Friday, 30 December 2016

Thursday, 27 October 2016

हम बच्चों को अमन चाहिए

(अपने बेटे चैतन्य की जिद पर वर्तमान स्थिति पर विगत दिनों लिखी एक बाल कविता)


प्यारी ठंडी पवन चाहिए
हम बच्चों को अमन चाहिए

ना कोई भी दमन चाहिए
सारे दुख का शमन चाहिए 
एक ऐसा हमें देश चाहिए
खूब पढ़ाई, प्यार चाहिए

प्यारी, ठंडी पवन चाहिए
हम बच्चों को अमन चाहिए

मार काट अब तुम छोड़ो तो
क्या पाया है, बहुत लड़े तो
हम बच्चों की बात सुनो तो
थोड़ा तुम इंसान बनो तो

प्यारी, ठंडी पवन चाहिए
हम बच्चों को अमन चाहिए

हम बच्चों की यही तमन्ना 
एक दिन जग सच्चों का होगा
उस दिन जग अच्छों का होगा
वो दिन हम बच्चों का होगा

प्यारी ठंडी पवन चाहिए
हम बच्चों को अमन चाहिए

Food day Package


मेरे लिए जुनून जरूरी है : मेहरा

‘रंग दे बसंती’, ‘भाग मिल्खा भाग’ जैसी शानदार फिल्में बनाने वाले फिल्मकार राकेश ओमप्रकाश मेहरा की नई फिल्म ‘मिर्जया’ रीलिज होने वाली है। इस फिल्म की ज्यादातर शूटिंग जोधपुर और राजस्थान में हुई है। मेहरा एक अलहदा निर्देशक हैं, फिल्म कहने-दिखाने का उनका अंदाज निराला है। पेश है पिछले दिनों उनसे ज्ञानेश उपाध्याय द्वारा लिया गया टेलीफोनिक इंटरव्यू...  

पत्रिका : एक ऐसी प्रेम कहानी पर आपने फिल्म ‘मिर्जया’ बनाई है, जिसमें प्रेमी-प्रेमिका एक ही मां का दूध पीकर बड़े हुए? आपको नहीं लगता कि आज के समय में ऐसे विषय पर फिल्म बनाना बड़े साहस या दुस्साहस का काम है?  
मेहरा : यह एक कहानी है। हर कहानी का अपना सच होता है। कोई कहानी कहता है, तो उसके अंदर जो आग जल रही है, वह धुंआ बनकर निकलती है और निकलनी ही चाहिए। साहस और दु:साहस तो दुनिया में कोई भी अच्छा-नया काम करने के लिए जरूरी है।

पत्रिका : आपकी फिल्म ‘रंग दे बसंती’ का भी अंत बलिदान या दुख के साथ हुआ था और ‘मिर्जया’ का अंत भी बलिदान या दुख के साथ हो रहा है? क्या ये आपको अच्छा लगता है?
मेहरा : अच्छे या बुरे की बात नहीं है। हालांकि यहां केवल बलिदान या दुख ही नहीं है। कहानी पर निर्भर करता है, जो भी गाथाएं हैं, जो प्रेम कहानियां हैं - हीर रांझा, लैला मजनूं इत्यादि, कोई चीझ हमें तभी अपील करती है, जब उसमें बलिदान का जज्बा हो। उसमें सच्चाई, मासूमियत होती है, तभी बात अमर होती है।

पत्रिका : क्या जुनूनी या सनक वाले या भ्रम के शिकार चरित्र आपको ज्यादा अच्छे लगते हैं ?
मेहरा : अच्छे ही नहीं, मुझे समझ ही वे आते हैं। आप कोई भी काम करें, उसमें अगर जुनून न हो, तो शायद वह काम फीका पड़ जाता है। कोई पोस्टमैन का काम हो या स्टूडेंट हो या मां हो, देखिए, मां में कितना जुनून होता है बच्चे को लेकर। मेरे लिए जुनून जरूरी है।

पत्रिका : फिल्म ‘मिर्जया’ इतिहास के कितने करीब है? इस लोकगाथा में आपने कितना बदलाव किया है? 
मेहरा : यह नाटक मैंने दिल्ली में अपने कॉलेज के जमाने में देखा था। आखिर साहिबा ने मिर्जया के तीर क्यों तोड़े, यह बात कहीं न कहीं मेरे जेहन में रह गई। मैंने ३५ साल बाद गुलजार भाई से संदेश भेजकर पूछा कि क्या है ये? मैंने उन्हें यह नहीं कहा कि कोई कहानी लेकर आ रहा हूं। उन्होंने कहा कि आ जाओ। वे मेरे पड़ोसी हैं। चाय पर मैंने उनसे पूछा, साहिबा ने तीर क्यों तोड़े? उन्होंने कहा, बच्चू, (वे मुझे बच्चू ही कहते हैं) तुम यह तो साहिबा से ही जाकर पूछो। मैंने कहा, कब से ढूंढ़ रहा हूं, साहिबा मिल नहीं रही है। तो उन्होंने कहा, चलो हाथ पकडक़र चलते हैं साहिबा को ढूंढ़ते हैं। जब मिल जाएंगी, तो उन्हीं से पूछ लेंगे। तो ऐसे फिल्म समझने, लिखने का काम आगे बढ़ा। 
गुलजार भाई से पूछा कि क्या हम आज के जमाने की मिर्जा-साहिबा को खोज सकते हैं। उन्होंने कहा, बिल्कुल खोज सकते हैं। यह जज्बा ही ऐसा है, इस दुनिया में जिंदगी की रफ्तार कितनी भी तेज हो जाए, दिल तो उसी रफ्तार से धडक़ता है, जैसे वह धडक़ता आया है। हमने आज के जमाने में मिर्जया-साहिबा खोजने की कोशिश की, खोज राजस्थान आकर पूरी हुई। 

