Sunday, 28 June 2009

कोई नहीं तुम जैसा


मेरा man तैयार नहीं हो रहा था कि अपनी एक प्रिय संगीत हस्ती पर लिखे शब्दों को ब्लॉग पर दूँ , जब से ब्लॉग शुरू किया सोचता ही रहा माइकल पर लिखूंगा, लेकिन लिखा तब जब माइकल नहीं रहे और वह भी सम्पादकीय के लिए, देर से ही सही सम्पादकीय के कुछ अंश यहाँ पेश हैं


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पॉप के बादशाह माइकल जैक्सन का दुनिया से जाना न केवल संगीत जगत, बल्कि पूरे मनोरंजन जगत के लिए अपूरणीय क्षति है। जिसे दुनिया भर में पॉपुलर कल्चर कहा जाता है, माइकल लगभग तीस साल तक उसके आइकन बने रहे। दुनिया में पॉप, रॉक, हिप हॉप और आर एंड बी (रीदम एंड ब्लू) के दीवानों के दिलोदिमाग पर माइकल का ऐसा नशा चढ़ा था कि वे माइकल-मय हो गए थे। भारत के छोटे शहरों और कस्बों में अल्विस प्रिस्ले, बीटल्स जैसे पश्चिमी संगीत के पुरोधा के नाम नहीं पहुंच सके, लेकिन माइकल जैक्सन का नाम पहुंच गया। उनकी छाप इतनी प्रभावी रही कि उनकी नकल करने वालों को भी खूब नाम-दाम मिला। भारत में अराजक नृत्य शैली डिस्को के दिन लद गए, ब्रेक डांस और अफ्रीकी-अमेरिकी शैली आर एंड बी का एक दौर चल गया। उनकी खास मूनवॉक शैली तो लाजवाब रही। वे दौलत व ख्याति के शीर्ष पर पहुंचे। एक समय उनकी सालाना कमाई 5 अरब 62 करोड़ रुपये हो गई थी। उनका अलबम थ्रिलर दुनिया में सबसे ज्यादा बिकने वाला अलबम है, उसकी 11 करोड़ 90 लाख से ज्यादा रिकॉर्ड, कैसेट या सीडियां बिक चुकी हैं। वाकई उन्होंने संगीत की दुनिया में जो नए सुरूर, सलीके व साहस का दौर शुरू किया, उसे अब कभी खत्म नहीं किया जा सकेगा।


दुर्भाग्य की ही बात है कि माइकल संगीत की दुनिया में जितने सफल हुए, उससे कहीं ज्यादा विफल वे अपनी जिंदगी में रहे। उनके पास सबकुछ था, लेकिन जिंदगी ने उन्हें हर कदम पर रुलाया। पिता के अत्याचार को सहते होश संभाला, अंत तक किसी न किसी अत्याचार-विवाद से गुजरते रहे। एक समय दौलत इतनी थी कि बसने के लिए 11 वर्ग किलोमीटर जमीन खरीद ली थी, लेकिन अंतिम सांसें लीं, तो किराये के मकान में। दो शादियां, कई रिश्ते, अपने तीन बच्चे, यौन शोषण के आरोप, ड्रग्स की लत, सुंदर दिखने की कोशिश में तन से कृत्रिम खिलवाड़, कई बीमारियां, माइकल ने जीवन में क्या नहीं देखा? लोग तो उनके जीवन का केवल उज्ज्वल पक्ष ही देख पाते थे, लेकिन पचास की उम्र में ही माइकल शरीर से इतने मजबूर हो गए थे कि पलभर के लिए धूप भी उनके नसीब में न थी। उन पर अकूत धन वर्षा हुई, उन्होंने दान कर्म में भी कीर्तिमान बनाया। अपने मुकदमों को सुलझाने में जरूरत से ज्यादा लुटाया, दिवालिया हुए, लेकिन तब भी हारे नहीं थे। 13 जुलाई से प्रस्तावित अपने अंतिम वल्र्ड टूर की तैयारी कर रहे थे, लेकिन ईश्वर ने अपने इस प्रतिभावान पुत्र को अंतिम बार स्टेज पर आने का मौका नहीं दिया।


तो क्या यही है, पॉप कल्चर का नतीजा? क्या यह बढ़िया संगीत और खराब संगति का मामला है? वास्तव में पॉप कल्चर में जाना आसान है, लेकिन उसमें जीना मुश्किल है। ऐसा नहीं है कि पॉप या हिप्पी कल्चर में फिसलन से बचा नहीं जा सकता, जरूरत संयम और सोच में बदलाव की है। गौर कीजिए, मशहूर गायिका-कलाकार मैडोना पॉप कल्चर को अच्छी तरह से संभाल रही हैं, लेकिन माइकल नाकाम हुए। वे चले गए, लेकिन अपने पीछे जो अथाह संगीत, शैलियां व कलात्मकता छोड़ गए हैं, बस वही रह जाएगा उनके दीवानों के साथ।


२६ जून २००९

Sunday, 14 June 2009

ताड़ी लीजिए...ताड़ी..?


