Tuesday, 30 October 2012

शब्दों ने फिर देखा सपना

(प्रांतीय प्रगतिशील लेखक संघ, जयपुर के एक अधिवेशन की रिपोर्ट) प्रगतिशील लेखक संघ (प्रलेस) पहले भी एक संभावना था और आज भी है। आज के दौर में तो संगठन इतने संकीर्ण हो गए हैं कि वहां उनके अपने विचारों के टहलने के लिए भी जगह कम पडऩे लगी है। क्रांति का सपना देखने वाले भी अब यह मानने लगे हैं कि कोई भी संगठन या आंदोलन तभी सफल हो सकता है, जब वह सत्ता के सापेक्ष होकर चले। चूंकि सत्ता को विचारों का मुंह बंद करने का शौक होता है और यह उसकी मजबूरी भी है कि वह ‘फंड’ और पदों के जरिये विचारों का ट्रैफिक कंट्रोल करे, इसलिए स्वतंत्र विचारों के पीछे-पीछे गिरफ्तारी के वारंट लहराते चलते रहे हैं। आप जैसे ही समझौता करते हैं, वारंट गायब हो जाते हैं। समझौता टूटा या समझौता न हुआ, तो वारंट फिर पीछा करने लगते हैं। प्रगतिशील लेखक संघ प्रेमचंद के जमाने अर्थात आजादी के पहले से ही सत्ता का प्रतिपक्ष रहा है, इसलिए वह देश के सफलतम लेखक संगठनों में शामिल है। विरोध के स्वर को आवाज देना उसे आता है, गलत पर उंगली उठाना उसे आता है। यह मैंने फिर महसूस किया। सात साल बाद प्रलेस के किसी अधिवेशन में जाना हुआ, मैंने फिर महसूस किया कि उसके पास वह जगह और वह विस्तार है, जहां अनेक विचारधाराएं टहल सकती हैं। विशेष रूप से इलाहाबाद के अली जावेद और जयपुर के मोहन श्रोत्रिय को सुनने में वह सुख मिला, जो प्रलेस को सुनने पर मिलना चाहिए। अली जावेद खासतौर पर वह बौद्धिक प्रेरणा या अहसास दे गए, जिसके लिए मैं प्रलेस के अधिवेशन में गया था। वसुधैवकुटुम्बम और प्राचीन भारतीय संस्कृति को लाजवाब बताने वाले अली जावेद ने कहा कि आज कौसल्या मां भी अगर आ जाए, तो नहीं बता पाएंगी कि राम जी कहां जन्मे थे, लेकिन आडवाणी जी और उनके साथियों को यह पता है कि राम जी कहां जन्मे थे। अली जावेद ने इलाहाबाद के ही सांसद रहे मुरली मनोहर जोशी से पूछा था कि बाबर से पहले या बाबर के दौर में भारत में क्या कोई राम मंदिर था? उत्तर मिला कि तथ्य और तर्क की बात नहीं, प्रश्न आस्था का है। आडवाणी जी भी यही मानेंगे कि राम मंदिर का प्रश्न आस्था का प्रश्न है, ऐसे प्रश्न न उठाए जाएं, जिनसे आस्था को चोट पहुंचती है। अनेक लोगों को यह लगेगा कि अली जावेद वही बात कर रहे हैं, जिसकी उम्मीद उनसे मुस्लिम होने के नाते की जा सकती है, लेकिन ठहर जाइए, अली जावेद की पूरी बात सुन लीजिए, उन्होंने यह भी कहा :- बहुत हुई तुम्हारी तकरीर, मौलाना बदली नहीं मेरी तकदीर, मौलाना। वे गरीब मुस्लिमों की बात कर रहे थे। उन्होंने शायर जोश मलीहाबादी को याद किया, जोश इंसानों का मूल्य खुदा तुल्य बताने वाले शेर लिख रहे थे, आज वैसे शेर लिखना संभव नहीं है। जावेद अली पाकिस्तान में तालिबानी हमले की शिकार हुई मलाला के पक्ष में खड़े नजर आए, उन्होंने मंच से तालिबानी सोच वालों को ललकार दिया। यही ताकत है प्रलेस की। यही ताकत है, जिससे प्रलेस की प्रासंगिकता बनी थी और आज भी बनी हुई है। अधिवेशन के दूसरे सत्र में मोहन श्रोत्रिय ने भी झकझोरा और प्रलेस के विचार व प्रासंगिकता को जीवंत कर दिया। अन्ना के आंदोलन की चर्चा किसी और ने उस तरह से नहीं की थी - जैसे श्रोत्रिय जी ने की। उन्होंने अन्ना के आंदोलन पर किए जा रहे संदेह पर विस्तार से