पत्रिका : पंजाब और पाकिस्तान की पृष्ठभूमि वाली कहानी को राजस्थान से क्यों जोड़ा गया है? 
मेहरा : यह आज की कहानी है, यह कहानी आपको रूस में भी मिल सकती है, यह तो प्यार है, हर जगह है। यह जात-पात-क्षेत्र से ऊपर है। यह चरित्र हम आज के जमाने में डाल दें, तो क्या होगा? हमारे नायक का नाम आदिल है, साहिबा का नाम सुचित्रा है? राजस्थान में लोहार, बंजारे हैं, अन्य ऐसे अनेक समूह हैं, राजस्थान इस बात के लिए मशहूर है - कथाओं, लोकगाथाओं, ढोला मारू, महाराणा प्रताप इत्यादि। मिर्जया-साहिबा लोक कथा की गूंज आज के राजस्थान से आकर जुड़ती है। आज के यूथ को जोडऩा जरूरी है, हम उन्हें कोई पीरियड फिल्म दिखाएं, तो युवा उतना उससे नहीं जुड़ेगा। मैंने कहानी को इसलिए न पंजाब में रखा न पाकिस्तान में। फिल्म राजस्थान में भी है, लद्दाख में भी। इसमें लोक कथा को साइलेंट रखा गया है। 

पत्रिका : आपके यहां सब्जेक्ट, क्राफ्ट और नेरेशन की विविधता है, लेकिन एक बड़ा सवाल यह है कि आप सिनेमा किसके लिए बनाते हैं? 
मेहरा : सिनेमा कहानी कहने का आधुनिक तरीका है। पहले जो लोग ट्रेवल करते थे, कथा सुनाते थे, गाकर सुनाते थे। फिर किताबें आईं, आज का जमाना सिनेमा का है। हम कर वही रहे हैं, जो हजार साल पहले करते थे, कहानियां सुनाना। मैं वही कहानियां सुनाता हूं, जो मेरे अंदर से आती हैं, जिन्होंने मुझे अंदर से हिलाया-झिंझोड़ा है। अंदर से भावना आती है कि मुझे बोलना ही पड़ेगा। हम दुखों से हार नहीं मान सकते। हम चुप बैठ नहीं सकते। फिल्म तभी बनती है, जब फिल्मकार कुछ बताना चाहता है। मैं ऐसी कहानी कहता हूं, जिसे पूरी दुनिया में लोग देख-सुन सकते हैं।

पत्रिका : पिछली फिल्मों की तरह ही आपने अपनी ताजा फिल्म में भी युवाओं पर भरोसा किया है, क्या आज के भारतीय युवाओं पर आपको पूरा भरोसा है? 
मेहरा : अपने से ज्यादा भरोसा मुझे युवाओं पर है। मुझे हमेशा लगता है कि युवा पीढ़ी का समाज बनाने में बड़ा योगदान है। युवाओं से मेरा सम्बंध ज्यादा मजबूत है। मैं उन्हें समझ पाता हूं और वे उससे भी ज्यादा मुझे समझ पाते हैं।  

Sunday, 25 September 2016

शहर को किसने डुबोया?

