(अपने प्रिय और भारत के सबसे ख्यात पद्धतिबद्ध अभिनेता दिलीप कुमार पर लिखे गए एक लम्बे लेख का अंश, उनके 92 जन्मदिन पर. )
दिलीप कुमार पाकिस्तान में भी बहुत लोकप्रिय हैं, पाकिस्तान के दर्शक भी उन्हें अपना कलाकार मानते हैं। पाकिस्तान की धरती और वहां के लोगों के प्रति दिलीप कुमार ने हमेशा प्रेम दर्शाया है। वे कभी भूल नहीं पाए कि वे भी पाकिस्तानी जमीन - पेशावर से भारत आए थे और पूरे होशो-हवाश में आए थे। पाकिस्तान की यादें उनके दिमाग में हमेशा बसी रहीं, उनके दिल ने कभी पाकिस्तान को पराया नहीं माना। अगर हम गौर करें, तो दिलीप कुमार ही नहीं, उनके दौर के बहुत से लोग न कभी कट्टर पाकिस्तानी हो पाए और न कभी कट्टर हिन्दुस्तानी, ये लोग भारत वर्ष में ही छूट गए। वे हमेशा उस अविभाजित भारत के ही नागरिक बने रहे, जिसे सियासत ने साजिश करके मजहब के आधार पर बांट दिया। विभाजन के समय ढेर सारे मुस्लिम पाकिस्तान लौट गए, कलाकारों की दुनिया में भी बंटवारा हुआ, लेकिन दिलीप कुमार ने यह जान लिया था कि कला की बड़ी दुनिया भारत वर्ष की इस विशाल भूमि पर विकसित होगी। उनका आकलन सही साबित हुआ, उन्हें कभी भी भारतीय दर्शकों ने धर्म के आधार पर नहीं आंका। उनकी फिल्मों को उतना ही प्यार मिला, जितना राज कपूर और देव आनंद की फिल्मों को मिला।
पाकिस्तान और भारत की दोस्ती के बारे में वे हमेशा सोचते रहे और इसमें जहां तक हो सका, उन्होंने अपना सहयोग दिया। भारत और पाकिस्तान की मैत्री के सतत प्रयास करने वाला उनके जैसा कोई दूसरा अभिनेता न तो सीमा के इस पार हुआ और न उस पार। जब दुश्मनी की बयार चलती थी, तब भी दिलीप कुमार दोस्ती की धुन में मस्त रहते थे, वे दोस्ती के प्रति कभी निराश नहीं हुए। वर्ष १९९९ में जब कारगिल संघर्ष के बाद देश में पाकिस्तान के खिलाफ माहौल था, शिव सेना इत्यादि पार्टियों ने साफ-साफ कहा कि दिलीप कुमार पाकिस्तान द्वारा दिया गया सर्वोच्च सम्मान 'निशान-ए-इम्तियाज' लौटा दें, लेकिन दिलीप कुमार ने तब भी भारत-पाकिस्तान की मैत्री की ही बात की और साफ कर दिया कि बांटने की राजनीति उन्हें बदल नहीं सकती।
वैसे यह कहने में कोई हर्ज नहीं कि पाकिस्तान ने दिलीप कुमार के काम, योगदान, बयान से कुछ भी नहीं सीखा। पाकिस्तान के लोग बस इसी बात में मस्त रहे कि ये उनके धर्मभाई यूसुफ खान हैं, जो भारतीय फिल्म दुनिया पर राज कर रहे हैं। उनकी यह धारणा है कि यह महानायक पाकिस्तान की जमीन पर जन्मा है, तो पाकिस्तान का ही है। जबकि वास्तव में दिलीप कुमार पाकिस्तान की जमीन पर नहीं, अविभाजित भारत की जमीन पर जन्मे थे। किसी को भी इस बात पर आश्चर्य होगा कि दिलीप कुमार ने करीब ६१ फिल्मों में काम किया, जिसमें से केवल तीन ही फिल्मों में उन्होंने हिन्दू का किरदार नहीं निभाया। वर्ष १९६० में बनी 'मुगल-ए-आजम' में शहजादा सलीम के उनके किरदार से सभी परिचित है, लेकिन उनके द्वारा निभाया गया कोई अन्य मुस्लिम चरित्र लोगों को याद नहीं होगा। फिल्म दुनिया में आने के ११ साल बाद १९५५ में उन्होंने पहली बार किसी मुस्लिम का किरदार निभाया। इस वर्ष फिल्म 'आजाद' में अब्दुल रहीम खान की भूमिका निभाई, हालांकि इस फिल्म में वे एक हिन्दू किरदार में भी रहे। १९५८ में आई 'यहूदी' में वे शहजादा मार्कस के किरदार में रहे।
