तो हाल यह है कि भोग चढ़ाने ले जाते पंडों के मुंह पर भी कोई आवरण नहीं रहता। स्पष्ट है कि सब भगवान भरोसे है।

अन्य मंदिरों का हाल
सबसे पहले मौसी मां गुंदेचा देवी के मंदिर की बात। भगवान रथयात्रा करके यहां विराजते हैं। यह मंदिर धर्म का मीनाबाजार जैसा हो गया है, मंदिर के अंदर ही रस्सी-कपड़े इत्यादि बांधकर पांच फीट चौड़ा गलियारा बना दिया गया है, कुछ स्थायी विग्रह हैं, तो अनेक अस्थाई विग्रह हैं, हर जगह एक-एक या दो-दो पंडे हैं, जिनका लक्ष्य केवल दक्षिणा है। इस गलियारे में आप पीछे नहीं लौट सकते, आपको इस नाटकीय हो चुके गलियारे से अपनी श्रद्धा को बचाते हुए आगे बढऩा ही होगा। आप जेब हल्की करेंगे, वरना छद्म ऋषियों के श्राप बंटोर लाएंगे! हालांकि झूठे और भाव से हीन कथित पंडों के निरर्थक श्राप या आशीर्वाद का कोई अर्थ नहीं, किन्तु जिस भाव से आप मंदिर आए हैं, वह भाव तो आपका मंदिर में ही किसी दान पात्र में ढह जाएगा। 
कुछ मंदिर तो ऐसे हैं, जहां आपको घेर कर लूटा जाएगा और आप भागने में ही भलाई समझेंगे। हो सकता है, आप पछताएं कि आप यहां क्यों आए? बहस करेंगे, तो आपके आसपास लुटेरों की भीड़ बढ़ती जाएगी। तो सुधार की जरूरत केवल जगन्नाथ मंदिर के प्रबंधन में ही नहीं, बल्कि जगन्नाथ पुरी के तमाम मंदिरों का हाल एक बार देख लेना चाहिए। ऐसे प्रबंधनों की जरूरत नहीं है, जो श्रद्धा भाव की हत्या में लगे हैं, जो धर्म की हास्यास्पद दुकानें लगाए बैठे हैं। 
यह भी आवश्यक है कि मंदिर प्रबंधन भगवान के परम भक्त चैतन्य महाप्रभु को भी याद करे, पंडों-पुजारियों के दुव्र्यवहार की वजह से ही चैतन्य महाप्रभु संसार से विदा हुए थे। पंडों में तब भी सुधार हुआ था। अब कमियां बढ़ गई हैं, तो फिर सुधार अपरिहार्य हो गया है। चैतन्य महाप्रभु की शानदार प्रतिमा पुरी में स्वर्गद्वार तिराहे पर खड़ी पूरे जगत को जगन्नाथ पुरी आमंत्रित कर रही है। क्या पुरी फिर सुधार के लिए तैयार है?
चैतन्य महाप्रभु , स्वर्गद्वार, पुरी
सुप्रीम कोर्ट की फटकार के बाद ओडिसा सरकार नींद से जागी है, तो उसे तमाम वो सुधार करने चाहिए, जो धर्म और पुरी शंकराचार्य के अनुरूप हों। स्वामी निश्चलानंद जी केवल पुरी शंकराचार्य ही नहीं हैं, वे उदारमन के लोकतांत्रिक विद्वान हैं, उनके ज्ञान का लाभ पुरी और ओडिसा को अवश्य मिलना चाहिए। 