ज्ञानेश उपाध्याय
इतना पानी किसे चाहिए...डूबने को तो चुल्लू भर काफी है, लेकिन क्या शहर का कोई जवाबदेह चुल्लू भर पानी में खुद को डूबने लायक मानेगा? दिक्कत यही है कि हम अपनी कमी और गलती को जल्दी नहीं मानते। लगभग बीस साल बाद ऐसी झमाझम बारिश जोधपुर में हुई है। घंटों तक रुकने का नाम न लेने वाली बारिश ने बहुतों की पोल खोल कर रख दी है कि देख लो, ऊपर वाला देता है पानी, लेकिन रखने की हमारी औकात नहीं है? पानी रखने की औकात तो हमारे पूर्वज रखते थे, हम तो उस औकात की धज्जियां उड़ाकर बस जाम और जमाव का तमाशा देख रहे हैं। पानी की राह में हम कॉलोनियां बसा चुके हैं, तो जाहिर है सडक़ों को हम ने ही नाला बनने पर मजबूर किया है। जिस शहर को वाहन के जरिये एक छोर से दूसरी छोर तक लगभग एक घंटे में पार किया जा सकता है, उस शहर में लोग पांच-पांच घंटे जाम में फंसने के बाद किसी तरह से पानी से तरबतर घर पहुंचे हैं। लाखों बच्चों-परिजनों को हमने अनहोनी की चिंता में डाला है। सडक़ों पर कितने झगड़े हुए हैं, कितने नुकसान हुए हैं, आकलन आने वाले दिनों में होगा। 
लेकिन ऐसा क्यों हुआ? हमारे शासन-प्रशासन को जवाब देना चाहिए। दरअसल, ये अफसर पानी को साल में चार-पांच दिन की समस्या मानते हैं। ये सोचते हैं, ३६५ दिनों में से महज ५ दिन जोर की बारिश होगी, पानी जमा होगा, शहर में जाम लगेगा, जनजीवन अस्त-व्यस्त होगा, फिर पानी उतर जाएगा, तो स्थितियां अपने आप सामान्य हो जाएंगी। ऐसे में, पांच दिन के लिए नालियां क्यों बनाएं, जगह-जगह तालाब क्यों साफ रखें? कोशिश करके देख लीजिए, ऐसा सोचने वाले अफसरों के फोन अभी एक दो दिन व्यस्त या बंद मिलेंगे। मुंह चुराना भी एक मौसमी अदा है।
   आखिर कौन बना रहा है शहर में कंक्रीट की दीवारें? कौन नालों को पाट रहा है, रोक रहा है? निगम, जेडीए ही नहीं, सेना भी इस काम में शामिल है। सडक़ों के दोनों ओर दीवारें खड़ी हैं, सडक़ें नाला बनने को मजबूर हैं। सडक़ें नीचे हैं और कॉलोनियां ऊपर। मतलब साफ है सडक़ें ही आधुनिक नाला हैं, केवल घोषणा शेष है। शहर में ढोल पीटकर मुनादी करा देनी चाहिए कि खबरदार, बारिश होगी, तो सडक़ रूपी नालों में न निकलें। अगर आप बारिश में कहीं बाहर निकलते हैं, तो आप स्वयं अपनी जान की जिम्मेदारी लीजिए, निगम-निकाय और बड़े-बड़े इलाकों के बड़े-बड़े मालिक कतई जिम्मेदार नहीं होंगे? शहर की कहां-कहां की किस-किस सडक़ या हाईवे का नाम लें, आम आदमी या ‘सिविलियंस’ के लिए शायद ही कोई ऐसी सडक़ छोड़ी गई है, जिसे देखकर मूंछों पर ताव देने का मन करे। मूंछें गीली पड़ी हैं और सारी स्मार्टनेस कचरे के साथ सरेआम बहती दिख रही है। वाकई, शहर में तो खूब पानी बह रहा है, लेकिन थोड़ा आंखों में भी जिंदा हो जाए, तो बात बन जाएगी। मिलकर सब देंगे पानी को रास्ता और जगह, तो सडक़ें पानी की गुलामी से आजाद हो जाएंगी। बारिश की बड़ी-बड़ी बूंदें जोधपुर को ऐसा बहुत कुछ बोल गई हैं, लेकिन सुना कितना गया, समय बताएगा।
(राजस्थान पत्रिका जोधपुर में प्रकाशित टिप्पणी)

Monday, 1 August 2016

नसीर से नाराज नहीं, हैरान हूं मैं


अमिताभ बच्चन के बारे में एक बार नसीरुद्दीन शाह ने कह दिया था कि ‘उन्होंने तो कोई ग्रेट फिल्म नहीं बनाई, शोले को मैं ग्रेट फिल्म नहीं मानता।’ 
अब नसीर ने कहा है कि राजेश खन्ना के साथ फिल्मों में मीडियोक्रेटी की शुरुआत हुई यानी राजेश खन्ना फिल्मों में अभिनय या कला को दोयम दर्जे पर ले आए। क्या यह सही है ? 

नसीर ने ऐसा क्यों कहा ?

