Friday, 5 July 2013

संस्कृत और उसका पड़ोस

एक रिपोर्ट १५-१६ जून को जयपुर में आयाजित दो दिवसीय संगोष्ठी : संस्कृत और उसके पड़ोस का वैभव
नाट्य शास्त्र के रचयिता भरत मुनि के वाक्य - न हि समादृते कश्चिदर्थ: प्रवर्तते (भावार्थ - जिसमें रस नहीं, उसका कोई अर्थ नहीं) का ध्येय जयपुर में आयोजित दो दिवसीय संगोष्ठी में अनेक बार चरितार्थ हुआ। 'संस्कृत और उसका पड़ोसÓ संगोष्ठी में शामिल १०० से ज्यादा संस्कृत विद्वानों, मीडियाकर्मियों, शिक्षाविदों, नाट्यकारों, कलाकारों, उत्तर व दक्षिण भारत के आचार्यों और शिक्षकों ने समग्रता में यही आभास कराया कि संस्कृत में रस भरपूर हैं और इन रसों का प्रचार-प्रसार होना चाहिए। संस्कृत अपनी पड़ोस का मुआयना करे और पड़ोस भी संस्कृत की ओर निहारे, ताकि देश में बढ़ती समस्याओं के समाधान की ओर हमारा समाज बढ़ सके। संगोष्ठी के प्रथम सत्र - उपक्रम सत्र में कर्मकाण्डी संस्कृत बनाम शास्त्रीय संस्कृत विषय पर बोलते हुए ख्यात विद्वान देवर्षि कलानाथ शास्त्री ने कहा, 'संस्कृत में जो बातें हैं, वो कहीं नहीं हैं।... पूरा भारत ही संस्कृत है, भारत से जो बाहर है, वह पड़ोस है।Ó उन्होंने यह भी कहा कि कर्मकाण्ड की सेवा में लगे लोग यदि कर्मकाण्ड का औचित्य शास्त्र द्वारा जान लें, तो चमत्कार हो जाएगा। भारतीय प्रशासनिक सेवा के वरिष्ठ अधिकारी व संस्कृत निष्ठ विद्वान राजेश्वर सिंह ने कर्मकाण्ड को सरलीकृत करने की आवश्यकता पर बल दिया, उन्होंने यह भी कहा कि बिना संस्कृत के भारत की कल्पना नहीं की जा सकती। राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित विद्वान दयानन्द भार्गव के अनुसार, 'कर्मकाण्ड और शास्त्रीय ज्ञान को अलग नहीं किया जाए, ये आत्मा और शरीर हैं।Ó वरिष्ठ पत्रकार आनन्द जोशी ने कहा, 'इस देश में असंख्य लोगों ने कर्मकाण्ड के जरिये ही संस्कृत के शब्द सुने हैं, लेकिन हमें कर्मकाण्ड के मर्म को भी समझना होगा।Ó दूरदर्शन केन्द्र जयपुर की निदेशक-समाचार प्रज्ञा पालीवाल गौड़ ने बताया, 'संस्कृत को आधुनिक प्रौद्योगिकी से जोडऩा होगा और यह सोचना होगा कि हम अपने बच्चों को कितनी संस्कृत दे रहे हैं।Ó इस सत्र में पहला व्याख्यान देते हुए युवा संस्कृत कवि-विद्वान उमेश नेपाल ने कहा, 'कर्मकाण्ड ने ही अखंड भारत को बांध रखा है, नेपाल, भूटान, बांगलादेश और श्रीलंका के कर्मकाण्डी पंडित भी पूजा में अपने यहां गंगा, कावेरी, सिन्धु का ही आह्वान करते हैं।...कर्मकाण्ड विश्वास पर आधारित है और शास्त्रीय संस्कृत विचार पर।Ó संगोष्ठी के द्वितीय सत्र - मध्य सत्र में संस्कृत बनाम हिन्दी के सभाध्यक्ष राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान के कुलपति प्रो. राजावल्लभ त्रिपाठी ने एक रूपक गढ़ा, 'उत्तर भारत में संस्कृत एक विशाल प्रासाद में एक ऐसी पवित्र बुढिय़ा की तरह है, जो जब भी अपने प्रासाद से बाहर निकलती है, अपनी बेटी हिन्दी के कंधे पर हाथ रखकर ही चलती है।