Friday, 16 January 2009
अमिताभ की नाराजगी और कुछ यादें
चलते-चलते बताते चलें कि जिन दिनों अमर उजाला में मेरी लिखी समीक्षा छपी थी, उन दिनों मैं अमर उजाला छोड़ चुका था। बाद में उसके मानदेय वाला लिफाफा अत्यंत सीधे-सज्जन-कुशल बॉस गोविन्द सिंह जी की कृपा से बड़ी मुश्किल से यहां-वहां होता हुआ, नए शहर में मुझ तक पहुंचा था।
एक और बात, जिन दिनों मैं उस किताब को पढ़ रहा था, उस पर लिख रहा था, उन दिनों एक गाना मेरे दिमाग में बार-बार गूंजता था कि
हम न समझे थे, बात इतनी-सी
ख्वाब शीशे के, दुनिया पत्थर की।
---क्या यह गाना राम मोहम्मद थॉमस पर सटीक नहीं बैठता है?
Friday, 9 January 2009
गुरुमूर्ति की बातें - खंड एक
आज अमेरिका इतनी भयानक मंदी में फंस गया है कि अगर वह कर्ज न ले, तो वहां कर्मचारियों को वेतन नहीं मिलेगा। अमेरिका पहले ऐसा नहीं था, वहां के लोग पहले ज्यादा मेहनत और कम खर्च किया करते थे। वह पहले दौलत पैदा करने वाला देश था, लेकिन आज वह दौलत खर्च करने वाला देश है। वहां के लोग मानते हैं कि धन खर्च करने के लिए धन कमाने की जरूरत नहीं है। किसी और से धन लेकर भी खर्च किया जा सकता है, चुकाने की जरूरत नहीं है। धन वापस न चुकाने की वजह से ही वहां मंदी का हाहाकार मचा हुआ है। पहले अमेरिका दुनिया के अन्य देशों को धन दिया करता था, लेकिन 1980-85 के बीच अमेरिका में कर्ज लेने की प्रवृत्ति बढ़ने लगी। 1980 में अमेरिका में बामुश्किल पांच-छह प्रतिशत परिवारों ने ही शेयर बाजार में पैसा लगाया था, लेकिन आज वहां के 55 प्रतिशत परिवारों का पैसा शेयरों में लगा है। जब वहां शेयर के भाव गिरेंगे, तो जाहिर है, आर्थिक तबाही ही होगी।हम भारत की जब बात करते हैं, तो यहां अभी कुल बचत का 2।2 प्रतिशत पैसा ही शेयरों में लगा है, अत: यहां शेयर भाव गिरने पर जो हल्ला किया जाता है, वह उचित नहीं है। सेंसेक्स के गिरने से भारत पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। आखिर अमेरिकियों ने शेयरों में क्यों धन लगाया? उन्होंने पैसा बचाया क्यों नहीं? उन्हें आज उधार पर क्यों जीवन काटना पड़ रहा है। इस बात को एक उदाहरण से समझा जा सकता है। अमेरिका में ज्यादातर परिवार राष्ट्रीय परिवार हो चुके हैं, मतलब बच्चों की जिम्मेदारी सरकारें संभाल रही हैं। बूढ़ों की फिक्र सरकार को है। वयस्क आबादी बेफिक्र हो चुकी है। बच्चा जब स्कूल जाता है, तो उसे एक फोन नंबर दे दिया जाता है और बता दिया जाता है कि कोई परेशानी हो, तो इस नंबर पर फोन करे। मतलब अगर माता-पिता परेशान करें, तो बच्चा फोन करे, अगर शिक्षक क्रोध करे, तो बच्चा फोन करे और निश्चिंत हो जाए, सरकार माता-पिता या डांटने वाले शिक्षक की खबर लेगी। बच्चों को एक तरह से बदतमीजी सिखाई जा रही है, अभद्रता ही हद तक निडर बनाया जा रहा है। इधर भारत में आज भी बच्चे को यही बताया जाता है कि माता-पिता को प्रणाम करके स्कूल जाना है, गुरुजनों को देवतुल्य मानना है।तो अमेरिका में लोग यह देख रहे हैं कि बच्चों की जिम्मेदारी सरकार उठा रही है, तो फिर आखिर धन वे किसके लिए बचाएं। एक दौर था, जब अमेरिका में बैंक डिपोजिट पर बीस प्रतिशत ब्याज मिला करता था, तो आखिर लोग शेयर जैसे जोखिम भरे निवेश में पैसा क्यों लगाते, लेकिन जैसे-जैसे डिपोजिट पर ब्याज घटने लगा, त्यों-त्यों लोग शेयरों में धन लगाने लगे। और वही लोग आज मुश्किल में हैं, अगर उन्हें कर्ज न दिया जाए, तो जीवन मुश्किल में पड़ जाए। अमेरिका में वही हाल शादी का है। केवल दस प्रतिशत शादियां ही 15 साल से ज्यादा समय तक टिक पाती हैं। आधे से ज्यादा विवाह पहले पांच वषü के दौरान ही टूट जाते हैं। वहां लोगों का साथ रहना एक अल्पकालीन समझौता है। वे परिवार की तरह नहीं, बल्कि हाउसहोल्ड की तरह रहते हैं। हाउसहोल्ड में लोग कुछ समय के लिए साथ रहना स्वीकार करते हैं, उनमें भावनाओं का बहुत जुड़ाव नहीं होता है, जबकि परिवार में परस्पर लगाव होता, एक दूसरे के प्रति अत्यधिक चिंता होती है। अमेरिका में परिवार लगभग नष्ट हो चुके हैं। उसी हिसाब से खर्च भी बढ़ा है। वहां 11 करोड़ हाउसहोल्ड हैं, लेकिन उनके सदस्यों के पास 120 करोड़ क्रेडिट कार्ड हैं। लगभग हर आदमी के पास तीन-चार से ज्यादा क्रेडिट कार्ड हैं। तो अमेरिका को बिखरे हुए परिवारों ने तबाह कर दिया है, जबकि भारत जैसे देशों में परिवार और संस्कृति की वजह से ही अर्थव्यवस्था बची हुई है। क्रमश:
Tuesday, 6 January 2009
एक और फोटो
एस गुरुमूर्ति के कर कमलों से उपकृत
Thursday, 1 January 2009
उम्मीद में खुशहाल
नए बरस मे ऐसे
जैसे कोई जर्जर मकान छोड़
नए मे आता है
सुकून का अहसास संजोये
मानो छोड़ आया हो पीछे
बहुत कुछ जर्जर
ढहने को तत्पर
बेकार और लचर
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पुरानी पतलूनों की फटी जेबें
जो सिल न सकीं
छुटी हुई नौकरियों के चिथड़े कागजात
सिफारिशों के आभाव मे हल्का और
पुराना पड़ता बायोडाटा
उड़ रहा है
जैसे उडी थी विदर्भ के अकाल मे धूल
जिसे पॅकेज से झाड़ देने की कोशिश हुई
और नाकाम हुई
जैसे नाकाम हुई कई कोशिशें
आसूं और खून के निशाँ
जो छूट न सके
बने रह गए
पड़ोसियों के हाथ खून मे
सने रह गए
साल भर संगीन
तने रह गए
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जो भी है पुराना
सहेजने के लिए भले हो
इस्तेमाल के लिए नहीं होता
यह कलेंडर ने बताया हैं
जो सामने नुमाया है
नया साल
उम्मीद में खुशहाल
मालामाल.