शायद यह अभिनय सीखे होने की श्रेष्ठता का बोध है, जो नसीर को लोकप्रिय अभिनेताओं के प्रति उकसाता रहा है। नसीरुद्दीन शाह नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा से अभिनय पढ़-सीखकर निकले हैं। एनएसडी १९७३ बैच में उनके ही साथ ओम पुरी, भानु भारती और बंसी कौल जैसे नाट्य निर्देशक भी पढक़र निकले थे। एनएसडी में पढऩे का सौभाग्य न तो राजेश खन्ना को मिला था और न अमिताभ बच्चन को मिला। फिर भी दोनों अपने-अपने समय में सुपर स्टार रहे। राजेश खन्ना ने लगातार १६ सुपर हिट फिल्में दीं। ७३ की उम्र में भी अमिताभ का जादू ढला नहीं है। सुपर स्टार होने की सफलता किसी के लिए भी ईष्र्या का कारण हो सकती है। 
बहरहाल नसीर ने एक बहस छेड़ दी है कि क्या राजेश खन्ना मीडियोकर थे। क्या राजेश खन्ना की कला उपस्थिति को ऐसे नकारा या कमतर किया जा सकता है ? 
राजेश खन्ना की कला की ओर उंगली उठाने वाले नसीर यह भूल गए कि राजेश खन्ना को सफलता कोई थाली में परोसकर नहीं दी गई थी। वे टेलेंट हंट प्रतियोगिता में जीतकर फिल्मों में आए थे, उनका चयन तब के बड़े-बड़े निर्माता-निर्देशकों ने किया था। विनोद मेहरा उस प्रतियोगिता में दूसरे स्थान पर रहे थे और बताया जाता है कि अमिताभ बच्चन तो शुरू में ही बाहर हो गए थे। उस दौर में टेलेंट हंट जीतना कोई आसान काम नहीं था। 
उन्हें अच्छी फिल्में मिलीं और उन्होंने अच्छा काम किया, दर्शकों का मनोरंजन किया, उन्हें रुलाया-हंसाया-गुदगुदाया। राजेश खन्ना ने हर वह काम किया, जिसकी उम्मीद एक अभिनेता से की जाती है। वे आज दुनिया में नहीं हैं, लेकिन अपने पीछे एक विरासत छोड़ गए हैं। जिस अभिनेता ने रुपहले परदे पर अपने अभिनय से प्रेम-रोमांस को एक नई ऊंचाई दी, जिस अभिनेता ने हर तरह की भूमिका को स्वीकार किया, जिस अभिनेता ने यादगार चरित्रों के ढेर लगा दिए, जिस अभिनेता ने लाखों लोगों को अपना दीवाना बना दिया, जिस अभिनेता ने फिल्मी दुनिया से जुड़े सैकड़ों लोगों को मालामाल कर दिया, जिस अभिनेता ने फिल्म उद्योग के आकार को विस्तार दिया, जिस अभिनेता ने अनेक अन्य अभिनेताओं, युवाओं को प्रेरित-उद्वेलित किया, क्या वह दोयम दर्जे का मान लिया जाए ?
नसीर किससे लडऩा चाहते हैं? नसीर क्या केवल अपनी ओर ध्यान आकर्षित करना चाहते हैं? क्या यह टिप्पणी जरूरी थी? इकहरे कलात्मक नजरों से देखते हुए लोकप्रिय राजेश खन्ना को क्या दोयम दर्जे का प्रवर्तक मान लिया जाए? क्या राजेश खन्ना से पहले हिन्दी सिनेमा में सबकुछ आला दर्जे का था? दोयम दर्जे का कुछ न था?  
मोटे तौर पर यह कहने में कोई हिचक नहीं कि जहां शंकर-जयकिशन और खेमचंद्र प्रकाश खड़े हुए, वहां हिन्दी सिनेमा में गीत-संगीत की वास्तविक शुरुआत हुई और जहां दिलीप कुमार खड़े हुए, वहां अभिनय का आगाज हुआ और जहां राजेश खन्ना खड़े हुए वहां हिन्दी सिनेमा में बॉक्स ऑफिस से उपजे सुपर स्टारडम की शुरुआत हुई। सुपर स्टारडम कोई ऐसी चीज नहीं है, जिसे आप चॉकलेटी चेहरे, चंद अच्छे गीत-दृश्य, उम्दा कहानी के जरिये पा जाएं। इसके लिए पूरा पैकेज होता है, जो आपकी छवि को रुपहले परदे पर उभारकर मिथक या आदर्श बना देता है। बेशक, राजेश खन्ना हिन्दी सिनेमा के एक आदर्श हैं। 

अब अभिनय की बात
हम मनुष्यों के आधे चेहरे बंजर होते हैं, तो आधे उर्वर। उर्वर चेहरों में भी कुछ बहुत उर्वर होते हैं। जैसे मिट्टी भिन्न-भिन्न प्रकार की होती है, कहीं चावल ज्यादा, तो कहीं बाजरा, तो कहीं केवल केक्टस। राजेश खन्ना के चेहरे की उर्वरा की तुलना अगर नसीर अपने चेहरे की उर्वरा से करना चाहते हैं, तो यह संभव तो है, लेकिन अनुचित है। दोनों के चेहरों की अपनी सीमाएं हैं ? स्वाभाविक है, राजेश कभी नसीर नहीं हो सकते, तो नसीर कभी राजेश नहीं हो पाएंगे।  
जैसे अभिनय मोटे तौर पर दो प्रकार का होता है - ठीक उसी तरह से अभिनेता भी दो प्रकार के होते हैं, लोकधर्मी और शास्त्रधर्मी। राजेश खन्ना लोकधर्मिता के निकट हैं, तो नसीर शास्त्रधर्मिता के निकट। 
नसीर इस बात को अच्छी तरह जानते होंगे कि जब वे एनएसडी में पढ़ते थे, तब उन्हें भरत मुनि का नाट्य शास्त्र नहीं पढ़ाया गया। तब भारत में भी अभिनय के गॉड फादर स्टानिस्लावस्की ही थे। नसीर जिस तरह का अभिनय करते हैं, वह स्टानिस्लावस्की की शैली के करीब है। किरदार में डूब जाओ। जिसे स्टानिस्लावस्की मैथड एक्टिंग कहते हैं, उसे भारतीय नाट्य शास्त्र में भरत मुनि ने पद्धतिबद्ध अभिनय कहा था। दिलीप कुमार, मोतीलाल, बलराज साहनी मैथड एक्टिंग के ही बड़े खिलाड़ी रहे। दिलीप कुमार की खास बात यह रही कि उन्होंने अभिनय की पढ़ाई नहीं की थी, लेकिन अशोक कुमार से गुरु ज्ञान जरूर लिया और फिर अपनी एक शैली विकसित की, जो ९० फीसद से ज्यादा मैथड एक्टिंग है। मैथड एक्टिंग मतलब - ऐसा अभिनय, जिसमें लगे नहीं कि अभिनय किया जा रहा है। अभिनय का खुलासा न हो और सबकुछ स्वाभाविक लगे, मानो सामने घटित हो रहा हो। 
मूलत: नसीर भी इसी श्रेणी के अभिनेता हैं। हालांकि उन्होंने भी कई दफा दोयम दर्जे का काम किया है, यह बात वे स्वयं भी जानते होंगे। नसीर को रोमांस नहीं जमता, लेकिन राजेश खन्ना को खूब जमता है। राजेश खन्ना की अनेक फिल्में हैं, जिनमें उनका अभिनय ऊंचाइयों पर नजर आता है। दो रास्ते, आनंद, आराधना, आविष्कार, अमर प्रेम, रोटी, सच्चा झूठा, हाथी मेरे साथी इत्यादि फिल्में खास यादगार हैं। 

