देश के पूंजीपति और नेता बिहार को मजदूरों का बाड़ा बनाकर ही रखना चाहते हैं। फिर हत्याओं का दौर शुरू होता लग रहा है। लालू यादव की राजनीतिक शक्ति का समय और राजनीतिक कमजोरी के समय की तुलना की जा सकती है। करनी ही चाहिए। कहां हैं, वो लोग, जो चाहते थे कि देश में नरेन्द्र मोदी की जीत का बदला बिहारवासी ले लें। एक पत्रकार मारा गया है, सब चुप हैं। चुनाव के समय बिहार के हितैषियों की बाढ़ आ गई थी, अब यही लोग देर-सबेर जंगलराज की चर्चा शुरू करेंगे।
हम देश के सबसे पिछड़े राज्य को राजनीति का शिकार बनाना चाहते हैं, जो कि वह होता रहा है और अभी भी हो रहा है। बिहार से सबको सस्ते श्रमिक चाहिए। वहां गलियों में खून बहेगा, तभी तो श्रमिकों का बिहार से ओवर-फ्लो होगा। जंगलराज की वापसी के संकेत तो उसी दिन मिल गए थे, जिस दिन आजीवन कारावास की सजा काट रहे सीवान के पूर्व सांसद को लालू ने पार्टी में बड़ा पदाधिकारी बनाया। जेल में रहकर कोई पार्टी की कितनी और कैसी सेवा कर सकता है, यह लालू से बेहतर कौन जान सकता है।
गया था अभी दस दिन पहले सीवान - आजीवन सजा काट रहे पूर्व सांसद की फोटो पोस्टर पर लगने-टंगने लगी है। लालू जी आ गए हैं, उनके साथ फुल पैकेज भी आ गया है। उसकी झलक हर जगह दिखने लगी है, परिवारवाद से लेकर गुंडागर्दी तक। नीतीश की जो चमक २००५ से २००७ तक थी, वह झड़ चुकी है। लालू के साथ मिलकर उन्होंने अपनी सत्ता को तो बचा लिया है, लेकिन बिहार को कितना बचा पाएंगे, यह सवाल पैदा हो गया है।
कहते हैं, बिहारी बड़े भावुक होते हैं, आवेश में आ जाते हैं, लेकिन क्या फायदा? बिहार आज कहां खड़ा है? मैंने इस बार कई लोग से चर्चा की और पाया कि माहौल उद्यमशीलता का नहीं, लूट का है। समाज के एक बड़े हिस्से को उद्यमी नहीं, बल्कि लूट के लिए प्रेरित किया जा रहा है। अगर आप हाथ आई मुफ्त सरकारी-गैर-सरकारी चीज को लूट नहीं रहे हैं, तो आप मूर्ख हैं। हर योजना-नीति-कानून-सुविधा का अपने हित में फायदा लेने का जुगाड़ करना यानी अपने को बिहार के अनुकूल बनाना। १५-१६ साल से सुशासन अगर चल रहा है, तो क्या सरकारी लोग वेतन समय पर पाने लगे हैं? सभी आश्वस्त हैं कि सरकार से पैसा आएगा, लेकिन हम सरकार को क्या देंगे, यह कोई नहीं सोच रहा। जब राज्य को देने के बारे में राज्य के बड़े-बड़े नेताओं ने ही नहीं सोचा, तो फिर ये चर्चा बेकार है। आजादी मिलने के १२-१४ साल तक बिहार देश के अगले राज्यों में था, लेकिन क्या हुआ? कांग्रेस हाईकमान की चापलूसी में कीर्तिमान रचने वाले मिश्राओं और झाओं ने जो दिशाहीन-गरीब बिहार बनाया, उसमें लालू ने क्या जोड़ा? नीतीश कितना जोड़ पाए? अगर वाकई जोड़ पाते, तो राजनीति-सत्ता में टिके रहने के लिए विकास की खाली झोली वाले लालू की जरूरत नहीं पड़ती। हालांकि अगर आप बिहार में ये सवाल पूछिएगा, तो आपको भाजपा का एजेंट बता दिया जाएगा।
राजनीति अंदर तक घुसकर तबाह कर रही है। आपके दिमाग में राजनीति नहीं है, आप बिहार के हित की सोच-बोल रहे हैं, लेकिन लोग फिर भी आप से आपकी राजनीति और पार्टी पूछेंगे। बिहार के गांव-गांव में पंचायत चुनाव में जिस तरह से पैसे और बल का प्रभाव दिखा है, उससे कतई आशा नहीं जगती। शराबबंदी हुई है, बड़ी अच्छी बात है, लेकिन जहां नीचे तक व्यवस्था भ्रष्ट हो, वहां शराब के अवैध कारोबार को कैसे रोका जा सकता है? नीतीश से सबसे बड़ी उम्मीद यही थी कि वे व्यवस्था को ईमानदारी के लिए प्रेरित करेंगे, लेकिन वे नहीं कर पाए हैं। अब तो उनके लिए राह और कठिन है, लालू सत्ताधारी गठबंधन के पितामह हैं और उनके दोनों बेटे अपने मुंहबोले चाचा (नीतीश कुमार) के पीछे लग गए हैं। ये टीम अच्छा काम करे, तो बिहार का कायाकल्प कर सकती है, लेकिन इस टीम में किसको किस काम का अनुभव है, इसे कैसे भुला दिया जाए?
