क्या उन पंचों-सरपंचों पर दंड नहीं लगना चाहिए, जिनके क्षेत्र में किसान जान दे रहे हैं?
श्रीकृष्ण ने देवशिल्पी विश्वकर्मा को आदेश दिया कि जाओ मेरे मित्र सुदामा के लिए ठीक मेरे महल जैसा भवन बना दो। आदेश पाकर विश्वकर्मा जी सुदामा के गांव वृंदापुरी पहुंचे। सुदामा की धर्मपत्नी वसुंधरा को उन्होंने सूचना दी कि मैं आपके लिए भवन बनाने आया हूं, तब वसुंधरा ने प्रश्न खड़ा कर दिया कि ‘केवल मेरा घर महल जैसा कैसे बनेगा। गांव में जिन लोगों ने हमें भिक्षा देकर सहयोग करके अभी तक जीवित रखा है, उन्हें कैसे भूल जाएं, अगर बने, तो उनके लिए भी महल बने।’
वसुंधरा की इच्छा पूरी हुई। खुशहाल हुआ, तो पूरा गांव हुआ।...लेकिन अब वैसे गांव कहां हैं? कहां हैं वो गांव, जहां कोई भूखे नहीं मरता था, जहां लोग रसोई का बचा हुआ भोजन गांव के बाहर किसी निश्चित पेड़ पर टांग दिया करते थे, ताकि रात के समय कोई भूखा अतिथि आए, तो उसे भटकना न पड़े। कभी हम दूर गांव के लोगों के लिए भी सोचते थे, लेकिन अब अपने गांव के लोगों के लिए भी हमने सोचना छोड़-सा दिया है, तभी तो देश में हर आधे घंटे में एक किसान जान दे रहा है और हम अफसोस जताकर काम चला रहे हैं। प्रधानमंत्री ने संसद में केवल इतना कहकर आश्वस्त करना चाहा था कि समस्या बहुत पुरानी है, हम समाधान के हर संभव प्रयास कर रहे हैं। इधर, उत्तरप्रदेश से किसान कर्ज माफी की लहर शुरू हुई, जो पूरे देश में फैल गई है। किसान दुखी-उद्वेलित हैं, आत्महत्या का सिलसिला टूट नहीं रहा। एक महीने से भी कम समय में अकेले छत्तीसगढ़ में १२ से ज्यादा किसान अपनी आर्थिक परेशानियों की वजह से आत्महत्या कर चुके हैं। कोई आश्चर्य नहीं, सरकार किसी भी आत्महत्या के लिए स्वयं को जिम्मेदार नहीं मानती, हमारे यहां यह बेशर्म परंपरा है। मंत्री, अधिकारी, सब हाथ झाडक़र मुंह फेर लेते हैं, लेकिन कोई पूछे तो सही कि कहां है पंचायत राज? क्या उन पंचों-सरपंचों पर दंड नहीं लगना चाहिए, जिनके क्षेत्र में किसान जान दे रहे हैं? हम शहरों में संवादहीनता का रोना रोते थकते नहीं, लेकिन हमारे गांवों को क्या हो गया है? ये कैसे गांव हैं, जहां ५०० से २००० की आबादी में भी पंचों-सरपंचों को नहीं पता चलता कि कौन किसान कितनी परेशानी में है? क्या गांवों में पंच-पंचायतें केवल ग्रामीण योजनाओं की मलाई की बंदरबांट के लिए चुनी गई हैं?
