Tuesday, 15 July 2014

कुछ सीखो समाज

हम इंसान चाहें, तो सब संभव है। इरादा नेक हो, तो हम यहीं स्वर्ग सजा सकते हैं और अगर बुरा हो, तो नर्क पसारने में जरा भी वक्त नहीं लगता। अजमेर के कायड़ गांव के लोगों ने जो किया है, वह वास्तव में अपने इलाके को स्वर्ग बनाने की दिशा में उठाया गया शानदार कदम है। गांव वालों ने हत्या के चार आरोपियों और उनके परिजनों के सामाजिक बहिष्कार का फैसला कर एक स्वागतयोग्य और अनुकरणीय फैसला किया है। वरना आम तौर पर होता यह है कि ज्यादातर लोग अपनी गली के बदमाश के साथ खड़े नजर आते हैं और साथ ही, यह भी चाहते हैं कि कोई बाहर वाला आए और बदमाश को हथकड़ी लगाकर घसीटते हुए ले जाए। ऐसे बाहर वालों के इंतजार में गलियां बदमाशों से अट जाती हैं। गांव-मुहल्ले, कस्बे, शहर में हर जगह आपराधिक ·किस्म के लोग दिन दूनी-रात चौगुनी तरक्की  करते चले जाते हैं और हम लगातार शिकायत करते रहते हैं कि यह समय-समाज-दुनिया भले लोगों के रहने लायक नहीं रही। इस शिकायत से निकलकर हमें समाधान की ओर आना होगा और समाधान कायड़ गांव के लोगों ने बता दिया है। अपने देश-समाज में अपराधियों-असामाजिक तत्वों, महिलाओं से दुव्र्यवहार करने वालों, बलात्कारियों, अन्यायियों का बहिष्कार होना ही चाहिए। यदि हम इनका बहिष्कार नहीं करेंगे, तो समाज का परिष्कार नहीं होगा। कानून और जेल अपने आप में पर्याप्त नहीं हैं। किसी लोकतांत्रिक देश में सकारात्मक सामाजिकता अगर विकसित हो जाए, तो कानून और जेल की ज्यादा जरूरत ही नहीं पड़ेगी। बड़े दुर्भाग्य की बात है कि आज लोग बात-बात पर कानून हाथ में ले लेते हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि उनका परिवार-समाज उनके साथ है, उनका कुछ नहीं बिगड़ेगा। लोगों और अपराधियों की यह भ्रांति टूटनी ही चाहिए। ऐसे तत्वों और उनसे जुड़े लोगों का बहिष्कार तभी खत्म होना चाहिए, जब समाज आश्वस्त हो जाए कि ये लोग फिर गलती नहीं दोहराएंगे। जिन अनगिनत पंचायतों-गांवों को प्रेमी जोड़ों और उनके परिजनों को निशाने पर लेते देखा गया है, उन्हें भी अपना लक्ष्य सुधारना चाहिए और अपराध-हीन समाज का सपना साकार करने की दिशा में बढऩा चाहिए।
गौर करने की बात है - पूर्वोत्तर भारत के कुछ राज्यों में कम अपराध होते हैं, थाना-पुलिस की ज्यादा जरूरत नहीं पड़ती, क्योंकि वहां लोग सजग हैं। समाज से पहले परिजन ही दोषियों का बहिष्कार कर देते हैं। हर व्यक्ति इस बात को समझता है कि यदि उसने अपराध किया, तो उखाड़ फेंका जाएगा, अपने मां-बाप, समाज से बिछड़ जाएगा। जाहिर है - समाज जहां वास्तव में जागृत हैं, वहां अपराध के अंधेरे कम हैं। कायड़ गांव के लोगों ने सजग सामाजिकता का जो दीप जलाया है, उस ज्योत से ज्योत जलाते चले जाने की जरूरत है, तभी असामाजिकता के नाले-परनाले सूखेंगे और सच्ची-सहृदय सामाजिकता की पवित्र गंगा बह चलेगी।
(अजमेर राजस्थान पत्रिका में प्रकाशित टिप्पणी)