छपरा से बलिया के बीच रिवीलगंज नामक एक स्टेशन पड़ता है, इसे गौतम स्थान भी कहते हैं। किसी समय यहां गौतम ऋषि का आश्रम हुआ करता था, आज यहां उनका एक मंदिर है। यही वह जगह है, जहां राम ने पाषाण बनी ऋषि पत्नी अहल्या का उद्धार किया था। हनुमान का भी जन्म यहीं हुआ बताया जाता है। बहुत ऐतिहासिक स्थान है। कभी यहां खूब अंग्रेज रहा करते थे, अब एक भी अंग्रेज नहीं बचा। यहां से पांच किलोमीटर दूर स्थित छपरा में किसी समय बड़ी संख्या में डच और फुर्तगीज भी रहे थे। यहाँ बड़े पैमाने पर टैक्स वसूली होती थी, रिविलगंज एक टाउन है और यहां नगरपालिका की स्थापना बहुत पहले हो गई थी। मैं 29 मई की उस गर्म दोपहर को ट्रेन में बैठा-बैठा रिविलगंज की खास बातों को याद कर रहा था और सोच रहा था कि यह स्थान कितना उपेक्षित रह गया। अगर यह स्थान बिहार से बाहर होता, तो रिविलगंज एक चर्चित पर्यटन स्थल में परिवर्तित हो गया होता। खैर, बिहार में कदम-कदम पर इतिहास बिखरा पड़ा है, अफसोस, समेटने वाला कोई नहीं है।


बहरहाल, रिविलगंज स्टेशन के आउटर पर जब गरीब नवाज एक्सप्रेस रुकी, तो मैं यह देखकर दंग रह गया कि छोटे-छोटे बच्चे-बच्चियां ताड़ी बेच रहे थे। जैसे रेल में चाय बिकती है, चाय लीजिए चाय... की आवाज के साथ, ठीक उसी तरह वहां ताड़ी लीजिए ताड़ी की आवाज के साथ ताड़ी बिक रही थी। ताड़ के पेड़ का यह रस नशीला होता है, पानी मिले दूध के रंग का, छपरा और बिहार के अनेक इलाकों में लोग इसे नशे के लिए पीते हैं। आज भी बिहार के अच्छे घरों में ताड़ी का नाम लेना वर्जित है। पहले एक खास जाति पासी के जिम्मे यह काम था, लेकिन अब कई अन्य निम्न जातियों के लोग भी इस धंधे से जुड़ गए हैं। पांच रुपये प्रति लोटे के हिसाब से ताड़ी बिक रही थी। लोग पानी की बोतलों में ताड़ी ले रहे थे। पास ही एक चाट ठेला भी खड़ा हो गया था, तो चखने या स्नेक्स की भी समस्या हल हो गई थी। कइयों ने ट्रेन से उतरकर छककर पीया। गोलगप्पे और चाट खाए, जब वहां ट्रेन ज्यादा देर रुकी, तो लोगों में यह भी चर्चा हुई कि ट्रेन के ड्राइवरों ने भी ताड़ी-पान किया है।


सवाल है , जिन यात्रियों ने यहां ताड़ी-पान किया, उन्होंने किस नजर से रिविलगंज को देखा होगा? अब जब भी उनकी ट्रेन यहाँ से गुजरेगी, तो वे शायद ताड़ी की ही उम्मीद लगाएंगे। गौतम ऋषि, हनुमान जी और राम जी को तो उनमें से शायद ही कोई याद करेगा।


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ताड़ से विकास की राह


बिहार के कई इलाकों में बड़ी संख्या में ताड़ के पेड़ हैं, जिनसे केवल ताड़ी और पेड़ के बहुत पुराने होने पर लकड़ी का इंतजाम होता है। इसके पत्ते से झाड़ू और हाथ-पंखे भी बनाए जाते हैं। ताड़ का व्यावसायिक उपयोग बिहार में किया जा सकता है। अगर जगह-जगह पॉम ऑयल इंडस्ट्री का विकास किया जाए, तो ताड़ से ज्यादा कमाई की जा सकती है। इससे ताड़ी का नशे के लिए उपभोग भी कम हो जाएगा और लोगों को रोजगार भी मिलेगा। इस दिशा में बिहार सरकार को सोचना चाहिए।


एक और बात...