किसान आत्महत्या एक बड़ी समस्या है, लेकिन कहीं भी पंचायत चुनाव में यह मुद्दा नहीं बनता, आखिर क्यों? राजनेताओं को निशाना बनाने वाले, राजधानी घेरने वाले और राजपथ जाम करने वाले किसानों व किसान नेताओं के लिए भी यह चिंता का विषय होना चाहिए। गांवों की तमाम परेशानियों के लिए केवल राज्य और केन्द्र सरकार को नहीं कोसा जा सकता। गांव के लोग और परंपरागत ग्रामीण व्यवस्थाएं भी तो कुछ जिम्मेदारी उठाएं।
किसी गरीब सुदामा का महल भले न बने, लेकिन उसकी रोजी-रोटी तो चलती रहे। उसे आत्महत्या जैसे कदम उठाने की जरूरत तो न पड़े। किसानों को गांव के स्तर पर ही परस्पर मजबूत होना पड़ेगा। अपनी समस्याओं के समाधान के लिए किसान गांव से बाहर आएगा, तो तमाशा ही बनेगा। जैसे पिछले दिनों तमिलनाडु के किसान सीधे नई दिल्ली पहुंचकर सरकार व मीडिया का ध्यान खींचने के लिए दुखद अमानवीय तमाशे कर रहे थे। प्रकारांतर से वे यही जाहिर कर रहे थे कि उनके गांव मर चुके हैं, जहां उनकी कोई सुनवाई नहीं है, इसलिए वे दिल्ली को सुनाने आए हैं? दिल्ली, रायपुर, भोपाल को सुनाने की अपेक्षा ज्यादा जरूरी है कि अपने गांवों को सुनाया जाए, गांवों को जिंदा किया जाए। किसान कर्ज माफी को दवा न बनाया जाए, अगर कर्ज माफी दवा होगी, तो इसकी जरूरत हर छह महीने पर पड़ेगी। गांवों को मजबूत किए बिना किसान आत्महत्या की समस्या को खत्म नहीं किया जा सकता। छत्तीसगढ़ के गांव अगर इस उम्मीद में बैठे हैं कि रायपुर से आकर कोई मंत्री-अफसर उन्हें मजबूत करेगा, तो ये भी एक तरह का आत्मघात ही है। गांवों को ऐसे परंपरागत आत्मघात से बचना चाहिए। हां, ऐसे गांव भी हैं, जहां लोग परस्पर एक दूसरे की चिंता करते हैं, जहां आत्महत्या जैसी नौबत नहीं आती, ऐसे गांवों से आज सीखने की जरूरत है। ऐसे आदर्श गांवों का सम्मान होना चाहिए।
महात्मा गांधी ने कहा था, ‘केवल सरकार के भरोसे रहोगे, तो विकास नहीं होगा।’ तो सोचिए कि हम किसके भरोसे बैठे हैं?
श्रीकृष्ण ने देवशिल्पी विश्वकर्मा को आदेश दिया कि जाओ मेरे मित्र सुदामा के लिए ठीक मेरे महल जैसा भवन बना दो। आदेश पाकर विश्वकर्मा जी सुदामा के गांव वृंदापुरी पहुंचे। सुदामा की धर्मपत्नी वसुंधरा को उन्होंने सूचना दी कि मैं आपके लिए भवन बनाने आया हूं, तब वसुंधरा ने प्रश्न खड़ा कर दिया कि ‘केवल मेरा घर महल जैसा कैसे बनेगा। गांव में जिन लोगों ने हमें भिक्षा देकर सहयोग करके अभी तक जीवित रखा है, उन्हें कैसे भूल जाएं, अगर बने, तो उनके लिए भी महल बने।’
वसुंधरा की इच्छा पूरी हुई। खुशहाल हुआ, तो पूरा गांव हुआ।...लेकिन अब वैसे गांव कहां हैं? कहां हैं वो गांव, जहां कोई भूखे नहीं मरता था, जहां लोग रसोई का बचा हुआ भोजन गांव के बाहर किसी निश्चित पेड़ पर टांग दिया करते थे, ताकि रात के समय कोई भूखा अतिथि आए, तो उसे भटकना न पड़े। कभी हम दूर गांव के लोगों के लिए भी सोचते थे, लेकिन अब अपने गांव के लोगों के लिए भी हमने सोचना छोड़-सा दिया है, तभी तो देश में हर आधे घंटे में एक किसान जान दे रहा है और हम अफसोस जताकर काम चला रहे हैं। प्रधानमंत्री ने संसद में