शेख सादी शिराजी
उस दिन ईरान के शिराजी शहर में आसमान पर चांद भरपूर नुमाया था। हवा थोड़ी ठंडक लिए बह चली थी। वैसे भी रेगिस्तान में दिन जहन्नुम-सा तपता है, तो रात जन्नत-सी सजती है। चांद की रोशनी में मानो इल्मो ईमान जाग जाता है। लोग एक दूजे के करीब जुट आते हैं। बालक सादी का कुनबा भी ऐसी रातों में लगभग रोज एक जगह जुट जाता था। अब्बाजान, सारे चचाजान, सगे-चचेरे भाईजान करीब आ जाते थे। फिर शुरू होता पाक कुरान का पाठ और उस पर चर्चा का दौर। उस दिन भी एक चचाजान जोर-जोर से कुराने पाक का पाठ कर रहे थे। बालक सादी भी अपने पिता के पास बैठकर सुन रहा था। उसने गौर किया कि सुनते-सुनते ज्यादातर चाचा और भाई सोने लगे हैं। कुछ तो गहरी नींद में उतर गए हैं। सादी को बहुत अजीब लग रहा था और एक गर्व भी हो रहा था कि वह खुदा के लिए जग रहा है। सादी ने शायद पूरे बचपने के साथ कहा, ‘अब्बा देखो, सब सो रहे हैं। इन दर्जनों लोगों में से कोई भी पैगंबर के लफ्जों को नहीं सुन रहा है। ऐसे सोएंगे, तो ये लोग कभी अल्लाह तक नहीं पहुंच पाएंगे।’
अचंभित पिता अब्दुल्ला शिराजी ने घूरकर देखा कि पुत्र ने तो अपना फैसला ही सुना दिया है। पिता बहुत गुणी थे, वह बहुत नाराज नहीं हुए। उन्होंने प्यार से समझाया, ‘मेरे प्यारे बेटे, अपने ईमान और यकीन के साथ अपनी राह की खुद तलाश करो और दूसरों को अपना ख्याल खुद रखने दो। आखिर कौन जानता है, शायद ये सब सो जाने के बाद अपने सपनों में अल्लाह से बात कर रहे होंगे या अल्लाह को ही देख रहे होंगे। यकीन करो, तुम्हारी बात पर मुझे गम हो रहा है। मुझे ज्यादा अच्छा लगता, अगर तुम भी इन्हीं के साथ सो गए होते, कम से कम तुम्हारे मुंह से फैसले और मजम्मत के इतने बेरहम अल्फाज तो नहीं सुनने पड़ते।’
पिता और पुत्र की बातचीत चल रही थी। सोने वाले सो रहे थे, लेकिन बालक सादी मानो किसी नींद से झटके से जाग गया। पिता ने अफसोस भरी नजरों से ऐसे देखा था कि बालक सादी की रूह कांप गई थी। यह नसीहत हमेशा के लिए दिल में उतर गई कि वह कौन होता है, दूसरों का ठेकेदार? अल्लाह ने सबको अलग-अलग बनाया, सब अलग-अलग ही दुनिया में आए, सब अलग-अलग ही रुखसत होंगे। सबकी अपनी अलग राह होगी, तो फिर दूसरे की राह और जिंदगी पर फैसला देने वाला मैं कौन?
