अमिताभ बच्चन के बारे में एक बार नसीरुद्दीन शाह ने कह दिया था कि ‘उन्होंने तो कोई ग्रेट फिल्म नहीं बनाई, शोले को मैं ग्रेट फिल्म नहीं मानता।’
अब नसीर ने कहा है कि राजेश खन्ना के साथ फिल्मों में मीडियोक्रेटी की शुरुआत हुई यानी राजेश खन्ना फिल्मों में अभिनय या कला को दोयम दर्जे पर ले आए। क्या यह सही है ?
नसीर ने ऐसा क्यों कहा ?
शायद यह अभिनय सीखे होने की श्रेष्ठता का बोध है, जो नसीर को लोकप्रिय अभिनेताओं के प्रति उकसाता रहा है। नसीरुद्दीन शाह नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा से अभिनय पढ़-सीखकर निकले हैं। एनएसडी १९७३ बैच में उनके ही साथ ओम पुरी, भानु भारती और बंसी कौल जैसे नाट्य निर्देशक भी पढक़र निकले थे। एनएसडी में पढऩे का सौभाग्य न तो राजेश खन्ना को मिला था और न अमिताभ बच्चन को मिला। फिर भी दोनों अपने-अपने समय में सुपर स्टार रहे। राजेश खन्ना ने लगातार १६ सुपर हिट फिल्में दीं। ७३ की उम्र में भी अमिताभ का जादू ढला नहीं है। सुपर स्टार होने की सफलता किसी के लिए भी ईष्र्या का कारण हो सकती है।
बहरहाल नसीर ने एक बहस छेड़ दी है कि क्या राजेश खन्ना मीडियोकर थे। क्या राजेश खन्ना की कला उपस्थिति को ऐसे नकारा या कमतर किया जा सकता है ?
राजेश खन्ना की कला की ओर उंगली उठाने वाले नसीर यह भूल गए कि राजेश खन्ना को सफलता कोई थाली में परोसकर नहीं दी गई थी। वे टेलेंट हंट प्रतियोगिता में जीतकर फिल्मों में आए थे, उनका चयन तब के बड़े-बड़े निर्माता-निर्देशकों ने किया था। विनोद मेहरा उस प्रतियोगिता में दूसरे स्थान पर रहे थे और बताया जाता है कि अमिताभ बच्चन तो शुरू में ही बाहर हो गए थे। उस दौर में टेलेंट हंट जीतना कोई आसान काम नहीं था।
उन्हें अच्छी फिल्में मिलीं और उन्होंने अच्छा काम किया, दर्शकों का मनोरंजन किया, उन्हें रुलाया-हंसाया-गुदगुदाया। राजेश खन्ना ने हर वह काम किया, जिसकी उम्मीद एक अभिनेता से की जाती है। वे आज दुनिया में नहीं हैं, लेकिन अपने पीछे एक विरासत छोड़ गए हैं। जिस अभिनेता ने रुपहले परदे पर अपने अभिनय से प्रेम-रोमांस को एक नई ऊंचाई दी, जिस अभिनेता ने हर तरह की भूमिका को स्वीकार किया, जिस अभिनेता ने यादगार चरित्रों के ढेर लगा दिए, जिस अभिनेता ने लाखों लोगों को अपना दीवाना बना दिया, जिस अभिनेता ने फिल्मी दुनिया से जुड़े सैकड़ों लोगों को मालामाल कर दिया, जिस अभिनेता ने फिल्म उद्योग के आकार को विस्तार दिया, जिस अभिनेता ने अनेक अन्य अभिनेताओं, युवाओं को प्रेरित-उद्वेलित किया, क्या वह दोयम दर्जे का मान लिया जाए ?
नसीर किससे लडऩा चाहते हैं? नसीर क्या केवल अपनी ओर ध्यान आकर्षित करना चाहते हैं? क्या यह टिप्पणी जरूरी थी? इकहरे कलात्मक नजरों से देखते हुए लोकप्रिय राजेश खन्ना को क्या दोयम दर्जे का प्रवर्तक मान लिया जाए? क्या राजेश खन्ना से पहले हिन्दी सिनेमा में सबकुछ आला दर्जे का था? दोयम दर्जे का कुछ न था?
