बस्तर जंगल |
प्रदेश के जो नेता भूूल गए हैं, उन्हें याद दिला दूं - अपने छत्तीसगढ़ में ही एक कवि रहते थे, जिन्हें मुक्तिबोध के नाम से दुनिया जानती है, उनका एक प्रसिद्ध प्रश्न होता था - ‘पार्टनर तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है?’ जिसके दिल में सत्ता में रहने के लिए जरूरी ममत्व हो, जिसका दिल पत्थर न हुआ हो, जिसके दिल में संवेदना का कान हो, वो जरूर सब सुन-समझ रहा होगा। जी, बिल्कुल यही प्रश्न उन ९ शहीदों की चिताओं की राख से गूंज रहा है - ’पार्टनर तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है?’
अब यहां कहने की जरूरत नहीं कि ‘पार्टनर’ शब्द की जगह ‘कांग्रेस’ और ‘भाजपा’ अपने आप को रख ले और जवाब दे। जनता भ्रमित है और यह भ्रम छत्तीसगढ़ की दोनों ही बड़ी पार्टियों ने मिलकर खड़ा किया है। जनता के मन में सवाल बहुत बड़ा है कि नक्सलियों के साथ कौन है भाजपा या कांग्रेस? यदि कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष के आरोप पर विश्वास करें, तो राज्य के वन मंत्री के आरोप पर क्यों अविश्वास करें? जिम्मेदार लोकतंत्र तो तब है, जब कांग्रेस और भाजपा, दोनों के बड़े नेता आपस में बैठें और यह तय करें कि हम नक्सलियों के खिलाफ एकजुट हैं। कम से कम माओवादी हिंसा या नक्सलवाद एक ऐसा विषय हो जाए, जिस पर छत्तीसगढ़ की राजनीति एक स्वर हो। मुख्यमंत्री भी माओवादियों से बातचीत का प्रस्ताव बीच-बीच में हवा में उछाल देते हैं, लेकिन पहले तो उन्हें विपक्ष को सहमत कराना होगा। माओवादियों के सामने टेबल पर बैठने से पहले राज्य को राजनीतिक रूप से एकजुट करना होगा। समस्या यहीं है, जब दो बड़ी पार्टियां परस्पर सहमत नहीं हैं, तो बातचीत की दिशा में आगे कैसे बढ़ा जाए? और हिंसा है कि रुकने का नाम नहीं ले रही। जो पार्टियां अपनी जनसभाओं में छत्तीसगढ़ महतारी के लिए जयकारे लगवाती थकती नहीं हैं, क्या उन्होंने अपनी छत्तीसगढ़ महतारी के घाव देखे हैं? वे चाहते हैं कि उनकी महतारी अपने घाव को अपने आंचल से ढक कर रखे, लेकिन समय-समय पर नए-नए घावों से जब खून बहता है, तो आंचल गीला हो जाता है। क्या करे छत्तीसगढ़ महतारी? २०२२ या २०२४ तक इंतजार करे?
नेताओं के लिए यह बहुत आसान होता है बोलना कि हम शहादत को भूलेंगे नहीं, जबकि सच्चाई जानना हो, तो आप मंत्रियों और कांग्रेस के दिग्गजों से पिछले १५ शहीदों के नाम पूछ लीजिए। तीन दिन बीते नहीं कि नेता नक्सल-नक्सल खेलने लगे हैं। वाकई ये पॉलिटिक्स है, लेकिन कितनी खतरनाक पॉलिटिक्स है? पॉलिटिक्स भी नशा है, जैसे बंदूकबाजी। उच्च वामपंथी विचारों की धज्जियां उड़ा चुके निर्मम माओवादियों की जितनी निंदा की जाए कम है। माओ के अपने देश में भी ऐसा कहीं नहीं हो रहा है, जैसा कि छत्तीसगढ़ में होने दिया जा रहा है। इन लड़ाकों के लिए बस सीधा-सादा बस्तर ही बचा है, जहां उन्हें आदिवासियों का शोषण दिखता है और जहां उन्हें अपने लिए सुरक्षित इलाका चाहिए। कभी बस्तर में शरणार्थियों की तरह आए माओवादियों ने यह सिद्ध कर दिया है कि ये जंगल केवल उनकी जायदाद है, जहां केवल उनकी ही मनमानी चलेगी। बस्तर में इनको ४० साल होने जा रहे हैं, अब ईमानदार विश्लेषण करना होगा कि इन्होंने बस्तर को क्या दिया है और क्या लिया है?
यह समय है कि छत्तीसगढ़ के इस पुराने लेकिन निरंतर रिसते घाव पर मरहम लगाया जाए। इलाज में कई ऑपरेशन भी होंगे, कई दवाएं मीठी होंगी, तो कई कड़वी भी। आज राज्य से लेकर केन्द्र तक की सत्ता के लिए सबसे चर्चित हस्ती पंडित दीनदयाल उपाध्याय के एकात्ममानववाद को याद करना होगा। उनके सिद्धांत को अगर हम मानें, तो हमारे सुख-दुख परस्पर जुड़े हुए हैं। अगर एक जगह कोई दुखी है, तो दूसरी जगह कोई बहुत सुखी कभी नहीं हो सकता। इसी धारा में एक प्रसिद्ध पंजाबी सूफी गीत है - ऐ जो सिल्ली-सिल्ली ओंदी है हवा कि कित्थे कोई रोन्दा होएगा।... अर्थात ये जो नम-नम हवा आ रही है, कहीं कोई रो रहा होगा।
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