Friday, 17 January 2014

'नूर' चला गया

महान अभिनेत्री सुचित्रा सेन श्रद्धांजलि
पारो या पार्वती की भूमिका को अभिनेत्री सुचित्रा सेन अर्थात रमा दासगुप्ता (जन्म १९३१) ने जीवंत कर दिया था, गर्वीली प्रेमिका क्या होती है, कैसी होती है, कितनी प्यारी और कितनी फिक्रमंद होती है, देवदास से शादी न होने दुख क्या है और एक बड़े उम्र जमींदार से शादी की मजबूरी क्या है, इसे सुचित्रा सेन ने अपने भावपूर्ण अभिनय से पर्दे पर उभार दिया। हिन्दी सिनेमा में देवदास को पर्दे पर तीन बार चरितार्थ किया गया। तीसरी वाली देवदास में शानदार अभिनेता शाहरुख खान ने प्रभावित तो जरूर किया, लेकिन असली देवदास फिर भी दिलीप कुमार ही कहे जाएंगे और असली पारो सुचित्रा सेन ही कहलाएंगी।
शादी के बाद फिल्मों में आने वाली सफल अभिनेत्रियों की जब गिनती होगी, तो सुचित्रा सेन का नाम सबसे ऊपर लिया जाएगा। बांग्ला सिनेमा की अब तक की सबसे बड़ी अभिनेत्री सुचित्रा ने केवल ७ हिन्दी फिल्मों में अभिनय किया। वैसे उन्होंने २५ साल के अपने करियर में करीब ६० फिल्मों में ही काम किया। राज कपूर और सत्यजीत राय जैसे बड़े निर्देशक भी उन्हें काम देना चाहते थे। बंगाल के एक बड़े व्यवसायी की पत्नी यह अभिनेत्री वाकई गर्व से भरपूर थी, उन्होंने चुन-चुनकर फिल्में कीं। संवाद अदायगी में उनका कोई मुकाबला नहीं था, बला की खूबसूरत थीं। मुखर चेहरा, बोलती आंखें, भरा-पूरा शुद्ध बंग्ला सौन्दर्य, पूरी एक संस्कृति को अपने में समेटे हुए। परंपराओं को ढोते हुए नहीं, बल्कि अपनी सम्पूर्णता में समेटे हुए। बनावटपन से दूर, स्तब्ध कर देने वाला प्रभाव। अभिनय की गजब की टाइमिंग। आज भी अगर किसी अभिनेत्री को संवाद अदायगी सीखनी हो, तो सुचित्रा मास्टर साबित हो सकती हैं। संवाद अदायगी में सांसों का खेल इन्हें भी खूब आता था। सात्विक अभिनय में वे सिद्ध थीं, अभिनय का स्रोत उनके अंदर से फूटता था और वे यह आभास नहीं होने देती थीं कि वे अभिनय कर रही हैं। वाचिक अभिनय की गंभीर नारी अनुकूल ऊंचाई उन्होंने प्राप्त की और आने वाली पीढिय़ों को प्रभावित-प्रेरित किया। 
वे भारत की पहली ऐसी महिला अभिनेत्री थीं, जिन्हें अभिनय के लिए अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार मिला था। वर्ष १९६३ में मास्को फिल्म फेस्टिवल में बांग्ला फिल्म 'सात पाके बंध' में अभिनय के लिए उन्हें यह पुरस्कार मिला था।