मात्र परंपरा के नाम पर मंदिर में बदलाव को नहीं रोका जा सकता। सब जानते हैं कि करीब ८०० वर्ष पुराने मंदिर को बचाने के लिए जीर्णोद्धार का कार्य लगभग लगातार चलता रहता है, मंदिर को खड़ा रखने में सैकड़ों टन इस्पात का इस्तेमाल हो चुका है। मंदिर को बचाए रखने में कहीं भी परंपरा आड़े नहीं आ रही है, तो मंदिर की कमियों को दूर करने में कौन-सी परंपरा रोड़ा बन रही है? मंदिर के ढांचे को बचाने के लिए इस्पात की जरूरत है, तो मंदिर में धर्म को बचाने के लिए सच्चे भक्ति भाव की जरूरत है। 
भगवान और उनके भाव को समझना चाहिए। जिन लोगों ने भगवान के रत्न भंडार की चाबी चुरा ली है, जो लोग दो दशक से भी ज्यादा समय से चाबी चोरी पर चुप्पी साधे बैठे हैं, जो लोग पाप करके भयभीत नहीं हैं, जिनका भगवान पर विश्वास नहीं है, कृपया... कृपया... उनकी जगह मंदिर में नहीं होनी चाहिए। 
ओडिया भजन सम्राट भिखारी बल का एक प्रसिद्ध गीत है - 
जगन्नाथ कले जे अनाथ हे
आऊ के हरीब दु:ख
(जगन्नाथ ने यदि आपको अनाथ कर दिया, तो आपके दु:ख कौन हरेगा)