मोटे तौर पर यह कहने में कोई हिचक नहीं कि जहां शंकर-जयकिशन और खेमचंद्र प्रकाश खड़े हुए, वहां हिन्दी सिनेमा में गीत-संगीत की वास्तविक शुरुआत हुई और जहां दिलीप कुमार खड़े हुए, वहां अभिनय का आगाज हुआ और जहां राजेश खन्ना खड़े हुए वहां हिन्दी सिनेमा में बॉक्स ऑफिस से उपजे सुपर स्टारडम की शुरुआत हुई। सुपर स्टारडम कोई ऐसी चीज नहीं है, जिसे आप चॉकलेटी चेहरे, चंद अच्छे गीत-दृश्य, उम्दा कहानी के जरिये पा जाएं। इसके लिए पूरा पैकेज होता है, जो आपकी छवि को रुपहले परदे पर उभारकर मिथक या आदर्श बना देता है। बेशक, राजेश खन्ना हिन्दी सिनेमा के एक आदर्श हैं।
अब अभिनय की बात
हम मनुष्यों के आधे चेहरे बंजर होते हैं, तो आधे उर्वर। उर्वर चेहरों में भी कुछ बहुत उर्वर होते हैं। जैसे मिट्टी भिन्न-भिन्न प्रकार की होती है, कहीं चावल ज्यादा, तो कहीं बाजरा, तो कहीं केवल केक्टस। राजेश खन्ना के चेहरे की उर्वरा की तुलना अगर नसीर अपने चेहरे की उर्वरा से करना चाहते हैं, तो यह संभव तो है, लेकिन अनुचित है। दोनों के चेहरों की अपनी सीमाएं हैं ? स्वाभाविक है, राजेश कभी नसीर नहीं हो सकते, तो नसीर कभी राजेश नहीं हो पाएंगे।
जैसे अभिनय मोटे तौर पर दो प्रकार का होता है - ठीक उसी तरह से अभिनेता भी दो प्रकार के होते हैं, लोकधर्मी और शास्त्रधर्मी। राजेश खन्ना लोकधर्मिता के निकट हैं, तो नसीर शास्त्रधर्मिता के निकट।
नसीर इस बात को अच्छी तरह जानते होंगे कि जब वे एनएसडी में पढ़ते थे, तब उन्हें भरत मुनि का नाट्य शास्त्र नहीं पढ़ाया गया। तब भारत में भी अभिनय के गॉड फादर स्टानिस्लावस्की ही थे। नसीर जिस तरह का अभिनय करते हैं, वह स्टानिस्लावस्की की शैली के करीब है। किरदार में डूब जाओ। जिसे स्टानिस्लावस्की मैथड एक्टिंग कहते हैं, उसे भारतीय नाट्य शास्त्र में भरत मुनि ने पद्धतिबद्ध अभिनय कहा था। दिलीप कुमार, मोतीलाल, बलराज साहनी मैथड एक्टिंग के ही बड़े खिलाड़ी रहे। दिलीप कुमार की खास बात यह रही कि उन्होंने अभिनय की पढ़ाई नहीं की थी, लेकिन अशोक कुमार से गुरु ज्ञान जरूर लिया और फिर अपनी एक शैली विकसित की, जो ९० फीसद से ज्यादा मैथड एक्टिंग है। मैथड एक्टिंग मतलब - ऐसा अभिनय, जिसमें लगे नहीं कि अभिनय किया जा रहा है। अभिनय का खुलासा न हो और सबकुछ स्वाभाविक लगे, मानो सामने घटित हो रहा हो।
मूलत: नसीर भी इसी श्रेणी के अभिनेता हैं। हालांकि उन्होंने भी कई दफा दोयम दर्जे का काम किया है, यह बात वे स्वयं भी जानते होंगे। नसीर को रोमांस नहीं जमता, लेकिन राजेश खन्ना को खूब जमता है। राजेश खन्ना की अनेक फिल्में हैं, जिनमें उनका अभिनय ऊंचाइयों पर नजर आता है। दो रास्ते, आनंद, आराधना, आविष्कार, अमर प्रेम, रोटी, सच्चा झूठा, हाथी मेरे साथी इत्यादि फिल्में खास यादगार हैं।
राजेश खन्ना का अभिनय