उस लम्हे ने सादी की पूरी जिंदगी और सोच की दशा-दिशा को बदल दिया। उस दिन सादी को शर्म भी बहुत आई थी कि कोई रिश्तेदार अगर उसकी बातों को सुन लेता, तो क्या सोचता? कौन नहीं चाहेगा कि उसके नाते-रिश्तेदार जन्नत जाएं, अल्लाह से बात करें? तब वह महज 11 वर्ष के रहे होंगे, उस रात के कुछ ही दिन बाद पिता का इंतकाल हो गया। पिता के रूप में सादी का सबसे अच्छा उस्ताद भी दुनिया से चला गया, लेकिन दुनिया को इल्म, इश्क, ईमान से लबरेज इंसानियत का एक सच्चा रहनुमा दे गया। दिन-साल गुजर गए, लेकिन सादी उन लम्हों और अपनी उस खता के लिए ताउम्र माफी मांगते रहे।
आज इल्म की दुनिया में शायद ही कोई होगा, जो शेख सादी शिराजी (1210-1291) को न जानता हो, जो उनकी अनमोल लोकोक्तियों, रुबाइयों को न जानता हो, जो उनकी विश्व प्रसिद्ध रचनाओं बोस्तान और गुलिस्तान को न जानता हो। जिंदगी के करीब 25 साल इल्म हासिल करने में गुजारने के बाद 30 साल यायावर के तौर पर दुनिया घूमते रहे। वह अरब, सीरिया, तुर्की, मिस्र, मोरक्को, मध्य एशिया और शायद भारत भी आए थे। पिता ने ऐसा सहिष्णु इंसान बना दिया था कि वह जहां भी जाते, हरदिल अजीज हो जाते। बादशाहों, सरदारों के दरबारों में उनके लिए जगह निकल आती। शेख सादी को उन लम्हों ने इतना विनम्र बना दिया था कि वह किसी भी तरह की बेरहमी, बहस से आसानी से बच निकलते थे। कभी इल्म का घमंड हुआ भी, तो वो लम्हे याद आ गए। कभी कहीं बहस हुई भी, तो उन लम्हों को याद करके खामोश हो गए।
कई बार अपनी तकरीरों में वह उन लम्हों की कहानी लोगों के सामने दोहराते थे और बताते थे कि कैसे खेल-खेल में ही सहजता से इल्मो अदब की रोशनी फैल जाती है, जैसे उस रात फैल गई थी। शेख सादी फारसी के सबसे बड़े कवि माने जाते हैं। उनकी जिंदगी का वो लम्हा मुकम्मल गवाह है कि मुस्लिम दुनिया में सकारात्मक सोच का वह स्वर्णकाल कैसा था। कई मुस्लिम वैज्ञानिकों, अदीबों ने दुनिया को कुछ न कुछ देते रहने का सिलसिला-सा बना लिया था। फिरकापरस्तों की दुनिया से अलग वह ऐसी लाजवाब दुनिया बन गई थी, जहां इंसान का कत्ल तो भूल ही जाइए, किसी के ख्वाब-ख्याल का कत्ल भी हराम था।
As published in Hindustan
https://www.livehindustan.com/blog/expert-daily-blogs/story-wo-lamhe-article-of-1-september-2720673.html
उस दिन ईरान के शिराजी शहर में आसमान पर चांद भरपूर नुमाया था। हवा थोड़ी ठंडक लिए बह चली थी। वैसे भी रेगिस्तान में दिन जहन्नुम-सा तपता है, तो रात जन्नत-सी सजती है। चांद की रोशनी में मानो इल्मो ईमान जाग जाता है। लोग एक दूजे के करीब जुट आते हैं। बालक सादी का कुनबा भी ऐसी रातों में लगभग रोज एक जगह जुट जाता था। अब्बाजान, सारे चचाजान, सगे-चचेरे भाईजान करीब आ जाते थे। फिर शुरू होता पाक कुरान का पाठ और उस पर चर्चा का दौर। उस दिन भी एक चचाजान जोर-जोर से कुराने पाक का पाठ कर रहे थे। बालक सादी भी अपने पिता के पास बैठकर सुन रहा था। उसने गौर किया कि सुनते-सुनते ज्यादातर चाचा और भाई सोने लगे हैं। कुछ तो गहरी नींद में उतर गए हैं। सादी को बहुत अजीब लग रहा था और एक गर्व भी हो रहा था कि वह खुदा के लिए जग रहा है। सादी ने शायद पूरे बचपने के साथ कहा, ‘अब्बा देखो, सब सो रहे हैं। इन दर्जनों लोगों में से कोई भी पैगंबर के लफ्जों को नहीं सुन रहा है। ऐसे सोएंगे, तो ये लोग कभी अल्लाह तक नहीं पहुंच पाएंगे।’
अचंभित पिता अब्दुल्ला शिराजी ने घूरकर देखा कि पुत्र ने तो अपना फैसला ही सुना दिया है। पिता बहुत गुणी थे, वह बहुत नाराज नहीं हुए। उन्होंने प्यार से समझाया, ‘मेरे प्यारे बेटे, अपने ईमान और यकीन के साथ अपनी राह की खुद तलाश करो और दूसरों को अपना ख्याल खुद रखने दो। आखिर कौन जानता है, शायद ये सब सो जाने के बाद अपने सपनों में अल्लाह से बात कर रहे होंगे या अल्लाह को ही देख रहे होंगे। यकीन करो, तुम्हारी बात पर मुझे गम हो रहा है। मुझे ज्यादा अच्छा लगता, अगर तुम भी इन्हीं के साथ सो गए होते, कम से कम तुम्हारे मुंह से फैसले और मजम्मत के इतने बेरहम अल्फाज तो नहीं सुनने पड़ते।’
पिता और पुत्र की बातचीत चल रही थी। सोने वाले सो रहे थे, लेकिन बालक सादी मानो किसी नींद से झटके से जाग गया। पिता ने अफसोस भरी नजरों से ऐसे देखा था कि बालक सादी की रूह कांप गई थी। यह नसीहत हमेशा के लिए दिल में उतर गई कि वह कौन होता है, दूसरों का ठेकेदार? अल्लाह ने सबको अलग-अलग बनाया, सब अलग-अलग ही दुनिया में आए, सब अलग-अलग ही रुखसत होंगे। सबकी अपनी अलग राह होगी, तो फिर दूसरे की राह और जिंदगी पर फैसला देने वाला मैं कौन?