प्रकाश डालते हुए बताया कि ये केजरीवाल जैसे लोग यह मानकर चल रहे हैं कि सत्ता या व्यवस्था तो बस यों ही एक दो आंदोलनों-खुलासों से बदल जाएगी, उन्हें पता नहीं है कि पूंजी और सत्ता का गठजोड़ कितना ताकतवर हो चुका है। सत्ता या व्यवस्था को बदलने के लिए हमें ऐसे आंदोलनों के पार जाकर सोचना होगा। उन्होंने मजाक भी किया, आज किसी भी मुंगेरीलाल को असली मुंगेरीलाल से भी ज्यादा हसीन सपने देखने का हक है। उन्होंने बताया कि सत्ता और व्यवस्था को कमजोर समझकर अन्ना का आंदोलन शुरू हुआ था, जिसकी परिणति हम आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति में देख रहे हैं। पहले सत्र में तुलसीराम जी और सुबोध नारायण मालाकार जी ने भी अच्छा भाषण दिया। प्रगतिशील लेखक संघ में जेएनयू की अपनी आवाज रही है, हालांकि उस आवाज से संघ का कितना भला हुआ, इस पर विचार की जरूरत है। तुलसीराम जी और मालाकार जी ने जो खतरा बताया, उसे अधिवेशन के दूसरे सत्र के संयोजक माधव हाड़ा जी ने अपने संक्षिप्त उद्बोधन में बहुत अच्छी तरह से व्याख्यायित किया। हाड़ा जी ने प्रलेस की एक बड़ी कमजोरी को भी रेखांकित किया, उन्होंने कहा कि प्रलेस ने संस्कृति की उपेक्षा की है, जिसका उससे असहमत लोगों ने पूरा लाभ उठाया है। संस्कृति के मूल्य को समझने की जरूरत है। यह सही बात है, प्रलेस ने लंबे समय से सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का विरोध किया है और जिसकी वजह से प्राचीन-भारतीय चेतना व संस्कृति की घोर उपेक्षा की है। तुलसीराम जी के मुंह से मेरे लिए यह नई जानकारी पाकर अच्छा लगा कि कार्ल माक्र्स अपने आखिरी दिनों में संस्कृत सीख रहे थे। इसके अलावा उन्होंने उत्तरी दुनिया और दक्षिणी दुनिया की बात कही, डिजिटल डिवाइड की बात कही। हालांकि डिजिटल डिवाइड की बात का दुर्गाप्रसाद अग्रवाल जी ने विरोध किया और कहा कि अगर हम डिजिटल या आईटी तरक्की का लाभ नहीं उठाएंगे, तो हमारे विरोधी उठाएंगे, जो हमारे लिए ठीक नहीं होगा। तकनीक का लाभ प्रगतिशील लेखक संघ को भी लेना चाहिए। मालाकार जी ने पूंजी और अमरीका की भूमिका पर गहराई से प्रकाश डाला। उन्होंने यह भी कहा कि पूंजी और अमरीका इस कोशिश में है कि सबकी अपनी-अपनी आइडेंटिटी मजबूत हो, ताकि समाज की एकता टूट जाए, समाज धर्म, जाति, समुदायों में बंटा रहा, समाजवाद-साम्यवाद की संभावना समाप्त हो जाए। इसे हाड़ा जी ने अपने तरीके से बेहतर समझाते हुए कहा कि पहचान की राजनीति में दोनों तरह की बातें हैं, यह जरूरी भी है और नुकसान वाली बात भी, तो पहचान की राजनीति कहां तक होगी, यह हमें तय करना होगा। हाड़ा जी ने एक और अच्छी बात कही कि हम सहमत होने को प्रयासरत हैं, यह खतरनाक बात है, असहमति होती है, तभी आविष्कार होते हैं, विकास होता है। समाज में असहमति होनी चाहिए। राजाराम भादू जी ने राजस्थान में चल रहे जनआंदोलनों की समीक्षा करना चाह रहे थे, जो उन्होंने संक्षेप में किया। उनकी आवाज पूरी तरह से साफ नहीं हुई। प्रोफेसर व पूर्व कुलपति श्यामलाल जी ने परिवर्तनशीलता और प्रगतिशीलता का पक्ष लिया। दूसरे सत्र में लेखक राघव प्रकाश के हस्तक्षेप से एक और अच्छी बहस इस पर हुई कि क्या शब्द चूकने लगे हैं, लेखक चूकने लगे हैं और अब केवल लेखन से काम नहीं चलेगा, कार्रवाई के लिए सडक़ों पर उतरना