राजेश खन्ना का अभिनय 
आंगिक, वाचिक, सात्विक और आहार्य, ये जो चार प्रकार के अभिनय भारतीय नाट्य शास्त्र ने बताए हैं, उसके आधार पर राजेश खन्ना को देखना रोचक होगा। उनका आंगिक अभिनय उनकी रोमांटिक छवि के अनुकूल था, खास प्रकार से हाथ हिलाना, सिर मोडऩा, मुडऩा, चलना, रुकना इत्यादि। चरित्र की जरूरत के हिसाब से उन्होंने अंग संचालन किया। वाचिक अभिनय की उनकी अपनी शैली है, वे किसी की नकल नहीं करते, उनके अपने शब्द होते थे, उनकी फिल्मों के डायलाग भी खूब बिकते थे। सात्विक अभिनय तो राजेश खन्ना के अंदर से स्वाभाविक रूप से आता है, जिसका जादू परदे पर सबसे ज्यादा चलता है। चेहरा बोल रहा है कि यह भला आदमी है, यह भला करेगा, भलाई के पक्ष में लड़ेगा। इस मामले में तुलना नसीर से करें, तो नसीर खलनायिकी में भी स्वाभाविक जमते हैं, जबकि राजेश खन्ना को कोई खलनायक मानने को तैयार नहीं होगा। जैसे हर चेहरे की अपनी उर्वरा होती है, ठीक उसी तरह से हर चेहरे की अपनी व्यंजना भी होती है। बिना बोले चेहरा कुछ न कुछ बोलता जरूर है। कोई चेहरा प्रथम दृष्ट्या स्वाभाविक रूप से अच्छाई का अहसास कराता है, तो कोई चेहरा बुराई का। 
अभिनेता के रूप में नसीर की लोकप्रियता निस्संदेह बहुत ज्यादा है, लगभग हर अच्छा या सामान्य दर्शक उन्हें जानता है, लेकिन उनके अंदर लोकप्रिय सिनेमा के प्रति खीज क्यों हैï? लोकप्रिय सिनेमा ने उन्हें भी तो सबकुछ दिया है। ‘पार’ जैसी शानदार फिल्म नसीर को कलात्मक खुशी तो दे सकती है, लेकिन उनका घर नहीं चला सकती और कम से कम सिनेमा हॉल तक नहीं पहुंचा सकती।  कलात्मक फिल्में भी खूब बन रही हैं, उनमें दोयम दर्जे की कला-कलाकार भी खूब हैं, जिनका सिनेमा हॉल तक पहुंचना असंभव है।  कौन अभिनेता नहीं चाहता कि वह अधिकतम दर्शकों तक पहुंचे? ऐसा कतई नहीं है कि कला-कला चिल्लाने वाले सभी उम्दा अभिनेता हैं। 

एनएसडी से कब निकलेगा सुपर स्टार ?

नसीर को सिखाने वाला संस्थान एनएसडी अभिनय या कला की समझ तो पैदा कर सकता है, लेकिन सफलता नहीं पैदा कर सकता। सरकारी धन से चल रहे एनएसडी से निकलने वाले सुपर स्टार का अभी इंतजार है। यह एनएसडी को चिढ़ाने वाली बात हो सकती है, लेकिन वहां पढऩे वालों को इससे गंभीरतापूर्वक गुजरना चाहिए। अगर आप एक महान लोकप्रियता को ललकार रहे हैं, तो फिर झेलिए ये सवाल कि आप क्यों महान लोकप्रिय नहीं हो गए। लोकप्रियता और कला में चोली-दामन का साथ क्यों न हो? लोकप्रियता के प्रति यदि बैर भाव एनएसडी में पैदा हो, तो यह ठीक नहीं है। सरकार तो कला क्षेत्र के साथ गड़बड़ कर ही रही है, वहां बैठे लोग कला क्षेत्र को भटकाने का ही काम करते हैं। जनता के पैसे से सरकार चलती है, लेकिन जनता के बीच लोकप्रिय रहे दिलीप कुमार, देव आनंद, राज कपूर, राजेश खन्ना को सरकार ने कभी अभिनय के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार नहीं दिए। इस लीक को अमिताभ बच्चन ही तोड़ पाए, क्योंकि वे राजनीतिक व रणनीतिक रूप से ज्यादा नियोजित होकर चले। 
नसीर को खुश होना चाहिए कि उन्हें दो से ज्यादा बार अभिनय के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार मिला, राजेश खन्ना को एक भी नहीं मिला, लेकिन इसका मतलब कतई यह नहीं कि राजेश खन्ना दोयम दर्जे के थे। 
आज यह जरूरी हो गया कि परस्पर चिढऩा-कुढऩा छोड़ा जाए और कला पूरी ईमानदारी से लोकप्रियता को समझे और लोकप्रियता भी कला को पूरा सम्मान दे। सरकार तो भेद करती है, कम से कम नसीरुद्दीन शाह जैसे उम्दा कलाकार तो भेद न करें।