बहुतों को आश्चर्य होगा कि भारतीय यूसुफ खान ने जगदीश (फिल्म - ज्वार भाटा - वर्ष १९४४) के किरदार से फिल्मों में शुरुआत की थी और जगन्नाथ (फिल्म - किला - १९९८) के किरदार के साथ विदा हुए। दिलीप कुमार को मजहबी नजरिये से देखने वाले आश्चर्य करेंगे कि राम, रमेश, गंगाराम, श्याम, मोहन और शंकर जैसे नाम उन पर खूब जमते थे। वे कम से कम तीन बार राम बने और तीन बार शंकर।
इन तथ्यों की रोशनी में अगर हम दिलीप कुमार के सामाजिक योगदान पर चर्चा करें, तो भारत में धर्मनिरपेक्षता के संदर्भ में उनके सामने कोई नहीं टिकता। यदि पाकिस्तान के लोग भारतीय दिलीप कुमार के सामाजिक योगदान पर थोड़ी भी निगाह डालेंगे, तो उन्हें पता चलेगा कि भारत वास्तव में किस चीज का बना है और धर्मनिरपेक्षता किसको कहते हैं। दिलीप कुमार एक प्रतीक हैं, जिन पर भारतीयता गर्व कर सकती है। भारत में प्रगतिशील सामाजिकता के निर्माण में उनका योगदान सर्वाधिक है, वे सांप्रदायिक घृणा की दीवारों को गिरा देते हैं। उनके बारे में कोई भी यह नहीं कह सकता कि राम, श्याम, शंकर इत्यादि नाम से किरदार निभाने में उनका क्या योगदान है। हमें यह पता होना चाहिए कि निर्माताओं और निर्देशकों से बहुत विचार-विमर्श के बाद ही दिलीप कुमार किसी फिल्म में अभिनय के लिए तैयार होते थे। वे न केवल अपने किरदार में बदलाव करते थे, बल्कि वे कहानी में भी बदलाव करते थे, अपनी फिल्म की पूरी योजना में वे शामिल रहते थे। इसलिए जो नाम उन्होंने अपने किरदारों के लिए चुने, उसके लिए उन्हें पूरा श्रेय देना चाहिए। दरअसल, उन्हें पता था कि कौन-सा नाम किस किरदार के ज्यादा मुफीद रहेगा और किन नामों की पहुंच लोगों तक सबसे ज्यादा होगी। वे चाहते, तो ऐसे नाम भी चुन सकते थे, जिनमें किसी हिन्दू ईश्वर के नाम का स्पर्श नहीं होता, लेकिन फिल्मों के प्रभाव के बारे में उनकी समझ बेमिसाल थी। उनके किरदारों के नाम भले राम, रमेश, शंकर, श्याम रहे, लेकिन उन्हें भारतीय मुस्लिम समाज ने भी दिलोजान से पसंद किया। उन्हें यह बात कभी नहीं चुभी की कोई यूसुफ खान राम, रमेश, शंकर, श्याम की भूमिका क्यों निभा रहा है। यही भारतीय समाज की ताकत है। भारतीय समाज को अपना सकारात्मक संदेश देने में दिलीप कुमार एक विचारवान अभिनेता के रूप में बहुत सफल रहे।
निश्चित रूप से भारतीय समाज में उनका योगदान हमेशा याद किया जाएगा। सामाजिक समरसता ही नहीं, राष्ट्रीय एकता और राष्ट्र प्रेम के मामले में भी उनका योगदान अतुलनीय है। आप क्रांति (१९८१) देखिए या कर्मा (१९८६) दिलीप कुमार अपने अनुपम अभिनय से देश प्रेम को ऐसी ऊंचाई पर पहुंचा देते हैं कि हर दिल उनके साथ गा उठता है :
हम जीयेंगे और मरेंगे,
ऐ वतन तेरे लिए,
दिल दिया है, जां भी देंगे,
ऐ वतन तेरे लिए।
दिलीप कुमार का जो वतन है, उसमें पाकिस्तान अनायास शामिल है। वे पाकिस्तान को अलग रखकर सोच ही नहीं सकते, पाकिस्तान को अलग रखकर सोचना उनके लिए अपने आप को बांटकर सोचने जैसा है। उनके लिए मजहब के खांचे में सोचना मुश्किल है, इस गीत को दिलीप कुमार आगे बढ़ाते हैं -
हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई
हम वतन हम नाम हैं,
जो करे इनको जुदा
मजहब नहीं इल्जाम है।
हम जीयेंगे और मरेंगे,
ऐ वतन तेरे लिए...