Ó ख्यात पत्रकार ओम थानवी ने हिन्दी में संस्कृत से सम्बंधित स्थापनाओं पर जाते हुए पत्रकारिता में शब्दों की मिलावट से उत्पन्न विकृतियों को उदाहरण सहित प्रस्तुत किया। उन्होंने स्वयं को शुद्धिकरण या पवित्रीकरण का नहीं, हिन्दी के सहजीकरण का समर्थक बताया। राजनीति शास्त्र के विद्वान व शिक्षाविद नरेश दाधीच ने दावा किया, 'हिन्दी कभी भी संस्कृत के विरोध में खड़ी नहीं होगी।Ó इस सत्र में प्रोफेसर सरोज कौशल और डॉ. प्रवीण पण्डया ने भी व्याख्यान दिए। संगोष्ठी के दूसरे दिन भारतीय अर्थव्यवस्था : ऋण बनाम दान विषय पर आयोजित उपक्रम सत्र के सभाध्यक्ष विद्वान राजनेता-विधायक राजपाल सिंह शेखावत ने कहा, 'शास्त्र में दान का जो विधान है, उसका क्रियान्वयन यदि हो जाए, तो समाज का कायाकल्प हो जाएगा। जरूरी है कि दान की उदात्तता को समाज स्वीकार करे।Ó जगदगुरु रामानन्दाचार्य राजस्थान संस्कृत विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. रामानुज देवनाथन ने कहा कि भारतीय समाज में दान की महिमा का क्षरण दुखद है, पहले गरीबों को जाकर दान दिया जाता था, उसके बाद बुलाकर दिया जाने लगा, उसके बाद मांगने पर दिया जाने लगा और अब जब कोई गरीब दिखता है, तो लोग मुंह तक फेर लेते हैं। ऋण की तुलना में भारतीय व्यवस्था में दान को ही बढ़ावा दिया गया है और यही उचित है। पत्रकार ज्ञानेश उपाध्याय ने कहा, भारतीय व्यवस्था में शास्त्र के अनुसार दान दिया जाता, तो ऋण की आवश्यकता नहीं पड़ती। ऋण लेकर दुनिया में करोड़ लोग मरे हैं, किन्तु दान लेकर या देकर किसी के मरने की कोई सूचना नहीं मिलती। वद्र्धमान महावीर खुला विश्वविद्यालय के कुलपति व कंप्यूटर विज्ञान के विशेषज्ञ विनय पाठक ने कहा, सूचना प्रौद्योगिकी, बाजार और आज के युवाओं के संदर्भ में ऋण और दान के महत्व को समझने की जरूरत है। इंटरनेट के जरिये भी अब ऋण और दान हो रहा है। दर्शन शास्त्र के विद्वान डॉ. वीरनारायण पाण्डुरंगी ने ऋण और दान, दोनों की आवश्यकता को प्रतिपादित किया। अर्थशास्त्री सुरजीत सिंह के अनुसार, विकास के लिए ऋण का उत्पादक होना आवश्यक है, तो जोधपुर से पधारे दर्शन शास्त्र के विद्वान डॉ. चन्द्रशेखर ने दान पर जोर देने के साथ ही आग्रह किया कि हम संस्कृत के शिक्षकों-प्रोफेसरों को भी सोचना चाहिए कि हम कितने उत्पादक हैं, हम समाज को क्या दे रहे हैं। संगोष्ठी के समापन सत्र-उत्तर सत्र में संस्कृत में मनोरंजन : नीरस बनाम सरस पर चर्चा हुई। सभाध्यक्ष ख्यात संस्कृत समाचार वाचक-विद्वान बलदेवान्द सागर ने संस्कृत चिंतकों के बढ़ते दायित्व की चर्चा की, उनका निवदेन था कि हम निंदा-स्तुति से परे