Saturday, 14 May 2016

लालू जी, आप सबकी निगाह में हैं

देश के पूंजीपति और नेता बिहार को मजदूरों का बाड़ा बनाकर ही रखना चाहते हैं। फिर हत्याओं का दौर शुरू होता लग रहा है। लालू यादव की राजनीतिक शक्ति का समय और राजनीतिक कमजोरी के समय की तुलना की जा सकती है। करनी ही चाहिए। कहां हैं, वो लोग, जो चाहते थे कि देश में नरेन्द्र मोदी की जीत का बदला बिहारवासी ले लें। एक पत्रकार मारा गया है, सब चुप हैं। चुनाव के समय बिहार के हितैषियों की बाढ़ आ गई थी, अब यही लोग देर-सबेर जंगलराज की चर्चा शुरू करेंगे।

हम देश के सबसे पिछड़े राज्य को राजनीति का शिकार बनाना चाहते हैं, जो कि वह होता रहा है और अभी भी हो रहा है। बिहार से सबको सस्ते श्रमिक चाहिए। वहां गलियों में खून बहेगा, तभी तो श्रमिकों का बिहार से ओवर-फ्लो होगा। जंगलराज की वापसी के संकेत तो उसी दिन मिल गए थे, जिस दिन आजीवन कारावास की सजा काट रहे सीवान के पूर्व सांसद को लालू ने पार्टी में बड़ा पदाधिकारी बनाया। जेल में रहकर कोई पार्टी की कितनी और कैसी सेवा कर सकता है, यह लालू से बेहतर कौन जान सकता है।

गया था अभी दस दिन पहले
सीवान - आजीवन सजा काट रहे पूर्व सांसद की फोटो पोस्टर पर लगने-टंगने लगी है। लालू जी आ गए हैं, उनके साथ फुल पैकेज भी आ गया है। उसकी झलक हर जगह दिखने लगी है, परिवारवाद से लेकर गुंडागर्दी तक। नीतीश की जो चमक २००५ से २००७ तक थी, वह झड़ चुकी है। लालू के साथ मिलकर उन्होंने अपनी सत्ता को तो बचा लिया है, लेकिन बिहार को कितना बचा पाएंगे, यह सवाल पैदा हो गया है।

कहते हैं, बिहारी बड़े भावुक होते हैं, आवेश में आ जाते हैं, लेकिन क्या फायदा? बिहार आज कहां खड़ा है? मैंने इस बार कई लोग से चर्चा की और पाया कि माहौल उद्यमशीलता का नहीं, लूट का है। समाज के एक बड़े हिस्से को उद्यमी नहीं, बल्कि लूट के लिए प्रेरित किया जा रहा है। अगर आप हाथ आई मुफ्त सरकारी-गैर-सरकारी चीज को लूट नहीं रहे हैं, तो आप मूर्ख हैं। हर योजना-नीति-कानून-सुविधा का अपने हित में फायदा लेने का जुगाड़ करना यानी अपने को बिहार के अनुकूल बनाना। १५-१६ साल से सुशासन अगर चल रहा है, तो क्या सरकारी लोग वेतन समय पर पाने लगे हैं? सभी आश्वस्त हैं कि सरकार से पैसा आएगा, लेकिन हम सरकार को क्या देंगे, यह कोई नहीं सोच रहा। जब राज्य को देने के बारे में राज्य के बड़े-बड़े नेताओं ने ही नहीं सोचा, तो फिर ये चर्चा बेकार है। आजादी मिलने के १२-१४ साल तक बिहार देश के अगले राज्यों में था, लेकिन क्या हुआ? कांग्रेस हाईकमान की चापलूसी में कीर्तिमान रचने वाले मिश्राओं और झाओं ने जो दिशाहीन-गरीब बिहार बनाया, उसमें लालू ने क्या जोड़ा? नीतीश कितना जोड़ पाए? अगर वाकई जोड़ पाते, तो राजनीति-सत्ता में टिके रहने के लिए विकास की खाली झोली वाले लालू की जरूरत नहीं पड़ती। हालांकि अगर आप बिहार में ये सवाल पूछिएगा, तो आपको भाजपा का एजेंट बता दिया जाएगा।

राजनीति अंदर तक घुसकर तबाह कर रही है। आपके दिमाग में राजनीति नहीं है, आप बिहार के हित की सोच-बोल रहे हैं, लेकिन लोग फिर भी आप से आपकी राजनीति और पार्टी पूछेंगे। बिहार के गांव-गांव में पंचायत चुनाव में जिस तरह से पैसे और बल का प्रभाव दिखा है, उससे कतई आशा नहीं जगती। शराबबंदी हुई है, बड़ी अच्छी बात है, लेकिन जहां नीचे तक व्यवस्था भ्रष्ट हो, वहां शराब के अवैध कारोबार को कैसे रोका जा सकता है? नीतीश से सबसे बड़ी उम्मीद यही थी कि वे व्यवस्था को ईमानदारी के लिए प्रेरित करेंगे, लेकिन वे नहीं कर पाए हैं। अब तो उनके लिए राह और कठिन है, लालू सत्ताधारी गठबंधन के पितामह हैं और उनके दोनों बेटे अपने मुंहबोले चाचा (नीतीश कुमार) के पीछे लग गए हैं। ये टीम अच्छा काम करे, तो बिहार का कायाकल्प कर सकती है, लेकिन इस टीम में किसको किस काम का अनुभव है, इसे कैसे भुला दिया जाए?