बिहार में बड़ी संख्या में तंबाकू उत्पादन होता है, लेकिन तंबाकू के प्रसंस्करण व पैकेजिंग का काम ज्यादातर मध्यप्रदेश में होता है, अगर प्रसंस्करण इकाइयां बिहार में ही लग जाएं, तो भी बिहार में रोजगार पैदा हो सकता है। फिलहाल ताड़ हो या तंबाकू, दोनों से बिहार को केवल नशा मिलता है और कुछ नहीं।

Friday, 12 June 2009

ये किसकी बदबू है?

कोई शक नहीं, पिछड़े हुओं को हर कोई लतियाता है। मिसाल के लिए बिहार आने-जाने वाली ट्रेनों को देख लीजिए। या तो पूरी ट्रेन फटीचर होगी या फिर एक-दो ऐसी बॉगी जोड़ दी जाएगी कि उसमें सवार लोग पछताते-रोते-गरियाते मजबूरन सफर तय करेंगे। सहरसा-अमृतसर जनसेवा एक्सप्रेस को तो देखने की भी जरूरत नहीं है, केवल सूंघ लीजिए, तो उल्टी के आसार बन आते हैं। सीवान स्टेशन पर दूसरी बार जनसेवा एक्सप्रेस से सामना हुआ, तो देख- सूंघकर मन घबराने लगा। ऐसा लगा मानो, घोड़े की लीद से भरी ट्रेन प्लेटफार्म पर आ लगी हो। ट्रेन में बनियान या नंगे बदन ठसाठस भरे लगभग एक रंग के बिहारी मजदूरों की आंखें ट्रेन के अंदर पसरे अंधेरे में चमक रही थीं। एक अजीब तरह की निष्ठुरता- निर्लिप्तता का भाव उनकी आंखों में तारी था। शायद वे अगर निष्ठुर न हों, तो भूखों मारे जाएं। बॉगियों में शौचालय तो थे, लेकिन वहां भी उनकी खिड़कियों से मजदूर सांस ले रहे थे। ट्रेन में जो जहां था, बस वहीं रुका हुआ था। एक पर एक। मजदूरों ने ऊपर सीटों के बीचों बीच गमछियां-धोतियां बांधकर भी बर्थ बना रखे थे। बाहुबली सहाबुद्दीन की वजह से कुख्यात सीवान में सात घंटे लेट से आ रही दिल्ली जाने वाली लिच्छवी एक्सप्रेस का इंतजार करते हुए जनसेवा एक्सप्रेस को देखते मुझे मानवता पर भी संदेह हुआ।
वो कौन-सी परिस्थितियां हैं, जो मानव को पशु समान जीने को मजबूर कर रही हैं? सहरसा, सुपौल, मधेपुरा और बिहार के अन्य बेहद पिछड़े इलाकों में किन कमीनों ने विकास के पहियों को जाम कर रखा है? अव्वल तो इस ट्रेन का नाम ही अपने आप में मजाक है, यह कैसी जनसेवा हो रही है? गरीबों को गाय-गोरू के समान सफर करने पर मजबूर किया जा रहा है?
मेरी आंखों के सामने सीवान स्टेशन पर एक गरीब मजदूर का परिवार चढ़ने में नाकाम हो रहा था। तब दो कुली उन्हें चढ़ाने के लिए आगे आए। आपातकालीन खिड़की में मोटा लट्ठ घुसेड़कर एक कुली ने कुछ जगह तैयारी की, दूसरे कुली ने मजदूरों के दोनों बच्चों को पहले चढ़ाया, फिर मजदूर को चढ़ाया गया, अंदर जिंदगियां ठसाठस हो रही थीं, ट्रेन चलने की सीटी बजा चुकी थी, लगा कि मजदूर की बीवी छूट जाएगी। लट्ठ वाले कुली ने एक बार फिर खिड़की के अंदर लट्ठ घुसेड़कर जौहर दिखाया, तब किसी तरह से दूसरे कुली ने मजदूर की पत्नी को उठाकर खिड़की से अंदर टांग दिया, तभी ट्रेन चल पड़ी। कुछ गरीब प्लेटफार्म पर दौड़ते रह गए कि दरवाजे पर ठसे मजदूरों को दया आ जाए, तो कुछ कमजोर मजदूरों की आंखों की कगार पर आंसू आ गए कि ट्रेन फिर छूट गई।
अब मैं और दावे के साथ कह सकता हूं। हां, मैंने देखी है गरीबी। अब मुझे एक सवाल बहुत परेशान कर रहा है कि वह बदबू किसकी थी? जनसेवा एक्सप्रेस की या बिहार की या देश की या देश के निकम्मे अंधे तंत्र की?
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बिहार यात्रा की कुछ और बातें आगे