बांग्ला सिनेमा के एक सफलतम अभिनेता उत्तम कुमार के साथ उनकी जोड़ी स्वर्णिम मानी गई। दोनों ने साथ मिलकर अनेक अच्छी फिल्मों में काम किया और दोनों ही बांग्ला सिने जगत के सुपर स्टार रहे। सुचित्रा सेन को हिन्दी सिनेमा में हमेशा 'देवदास' के लिए याद किया जाएगा और निर्देशक-गीतकार-लेखक गुलजार की प्रसिद्ध विवादास्पद फिल्म 'आंधी' में अभिनय के लिए भी उन्हें कोई भूल नहीं पाएगा। दिलीप कुमार के साथ एक अन्य फिल्म 'मुसाफिर' में भी सुचित्रा सेन ने अभिनय किया था। सुचित्रा एक ऐसी अभिनेत्री थीं, जिनके सामने सिद्ध अभिनेता ही टिक पाते थे। उनका नायक चुनते समय यह सोचना पड़ता था कि कहीं जोड़ी बिगड़ न जाए। सिद्ध अभिनेता संजीव कुमार ने 'आंधी' में उनका बखूबी साथ निभाया। कौन भूल सकता है . . . तुम आ गए हो, नूर आ गया है, नहीं तो चिरागों से लौ जा रही थी. . .
वाकई नूर की तरह थी सुचित्रा सेन। एक ऐसा चेहरा या एक ऐसी छवि, जिसके साथ-साथ 'नोस्टेल्जिया' चलता है। देखकर लगता है, इनके पीछे एक लंबा समृद्ध इतिहास है, मूल्य बोध से लैस अनेक किस्से और जीवन वृतांत हैं। एक ऐसी छवि जिसके अंदर झांककर उसका दर्द या मर्म जानने की अनायास इच्छा होती है। दर्शक देवदास के लिए नहीं, बल्कि पारो के लिए ज्यादा रोते हैं। बेवफाई पारो ने नहीं की है, देवदास ने की है। पारो तो अपना सर्वस्व पीछे छोड़ आई थी देवदास के लिए, लेकिन मूर्ख देवदास ने लौटा दिया। प्रेम का दर्द तो है ही, साथ ही लौटा दिए जाने का भी दर्द है। ठुकरा दिए जाने का दर्द उतना नहीं होता है, जितना लौटा दिए जाने का दर्द होता है। ठुकरा दिए जाने में वापसी की संभावनाएं टूट-सी जाती हैं, जबकि लौटा दिए जाने में फिर लौटने की संभावना सदैव रहती है, लौटा दिए जाने में प्रेम भी निहित होता है। यह प्रेम जीने नहीं देता और दुनिया आखिरी समय पर पारो को देवदास से मिलने नहीं देती है। पारो को देखकर ही लगता है कि कहीं कुछ छूट-सा गया है, कहीं कुछ टूट-सा गया है। सुचित्रा सेन अगर न होती, तो शायद पारो का दर्द पर्दे पर पूरी तरह से न आ पाता। 
इसमें कोई शक नहीं, सुचित्रा भारत की ऐसी बड़ी अभिनेत्रियों में शामिल रही हैं कि जिनकी क्षमता के साथ पूरा न्याय नहीं हुआ। हिन्दी फिल्मों को उन्होंने ज्यादा समय नहीं दिया, वे रिजर्व किस्म की अभिनेत्री रहीं और उन्होंने १९७८ के बाद खुद को फिल्मों से अलग भी कर लिया। बहुत मिलना-जुलना दिखावा करना उन्हें कभी रास नहीं आया। उन्हें पुरस्कार भी ज्यादा नहीं मिले। बताया जाता है कि वर्ष २००५ में उन्हें भारत सरकार ने सिनेमा का सर्वोच्च सम्मान दादा साहेब फालके देने की तैयारी की थी, लेकिन सुचित्रा ने इसमें ज्यादा रुचि नहीं दिखाई और दिल्ली जाने को तैयार नहीं हुईं और सम्मान से वंचित रह गईं।
हिन्दी सिनेमा उनके बिना अधूरा है और बांग्ला सिनेमा के लिए तो उनका जाना महाशोक की तरह है।
(सिनेमा पर लिखी जा रही पुस्तक का एक अंश)