बिहार की मिट्टी तो रो रही है। नीतीश कुमार थोड़ा-बहुत सुन लेते हैं। लालू जी को भी सुनना चाहिए। इस बार कोई गलतफहमी नहीं पालनी चाहिए। वे न भूलें कि उनकी बदनामी में बिहार की बदनामी भी शामिल है। वो था अंधकार का युग, सोशल और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया उतना मजबूत नहीं था, आज स्थितियां बदल चुकी हैं। होगा वो दौर, जब माननीयों की छत्रछाया में गुंडे जागते थे। इस बार डरकर नहीं सोएंगे बिहारी, क्योंकि बिहार को जंगल के शेर नहीं, अच्छे नेता चाहिए।

Wednesday, 16 March 2016

कॉमरेड बनाम भैया जी

 ज्ञानेश उपाध्याय
देश के एक लोकतांत्रिक सेकुलर निर्माता पंडित नेहरू ने जेएनयू को जन्म दिया था, वरना ऐसे संस्थान को वामपंथ अपने स्वप्न में भी जन्म नहीं दे सकता। यह भी तय है कि देश में अगर लेनिन, स्टालिन या माओ की सरकार आ जाए, तो जेएनयू पहली फुरसत में मार दिया जाएगा। बंदूक और तोप पर भरोसा करने वाली विचारधारा में वैकल्पिक विचारों के लिए कितनी जगह है, दुनिया लगातार देख रही है।
महान मार्क्स ने एक सपना देखा था कि साम्यवाद यानी एक सुंदरतम मानवीय कविता। लेकिन इस कविता का जन्म स्वाभाविक रूप से वैध तरीकों से नहीं हुआ। तत्कालीन समाजों के साथ बलात्कार स्वरूप ही उस अधूरी अवैध-सी कविता का जन्म हुआ। जो सत्ता बंदूक से निकली थी, वह ज्यादा पसर नहीं पाई। दुनिया के मजदूरों के एक होने से पहले ही पोल खुल गई। यह कविता संसार में महानता हासिल करने से वंचित रह गई। भिन्न विचारों के साथ चीन आज क्या करता है? अपने विचारवान छात्रों के साथ, लोकतंत्र प्रेमियों के साथ चीन ने क्या किया है? यह हम क्यों भूल जाएं? वामपंथी जेएनयू में हर मुद्दे पर जिस तरह से गरजते रहे हैं, क्या यह चीन में संभव है, क्या सोवियत संघ में ये संभव था?
वामपंथियों में स्वतंत्र मुखर विचारवान होने का अहंकार जेएनयू तक ही सीमित क्यों है? इन्होंने केरल या पश्चिम बंगाल में ऐसे संस्थान क्यों नहीं बना लिए? जेएनयू अगर आज वामपंथियों के लिए आदर्श संस्थान है, तो वामपंथी प्रभाव वाले सभी राज्यों में अनेक जेएनयू क्यों नहीं खुले?
दरअसल, ऐसे किसी विचार-संपन्न संस्थान के बारे में लाल सलाम वाली विचारधारा सोच भी नहीं सकती। सोचने की आजादी का मतलब कतई यह नहीं कि कोई सोचते-सोचते अपनी सीमाएं भूल जाए और पाकिस्तान या चीन चला जाए। देश के धन पर पलने वाले जिस संस्थान की सोच देश, संविधान, न्यायालय के विरुद्ध चली जाए, वैसे किसी संस्थान को क्या चीन जीने देगा? क्या पाकिस्तान ने मंटो जैसों को चैन से जीने दिया था?
हम रूखी-सूखी खाने वाले देश के लोग हैं, हमें खून में चुपड़ी हुई रोटी कैसे पचेगी, यह सोचना मुश्किल है। एक तरफ पाकिस्तान है, जिसने जमींदारों को अभी तक जीवित रखा है, तो दूसरी तरफ चीन, जिसने लाखों जमींदारों को फांसी पर लटकाकर दुनिया को लाल सलाम ठोंक रखा है। दोनों गहरे दोस्त हैं, एक घोर सांप्रदायिक, तो दूसरा घोर माओवादी?
पता नहीं इस नापाक-बेमेल आदर्श दोस्ती पर कभी जेएनयू में चर्चा होती होगी या नहीं ?
पाकिस्तान के संदर्भ में किसी ने नहीं सुना ...
जमींदारों की बर्बादी तक
जंग रहेगी जंग रहेगी।
चीन के संदर्भ में किसी ने नहीं सुना
लोकतंत्र के आने तक
जंग रहेगी, जंग रहेगी।
लेकिन हम सुन रहे हैं
भारत की बर्बादी तक
जंग रहेगी, जंग रहेगी।