बिहार की मिट्टी तो रो रही है। नीतीश कुमार थोड़ा-बहुत सुन लेते हैं। लालू जी को भी सुनना चाहिए। इस बार कोई गलतफहमी नहीं पालनी चाहिए। वे न भूलें कि उनकी बदनामी में बिहार की बदनामी भी शामिल है। वो था अंधकार का युग, सोशल और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया उतना मजबूत नहीं था, आज स्थितियां बदल चुकी हैं। होगा वो दौर, जब माननीयों की छत्रछाया में गुंडे जागते थे। इस बार डरकर नहीं सोएंगे बिहारी, क्योंकि बिहार को जंगल के शेर नहीं, अच्छे नेता चाहिए।
हम देश के सबसे पिछड़े राज्य को राजनीति का शिकार बनाना चाहते हैं, जो कि वह होता रहा है और अभी भी हो रहा है। बिहार से सबको सस्ते श्रमिक चाहिए। वहां गलियों में खून बहेगा, तभी तो श्रमिकों का बिहार से ओवर-फ्लो होगा। जंगलराज की वापसी के संकेत तो उसी दिन मिल गए थे, जिस दिन आजीवन कारावास की सजा काट रहे सीवान के पूर्व सांसद को लालू ने पार्टी में बड़ा पदाधिकारी बनाया। जेल में रहकर कोई पार्टी की कितनी और कैसी सेवा कर सकता है, यह लालू से बेहतर कौन जान सकता है।
गया था अभी दस दिन पहले सीवान - आजीवन सजा काट रहे पूर्व सांसद की फोटो पोस्टर पर लगने-टंगने लगी है। लालू जी आ गए हैं, उनके साथ फुल पैकेज भी आ गया है। उसकी झलक हर जगह दिखने लगी है, परिवारवाद से लेकर गुंडागर्दी तक। नीतीश की जो चमक २००५ से २००७ तक थी, वह झड़ चुकी है। लालू के साथ मिलकर उन्होंने अपनी सत्ता को तो बचा लिया है, लेकिन बिहार को कितना बचा पाएंगे, यह सवाल पैदा हो गया है।
कहते हैं, बिहारी बड़े भावुक होते हैं, आवेश में आ जाते हैं, लेकिन क्या फायदा? बिहार आज कहां खड़ा है? मैंने इस बार कई लोग से चर्चा की और पाया कि माहौल उद्यमशीलता का नहीं, लूट का है। समाज के एक बड़े हिस्से को उद्यमी नहीं, बल्कि लूट के लिए प्रेरित किया जा रहा है। अगर आप हाथ आई मुफ्त सरकारी-गैर-सरकारी चीज को लूट नहीं रहे हैं, तो आप मूर्ख हैं। हर योजना-नीति-कानून-सुविधा का अपने हित में फायदा लेने का जुगाड़ करना यानी अपने को बिहार के अनुकूल बनाना। १५-१६ साल से सुशासन अगर चल रहा है, तो क्या सरकारी लोग वेतन समय पर पाने लगे हैं? सभी आश्वस्त हैं कि सरकार से पैसा आएगा, लेकिन हम सरकार को क्या देंगे, यह कोई नहीं सोच रहा। जब राज्य को देने के बारे में राज्य के बड़े-बड़े नेताओं ने ही नहीं सोचा, तो फिर ये चर्चा बेकार है। आजादी मिलने के १२-१४ साल तक बिहार देश के अगले राज्यों में था, लेकिन क्या हुआ? कांग्रेस हाईकमान की चापलूसी में कीर्तिमान रचने वाले मिश्राओं और झाओं ने जो दिशाहीन-गरीब बिहार बनाया, उसमें लालू ने क्या जोड़ा? नीतीश कितना जोड़ पाए? अगर वाकई जोड़ पाते, तो राजनीति-सत्ता में टिके रहने के लिए विकास की खाली झोली वाले लालू की जरूरत नहीं पड़ती। हालांकि अगर आप बिहार में ये सवाल पूछिएगा, तो आपको भाजपा का एजेंट बता दिया जाएगा।
राजनीति अंदर तक घुसकर तबाह कर रही है। आपके दिमाग में राजनीति नहीं है, आप बिहार के हित की सोच-बोल रहे हैं, लेकिन लोग फिर भी आप से आपकी राजनीति और पार्टी पूछेंगे। बिहार के गांव-गांव में पंचायत चुनाव में जिस तरह से पैसे और बल का प्रभाव दिखा है, उससे कतई आशा नहीं जगती। शराबबंदी हुई है, बड़ी अच्छी बात है, लेकिन जहां नीचे तक व्यवस्था भ्रष्ट हो, वहां शराब के अवैध कारोबार को कैसे रोका जा सकता है? नीतीश से सबसे बड़ी उम्मीद यही थी कि वे व्यवस्था को ईमानदारी के लिए प्रेरित करेंगे, लेकिन वे नहीं कर पाए हैं। अब तो उनके लिए राह और कठिन है, लालू सत्ताधारी गठबंधन के पितामह हैं और उनके दोनों बेटे अपने मुंहबोले चाचा (नीतीश कुमार) के पीछे लग गए हैं। ये टीम अच्छा काम करे, तो बिहार का कायाकल्प कर सकती है, लेकिन इस टीम में किसको किस काम का अनुभव है, इसे कैसे भुला दिया जाए?
बिहार की मिट्टी तो रो रही है। नीतीश कुमार थोड़ा-बहुत सुन लेते हैं। लालू जी को भी सुनना चाहिए। इस बार कोई गलतफहमी नहीं पालनी चाहिए। वे न भूलें कि उनकी बदनामी में बिहार की बदनामी भी शामिल है। वो था अंधकार का युग, सोशल और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया उतना मजबूत नहीं था, आज स्थितियां बदल चुकी हैं। होगा वो दौर, जब माननीयों की छत्रछाया में गुंडे जागते थे। इस बार डरकर नहीं सोएंगे बिहारी, क्योंकि बिहार को जंगल के शेर नहीं, अच्छे नेता चाहिए।