Friday, 23 February 2018

बच्चे हमें देख रहे हैं

यदि किसी सभ्यता की गुणवत्ता जांचनी हो, तो यह देखा जाना जरूरी है कि वहां लोग अपने शिशुओं और बच्चों को कैसे रख रहे हैं। ठीक इसी तरह से आपको इस बात से भी आंका जाएगा कि आप अपने पालतू पशुओं और अन्य अबोध जीवों के प्रति कैसा व्यवहार करते हैं। जैसे गाय - पूरी तरह से हम पर निर्भर। जैसे शिशु पूरी तरह से ममता की छांव पर निर्भर। छत्तीसगढ़ में दोनों का हाल कैसा है, समाचारों ने बता दिया है, लेकिन आगे क्या? क्या हम कोई सबक सीखेंगे? पृष्ठभूमि निर्ममता और हिंसा की है और तुर्रा यह कि बच्चे ईश्वर का रूप होते हैं और गाय माता होती है। तो बताइए कि रायपुर में ईश्वर के चार प्रतिरूप की मौत के लिए कौन जिम्मेदार है? छत्तीसगढ़ में करीब ३५० गौ माताओं की मौत के लिए कौन जिम्मेदार है? ध्यान रहे, थोड़े से प्रयास से इन मौतों को हत्या सिद्ध किया जा सकता है। माना कि इस साल छत्तीसगढ़ में पानी कम बरसा है, लेकिन इतना कम भी नहीं बरसा कि आंखों का पानी सूख जाए। राज्य के लोग व्यवस्था की आंखों में आंसू नहीं खोज रहे, वे तो केवल इतना चाह रहे हैं कि व्यवस्था आंख खोले। उठे कि ईश्वर के प्रतिरूपों और माताओं की हत्या का हिसाब देना है, न्याय करना है। ईश्वर के प्रतिरूपों और माताओं की सेवा में व्यवसाय खोजने वालों  के चेहरे पहचानने चाहिए। हम अगर ईश्वर और माताओं को पूजते हैं, तो कुछ आधारभूत परिवर्तन हमें करने ही पड़ेंगे। यह परिवर्तन हर स्तर पर होगा। दोषियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई के साथ ही लोगों और व्यवस्था की मानसिकता में परिवर्तन लाना पड़ेगा। शिशु अस्पतालों और गौशालाओं की निगरानी चुस्त करने की जरूरत है। देखना होगा कि ऐसी जगहों पर संवेदनाहीन, शराबी और भ्रष्ट लोग न पल रहे हों।  
महात्मा गांधी ने कहा था कि ‘दुनिया को अगर असली शांति का पाठ पढ़ाना है, अगर युद्ध के विरुद्ध असली युद्ध लडऩा है, तो हमें बच्चों से शुरुआत करना पड़ेगी।’ बच्चों को सबसे पहले सुरक्षित करना पड़ेगा। सुनिश्चित करना पड़ेगा कि बच्चों के साथ अपराध करने वाला बच के न जाने पाए। सावधान रहिए, आप बच्चों की निगाह में हैं, वे भी समाचार पढ़ते हैं, उन्हें पता है कि हम उन्हें शराबियों के भरोसे छोड़ रहे हैं। उन्हें पता है कि हम उन्हें भगवान भरोसे छोड़ रहे हैं। यकीनन, वे जैसा व्यवहार पाएंगे, वैसा ही हमें और समाज को लौटाएंगे। संभव है, वे बदला लेंगे। बुजुर्ग अपमानित होंगे, समाज लुटेगा-बिखरेगा और वृद्धाश्रम खुलेंगे। एक प्रसिद्ध उक्ति है, जिसे हमेशा ध्यान में रखना चाहिए - ‘चिंता न कीजिए कि बच्चे आपको सुनते नहीं हैं, चिंता कीजिए कि वे हमेशा आपको देख रहे हैं।’