Wednesday, 21 March 2018

सुनो, कोई रो रहा है

बस्तर जंगल
नक्सलियों के साथ कौन है - कांग्रेस या भाजपा? भाजपा की मानेंगे, तो कांग्रेस नक्सलियों के साथ है और कांग्रेस की सुनेंगे, तो भाजपा नक्सलियों को पैसे पहुंचाती है। ताजा उदाहरण देखिए - पहले कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष ने आरोप लगाया कि तेंदुपत्ता खरीद में ३०० करोड़ रुपये का घोटाला होगा, जिसमें से कुछ हिस्सा नक्सलियों को दिया जाएगा। इसका जवाब देते हुए राज्य सरकार की ओर से वन मंत्री ने आरोप लगा दिया कि कांग्रेस नक्सलियों की समर्थक है! आखिर... कौन सच बोल रहा है? 
प्रदेश के जो नेता भूूल गए हैं, उन्हें याद दिला दूं - अपने छत्तीसगढ़ में ही एक कवि रहते थे, जिन्हें मुक्तिबोध के नाम से दुनिया जानती है, उनका एक प्रसिद्ध प्रश्न होता था - ‘पार्टनर तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है?’ जिसके दिल में सत्ता में रहने के लिए जरूरी ममत्व हो, जिसका दिल पत्थर न हुआ हो, जिसके दिल में संवेदना का कान हो, वो जरूर सब सुन-समझ रहा होगा। जी, बिल्कुल यही प्रश्न उन ९ शहीदों की चिताओं की राख से गूंज रहा है - ’पार्टनर तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है?’
अब यहां कहने की जरूरत नहीं कि ‘पार्टनर’ शब्द की जगह ‘कांग्रेस’ और ‘भाजपा’ अपने आप को रख ले और जवाब दे। जनता भ्रमित है और यह भ्रम छत्तीसगढ़ की दोनों ही बड़ी पार्टियों ने मिलकर खड़ा किया है। जनता के मन में सवाल बहुत बड़ा है कि नक्सलियों के साथ कौन है भाजपा या कांग्रेस? यदि कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष के आरोप पर विश्वास करें, तो राज्य के वन मंत्री के आरोप पर क्यों अविश्वास करें? जिम्मेदार लोकतंत्र तो तब है, जब कांग्रेस और भाजपा, दोनों के बड़े नेता आपस में बैठें और यह तय करें कि हम नक्सलियों के खिलाफ एकजुट हैं। कम से कम माओवादी हिंसा या नक्सलवाद एक ऐसा विषय हो जाए, जिस पर छत्तीसगढ़ की राजनीति एक स्वर हो। मुख्यमंत्री भी माओवादियों से बातचीत का प्रस्ताव बीच-बीच में हवा में उछाल देते हैं, लेकिन पहले तो उन्हें विपक्ष को सहमत कराना होगा। माओवादियों के सामने टेबल पर बैठने से पहले राज्य को राजनीतिक रूप से एकजुट करना होगा। समस्या यहीं है, जब दो बड़ी पार्टियां परस्पर सहमत नहीं हैं, तो बातचीत की दिशा में आगे कैसे बढ़ा जाए? और हिंसा है कि रुकने का नाम नहीं ले रही। जो पार्टियां अपनी जनसभाओं में छत्तीसगढ़ महतारी के लिए जयकारे लगवाती थकती नहीं हैं, क्या उन्होंने अपनी छत्तीसगढ़ महतारी के घाव देखे हैं? वे चाहते हैं कि उनकी महतारी अपने घाव को अपने आंचल से ढक कर रखे, लेकिन समय-समय पर नए-नए घावों से जब खून बहता है, तो आंचल गीला हो जाता है। क्या करे छत्तीसगढ़ महतारी? २०२२ या २०२४ तक इंतजार करे? 
नेताओं के लिए यह बहुत आसान होता है बोलना कि हम शहादत को भूलेंगे नहीं, जबकि सच्चाई जानना हो, तो आप मंत्रियों और कांग्रेस के दिग्गजों से पिछले १५ शहीदों के नाम पूछ लीजिए। तीन दिन बीते नहीं कि नेता नक्सल-नक्सल खेलने लगे हैं। वाकई ये पॉलिटिक्स है, लेकिन कितनी खतरनाक पॉलिटिक्स है? पॉलिटिक्स भी नशा है, जैसे बंदूकबाजी। उच्च वामपंथी विचारों की धज्जियां उड़ा चुके निर्मम माओवादियों की जितनी निंदा की जाए कम है। माओ के अपने देश में भी ऐसा कहीं नहीं हो रहा है, जैसा कि छत्तीसगढ़ में होने दिया जा रहा है। इन लड़ाकों के लिए बस सीधा-सादा बस्तर ही बचा है, जहां उन्हें आदिवासियों का शोषण दिखता है और जहां उन्हें अपने लिए सुरक्षित इलाका चाहिए। कभी बस्तर में शरणार्थियों की तरह आए माओवादियों ने यह सिद्ध कर दिया है कि ये जंगल केवल उनकी जायदाद है, जहां केवल उनकी ही मनमानी चलेगी। बस्तर में इनको ४० साल होने जा रहे हैं, अब ईमानदार विश्लेषण करना होगा कि इन्होंने बस्तर को क्या दिया है और क्या लिया है?
यह समय है कि छत्तीसगढ़ के इस पुराने लेकिन निरंतर रिसते घाव पर मरहम लगाया जाए। इलाज में कई ऑपरेशन भी होंगे, कई दवाएं मीठी होंगी, तो कई कड़वी भी। आज राज्य से लेकर केन्द्र तक की सत्ता के लिए सबसे चर्चित हस्ती पंडित दीनदयाल उपाध्याय के एकात्ममानववाद को याद करना होगा। उनके सिद्धांत को अगर हम मानें, तो हमारे सुख-दुख परस्पर जुड़े हुए हैं। अगर एक जगह कोई दुखी है, तो दूसरी जगह कोई बहुत सुखी कभी नहीं हो सकता। इसी धारा में एक प्रसिद्ध पंजाबी सूफी गीत है - ऐ जो सिल्ली-सिल्ली ओंदी है हवा कि कित्थे कोई रोन्दा होएगा।... अर्थात ये जो नम-नम हवा आ रही है, कहीं कोई रो रहा होगा।

