जयंती विशेष
(३ मई १९५६, ३ अप्रेल २०११)
ज्यादातर अखबार मालिकों की पीठ पीछे बहुत बुराई होती है, लेकिन अतुल महेश्वरी एक ऐसे मालिक थे, जिनकी बुराई मैंने अमर उजाला में सात साल की नौकरी के दौरान कभी नहीं सुनी। बहुतों को यह अतिशयोक्ति लगेगी। यह सच है, मालिकों के खिलाफ पत्रकारों में असंतोष कोई असामान्य बात नहीं है, लेकिन अतुल जी के खिलाफ जो भी असंतोष पनपते थे, उनकी आयु ज्यादा नहीं होती थी। अतुल जी डंका पीटने वालो में नहीं थे, वे चुपचाप बड़ी से बड़ी समस्याओं का समाधान खोजते थे। वे एक योग्य संपादक व लेखकीय समझ वाले अखबार मालिक थे। वे चाहते, तो दूसरे कई अखबार मालिकों से बेहतर व प्रभावी लिख सकते थे, लेकिन कम से कम अखबार में मैंने उनके नाम से कोई लेख या टिप्पणी नहीं पढ़ी। उन्होंने स्वयं को अपने अखबार पर कभी नहीं थोपा। सम्पादकों और पत्रकारों को ही आगे रखा और स्वयं उनके सहयोगी की तरह बड़े निर्णयों में मात्र एक सहायक बने रहे। आत्ममुग्धता और अपने कागजों पर खुद को थोपने के शौकीन दौर में यह एक बड़ी बात है। ऐसा नहीं कि वे कोई अच्छी खबर देखकर उछलते नहीं थे, लेकिन उनमें गजब का आत्मसंयम था। उन्होंने अपने सम्पादकों पर जितना भरोसा किया, वह कोई मामूली बात नहीं है। उनके संपादकों ने भले मनमानी की हो, लेकिन स्वयं अतुल जी को मनमानी करते शायद ही किसी ने देखा होगा।
अमर उजाला को उन्होंने ऐसे संस्थान में तब्दील किया, जहां पत्रकार टिक कर काम कर सकते थे और देर-सबेर सबके साथ न्याय का भरोसा भी मजबूत रहता था। उनके समय में अमर उजाला ने खूब विस्तार किया। उन्हें अच्छी टीम बनाने में महारत हासिल थी। अमर उजाला की खासियत रही है कि वहां पत्रकारों की सेकंड लाइन बहुत मजबूत रही है, यह मजबूती इसलिए रही है, क्योंकि फस्र्ट लाइन ने कभी भी सेकंड लाइन को ज्यादा दबाया नहीं है, किन्तु इस फस्र्ट लाइन को श्रेय देने की बजाय मैं अतुल जी को श्रेय देना चाहूंगा। वे जमीनी आधार वाले मालिक थे, उन्हें पैर पुजवाने का शौक कभी नहीं रहा। मैंने यह भी महसूस किया है कि अतुल जी अपनी भावनाओं को बहुत तरीके से सम्भालते थे। हालांकि उन्हें मैंने रोते भी देखा है, लेकिन वह रोना भी क्षणिक था, क्योंकि रोने पर उनका नियंत्रण था। दिल्ली में निगम बोध घाट पर उनके एक परम मित्र राकेश जी का अंतिम संस्कार था, वहां वे अंदर से तो रो ही रहे थे, लेकिन बाहर रोने के संकेत नहीं दिख रहे थे। आगरा से अमर उजाला के एक अन्य मालिक अशोक अग्रवाल भी आए हुए थे, अशोक जी और अतुल जी का सामना हुआ, तो अतुल जी फूटकर रो पड़े और इतना ही कहा, .... राकेश चला गया। अशोक जी भी फूट पड़े, लेकिन यह रोना क्षणिक था। फिर दोनों तत्काल अपने काम में लग गए।
वो अतुल महेश्वरी ही थे, जिन्होंने हिन्दी के पहले बिजनेस दैनिक का सपना साकार किया था, १९९६ का वह प्रयोग कमजोर मार्केटिंग की वजह से आगे न चल सका, लेकिन उदारीकरण के दौर में हिन्दी में बिजनेस अखबार की जरूरत को समझने वाले अतुल जी पहले मालिक थे। काश, मार्केटिंग पर ध्यान दिया जाता, तो अमर उजाला कारोबार आज भी चलता रहता, क्योंकि उसके बंद होने के बहुत बाद हिन्दी के अन्य बिजनेस दैनिक चालू हुए। यह वह दौर था, जब दिल्ली में अमर उजाला की मार्केटिंग कमजोर थी, मार्केटिंग टीम का पूरा ध्यान उत्तर प्रदेश पर लगा हुआ था।