कट्टरता बहुत टुच्ची चीज होती है, उदारता - सहिष्णुता सदैव महान होती है। बहुत सारे लोग यह सपना देखते थे कि पाकिस्तान और भारत में दोस्ती हो जाएगी, कई लोगों का यह सपना समय के साथ टूटता गया। एक युद्ध, दो युद्ध, छद्म युद्ध और फिर सतत आतंकवाद ने पूरी दुनिया को पाकिस्तान के बारे में फिर से सोचने पर विवश कर दिया, लेकिन दिलीप कुमार ने कभी यह आभास नहीं होने दिया कि वे अपनी सोच बदलने पर काम कर रहे हैं। दिलीप कुमार जैसों के बारे में वे लोग कभी ईमानदारी से नहीं सोच पाएंगे, जो १९४७ के बाद पैदा हुए हैं। हालांकि १९४७ से पहले ही अपना विचार पुख्ता करने वाले ऐसे लोग ज्यादा रहे हैं, जिन्होंने भारत और पाकिस्तान के अलग-अलग खांचों पर रहकर सोचना शुरू कर दिया, लेकिन दिलीप कुमार वाली जमात भी रही, जो चाहकर भी अलग-अलग खांचों में नहीं सोच पाई। उनकी मानसिकता में वह विशाल देश ठहर-सा गया, जो वाकई सदियों से महान था। वह ऐसा महान देश था, जिसमें कभी घृणा के बीज जड़ें नहीं जमा पाए, घृणा के थपेड़ों को पछाड़ कर वह महान देश आगे बढ़ता गया। दुर्भाग्य से बाद में वह बंटा, नतीजतन कुछ लोग टूट गए, लेकिन कुछ लोग नहीं टूटे, उनमें से एक नाम दिलीप कुमार हैं। दौर कोई भी हो, प्रेम का स्थान घृणा से सदैव ऊपर रहेगा, दोस्ती का स्थान दुश्मनी से सदैव ऊपर रहेगा।
बेशक, यह अच्छा हुआ कि दिलीप कुमार पाकिस्तानी जमीन पर नहीं गए, वहां चले जाते, तो वे इतने बड़े कलाकार कभी नहीं हो पाते, यह वास्तव में पाकिस्तान के लिए भी लाभकारी रहा। पाकिस्तान के लोग जब भी पलटकर दिलीप कुमार का ईमानदार अध्ययन करेंगे, तो उन्हें पता चलेगा कि उन्होंने क्या खो दिया और उनके बड़े पड़ोस ने क्या खूब पा लिया। आज हिन्दुओं के बीच एक यूसुफ खान है, जो बताता है कि धर्मनिरपेक्ष भारत कैसा होना चाहिए।
हालांकि वे कभी नहीं चाहेंगे कि उन्हें मजहब के चश्मे से देखा जाए। वे यही मानेंगे कि कलाकार के लिए समाज सापेक्ष कला सबसे बड़ी चीज है। मजहब यहां खास मायने नहीं रखता। यहां इंसानियत और कलाकारी ही मायने रखती है। उन्होंने फिल्मों के जरिये भी कभी घृणा का व्यवसाय नहीं किया। वे हमेशा ही 'गाये जा गीत मिलन के...' वाले मूड में रहे। यह गौर करने की बात है कि यह 'मेला' फिल्म १९४८ में बनी थी, जब देश का विभाजन हो चुका था और उसका दर्द हावी था। बाद में दोनों ओर के माहौल के कारण जिस जगह वे घिरे रहे, उसका भी अफसोस हम पढ़ सकते हैं, 'ऐ दिल मुझे ऐसी जगह ले चल...' (आरजू - १९५०), तो कभी 'ऐ मेरे दिल कहीं और चल', (दाग - १९५२)। कहीं न कहीं उनके अंदर बेचैनी थी, जो मुखर हो रही थी। शायद अनायास ही हो, लेकिन उनकी तड़प में अकेलापन, विरह या भटक जाने का भाव शामिल था। पाकिस्तान वास्तव में भारत से केवल अलग ही नहीं हुआ, बल्कि अलग-थलग हो गया। बहुत सारे लोग मजहब के आधार पर पाकिस्तान चले गए थे, लेकिन दिलीप कुमार नहीं गए। वे संभवत: पाकिस्तान न जाकर भारत को चुनने वाले सबसे बड़े मुस्लिम अभिनेता थे। उनके अलावा निर्देशकों में सबसे बड़े महबूब खान, संगीत निर्देशकों में सबसे बड़े नौसाद और फिल्मी लेखकों में सबसे बड़े ख्वाजा अहमद अब्बास पाकिस्तान नहीं गए। यह सेकुलर भारत की एक बड़ी सफलता थी और मजहबी पाकिस्तान की एक बड़ी विफलता। वैसे यहां यह भी जोडऩा उचित होगा कि पाकिस्तान के निर्माता स्वयं मोहम्मद अली जिन्ना की इकलौती बेटी डिना वाडिया भी पाकिस्तान नहीं गईं। उनका मायका भी भारत था और ससुराल भी भारत रहा।
खैर, अगर हम ध्यान दें, तो कहीं न कहीं भारत को चुनने वाले फिल्मी कलाकारों का काम पाकिस्तान को सम्बोधित लगता है। अगर भावना प्रधान होकर देखा जाए, अगर सिनेमा के जरिये भारत-पाकिस्तान के रिश्ते को देखा जाए, तो विशेष रूप से दिलीप कुमार पाकिस्तान को कुछ ज्यादा ही सम्बोधित करते लगते हैं। उनके कई गीत फिल्मी परदे से बाहर आकर एक अलग ही व्यापक अहसास पैदा कर देते हैं। जैसे १९५८ में आई उनकी एक फिल्म 'यहूदी' का एक गीत है, जिसे शैलेन्द्र ने लिखा है और शंकर-जयकिशन ने संगीत दिया है, मुकेश ने गाया है : ये मेरा दीवानापन है या मोहब्बत का सुरूर. . .
