बाज़ीचा-ए-अत्फ़ाल है दुनिया मेरे आगे
होता है शब-ओ-रोज़ तमाशा मेरे आगे
मिर्जा ग़ालिब जब दिल्ली थे, तब यहां करीब तीन लाख लोग रहते थे, आज तीन करोड़ के करीब रहते हैं। उनके सामने ही दुनिया बच्चों के खेलने का मैदान (बाज़ीचा-ए-अत्फ़ाल) थी, जहां रात-दिन तमाशा होता था। आज भी होता है, जब ग़ालिब नहीं हैं। लाल किले के ठीक सामने चांदनी चौक रोड पर चलते हुए बायीं ओर पडऩे वाले सीसगंज साहिब गुरुद्वारा और परांठेवाली गली से आगे बढ़ते बायीं ओर ही वल्लीमारान गली या चरखीवाली गली में मुड़ जाइए। कुछ और चलिए, दायीं ओर गली सादिक जान में घुसते हुए बायीं ओर मिर्जा ग़ालिब की हवेली है। हवेली के नाम पर आधा आंगन, आधी दालान और बिना खिड़कियों वाला अंधेरा-सा एक कमरा भर है। कमरे के बाहर ही मोटरसाइकिल की पार्किंग है, एक धूल सज्जित मोटरसाइकिल कमरे के दरवाजे को आधा छेके खड़ी है। सबको मालूम है, ग़ालिब पार्किंग को लेकर कोई तमाशा नहीं खड़ा करेंगे। ग़ालिब ने दिल्ली के तमाशे देखे, तो सवाल भी खड़े किए और जवाब भी दे गए...
मत पूछ कि क्या हाल है मेरा तेरे पीछे
तू देख कि क्या रंग है तेरा, मेरे आगे।
खैर, वहां उनकी फोटो, मूर्तियां, किताबें, शाइरी देख रहा हूं। एक दौर के दौरे पर निकल पड़ा हूं और कानों में बज रहा है...
रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं कायल
जब आंख ही से न टपका, तो लहू क्या है।
वहां स्पीकर लगे हैं, उन्हें देखता हूं, लेकिन देखरेख करने वाले साहब आगे बढक़र बताते हैं, साउंड सिस्टम खराब पड़ा है। सुनकर झेंप-सी होती है और तत्काल अहसास होता है, साउंड सिस्टम वल्लीमारान या दिल्ली वालों का खराब होगा, ग़ालिब का सिस्टम तो बिल्कुल ठीक है, जो मेरे जैसे न जाने कितने करोड़ों के अंदर बज रहा है। वल्लीमारान में कुछ-कुछ दूर पर मस्जिदें गुलजार हैं। दोपहर ढल रही है। नमाज-ए-जुह्र का समय है। अजान चल रही है - अश-हदू अल्ला-इलाहा इल्लअल्लाह...। सुनकर अच्छा लग रहा है, चल पड़े हैं लोग ज्यादा से ज्यादा एक साथ, एकजुट और मजबूत दिखने। ग़ालिब की गली सादिक जान में हलचल है। ग़ालिब के कमरे के बाहर पुराने सोफे पर बैठकर सोचता हूं, यहां सुबह की नमाज भी होती होगी, जिसमें लोगों को रोज नींद से जगाया जाता होगा। कहा जाता होगा कि नींद से बेहतर है नमाज - अस्सलातु खैरूं मिनन नउम...।
नींद का मतलब ही है चैन की नींद। चैन की नींद तभी आती है, जब चैन की जगह हो। चांदनी चौक में आज जैसी भीड़भाड़ होती, तो शायद नहीं आते ग़ालिब आगरे से यहां रहने। आश्चर्य होता है, कलाकारों के इस मुहल्ले में एक से एक उम्दा कारीगर हैं। एक से एक खूबसूरत चीजें बनाकर बेचते हैं, क्या गज़ब का सौंदर्यबोध है। यह तो सब जानते है कि चांदनी चौक हो या बनारस, हर जगह शादी की बैंड पार्टी हो या साड़ी, चूड़ी, शृंगार के सामान इत्यादि में से ज्यादातर बनाता कौन है। ग़ालिबों, मीरों के पुराने मुहल्लों के घरों, दुकानों, गलियों में वह सौंदर्यबोध क्यों नजर नहीं आता? सुल्तान और अली के बैंड बाजे में मास्टर साहब जब बहारों फूल बरसाओ मेरा महबूब आया है...बजाते हैं, तो धुन की एक मात्रा नहीं छोड़ते हैं, उसमें एकाध शानदार मोड़ अलग से फूंककर चार चांद ऐसे लगा देते हैं कि सुनने को पैर अटल हो जाते हैं। लेकिन उनकी अपनी गली में रुकना भी क्यों मुहाल है? अपनी पूरी भागमभाग में भी ठहर गया है चांदनी चौक। कहते हैं, बदबू तभी उठती है, जब कुछ ठहर जाता है। ठहरे हुए को आलोचना बर्दाश्त नहीं होती। कभी समाज को ग़ालिब भी बर्दाश्त नहीं थे, तभी तो ग़ालिब ने कहा था...