पड़ेगा। लेखक को एक्टिविस्ट होना पड़ेगा। खैर इस बात का विरोध भी खूब हुआ। कुल मिलाकर सहमति इस बात पर बनती दिखी कि जिन लेखकों को एक्टिविस्ट बनना हो, बनें, लेकिन लेखन अपने आप में सम्पूर्ण कर्म है। ------------------ अधिवेशन के आधार पर एक अध्ययन - जिस तरह से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पास सेवानिवृत्त लोगों की भीड़ बढ़ती जा रही है, ठीक उसी तरह से प्रगतिशील लेखक संघ में भी बूढ़ों की भीड़ बढ़ रही है। युवा कार्यकर्ताओं का ऐसा अभाव है कि माइक भी स्वयं प्रांतीय अध्यक्ष महोदय ही सेट कर रहे थे। जो युवा हैं, वे बड़े काम और बड़े नाम के इंतजार में हैं, उन्हें माइक सेटिंग जैसे छोटे-मोटे कामों में कोई रुचि नहीं है। - संगठन में अहंकार बढ़ रहा है, जो बहुत नुकसानदायक बात है। प्रगतिशील लेखक संघ में यह अहंकार मैंने दिल्ली इत्यादि जगहों पर उतना नहीं देखा था। इससे सबसे बड़ा नुकसान यह होगा कि विचारधारा का नुकसान होगा और संगठन का विस्तार रुकेगा। इस बात पर अधिवेशन में मोहन श्रोत्रिय जी ने भी प्रकाश डाला और चेताया कि जैसे आदमी की आयु होती है, ठीक उसी तरह से कहीं ऐसा न हो कि प्रलेस की भी आयु हो, एक एक्सपायरी डेट हो। दरअसल, जहां से अधिवेशन शुरू होना चाहिए था, वहां आकर वह खत्म हो गया। - संगठन का मीडिया मैनेजमेंट लगातार कमजोर हो रहा है। मीडिया को इतना ज्यादा निशाना बनाया जा रहा है कि मीडिया से दूरी बढ़ती जा रही है। व्यक्तिगत रूप से कुछ लेखक मीडिया के करीब होंगे, लेकिन सांगठनिक रूप से मीडिया के आलोचक ही हैं। - प्रलेस में ऐसे लोगों की तादाद बढ़ी है, जो जरूरत पडऩे पर अपने लाभ के लिए कांग्रेस के साथ भी जा सकते हैं और भाजपा के साथ भी। १९९० के दशक में जब भाजपा सरकार भोपाल में भारत भवन को निशाना बना रही थी, तो प्रलेस के कई लोग भाजपा के साथ हो लिए थे। कलावाद को समझने में भूल की गई थी। - भाजपा और कांग्रेस में बंटे प्रदेश में प्रलेस का काम आसान नहीं है, लेकिन प्रलेस के पास ऐसे लेखक कम दिखे, जो आदर्श पेश करने की क्षमता रखते हों। - कुछ लेखकों ने आईटी, फेसबुक, डिजिटल दुनिया का लाभ उठाने की बड़ी-बड़ी बातें कहीं, कहा गया कि मीडिया भले जगह नहीं दे, हम प्रलेस की बातों को फेसबुक के जरिये दूर-दूर तक पहुंचा देंगे, लेकिन हुआ कुछ नहीं। किसने क्या कहा, प्रलेस में क्या बातें हुईं, इस पर चर्चा की बात दूर, फेसबुक पर मित्रों के साथ वाली फोटो अपलोड का सिलसिला चला। ऐसा लगा कि प्रलेस का अधिवेशन नहीं, बल्कि फोटो शूट था। - वहां एक अधिकारी महोदय दिखे, जो मुझसे कन्नी काटकर दूर जा बैठे, जिन्होंने दस मिनट पहले ही फोन पर मुझसे कहा था कि वे अधिवेशन में नहीं जा रहे हैं। - समय और व्यक्ति का आदर कम हो रहा है। दस बजे बुलाया गया था, लेकिन कार्यक्रम साढ़े ११ बजे के करीब शुरू हो सका। पता नहीं, खुश हों या दुखी कि लेखक भी नेता की तरह होने लगे हैं। अगर दो सत्रों को लगातार सुनने के बाद भी आप अगर पौने तीन बजे वहां से लौट रहे हों, तो वहां कोई रोकने वाला नहीं था कि लंच जरूर लीजिएगा। अपनी संस्कृति को गरियाते-गरियाते मूलभूत संस्कार भी कहीं दूर जा चुके हैं। - कुल मिलाकर प्रलेस का यह अधिवेशन बहुत अच्छा था। इस दौर में यह बहुत जरूरी है कि बात हो, खुलकर बात हो, आगे बढक़र बात हो। धन्यवाद।