published in patrika-CG

Friday, 23 February 2018

बच्चे हमें देख रहे हैं

यदि किसी सभ्यता की गुणवत्ता जांचनी हो, तो यह देखा जाना जरूरी है कि वहां लोग अपने शिशुओं और बच्चों को कैसे रख रहे हैं। ठीक इसी तरह से आपको इस बात से भी आंका जाएगा कि आप अपने पालतू पशुओं और अन्य अबोध जीवों के प्रति कैसा व्यवहार करते हैं। जैसे गाय - पूरी तरह से हम पर निर्भर। जैसे शिशु पूरी तरह से ममता की छांव पर निर्भर। छत्तीसगढ़ में दोनों का हाल कैसा है, समाचारों ने बता दिया है, लेकिन आगे क्या? क्या हम कोई सबक सीखेंगे? पृष्ठभूमि निर्ममता और हिंसा की है और तुर्रा यह कि बच्चे ईश्वर का रूप होते हैं और गाय माता होती है। तो बताइए कि रायपुर में ईश्वर के चार प्रतिरूप की मौत के लिए कौन जिम्मेदार है? छत्तीसगढ़ में करीब ३५० गौ माताओं की मौत के लिए कौन जिम्मेदार है? ध्यान रहे, थोड़े से प्रयास से इन मौतों को हत्या सिद्ध किया जा सकता है। माना कि इस साल छत्तीसगढ़ में पानी कम बरसा है, लेकिन इतना कम भी नहीं बरसा कि आंखों का पानी सूख जाए। राज्य के लोग व्यवस्था की आंखों में आंसू नहीं खोज रहे, वे तो केवल इतना चाह रहे हैं कि व्यवस्था आंख खोले। उठे कि ईश्वर के प्रतिरूपों और माताओं की हत्या का हिसाब देना है, न्याय करना है। ईश्वर के प्रतिरूपों और माताओं की सेवा में व्यवसाय खोजने वालों  के चेहरे पहचानने चाहिए। हम अगर ईश्वर और माताओं को पूजते हैं, तो कुछ आधारभूत परिवर्तन हमें करने ही पड़ेंगे। यह परिवर्तन हर स्तर पर होगा। दोषियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई के साथ ही लोगों और व्यवस्था की मानसिकता में परिवर्तन लाना पड़ेगा। शिशु अस्पतालों और गौशालाओं की निगरानी चुस्त करने की जरूरत है। देखना होगा कि ऐसी जगहों पर संवेदनाहीन, शराबी और भ्रष्ट लोग न पल रहे हों।  
महात्मा गांधी ने कहा था कि ‘दुनिया को अगर असली शांति का पाठ पढ़ाना है, अगर युद्ध के विरुद्ध असली युद्ध लडऩा है, तो हमें बच्चों से शुरुआत करना पड़ेगी।’ बच्चों को सबसे पहले सुरक्षित करना पड़ेगा। सुनिश्चित करना पड़ेगा कि बच्चों के साथ अपराध करने वाला बच के न जाने पाए। सावधान रहिए, आप बच्चों की निगाह में हैं, वे भी समाचार पढ़ते हैं, उन्हें पता है कि हम उन्हें शराबियों के भरोसे छोड़ रहे हैं। उन्हें पता है कि हम उन्हें भगवान भरोसे छोड़ रहे हैं। यकीनन, वे जैसा व्यवहार पाएंगे, वैसा ही हमें और समाज को लौटाएंगे। संभव है, वे बदला लेंगे। बुजुर्ग अपमानित होंगे, समाज लुटेगा-बिखरेगा और वृद्धाश्रम खुलेंगे। एक प्रसिद्ध उक्ति है, जिसे हमेशा ध्यान में रखना चाहिए - ‘चिंता न कीजिए कि बच्चे आपको सुनते नहीं हैं, चिंता कीजिए कि वे हमेशा आपको देख रहे हैं।’