क्या उस दौर में भारत को रहने के लिए चुनना किसी दीवानेपन से कम था, इस माटी से मोहब्बत का सुरूर भी तो था। गीत इस तरह से शुरू होता है :-
दिल से तुझको बेदिली है, मुझको है दिल का गुरूर
तू ये माने के ना माने, लोग मानेंगे जरूर।
पाकिस्तान एक ऐसा मुल्क हो गया, जिसे अपने दिल से ही बेदिली हो गई, दिल का कद्र न हुआ और भारत ऐसा है कि जिसे बड़े दिल वाला होने का घमंड हो गया। पाकिस्तान भले इस बात को न माने, लेकिन दुनिया यही मानती है। क्या ऐसा नहीं लगता कि 'यहूदी' फिल्म का नायक उलाहना दे रहा है, यह उलाहना नायिका के लिए है, लेकिन अगर नायिका की जगह पाकिस्तान को रखकर देखें, तो क्या होगा? नायक बोल रहा है :-
ये मेरा दीवानापन है, या मोहब्बत का सुरूर
तू न पहचाने तो है ये, तेरी नजरों का कुसूर
क्या यह बात भारतीयों के मन में नहीं आती है कि भारत की मोहब्बत को पाकिस्तान पहचान न सका, पाकिस्तान की नजरों का कुसूर था, जो उसने भारत में अपने सबसे बड़े दुश्मन को देखा। लेकिन देखिए फिर भी ज्यादातर भारतीय या दिलीप कुमार जैसे महान लोग यही उम्मीद करते हैं :-
दिल को तेरी ही तमन्ना दिल को है तुझसे ही प्यार
चाहे तू आए ना आए, हम करेंगे इंतजार।
बेशक, मिलन का चाह रखने वालों को निराशा हाथ लगती है। खत्म होते जा रहे हैं वो लोग, जो उन इलाकों में जन्मे थे, जो पाकिस्तान के नाम से जाना जाता है, एक दिन शायद खत्म हो जाएगी दिलीप कुमार की वह पीढ़ी, जो सेकुलर होने और मिलकर रहने का संदेश देती है। लगातार बंदूकें चल रही हैं, दहशतगर्द अमन-चैन को नाजुक मौका देखकर आग लगाने के लिए चप्पे-चप्पे पर फैल गए हैं, सिर काटे जा रहे हैं, दुश्मनी का वीराना-सा तैयार होता जा रहा है :-
ऐसे वीराने में एक दिन घुट के मर जाएंगे हम।
जितना जी चाहे पुकारो, फिर नहीं आएंगे हम।
ये मेरा दीवानापन है. . .।
दिलीप कुमार का दिल जानता होगा कि हमने कितना कुछ खो दिया है। वे पाकिस्तान के बारे में जब बात करते हैं, तब कितना प्रेम झलकता है, मानो किसी अपने दिल के टुकड़े से बात कर रहे हों। पाकिस्तान ने क्या खो दिया है। लगातार हमले के बावजूद अपनी सेकुलरिटी बचाए रखने की कोशिश के साथ भारत कुछ खुश हो सकता है, लेकिन अंतत: खोया तो उसी अखंड भारत ने है, जिसमें दिलीप कुमार उर्फ यूसुफ खान जन्मे थे। यह बहुत जरूरी है कि पाकिस्तान के लोग दिलीप कुमार होने का मतलब समझें, तो वे भारत या हिन्दुस्तान का भी मतलब समझ पाएंगे।
दिलीप कुमार पाकिस्तान में भी बहुत लोकप्रिय हैं, पाकिस्तान के दर्शक भी उन्हें अपना कलाकार मानते हैं। पाकिस्तान की धरती और वहां के लोगों के प्रति दिलीप कुमार ने हमेशा प्रेम दर्शाया है। वे कभी भूल नहीं पाए कि वे भी पाकिस्तानी जमीन - पेशावर से भारत आए थे और पूरे होशो-हवाश में आए थे। पाकिस्तान की यादें उनके दिमाग में हमेशा बसी रहीं, उनके दिल ने कभी पाकिस्तान को पराया नहीं माना। अगर हम गौर करें, तो दिलीप कुमार ही नहीं, उनके