Sunday, 17 May 2009
नतीजों की गूँज
Friday, 8 May 2009
वो हमें धोखा देंगे
नेता अपनी-अपनी मूंछें दुरुस्त कर रहे हैं और उनके पैरों में विचारधारा औंधेमुंह गिरी पड़ी है। छोटे दल विचारधारा को गदगद भाव के साथ बुरी तरह कुचल रहे हैं और बड़े दल भी मौका खोज रहे हैं, सत्ता करीब नजर आए, तो विचारधारा को दुलत्ती जमाकर कुर्सी पर विराजमान हो जाएं। जितनी बड़ी पार्टी है, उतना बड़ा जाल, मछलियों का न तो प्रकार देखा जा रहा है और न आकार। जाल में जो भी आ जाए, स्वागत है। लोकतांत्रिक योग्यता की चर्चा मत कीजिए। कायदा तो यह बोलता है कि पहले सीटों के आंकड़े तो आ जाएं, लेकिन नेताओं में धैर्य कहां? बड़ी पार्टियाँ अभी से छोटी पार्टियों को बुक कर लेना चाहती हैं, ताकि बहुमत के इंतजाम में आसानी हो। सोनिया गांधी जब राजनीति में सक्रिय हुई थीं, तब पचमढ़ी में कांग्रेस ने किसी से गठबंधन न करने का फैसला किया था, लेकिन आज उस फैसले को खुद सोनिया याद नहीं करना चाहेंगी। अब कांग्रेस ने गठबंधन धर्म को अपना परम धर्म मान लिया है। देश की सबसे बड़ी पार्टी की नई पीढ़ी से आप विचारधारा की उम्मीद नहीं कर सकते। राहुल गांधी को सरकार बनाने के लिए त्रृणमूल कांग्रेस के साथ-साथ वामपंथियों का भी साथ चाहिए। उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि वामपंथी कांग्रेस के बारे में क्या-क्या कह रहे हैं। इससे भी कोई फर्क नहीं पड़ता कि ममता बनर्जी के साथ कांग्रेस का गठबंधन है और यह गठबंधन पश्चिम बंगाल में लाल झंडे-डंडे को उखाड़ने के लिए बना है। यह कैसी नई राजनीति है? राहुल का बयान तब आया, जब पश्चिम बंगाल में मतदान बाकी था। अब ममता बनर्जी कसमसा रही हैं। कांग्रेस की ढुलमुल नीति की वजह से ही वाम खेमा मजबूत हुआ है। उधर, तमिलनाडु में कांग्रेस को करुणानिधि के साथ-साथ जयललिता का भी समर्थन चाहिए। क्या यह संभव है?
कांग्रेस बिहार में लालू के साथ-साथ नीतीश कुमार पर डोरे डाल रही है। बिहार की राजनीति में फिलहाल नीतीश और लालू दो विपरीत ध्रुव हैं। और तो और, कांग्रेस को अपने धुर विरोधी चंद्रबाबू नायडू का भी समर्थन चाहिए। यह आला दर्जे की मौकापरस्ती गठबंधन युग की अगली पीढ़ी के दिमाग की उपज है, जिसने सत्ता को सबकुछ समझ लिया है। पहले के चुनावों के समय नेता सीधे जनता से मेल बढ़ाते थे, सीधे जनता से अपील करते थे, लेकिन चुनाव 2009 में जितनी बेचैनी सभाओं में नहीं है, उससे ज्यादा बेचैनी नेताओं के मंच पर देखी जा रही है। परदे के पीछे ही नहीं, परदे के सामने भी राजनीतिक जोड़तोड़ का स्वरूप इतना विशाल है कि चुनाव भी बौना नजर आ रहा है। आम आदमी सवालों से भरा हुआ है और नेता परस्पर सेटिंग में जुटे हैं। चुनाव में एक ही राज्य में एक दूसरे का बाजा बजाने के इरादे से गाली-गलौज तक कर चुके नेता अगर केन्द्र में सत्ता के लिए सेटिंग कर लें, तो क्या लोकतंत्र मजबूत होगा? लालू, पासवान यूपीए की एकता को ठेंगा दिखाकर कांग्रेस को औकात बताने के बाद भी कह रहे हैं कि कांग्रेस हमारे साथ है, हम यूपीए में हैं और सरकार हमारी बनेगी। कांग्रेस भी कभी लालू को हां बोल रही है, तो कभी ना। यह जनता के साथ धोखा नहीं, तो और क्या है? आप पार्टी नंबर 1 के खिलाफ पार्टी नंबर तीन को वोट देते हैं, लेकिन वह पार्टी केन्द्र में पहुंचकर पार्टी नंबर 1 से ही सेटिंग कर लेती है, यह आपके साथ चार सौ बीसी नहीं, तो और क्या है? अपने देश में मामूली ठगी पर धारा 420 लागू हो सकती है, लेकिन करोड़ों लोगों को धोखा देकर पाला बदलने वालों के खिलाफ धारा 420 क्यों नहीं लगाई जाती? ऐसा नहीं है कि ऐसी राजनीतिक चार सौ बीसी पहली बार हो रही है, लेकिन संभवत 2009 का लोकसभा