जाकर भावी पीढ़ी को संस्कृत की सरसता का आस्वाद कराएं। राजस्थान विश्वविद्यालय में नाट्य शास्त्र विभाग की अध्यक्ष प्रो. अर्चना श्रीवास्तव ने नाट्यकला में संस्कृत की महिमा का गुणगान करते हुए बताया कि दुनिया स्टेनिसलेवेस्की को अभिनय का गुरु मानती है, किन्तु वास्तव में अभिनय के सबसे महान आदि गुरु तो भरत मुनि हैं, जो इसी भारत वर्ष में जन्मे थे, हम जो लोग भरत मुनि, कालिदास, भवभूति, भास, दंडी आदि को भूल गए हैं, हमें यह जरूर देखना चाहिए कि हम आज कहां खड़े हैं। नाट्यकला को सम्पूर्णता में समझने के लिए संस्कृत का ज्ञान आवश्यक है, इसके बिना कलाओं के मूल मर्म को नहीं समझा जा सकता। कलाविद् डॉ. राजेश कुमार व्यास ने उद्बोधन दिया कि भारतीय संस्कृति में मनोरंजन को संस्कृत ने ही आधार प्रदान किया। तमाम कलाएं भरत मुनि के नाट्य शास्त्र से ही निकलती रहीं और आधुनिकता की ओर बढ़ी हैं। संस्कृत ने कलाओं को भौंडेपन की बजाय सरसता प्रदान की है। आज भी नृत्य, नृत्य नाटिकाओं और चित्रकला का आधार संस्कृत ही है। संस्कृति-निष्ठ छायाकार हिमांशु व्यास ने सूक्ष्मता में जाने पर बल देेते हुए बताया कि हमें रस व मनोरंजन के अर्थ व महत्व को समझना होगा। संस्कृत विद्वान डॉ. उमाकांत चतुर्वेदी ने संस्कृत की सरसता पर विस्तार से प्रकाश डाला, तो संस्कृत विद्वान डॉ. ओमप्रकाश पारीक ने आग्रह किया कि हमें संस्कृत की पढ़ाई को सरस बनाना चाहिए, ताकि इसका आकर्षण बढ़े।
श्रीरामानन्द आध्यात्मिक सेवा समिति ने राजस्थान संस्कृत अकादमी की सहायता से वानिकी प्रशिक्षण संस्थान के परिसर में इस सफल संगोष्ठी का आयोजन किया। संगोष्ठी के समन्वयक संस्कृत विद्वान शास्त्री कोसलेन्द्रदास ने संगोष्ठी केसत्रों में विषय प्रस्तावना के साथ ही सफल संचालन भी किया। इस आयोजन में भारतीय परंंपराओं के साथ-साथ आधुनिकता का भी भरपूर समावेश था। संगोष्ठी में नृत्य नाटिका के साथ ही संस्कृत फिल्म का भी प्रदर्शन हुआ, जिसे बहुत सराहना मिली। चारों सत्रों में श्रोताओं की अत्यधिक उपस्थिति स्वयं संस्कृत समाज को भी अचंभित और उत्साहित करती रही। यह संगोष्ठी भारतीय भाषाओं और उसके विद्वानों के लगाव और नई रोशनी में उन्नति के लिए परस्पर मिलन की बेचैनी का भी निरंतर आभास कराती रही।

पहली बार ऐसा अवसर आया जब मेरे पिता श्री बंशीधर उपाध्याय मेरी सेमिनार में शामिल होने आए, उन्होने मेरा व्याख्यान सुना, मैंने मुख्य अतिथियों के साथ-साथ पिता को भी प्रणाम करते हुए, आभार जताते हुए बोलना शुरू किया, पिता दिन भर सेमिनार में रहे. यह संयोग ही था कि इस दिन 16 जून को फादर्स डे भी था. इस चित्र में बीच में मेरे पिता विराजमान हैं. पिता के बायी ओर मैं और कुलपति श्री रामानुज देवनाथन जी दिख रहें है और दायी ओर अनुज-मित्र शास्त्री कोसलेंद्रदास जी.