दौर के बहुत से लोग न कभी कट्टर पाकिस्तानी हो पाए और न कभी कट्टर हिन्दुस्तानी, ये लोग भारत वर्ष में ही छूट गए। वे हमेशा उस अविभाजित भारत के ही नागरिक बने रहे, जिसे सियासत ने साजिश करके मजहब के आधार पर बांट दिया। विभाजन के समय ढेर सारे मुस्लिम पाकिस्तान लौट गए, कलाकारों की दुनिया में भी बंटवारा हुआ, लेकिन दिलीप कुमार ने यह जान लिया था कि कला की बड़ी दुनिया भारत वर्ष की इस विशाल भूमि पर विकसित होगी। उनका आकलन सही साबित हुआ, उन्हें कभी भी भारतीय दर्शकों ने धर्म के आधार पर नहीं आंका। उनकी फिल्मों को उतना ही प्यार मिला, जितना राज कपूर और देव आनंद की फिल्मों को मिला।
पाकिस्तान और भारत की दोस्ती के बारे में वे हमेशा सोचते रहे और इसमें जहां तक हो सका, उन्होंने अपना सहयोग दिया। भारत और पाकिस्तान की मैत्री के सतत प्रयास करने वाला उनके जैसा कोई दूसरा अभिनेता न तो सीमा के इस पार हुआ और न उस पार। जब दुश्मनी की बयार चलती थी, तब भी दिलीप कुमार दोस्ती की धुन में मस्त रहते थे, वे दोस्ती के प्रति कभी निराश नहीं हुए। वर्ष १९९९ में जब कारगिल संघर्ष के बाद देश में पाकिस्तान के खिलाफ माहौल था, शिव सेना इत्यादि पार्टियों ने साफ-साफ कहा कि दिलीप कुमार पाकिस्तान द्वारा दिया गया सर्वोच्च सम्मान 'निशान-ए-इम्तियाज' लौटा दें, लेकिन दिलीप कुमार ने तब भी भारत-पाकिस्तान की मैत्री की ही बात की और साफ कर दिया कि बांटने की राजनीति उन्हें बदल नहीं सकती।
वैसे यह कहने में कोई हर्ज नहीं कि पाकिस्तान ने दिलीप कुमार के काम, योगदान, बयान से कुछ भी नहीं सीखा। पाकिस्तान के लोग बस इसी बात में मस्त रहे कि ये उनके धर्मभाई यूसुफ खान हैं, जो भारतीय फिल्म दुनिया पर राज कर रहे हैं। उनकी यह धारणा है कि यह महानायक पाकिस्तान की जमीन पर जन्मा है, तो पाकिस्तान का ही है। जबकि वास्तव में दिलीप कुमार पाकिस्तान की जमीन पर नहीं, अविभाजित भारत की जमीन पर जन्मे थे। किसी को भी इस बात पर आश्चर्य होगा कि दिलीप कुमार ने करीब ६१ फिल्मों में काम किया, जिसमें से केवल तीन ही फिल्मों में उन्होंने हिन्दू का किरदार नहीं निभाया। वर्ष १९६० में बनी 'मुगल-ए-आजम' में शहजादा सलीम के उनके किरदार से सभी परिचित है, लेकिन उनके द्वारा निभाया गया कोई अन्य मुस्लिम चरित्र लोगों को याद नहीं होगा। फिल्म दुनिया में आने के ११ साल बाद १९५५ में उन्होंने पहली बार किसी मुस्लिम का किरदार निभाया। इस वर्ष फिल्म 'आजाद' में अब्दुल रहीम खान की भूमिका निभाई, हालांकि इस फिल्म में वे एक हिन्दू किरदार में भी रहे। १९५८ में आई 'यहूदी' में वे शहजादा मार्कस के किरदार में रहे।
बहुतों को आश्चर्य होगा कि भारतीय यूसुफ खान ने जगदीश (फिल्म - ज्वार भाटा - वर्ष १९४४) के किरदार से फिल्मों में शुरुआत की थी और जगन्नाथ (फिल्म - किला - १९९८) के किरदार के साथ विदा हुए। दिलीप कुमार को मजहबी नजरिये से देखने वाले आश्चर्य करेंगे कि राम, रमेश, गंगाराम, श्याम, मोहन और शंकर जैसे नाम उन पर खूब जमते थे। वे कम से कम तीन बार राम बने और तीन बार शंकर।