मुंह पर कपड़ा बांधकर अलगाववादी नारे लगाने वाले और अंडरग्राउंड हो जाने वाले यह भूल गए कि भारत की बर्बादी में जेएनयू की बर्बादी भी शामिल है। भारत बर्बाद कर दिया जाएगा, तो यहां क्या बचेगा - पाकिस्तान या चीन ? लेकिन तब जेएनयू तो अपने होने को भूल ही जाए।
भारत होना एक महान विचार का हिस्सा है, भारत के आकाश को एक खिडक़ी खोलकर नहीं समझा जा सकता। खिडक़ी वामपंथ की हो या कथित हिन्दू राष्ट्रवादियों की, पूरा आकाश नहीं दिखा पा रही है। समेकित भारतीय विचार में विरोधाभास हैं, उसे किसी एक संहिता के पैमाने पर सरलीकृत नहीं किया जा सकता, वह जटिल है और जटिल ही रहेगी। यहां सीताराम और कन्हैया जैसे पौराणिक नाम वाले भी वामपंथ के झंडाबरदार हो सकते हैं और यह बोल सकते हैं कि हमारे नाम में क्या रखा है। बड़ी संख्या में ऐसे वामपंथी हैं, जिनकी औलादें उन्हीं पूंजीवादी देशों में सेवारत हैं, जिन्हें ये अपशब्द कहते रहते हैं। जाहिर है, वामपंथियों के सिद्धांत और व्यवहार में उतना ही फर्क है, जितना कथित हिन्दू राष्ट्रवादियों के सिद्धांत और व्यवहार में। भारतीय होने का आदर्श न लेफ्ट में पैदा हो सका है और न राइट में। भारतीय होने का आदर्श अभी भी सेंटर में है, उसी सेंटर में जेएनयू स्थित है।
कोई शक नहीं, जेएनयू को न तो वामपंथियों ने जन्म दिया है और न कथित हिन्दू राष्ट्रवादियों ने...लेकिन तब भी दोनों इसके लिए आपस में जूतम-पैजार में लगे हैं।
प्यारे भैया जी, यह तो मानिए कि इंडिया दैट इज भारत को कथित हिन्दू राष्ट्रवादियों ने नहीं, बल्कि लोकतांत्रिक सेकुलर लोगों ने खून-पसीने से सींचा है, खड़ा किया है। सांप्रदायिक लोग तो देश लेकर चले गए, उनका देश ही सांप्रदायिकता आधारित है, वे हमारे लिए कतई आदर्श नहीं हो सकते। यहां अफजल जैसे लोग कभी यह समझ नहीं पाएंगे कि उनके नाम के साथ गुरु क्यों जुड़ा है? इस पर उन जैसौं ने कभी सोचा ही नहीं है। सांप्रदायिक आधार पर मेलजोल या भारत की मिलीजुली संस्कृति का मखौल पैदा करना और अभिव्यक्ति के अधिकार का पूरा लाभ लेते हुए अपने संविधान निर्धारित कत्र्तव्यों को भूल जाना, भारत की यही वो नब्ज है, जो कमजोर चल रही है। मुझे नहीं पता नारा लगाकर अधिकार मांगने वालों को नागरिक के रूप में अपने कत्र्तव्य कितने याद हैं?
लेकिन सावधान! आज के समय में कोई व्यक्ति भारत माता के समर्थन में नारे लगाए, तो जरूरी नहीं कि उसे भारतीय नागरिक या देश भक्त मान लिया जाए। यह नारा भी मजाक का कारण बन गया है। सोशल मीडिया पर चुटकुला चला कि विजय माल्या को विदेश जाते समय एयरपोर्ट पर रोका गया, तो विजय माल्या ने भारत माता की जय का नारा लगाया, और अधिकारियों ने उसे देशभक्त मानकर जाने दिया।
यकीन मानिए, हम किसी पौराणिक काल में नहीं हैं, जहां हम संसद में बोल दें कि सिर काटकर किसी के चरण में चढ़ा देंगे। यहां महाभारत नहीं चल रहा, भारत चल रहा है। ऐसा कैसे चलेगा कि आप कन्हैया को जेल में रखना चाहेंगे, लेकिन उसके खिलाफ ठोस सुबूत पेश नहीं करेंगे।
राष्ट्रवाद के नाम पर फेंकने का चलन ऐसा चला है कि अंधाधुंध फेंका जा रहा है। नारा हो या देशभक्ति का सर्टिफिकेट हो या कोई वस्तु, ध्यान रखें... फेंके जाने वाली कई चीजें कूड़ेदान में ही पहुंचती हैं। ऐसा न हो कि लोग देशभक्ति और देशद्रोह जैसे शब्द से ही ऊब जाएं, इन पर ध्यान देना छोड़ दें।
कथित हिन्दू राष्ट्रवादियों के हाथ में सत्ता है, तो उन्हें ठोक-बजाकर, सोच-समझकर चलना चाहिए। झगड़े उलझने नहीं, सुलझने चाहिए। यह एक भयानक बात है - हमारा कथित हिन्दू राष्ट्रवाद दक्षिणपंथ नहीं, बल्कि मुस्लिम सांप्रदायिकता का प्रतिविंब या प्रतिध्वनि मात्र रह गया है। दक्षिणपंथ की असली आवाज... खोजिए तो भैया जी, वह कहां है?

Saturday, 12 March 2016

जहां खैर मनाते हैं बकरे

क्या रावण की ससुराल यहां है?

मंडोर, जोधपुर के बारे में यह कहा जाता है कि यह रावण की ससुराल है? गत महीने इसकी पड़ताल करवाई... आप भी रिपोर्ट का आनंद लें। रावण का जोधपुर में ससुराल होने का आज तक कोई प्रमाण नहीं हैं। शास्त्र इतिहास में कोई उल्लेख नहीं, केवल किंवदंतियों के आधार पर जोड़ा गया संबंध।

लेकिन यहां होती है रावण की पूजा...