केवल इतना कहकर आश्वस्त करना चाहा था कि समस्या बहुत पुरानी है, हम समाधान के हर संभव प्रयास कर रहे हैं। इधर, उत्तरप्रदेश से किसान कर्ज माफी की लहर शुरू हुई, जो पूरे देश में फैल गई है। किसान दुखी-उद्वेलित हैं, आत्महत्या का सिलसिला टूट नहीं रहा। एक महीने से भी कम समय में अकेले छत्तीसगढ़ में १२ से ज्यादा किसान अपनी आर्थिक परेशानियों की वजह से आत्महत्या कर चुके हैं। कोई आश्चर्य नहीं, सरकार किसी भी आत्महत्या के लिए स्वयं को जिम्मेदार नहीं मानती, हमारे यहां यह बेशर्म परंपरा है। मंत्री, अधिकारी, सब हाथ झाडक़र मुंह फेर लेते हैं, लेकिन कोई पूछे तो सही कि कहां है पंचायत राज? क्या उन पंचों-सरपंचों पर दंड नहीं लगना चाहिए, जिनके क्षेत्र में किसान जान दे रहे हैं? हम शहरों में संवादहीनता का रोना रोते थकते नहीं, लेकिन हमारे गांवों को क्या हो गया है? ये कैसे गांव हैं, जहां ५०० से २००० की आबादी में भी पंचों-सरपंचों को नहीं पता चलता कि कौन किसान कितनी परेशानी में है? क्या गांवों में पंच-पंचायतें केवल ग्रामीण योजनाओं की मलाई की बंदरबांट के लिए चुनी गई हैं?
किसान आत्महत्या एक बड़ी समस्या है, लेकिन कहीं भी पंचायत चुनाव में यह मुद्दा नहीं बनता, आखिर क्यों? राजनेताओं को निशाना बनाने वाले, राजधानी घेरने वाले और राजपथ जाम करने वाले किसानों व किसान नेताओं के लिए भी यह चिंता का विषय होना चाहिए। गांवों की तमाम परेशानियों के लिए केवल राज्य और केन्द्र सरकार को नहीं कोसा जा सकता। गांव के लोग और परंपरागत ग्रामीण व्यवस्थाएं भी तो कुछ जिम्मेदारी उठाएं।
किसी गरीब सुदामा का महल भले न बने, लेकिन उसकी रोजी-रोटी तो चलती रहे। उसे आत्महत्या जैसे कदम उठाने की जरूरत तो न पड़े। किसानों को गांव के स्तर पर ही परस्पर मजबूत होना पड़ेगा। अपनी समस्याओं के समाधान के लिए किसान गांव से बाहर आएगा, तो तमाशा ही बनेगा। जैसे पिछले दिनों तमिलनाडु के किसान सीधे नई दिल्ली पहुंचकर सरकार व मीडिया का ध्यान खींचने के लिए दुखद अमानवीय तमाशे कर रहे थे। प्रकारांतर से वे यही जाहिर कर रहे थे कि उनके गांव मर चुके हैं, जहां उनकी कोई सुनवाई नहीं है, इसलिए वे दिल्ली को सुनाने आए हैं? दिल्ली, रायपुर, भोपाल को सुनाने की अपेक्षा ज्यादा जरूरी है कि अपने गांवों को सुनाया जाए, गांवों को जिंदा किया जाए। किसान कर्ज माफी को दवा न बनाया जाए, अगर कर्ज माफी दवा होगी, तो इसकी जरूरत हर छह महीने पर पड़ेगी। गांवों को मजबूत किए बिना किसान आत्महत्या की समस्या को खत्म नहीं किया जा सकता। छत्तीसगढ़ के गांव अगर इस उम्मीद में बैठे हैं कि रायपुर से आकर कोई मंत्री-अफसर उन्हें मजबूत करेगा, तो ये भी एक तरह का आत्मघात ही है। गांवों को ऐसे परंपरागत आत्मघात से बचना चाहिए। हां, ऐसे गांव भी हैं, जहां लोग परस्पर एक दूसरे की चिंता करते हैं, जहां आत्महत्या जैसी नौबत नहीं आती, ऐसे गांवों से आज सीखने की जरूरत है। ऐसे आदर्श गांवों का सम्मान होना चाहिए।
महात्मा गांधी ने कहा था, ‘केवल सरकार के भरोसे रहोगे, तो विकास नहीं होगा।’ तो सोचिए कि हम किसके भरोसे बैठे हैं?