हर एक बात पे कहते हो कि तू क्या है
तुम्हीं कहो कि ये अंदाजे गुफ्तगू क्या है।
यदि ग़ालिब की चलती, तो दुनिया का एक शानदार शहर होता चांदनी चौक। यहां अपनी हवेली में जितना बच गए हैं ग़ालिब, उतना ही बचा है चांदनी चौक। नीचे से दौड़ रही है मेट्रो लगातार, चावड़ी बाजार, चांदनी चौक होते हुए, लेकिन ऊपर पार्किंग के झगड़े खत्म नहीं हुए हैं। घर या दिल हो, ग़ालिब के पास जगह खूब थी और सबसे बड़ी बात किसी के घर के आगे लगा देने के लिए मोटरसाइकिल नहीं थी। वो तो देश की राजधानी कोलकाता में जब पेंशन अटकी, तो घोड़े से ही गए थे। अब चांदनी चौक में नहीं के बराबर घोड़े हैं, लेकिन मोटरें और मोटरसाइकिलें बेहिसाब हैं। अव्वल तो चांदनी तभी सलामत खिलेगी, जब चौक वाहनों की चपेट से बचेगा। चौक और चांदनी कैसे बचेगी, सबको सोचना होगा। यहां टहलते हुए कई युगों में एक साथ टहलने का अहसास होता है। गलियों की विरासत बेमिसाल है, ये वो लोग हैं, जो पाकिस्तान नहीं गए। इसी मिट्टी में जन्मे थे, यहीं रह गए। देश के बंटवारे से ७८ साल पहले ही ग़ालिब अल्ला को प्यारे हो गए थे। यह सोचने का विषय है, यदि ग़ालिब की चलती, तो क्या पाकिस्तान की जरूरत पड़ती। ऐसा सोचते हुए खुद ग़ालिब ही याद आते हैं...
हुई मुद्दत कि ग़ालिब मर गया पर याद आता है
वो हर इक बात पर कहना कि यूं होता तो क्या होता।
होता है शब-ओ-रोज़ तमाशा मेरे आगे
मिर्जा ग़ालिब जब दिल्ली थे, तब यहां करीब तीन लाख लोग रहते थे, आज तीन करोड़ के करीब रहते हैं। उनके सामने ही दुनिया बच्चों के खेलने का मैदान (बाज़ीचा-ए-अत्फ़ाल) थी, जहां रात-दिन तमाशा होता था। आज भी होता है, जब ग़ालिब नहीं हैं। लाल किले के ठीक सामने चांदनी चौक रोड पर चलते हुए बायीं ओर पडऩे वाले सीसगंज साहिब गुरुद्वारा और परांठेवाली गली से आगे बढ़ते बायीं ओर ही वल्लीमारान गली या चरखीवाली गली में मुड़ जाइए। कुछ और चलिए, दायीं ओर गली सादिक जान में घुसते हुए बायीं ओर मिर्जा ग़ालिब की हवेली है। हवेली के नाम पर आधा आंगन, आधी दालान और बिना खिड़कियों वाला अंधेरा-सा एक कमरा भर है। कमरे के बाहर ही मोटरसाइकिल की पार्किंग है, एक धूल सज्जित मोटरसाइकिल कमरे के दरवाजे को आधा छेके खड़ी है। सबको मालूम है, ग़ालिब पार्किंग को लेकर कोई तमाशा नहीं खड़ा करेंगे। ग़ालिब ने दिल्ली के तमाशे देखे, तो सवाल भी खड़े किए और जवाब भी दे गए...
मत पूछ कि क्या हाल है मेरा तेरे पीछे
तू देख कि क्या रंग है तेरा, मेरे आगे।
खैर, वहां उनकी फोटो, मूर्तियां, किताबें, शाइरी देख रहा हूं। एक दौर के दौरे पर निकल पड़ा हूं और कानों में बज रहा है...
रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं कायल
जब आंख ही से न टपका, तो लहू क्या है।
वहां स्पीकर लगे हैं, उन्हें देखता हूं, लेकिन देखरेख करने वाले साहब आगे बढक़र बताते हैं, साउंड सिस्टम खराब पड़ा है। सुनकर झेंप-सी होती है और तत्काल अहसास होता है, साउंड सिस्टम वल्लीमारान या दिल्ली वालों का खराब होगा, ग़ालिब का सिस्टम तो बिल्कुल ठीक है, जो मेरे जैसे न जाने कितने करोड़ों के अंदर बज रहा है। वल्लीमारान में कुछ-कुछ दूर पर मस्जिदें गुलजार हैं। दोपहर ढल रही है। नमाज-ए-जुह्र का समय है। अजान चल रही है - अश-हदू अल्ला-इलाहा इल्लअल्लाह...। सुनकर अच्छा लग रहा है, चल पड़े हैं लोग ज्यादा से ज्यादा एक साथ, एकजुट और मजबूत दिखने। ग़ालिब की गली सादिक जान में हलचल है। ग़ालिब के कमरे के बाहर पुराने सोफे पर बैठकर सोचता हूं, यहां सुबह की नमाज भी होती होगी, जिसमें लोगों को रोज नींद से जगाया जाता होगा। कहा जाता होगा कि नींद से बेहतर है नमाज - अस्सलातु खैरूं मिनन नउम...।
नींद का मतलब ही है चैन की नींद। चैन की नींद तभी आती है, जब चैन की जगह हो। चांदनी चौक में आज जैसी भीड़भाड़ होती, तो शायद नहीं आते ग़ालिब आगरे से यहां रहने। आश्चर्य होता है, कलाकारों के इस मुहल्ले में एक से एक उम्दा कारीगर हैं। एक से एक खूबसूरत चीजें बनाकर बेचते हैं, क्या गज़ब का सौंदर्यबोध है। यह तो सब जानते है कि चांदनी चौक हो या बनारस, हर जगह शादी की बैंड पार्टी हो या साड़ी, चूड़ी, शृंगार के सामान इत्यादि में से ज्यादातर बनाता कौन है। ग़ालिबों, मीरों के पुराने मुहल्लों के घरों, दुकानों, गलियों में वह सौंदर्यबोध क्यों नजर नहीं आता? सुल्तान और अली के बैंड बाजे में मास्टर साहब जब बहारों फूल बरसाओ मेरा महबूब आया है...बजाते हैं, तो धुन की एक मात्रा नहीं छोड़ते हैं, उसमें एकाध शानदार मोड़ अलग से फूंककर चार चांद ऐसे लगा देते हैं कि सुनने को पैर अटल हो जाते हैं। लेकिन उनकी अपनी गली में रुकना भी क्यों मुहाल है? अपनी पूरी भागमभाग में भी ठहर गया है चांदनी चौक। कहते हैं, बदबू तभी उठती है, जब कुछ ठहर जाता है। ठहरे हुए को आलोचना बर्दाश्त नहीं होती। कभी समाज को ग़ालिब भी बर्दाश्त नहीं थे, तभी तो ग़ालिब ने कहा था...
हर एक बात पे कहते हो कि तू क्या है
तुम्हीं कहो कि ये अंदाजे गुफ्तगू क्या है।
यदि ग़ालिब की चलती, तो दुनिया का एक शानदार शहर होता चांदनी चौक। यहां अपनी हवेली में जितना बच गए हैं ग़ालिब, उतना ही बचा है चांदनी चौक। नीचे से दौड़ रही है मेट्रो लगातार, चावड़ी बाजार, चांदनी चौक होते हुए, लेकिन ऊपर पार्किंग के झगड़े खत्म नहीं हुए हैं। घर या दिल हो, ग़ालिब के पास जगह खूब थी और सबसे बड़ी बात किसी के घर के आगे लगा देने के लिए मोटरसाइकिल नहीं थी। वो तो देश की राजधानी कोलकाता में जब पेंशन अटकी, तो घोड़े से ही गए थे। अब चांदनी चौक में नहीं के बराबर घोड़े हैं, लेकिन मोटरें और मोटरसाइकिलें बेहिसाब हैं। अव्वल तो चांदनी तभी सलामत खिलेगी, जब चौक वाहनों की चपेट से बचेगा। चौक और चांदनी कैसे बचेगी, सबको सोचना होगा। यहां टहलते हुए कई युगों में एक साथ टहलने का अहसास होता है। गलियों की विरासत बेमिसाल है, ये वो लोग हैं, जो पाकिस्तान नहीं गए। इसी मिट्टी में जन्मे थे, यहीं रह गए। देश के बंटवारे से ७८ साल पहले ही ग़ालिब अल्ला को प्यारे हो गए थे। यह सोचने का विषय है, यदि ग़ालिब की चलती, तो क्या पाकिस्तान की जरूरत पड़ती। ऐसा सोचते हुए खुद ग़ालिब ही याद आते हैं...
हुई मुद्दत कि ग़ालिब मर गया पर याद आता है
वो हर इक बात पर कहना कि यूं होता तो क्या होता।