इन तथ्यों की रोशनी में अगर हम दिलीप कुमार के सामाजिक योगदान पर चर्चा करें, तो भारत में धर्मनिरपेक्षता के संदर्भ में उनके सामने कोई नहीं टिकता। यदि पाकिस्तान के लोग भारतीय दिलीप कुमार के सामाजिक योगदान पर थोड़ी भी निगाह डालेंगे, तो उन्हें पता चलेगा कि भारत वास्तव में किस चीज का बना है और धर्मनिरपेक्षता किसको कहते हैं। दिलीप कुमार एक प्रतीक हैं, जिन पर भारतीयता गर्व कर सकती है। भारत में प्रगतिशील सामाजिकता के निर्माण में उनका योगदान सर्वाधिक है, वे सांप्रदायिक घृणा की दीवारों को गिरा देते हैं। उनके बारे में कोई भी यह नहीं कह सकता कि राम, श्याम, शंकर इत्यादि नाम से किरदार निभाने में उनका क्या योगदान है। हमें यह पता होना चाहिए कि निर्माताओं और निर्देशकों से बहुत विचार-विमर्श के बाद ही दिलीप कुमार किसी फिल्म में अभिनय के लिए तैयार होते थे। वे न केवल अपने किरदार में बदलाव करते थे, बल्कि वे कहानी में भी बदलाव करते थे, अपनी फिल्म की पूरी योजना में वे शामिल रहते थे। इसलिए जो नाम उन्होंने अपने किरदारों के लिए चुने, उसके लिए उन्हें पूरा श्रेय देना चाहिए। दरअसल, उन्हें पता था कि कौन-सा नाम किस किरदार के ज्यादा मुफीद रहेगा और किन नामों की पहुंच लोगों तक सबसे ज्यादा होगी। वे चाहते, तो ऐसे नाम भी चुन सकते थे, जिनमें किसी हिन्दू ईश्वर के नाम का स्पर्श नहीं होता, लेकिन फिल्मों के प्रभाव के बारे में उनकी समझ बेमिसाल थी। उनके किरदारों के नाम भले राम, रमेश, शंकर, श्याम रहे, लेकिन उन्हें भारतीय मुस्लिम समाज ने भी दिलोजान से पसंद किया। उन्हें यह बात कभी नहीं चुभी की कोई यूसुफ खान राम, रमेश, शंकर, श्याम की भूमिका क्यों निभा रहा है। यही भारतीय समाज की ताकत है। भारतीय समाज को अपना सकारात्मक संदेश देने में दिलीप कुमार एक विचारवान अभिनेता के रूप में बहुत सफल रहे।
निश्चित रूप से भारतीय समाज में उनका योगदान हमेशा याद किया जाएगा। सामाजिक समरसता ही नहीं, राष्ट्रीय एकता और राष्ट्र प्रेम के मामले में भी उनका योगदान अतुलनीय है। आप क्रांति (१९८१) देखिए या कर्मा (१९८६) दिलीप कुमार अपने अनुपम अभिनय से देश प्रेम को ऐसी ऊंचाई पर पहुंचा देते हैं कि हर दिल उनके साथ गा उठता है :
हम जीयेंगे और मरेंगे,
ऐ वतन तेरे लिए,
दिल दिया है, जां भी देंगे,
ऐ वतन तेरे लिए।
दिलीप कुमार का जो वतन है, उसमें पाकिस्तान अनायास शामिल है। वे पाकिस्तान को अलग रखकर सोच ही नहीं सकते, पाकिस्तान को अलग रखकर सोचना उनके लिए अपने आप को बांटकर सोचने जैसा है। उनके लिए मजहब के खांचे में सोचना मुश्किल है, इस गीत को दिलीप कुमार आगे बढ़ाते हैं -
हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई
हम वतन हम नाम हैं,
जो करे इनको जुदा
मजहब नहीं इल्जाम है।
हम जीयेंगे और मरेंगे,
ऐ वतन तेरे लिए...