आंगिक, वाचिक, सात्विक और आहार्य, ये जो चार प्रकार के अभिनय भारतीय नाट्य शास्त्र ने बताए हैं, उसके आधार पर राजेश खन्ना को देखना रोचक होगा। उनका आंगिक अभिनय उनकी रोमांटिक छवि के अनुकूल था, खास प्रकार से हाथ हिलाना, सिर मोडऩा, मुडऩा, चलना, रुकना इत्यादि। चरित्र की जरूरत के हिसाब से उन्होंने अंग संचालन किया। वाचिक अभिनय की उनकी अपनी शैली है, वे किसी की नकल नहीं करते, उनके अपने शब्द होते थे, उनकी फिल्मों के डायलाग भी खूब बिकते थे। सात्विक अभिनय तो राजेश खन्ना के अंदर से स्वाभाविक रूप से आता है, जिसका जादू परदे पर सबसे ज्यादा चलता है। चेहरा बोल रहा है कि यह भला आदमी है, यह भला करेगा, भलाई के पक्ष में लड़ेगा। इस मामले में तुलना नसीर से करें, तो नसीर खलनायिकी में भी स्वाभाविक जमते हैं, जबकि राजेश खन्ना को कोई खलनायक मानने को तैयार नहीं होगा। जैसे हर चेहरे की अपनी उर्वरा होती है, ठीक उसी तरह से हर चेहरे की अपनी व्यंजना भी होती है। बिना बोले चेहरा कुछ न कुछ बोलता जरूर है। कोई चेहरा प्रथम दृष्ट्या स्वाभाविक रूप से अच्छाई का अहसास कराता है, तो कोई चेहरा बुराई का।
अभिनेता के रूप में नसीर की लोकप्रियता निस्संदेह बहुत ज्यादा है, लगभग हर अच्छा या सामान्य दर्शक उन्हें जानता है, लेकिन उनके अंदर लोकप्रिय सिनेमा के प्रति खीज क्यों हैï? लोकप्रिय सिनेमा ने उन्हें भी तो सबकुछ दिया है। ‘पार’ जैसी शानदार फिल्म नसीर को कलात्मक खुशी तो दे सकती है, लेकिन उनका घर नहीं चला सकती और कम से कम सिनेमा हॉल तक नहीं पहुंचा सकती। कलात्मक फिल्में भी खूब बन रही हैं, उनमें दोयम दर्जे की कला-कलाकार भी खूब हैं, जिनका सिनेमा हॉल तक पहुंचना असंभव है। कौन अभिनेता नहीं चाहता कि वह अधिकतम दर्शकों तक पहुंचे? ऐसा कतई नहीं है कि कला-कला चिल्लाने वाले सभी उम्दा अभिनेता हैं।
एनएसडी से कब निकलेगा सुपर स्टार ?
नसीर को सिखाने वाला संस्थान एनएसडी अभिनय या कला की समझ तो पैदा कर सकता है, लेकिन सफलता नहीं पैदा कर सकता। सरकारी धन से चल रहे एनएसडी से निकलने वाले सुपर स्टार का अभी इंतजार है। यह एनएसडी को चिढ़ाने वाली बात हो सकती है, लेकिन वहां पढऩे वालों को इससे गंभीरतापूर्वक गुजरना चाहिए। अगर आप एक महान लोकप्रियता को ललकार रहे हैं, तो फिर झेलिए ये सवाल कि आप क्यों महान लोकप्रिय नहीं हो गए। लोकप्रियता और कला में चोली-दामन का साथ क्यों न हो? लोकप्रियता के प्रति यदि बैर भाव एनएसडी में पैदा हो, तो यह ठीक नहीं है। सरकार तो कला क्षेत्र के साथ गड़बड़ कर ही रही है, वहां बैठे लोग कला क्षेत्र को भटकाने का ही काम करते हैं। जनता के पैसे से सरकार चलती है, लेकिन जनता के बीच लोकप्रिय रहे दिलीप कुमार, देव आनंद, राज कपूर, राजेश खन्ना को सरकार ने कभी अभिनय के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार नहीं दिए। इस लीक को अमिताभ बच्चन ही तोड़ पाए, क्योंकि वे राजनीतिक व रणनीतिक रूप से ज्यादा नियोजित होकर चले।
नसीर को खुश होना चाहिए कि उन्हें दो से ज्यादा बार अभिनय के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार मिला, राजेश खन्ना को एक भी नहीं मिला, लेकिन इसका मतलब कतई यह नहीं कि राजेश खन्ना दोयम दर्जे के थे।
आज यह जरूरी हो गया कि परस्पर चिढऩा-कुढऩा छोड़ा जाए और कला पूरी ईमानदारी से लोकप्रियता को समझे और लोकप्रियता भी कला को पूरा सम्मान दे। सरकार तो भेद करती है, कम से कम नसीरुद्दीन शाह जैसे उम्दा कलाकार तो भेद न करें।