वो बढ़ेंगी और बना लेंगी अपने रास्ते

सशक्त स्त्रियों के संसार में यह कहा जाता है कि ऐसी स्त्री न बनें, जिसे पुरुष की जरूरत पड़ती है, बल्कि ऐसी स्त्री बनें, जिसकी जरूरत पुरुष को पड़े। महिलाएं संघर्ष में निखर कर सामने आती हैं और ऐसा कुछ न कुछ रच देती हैं कि पूरा समाज देखता है। यह न केवल प्रशंसनीय बल्कि अनुकरणीय समाचार है कि बस्तर के धुर माओवाद प्रभावित क्षेत्र में स्त्रियां खुद सडक़ बना रही हैं। सरकार अपनी टैक्स की पूरी कमाई और सत्ता की चौधराहट अपने पास रख ले, माओवादी अपनी बंदूकें-गोलियां-बारूद भावी क्रांति व अज्ञात खुशनुमा भविष्य के लिए बचाए रखें, महिलाओं को तो सडक़ चाहिए। आप नहीं बनाएंगे या आप नहीं बनने देंगे, तो वो खुद मिलकर बना लेंगी। दंतेवाड़ा जिला मुख्यालय से १० किलोमीटर दूर गदापाल गांव स्त्री शक्ति की ऐतिहासिक भूमि बन गया है। करीब तीन दशक से यह क्षेत्र पूरी तरह से उपेक्षित है। जरूरी सडक़ें भी नहीं बनी हैं। सडक़ का टेंडर हुआ, लेकिन ठेकेदार ने काम नहीं लिया। मजबूर होकर महिलाओं ने संगठन बनाया और हाथों में उठा लिया कुदाल, फावड़ा, गैती, टंगिया, तगाड़ी और जुट गईं सडक़ बनाने में। विकास का यह तरीका ही सच्चा भारतीय तरीका है। विशेष रूप से जो देश के पिछड़े और वंचित इलाके हैं, वहां रहने वाले लोगों को यही तरीका आजमाना चाहिए। उन्हें अब इस मुगालते में नहीं रहना चाहिए कि कोई व्यक्ति उनके विकास की खातिर अवतार लेगा!
महात्मा गांधी ने तो आजादी की लड़ाई के दौरान ही इस देश के आम लोगों से कह दिया था, ‘सरकार के भरोसे मत रहना। सरकार के भरोसे रहोगे, तो विकास नहीं होगा।’ राष्ट्रपिता की इस बात का लोगों ने ध्यान नहीं रखा, तो सरकारें आखिर क्यों इस बात पर जोर देतीं। संकटग्रस्त लोगों को स्वयं अपना रास्ता खोजना होगा। माओवाद की जो भी राजनीति-कूटनीति है, उसे विकास से ही जवाब दिया जा सकता है। विकास अगर सरकार अपने तंत्र द्वारा नहीं करवा पा रही है, तो लोगों का स्वयं आगे आना अपेक्षित और यथोचित है। तीन दशक से लोग सरकार के भरोसे ही तो बैठे थे, आगे भी बैठे रहते, बिना सडक़ के पशुवत जिंदगी जीते रहते। धन्य हैं गदापाल क्षेत्र की महिलाएं जिन्होंने नया इतिहास लिखने के लिए औजार उठा लिए हैं। 
अब एक अच्छी सरकार के लिए यह प्राथमिकता होनी चाहिए कि वह इन महिलाओं की हर संभव मदद करे, उनका मार्ग प्रशस्त करे। विकास का ऐसा बीड़ा उठाने वालों को पुरस्कार-प्रोत्साहन भी मिलना चाहिए, ताकि विकास का यह तरीका संकटग्रस्त इलाकों में कामयाब हो, इससे अंतत: राज्य और देश का ही भला है। जो ये महिलाएं कर रही हैं, वही असली संघर्ष है, वही सच्ची सेवा है, वही सच्चा जनजागरण है। उस इलाके में महिलाओं का साहस अब पुरुषों को भी प्रेरित कर रहा है। बेशक, साहस तो मांसपेशी की तरह होता है, जब आप उसे इस्तेमाल करते हैं, तब वह मजबूत होता है।