कट्टरता बहुत टुच्ची चीज होती है, उदारता - सहिष्णुता सदैव महान होती है। बहुत सारे लोग यह सपना देखते थे कि पाकिस्तान और भारत में दोस्ती हो जाएगी, कई लोगों का यह सपना समय के साथ टूटता गया। एक युद्ध, दो युद्ध, छद्म युद्ध और फिर सतत आतंकवाद ने पूरी दुनिया को पाकिस्तान के बारे में फिर से सोचने पर विवश कर दिया, लेकिन दिलीप कुमार ने कभी यह आभास नहीं होने दिया कि वे अपनी सोच बदलने पर काम कर रहे हैं। दिलीप कुमार जैसों के बारे में वे लोग कभी ईमानदारी से नहीं सोच पाएंगे, जो १९४७ के बाद पैदा हुए हैं। हालांकि १९४७ से पहले ही अपना विचार पुख्ता करने वाले ऐसे लोग ज्यादा रहे हैं, जिन्होंने भारत और पाकिस्तान के अलग-अलग खांचों पर रहकर सोचना शुरू कर दिया, लेकिन दिलीप कुमार वाली जमात भी रही, जो चाहकर भी अलग-अलग खांचों में नहीं सोच पाई। उनकी मानसिकता में वह विशाल देश ठहर-सा गया, जो वाकई सदियों से महान था। वह ऐसा महान देश था, जिसमें कभी घृणा के बीज जड़ें नहीं जमा पाए, घृणा के थपेड़ों को पछाड़ कर वह महान देश आगे बढ़ता गया। दुर्भाग्य से बाद में वह बंटा, नतीजतन कुछ लोग टूट गए, लेकिन कुछ लोग नहीं टूटे, उनमें से एक नाम दिलीप कुमार हैं। दौर कोई भी हो, प्रेम का स्थान घृणा से सदैव ऊपर रहेगा, दोस्ती का स्थान दुश्मनी से सदैव ऊपर रहेगा।
बेशक, यह अच्छा हुआ कि दिलीप कुमार पाकिस्तानी जमीन पर नहीं गए, वहां चले जाते, तो वे इतने बड़े कलाकार कभी नहीं हो पाते, यह वास्तव में पाकिस्तान के लिए भी लाभकारी रहा। पाकिस्तान के लोग जब भी पलटकर दिलीप कुमार का ईमानदार अध्ययन करेंगे, तो उन्हें पता चलेगा कि उन्होंने क्या खो दिया और उनके बड़े पड़ोस ने क्या खूब पा लिया। आज हिन्दुओं के बीच एक यूसुफ खान है, जो बताता है कि धर्मनिरपेक्ष भारत कैसा होना चाहिए।
हालांकि वे कभी नहीं चाहेंगे कि उन्हें मजहब के चश्मे से देखा जाए। वे यही मानेंगे कि कलाकार के लिए समाज सापेक्ष कला सबसे बड़ी चीज है। मजहब यहां खास मायने नहीं रखता। यहां इंसानियत और कलाकारी ही मायने रखती है। उन्होंने फिल्मों के जरिये भी कभी घृणा का व्यवसाय नहीं किया। वे हमेशा ही 'गाये जा गीत मिलन के...' वाले मूड में रहे। यह गौर करने की बात है कि यह 'मेला' फिल्म १९४८ में बनी थी, जब देश का विभाजन हो चुका था और उसका दर्द हावी था। बाद में दोनों ओर के माहौल के कारण जिस जगह वे घिरे रहे, उसका भी अफसोस हम पढ़ सकते हैं, 'ऐ दिल मुझे ऐसी जगह ले चल...' (आरजू - १९५०), तो कभी 'ऐ मेरे दिल कहीं और चल', (दाग - १९५२)। कहीं न कहीं उनके अंदर बेचैनी थी, जो मुखर हो रही थी। शायद अनायास ही हो, लेकिन उनकी तड़प में अकेलापन, विरह या भटक जाने का भाव शामिल था। पाकिस्तान वास्तव में भारत से केवल अलग ही नहीं हुआ, बल्कि अलग-थलग हो गया। बहुत सारे लोग मजहब के आधार पर पाकिस्तान चले गए थे, लेकिन दिलीप कुमार नहीं गए। वे संभवत: पाकिस्तान न जाकर भारत को चुनने वाले सबसे बड़े मुस्लिम अभिनेता थे। उनके अलावा निर्देशकों में सबसे बड़े महबूब खान, संगीत निर्देशकों में सबसे बड़े नौसाद और फिल्मी लेखकों में सबसे बड़े ख्वाजा अहमद अब्बास पाकिस्तान नहीं गए। यह सेकुलर भारत की एक बड़ी सफलता थी और मजहबी पाकिस्तान की एक बड़ी विफलता। वैसे यहां यह भी जोडऩा उचित होगा कि पाकिस्तान के निर्माता स्वयं मोहम्मद अली जिन्ना की इकलौती बेटी डिना वाडिया भी पाकिस्तान नहीं गईं। उनका मायका भी भारत था और ससुराल भी भारत रहा।
खैर, अगर हम ध्यान दें, तो कहीं न कहीं भारत को चुनने वाले फिल्मी कलाकारों का काम पाकिस्तान को सम्बोधित लगता है। अगर भावना प्रधान होकर देखा जाए, अगर सिनेमा के जरिये भारत-पाकिस्तान के रिश्ते को देखा जाए, तो विशेष रूप से दिलीप कुमार पाकिस्तान को कुछ ज्यादा ही सम्बोधित करते लगते हैं। उनके कई गीत फिल्मी परदे से बाहर आकर एक अलग ही व्यापक अहसास पैदा कर देते हैं। जैसे १९५८ में आई उनकी एक फिल्म 'यहूदी' का एक गीत है, जिसे शैलेन्द्र ने लिखा है और शंकर-जयकिशन ने संगीत दिया है, मुकेश ने गाया है : ये मेरा दीवानापन है या मोहब्बत का सुरूर. . .