आज के दौर में पत्रकारों व कर्मचारियों को अपने हाल पर छोड़ देने की परंपरा मजबूत हो चुकी है, लेकिन भले मन वाले, सुख-दुख में कर्मचारियों के साथ खड़े होने वाले अतुल जी एक विरल किस्म के मालिक थे। उनकी भलमनसाहत के अनेक किस्से हैं, वे टीम का मतलब समझते थे, पत्रकारों की मानसिकता समझते थे, तभी वे अच्छा काम ले पाते थे। उन्होंने आर्थिक लाभ के चक्कर में कभी भी मानवीय सिद्धांतों से समझौता नहीं किया। अपनी अच्छाइयों को नहीं छोड़ा।
अमर उजाला में कद्दावर सम्पादक राजेश रपरिया जी का दौर भी रहा, उन्हें अतुल जी का पूरा आशीर्वाद था। उसके बाद समूह सम्पादक शशि शेखर जी का दौर आया, उन्हें भी अतुल जी ने खुलकर काम करने दिया। आज शशि शेखर हिन्दी प्रिंट के सबसे महंगे सम्पादक कहे जाते हैं, तो यह वास्तव में अतुल जी के कारण ही संभव हुआ। हम कह सकते हैं कि अतुल जी ने सम्पादकों को पूरा सम्पादक बनने दिया।
मुझे अच्छी तरह याद है, वर्ष १९९९ मैं एक ठंडी सुबह में अतुल जी से मिलने की गर्मी के साथ दिल्ली से मेरठ गया था। सुबह नौ बजे का समय दिया गया था, मैं समय से कुछ पहले पहुंच गया था। उनके पीए को मैं रिपोर्ट कर चुका था। उस दिन अतुल जी बहुत व्यस्त थे। जब काफी देर तक मुझे नहीं बुलाया गया, तो मुझे लगा कि अतुल जी भूल गए हैं। मैंने उनके पीए से कहा, अगर मुलाकात न होनी हो, तो मैं फिर कभी आ जाऊं, क्योंकि मुझे आज ही दिल्ली पहुंचना है। सहृदय पीए ने अतुल जी को जाकर कहा। अतुल जी को अचानक शायद ध्यान आया, उन्होंने कुछ ऊंची आवाज में कहा, इनको तो सुबह बुलाया था। पीए ने कहा, ये समय से पहले आ गए थे और यहीं इंतजार कर रहे हैं।
मैं कमरे के बाहर ही खड़ा था। मैं अंदर गया। कमरे में ऐसी कोई चीज नहीं थी, जिससे यह संकेत मिले कि यह अमर उजाला के एमडी का कमरा है। बिल्कुल एक पत्रकार के कमरे की तरह। कोई कारपोरेट आडंबर नहीं, कुछ पुस्तकें, फाइलें, कागज, पेपरवेट और अतुल जी। मुलाकात अच्छी रही, मुझे नौकरी मिल गई। जो बातें हुई थीं, मैं उसके विस्तार में नहीं जाऊंगा, लेकिन मैंने इस बात को महसूस कर लिया था कि अतुल जी एक पढ़े-लिखे और अत्यंत समझदार, सौम्य व्यक्ति हैं। उनकी आवाज में भी एक खास किस्म की सजग नरमी थी, जो याद रह गई। अमर उजाला के लिए यह दुर्भाग्य की बात है कि इस समूह का विभाजन हो गया, आर्थिक रूप से समूह को तगड़ा झटका लगा, लेकिन यह अतुल जी के प्रबंधन का कमाल था कि कभी यह खबर नहीं बनी कि अमर उजाला में वेतन या भुगतान की समस्या खड़ी हो गई है। यह बात अमर उजाला की उस अंदरूनी मजबूती को साबित करती है, जिसे बनाने में अतुल जी ने लगभग तीन दशक लगा दिए थे। अमर उजाला को मुकदमेबाजी से निकालने की कोशिश में लगे थे, लेकिन वक्त ने उन्हें समय नहीं दिया। यह अमर उजाला के लिए दुर्भाग्य की बात है कि उसने पहले अनिल अग्रवाल जैसा हीरा खोया था और पिछले साल अतुल महेश्वरी जैसा नेतृत्वकर्ता खो दिया.
दुर्भाग्य से अतुल जी अब हमारे बीच नहीं हैं। ३ जनवरी २०११ को उनका निधन हो गया। ३ मई उनकी जन्मतिथि (वर्ष १९५६) है, उन्हें श्रद्धांजलि देने व याद करने से मैं खुद को नहीं रोक पाया हूं। वे याद रहेंगे, क्योंकि वे याद करने के सर्वथा योग्य हैं।
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