Sunday, 13 April 2008

खेलों से खिलवाड़


बार-बार कहा जाता है, खेलों में राजनीति का घालमेल न हो, लेकिन राजनेता अपनी आदत से बाज नहीं आते। खेलों पर ऐसे कुंडली मारे बैठे हैं कि खिलाडि़यों का दम घुट जाए। क्या हॉकी, क्या क्रिकेट, खो-खो और कबड्डी तक राजनेताओं के शिकंजे में है, और फिर भी सरकारें डंका पीटती हैं, खेलों के साथ राजनीति नहीं होने देंगे। ऐसा नहीं है कि राजनीति ने केवल भारत में ही खेलों का मजा किरकिरा किया है। ओलंपिक जैसे व्यापक खेल महाकुंभ में भी राजनीति होती आई है। 1936 में बलिüन में ओलंपिक खेलों के दौरान जर्मनी के तानाशाह हिटलर ने जो नौटंकियां की थीं, उन्हें लोग आज भी नहीं भूले हैं। हिटलर अगर स्टेडियम में न जाते, तो भी खेल होते और बेहतर होते, लेकिन हिटलर ने स्टेडियम पहुंचकर खेलों को हराने के प्रयास किए। विश्वस्तरीय दांवपेच हुए थे, जिनका जिक्र न केवल राजनय, बल्कि खेलों की किताब में भी मिल जाता है। एक जमाने में सर्वहारा वर्चस्व वाले सोवियत संघ के खिलाड़ी जब दूसरे देशों में ओलंपिक खेलों में भाग लेने जाते थे, उनके लिए सबसे अलग बाड़े तैयार किए जाते थे, ताकि वे दूसरे देशों के बुर्जुआ खिलाडि़यों से मेलजोल न बढ़ा सकें। पूंजीवादी अमेरिका भी कम नहीं है, उसने हमेशा ओलंपिक में वर्चस्व दिखाया है, उसके रणनीतिकार ओलंपिक के मौके को कभी नहीं गंवाते। 1972 में म्युनिख ओलंपिक में खूनखराबा हुआ था, 17 मौतें हुई थीं। अरब के आतंकवादियों ने इजरायल के खिलाडि़यों को मौत के घाट उतार दिया था। उसके बाद से ओलंपिक खेलों में खिलाडि़यों के आसपास सुरक्षा का घेरा बढ़ गया। आज ओलंपिक खेलों को आतंकवादियों से खतरा है और एथेन्स की तरह बीजिंग में भी सुरक्षा के मद में खूब पैसा खर्च किया जा रहा है। संभव है, सैनिकों की छावनियों की तरह खिलाडि़यों की भी छावनियां सजेंगी।शीत युद्ध के दौर में अमेरिका ने मास्को में आयोजित 1980 के ओलंपिक खेलों का बहिष्कार किया, लेकिन उसके अगले ओलंपिक में ही सोवियत संघ ने बदला ले लिया। लॉस एंजेलिस में जब खेल आयोजित हुए, तो सोवियत सरकार ने भागीदारी से इनकार कर दिया। ओलंपिक खेल इंसानी भाईचारे का प्रदर्शन नहीं करते, वे केवल राष्ट्रभक्ति और परस्पर दुश्मनी का प्रदर्शन करते हैं। खिलाड़ी महत्वपूर्ण नहीं होते, देश महत्वपूर्ण होते हैं। विजेताओं के देश का राष्ट्रीय गान बजाया जाता है, विजेताओं के देश के नेता अपने खिलाडि़यों की जीत को हर संभव तरीके से भुनाते हैं। विजेता खिलाड़ी का अपने देश में ऐसे स्वागत होता है, मानो वह दुश्मनों को धूल चटाकर आया हो। ताकतवर खिलाडि़यों को राजनीतिक आधार पर देश के लिए मैडल जीतने के लिए प्रेरित किया जाता है। खिलाड़ी जब हार कर लौटते हैं, तो उन्हें यह संकेत दिया जाता है कि वे देश की नाक कटाकर लौटे हैं। इतिहास में दर्ज है, 1896 में जब खेलों की मेजबानी एथेंस को मिली थी, तब ग्रीस सरकार ने तुकीü के खिलाफ युद्ध घोषित कर दिया था। सवाल उठाया जाता है कि आखिरी युद्ध कौशल से जुड़े खेल ओलंपिक में क्यों हैं, तीर-घनुष, बंदूक, तलवार, भाला, गोला, चक्का इत्यादि युद्ध के साजो-सामान का ओलंपिक में क्या काम? क्या इससे देशों के बीच सद्भाव बढ़ाने में मदद मिलती है?

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