वो बढ़ेंगी और बना लेंगी अपने रास्ते

सशक्त स्त्रियों के संसार में यह कहा जाता है कि ऐसी स्त्री न बनें, जिसे पुरुष की जरूरत पड़ती है, बल्कि ऐसी स्त्री बनें, जिसकी जरूरत पुरुष को पड़े। महिलाएं संघर्ष में निखर कर सामने आती हैं और ऐसा कुछ न कुछ रच देती हैं कि पूरा समाज देखता है। यह न केवल प्रशंसनीय बल्कि अनुकरणीय समाचार है कि बस्तर के धुर माओवाद प्रभावित क्षेत्र में स्त्रियां खुद सडक़ बना रही हैं। सरकार अपनी टैक्स की पूरी कमाई और सत्ता की चौधराहट अपने पास रख ले, माओवादी अपनी बंदूकें-गोलियां-बारूद भावी क्रांति व अज्ञात खुशनुमा भविष्य के लिए बचाए रखें, महिलाओं को तो सडक़ चाहिए। आप नहीं बनाएंगे या आप नहीं बनने देंगे, तो वो खुद मिलकर बना लेंगी। दंतेवाड़ा जिला मुख्यालय से १० किलोमीटर दूर गदापाल गांव स्त्री शक्ति की ऐतिहासिक भूमि बन गया है। करीब तीन दशक से यह क्षेत्र पूरी तरह से उपेक्षित है। जरूरी सडक़ें भी नहीं बनी हैं। सडक़ का टेंडर हुआ, लेकिन ठेकेदार ने काम नहीं लिया। मजबूर होकर महिलाओं ने संगठन बनाया और हाथों में उठा लिया कुदाल, फावड़ा, गैती, टंगिया, तगाड़ी और जुट गईं सडक़ बनाने में। विकास का यह तरीका ही सच्चा भारतीय तरीका है। विशेष रूप से जो देश के पिछड़े और वंचित इलाके हैं, वहां रहने वाले लोगों को यही तरीका आजमाना चाहिए। उन्हें अब इस मुगालते में नहीं रहना चाहिए कि कोई व्यक्ति उनके विकास की खातिर अवतार लेगा!
महात्मा गांधी ने तो आजादी की लड़ाई के दौरान ही इस देश के आम लोगों से कह दिया था, ‘सरकार के भरोसे मत रहना। सरकार के भरोसे रहोगे, तो विकास नहीं होगा।’ राष्ट्रपिता की इस बात का लोगों ने ध्यान नहीं रखा, तो सरकारें आखिर क्यों इस बात पर जोर देतीं। संकटग्रस्त लोगों को स्वयं अपना रास्ता खोजना होगा। माओवाद की जो भी राजनीति-कूटनीति है, उसे विकास से ही जवाब दिया जा सकता है। विकास अगर सरकार अपने तंत्र द्वारा नहीं करवा पा रही है, तो लोगों का स्वयं आगे आना अपेक्षित और यथोचित है। तीन दशक से लोग सरकार के भरोसे ही तो बैठे थे, आगे भी बैठे रहते, बिना सडक़ के पशुवत जिंदगी जीते रहते। धन्य हैं गदापाल क्षेत्र की महिलाएं जिन्होंने नया इतिहास लिखने के लिए औजार उठा लिए हैं। 
अब एक अच्छी सरकार के लिए यह प्राथमिकता होनी चाहिए कि वह इन महिलाओं की हर संभव मदद करे, उनका मार्ग प्रशस्त करे। विकास का ऐसा बीड़ा उठाने वालों को पुरस्कार-प्रोत्साहन भी मिलना चाहिए, ताकि विकास का यह तरीका संकटग्रस्त इलाकों में कामयाब हो, इससे अंतत: राज्य और देश का ही भला है। जो ये महिलाएं कर रही हैं, वही असली संघर्ष है, वही सच्ची सेवा है, वही सच्चा जनजागरण है। उस इलाके में महिलाओं का साहस अब पुरुषों को भी प्रेरित कर रहा है। बेशक, साहस तो मांसपेशी की तरह होता है, जब आप उसे इस्तेमाल करते हैं, तब वह मजबूत होता है।