उस लम्हे ने सादी की पूरी जिंदगी और सोच की दशा-दिशा को बदल दिया। उस दिन सादी को शर्म भी बहुत आई थी कि कोई रिश्तेदार अगर उसकी बातों को सुन लेता, तो क्या सोचता? कौन नहीं चाहेगा कि उसके नाते-रिश्तेदार जन्नत जाएं, अल्लाह से बात करें? तब वह महज 11 वर्ष के रहे होंगे, उस रात के कुछ ही दिन बाद पिता का इंतकाल हो गया। पिता के रूप में सादी का सबसे अच्छा उस्ताद भी दुनिया से चला गया, लेकिन दुनिया को इल्म, इश्क, ईमान से लबरेज इंसानियत का एक सच्चा रहनुमा दे गया। दिन-साल गुजर गए, लेकिन सादी उन लम्हों और अपनी उस खता के लिए ताउम्र माफी मांगते रहे।
आज इल्म की दुनिया में शायद ही कोई होगा, जो शेख सादी शिराजी (1210-1291) को न जानता हो, जो उनकी अनमोल लोकोक्तियों, रुबाइयों को न जानता हो, जो उनकी विश्व प्रसिद्ध रचनाओं बोस्तान और गुलिस्तान को न जानता हो। जिंदगी के करीब 25 साल इल्म हासिल करने में गुजारने के बाद 30 साल यायावर के तौर पर दुनिया घूमते रहे। वह अरब, सीरिया, तुर्की, मिस्र, मोरक्को, मध्य एशिया और शायद भारत भी आए थे। पिता ने ऐसा सहिष्णु इंसान बना दिया था कि वह जहां भी जाते, हरदिल अजीज हो जाते। बादशाहों, सरदारों के दरबारों में उनके लिए जगह निकल आती। शेख सादी को उन लम्हों ने इतना विनम्र बना दिया था कि वह किसी भी तरह की बेरहमी, बहस से आसानी से बच निकलते थे। कभी इल्म का घमंड हुआ भी, तो वो लम्हे याद आ गए। कभी कहीं बहस हुई भी, तो उन लम्हों को याद करके खामोश हो गए।
कई बार अपनी तकरीरों में वह उन लम्हों की कहानी लोगों के सामने दोहराते थे और बताते थे कि कैसे खेल-खेल में ही सहजता से इल्मो अदब की रोशनी फैल जाती है, जैसे उस रात फैल गई थी। शेख सादी फारसी के सबसे बड़े कवि माने जाते हैं। उनकी जिंदगी का वो लम्हा मुकम्मल गवाह है कि मुस्लिम दुनिया में सकारात्मक सोच का वह स्वर्णकाल कैसा था। कई मुस्लिम वैज्ञानिकों, अदीबों ने दुनिया को कुछ न कुछ देते रहने का सिलसिला-सा बना लिया था। फिरकापरस्तों की दुनिया से अलग वह ऐसी लाजवाब दुनिया बन गई थी, जहां इंसान का कत्ल तो भूल ही जाइए, किसी के ख्वाब-ख्याल का कत्ल भी हराम था।
As published in Hindustan
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