क्या उस दौर में भारत को रहने के लिए चुनना किसी दीवानेपन से कम था, इस माटी से मोहब्बत का सुरूर भी तो था। गीत इस तरह से शुरू होता है :-
दिल से तुझको बेदिली है, मुझको है दिल का गुरूर
तू ये माने के ना माने, लोग मानेंगे जरूर।
पाकिस्तान एक ऐसा मुल्क हो गया, जिसे अपने दिल से ही बेदिली हो गई, दिल का कद्र न हुआ और भारत ऐसा है कि जिसे बड़े दिल वाला होने का घमंड हो गया। पाकिस्तान भले इस बात को न माने, लेकिन दुनिया यही मानती है। क्या ऐसा नहीं लगता कि 'यहूदी' फिल्म का नायक उलाहना दे रहा है, यह उलाहना नायिका के लिए है, लेकिन अगर नायिका की जगह पाकिस्तान को रखकर देखें, तो क्या होगा? नायक बोल रहा है :-
ये मेरा दीवानापन है, या मोहब्बत का सुरूर
तू न पहचाने तो है ये, तेरी नजरों का कुसूर
क्या यह बात भारतीयों के मन में नहीं आती है कि भारत की मोहब्बत को पाकिस्तान पहचान न सका, पाकिस्तान की नजरों का कुसूर था, जो उसने भारत में अपने सबसे बड़े दुश्मन को देखा। लेकिन देखिए फिर भी ज्यादातर भारतीय या दिलीप कुमार जैसे महान लोग यही उम्मीद करते हैं :-
दिल को तेरी ही तमन्ना दिल को है तुझसे ही प्यार
चाहे तू आए ना आए, हम करेंगे इंतजार।
बेशक, मिलन का चाह रखने वालों को निराशा हाथ लगती है। खत्म होते जा रहे हैं वो लोग, जो उन इलाकों में जन्मे थे, जो पाकिस्तान के नाम से जाना जाता है, एक दिन शायद खत्म हो जाएगी दिलीप कुमार की वह पीढ़ी, जो सेकुलर होने और मिलकर रहने का संदेश देती है। लगातार बंदूकें चल रही हैं, दहशतगर्द अमन-चैन को नाजुक मौका देखकर आग लगाने के लिए चप्पे-चप्पे पर फैल गए हैं, सिर काटे जा रहे हैं, दुश्मनी का वीराना-सा तैयार होता जा रहा है :-
ऐसे वीराने में एक दिन घुट के मर जाएंगे हम।
जितना जी चाहे पुकारो, फिर नहीं आएंगे हम।
ये मेरा दीवानापन है. . .।
दिलीप कुमार का दिल जानता होगा कि हमने कितना कुछ खो दिया है। वे पाकिस्तान के बारे में जब बात करते हैं, तब कितना प्रेम झलकता है, मानो किसी अपने दिल के टुकड़े से बात कर रहे हों। पाकिस्तान ने क्या खो दिया है। लगातार हमले के बावजूद अपनी सेकुलरिटी बचाए रखने की कोशिश के साथ भारत कुछ खुश हो सकता है, लेकिन अंतत: खोया तो उसी अखंड भारत ने है, जिसमें दिलीप कुमार उर्फ यूसुफ खान जन्मे थे। यह बहुत जरूरी है कि पाकिस्तान के लोग दिलीप कुमार होने का मतलब समझें, तो वे भारत या हिन्दुस्तान का भी मतलब समझ पाएंगे।