चुनाव ऐसा पहला चुनाव है, जब बीच चुनाव में पार्टियों ने एक दूसरे पर जमकर डोरे डाले हैं। ऐसा इसलिए हो रहा है, क्योंकि सब जानते हैं, दो-तीन परितियों के बलबूते सरकार नहीं बनने वाली, सरकार बनाने के लिए आठ दस पार्टियों की जरूरत पड़ेगी। कांग्रेस के रणनीतिकार चतुर हैं, वे पहले बुकिंग करके भाजपा की मुश्किलें बढ़ा रहे हैं। वैसे भाजपा भी अपने पूर्व सहयोगियों के संपर्क में है। उसके रणनीतिकारों ने भी फार्मूले तैयार कर रखे हैं, जिन पर अमल 16 मई से शुरू होगा। भाजपा के नेतृत्व वाला राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन भी कोई विचारधारा आधारित नहीं है। अभी पिछले दिनों राजग के संयोजक शरद यादव अपनी पार्टी के प्रत्याशी के प्रचार के लिए जयपुर आए थे और भाजपा को जनविरोधी नीतियों वाली पार्टी बताया था। तो यह है शरद यादव की ईमानदारी? वे जयपुर के लोगों को बरगला रहे थे या सीधे कहें, तो ठग रहे थे। उधर, बाला साहेब की शिव सेना आडवाणी को कितना सम्मान देती है, यह हम देख चुके हैं, गठबंधन के मुखिया आडवाणी को मिलने तक का समय नहीं दिया गया था। समकालीन राजनीतिक परिदृश्य में अलग-अलग राजनीतिक सेनाएं एक ही मैदान में इस तरह गडमड होकर खड़ी हो गई हैं कि कौन रथी किस ओर है और किस ओर जाएगा, कहना मुश्किल है। तय है, केन्द्र में जो गठबंधन की सरकार बनेगी, उसमें विचारधारा को औंधेमुंह गिरे रहने दिया जाएगा। मतदाताओं के साथ धोखा होगा, उनके जनप्रतिनिधि अपने दुश्मनों के साथ ही दोस्ती गांठ लेंगे। सत्ता का शामियाना तनता देख सभी ललचाएंगे, खिंचे चले आएंगे। चुनाव की मंझधार में ही जब बेमेल गठबंधन की बातें हो सकती हैं, तो फिर नेताओं के घाट पर उतरते ही मतदाताओं के साथ घात को कौन टाल सकता है? चिंता जब केवल आंकड़े जुटाकर सरकार बनाने की है, तो फिर जनता से जुड़े मुद्दों की अवहेलना क्यों न हो? भारतीय राजनीति के लिए यह खतरनाक संकेत है। नेताओं के मन में यह भावना प्रबल होने लगी है कि बहुमत लायक पूरे वोट तो मिलते नहीं हैं, गठबंधन करना पड़ता है, तो क्यों न पूरा जोर वोट की बजाय गठबंधन गठन पर दिया जाए, ज्यादा से ज्यादा पार्टियों को पक्ष में पटाने पर दिया जाए। नेताओं की बिरादरी बहुमत न जुटने से दुखी है, वह अपने दुख के उपचार में लगी है, उसका जनता के दुख से सरोकार कम होता जा रहा है। दुख इसका नहीं है कि लोगों की आकांक्षाएं पूरी नहीं हो रही हैं, दुख इसका है कि बहुमत नहीं मिल रहा। आज लालू जैसे नेता तो यही कहेंगे कि गरीबी, आतंकवाद की बात बाद में करेंगे, पहले सरकार तो बना लें। एक बार जब सरकार बन जाएगी, तो बस सारा ध्यान उसे बचाने की ओर लग जाएगा। दिग्वजय सिंह जब मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री थे, तब एक कार्यक्रम में बच्चों ने उनसे पूछा था, आप खाली समय में क्या करते हैं, तो उन्होंने बताया था, खाली समय में अपनी कुर्सी बचाने के बारे में सोचता हूं।
अब आप सोच लीजिए, एक अकेली पार्टी का मुख्यमंत्री जब यह कह सकता है, तो फिर कई पार्टियों की मदद से चुना गया प्रधानमंत्री कुर्सी बचाने के बारे में क्या कहेगा? दूसरी ओर, आम लोगों में यह धारणा मजबूत होती जा रही है कि सब नेता एक जैसे हैं, किसी के आने या जाने से कोई फर्क नहीं पड़ता। आतंकवाद, भ्रष्टाचार, गरीबी, बेरोजगारी, शोषण खत्म नहीं होने वाला। सब नेता एक ही तरह से बात कर रहे हैं, तो काम भी एक ही तरह से करते हैं। नेताओं की जात एक है, उनमें से ज्यादातर किसी विचारधारा से चिपक कर नहीं रहने वाले। अनीस अंसारी का एक शेर नेताओं को संबोधित है
बात तुम्हारी सुनते-सुनते ऊब गए हैं हम बाबा।
अपनी जात से बाहर झांको, बाहर भी हैं गम बाबा।