जयपुर के जवाहर कला केन्द्र के शिल्पग्राम में खुले मंच पर एक तरफ प्रसिद्ध भोजपुरी गायिका शारदा सिन्हा गा रही थीं, ‘कोयल बिनु बगिया ना सोभे राजा,’ और दूसरी ओर, लिट्टी वाले स्टॉल के पीछे वह प्रेसर कूकर सीटी दे रहा था, जिसमें चोखा के लिए आलू उबल रहा था। इधर, एक-एक कर गीत आ रहे थे, जा रहे थे, और उधर, कभी लिट्टी खतम हो रही थी, तो कभी चोखा। बिहारियों की अच्छी-खासी जमात इकट्ठी हो गई थी, जयपुर वाले भी कम नहीं थे कि जरा देखें तो बिहारियों का गीत-संगीत, खान-पान-सामान। पूरे राजस्थानी शिल्पग्राम में बिहारियों के स्टॉल सजे हुए थे, बिना दिखावा, बिना लाग-लपेट, ठेठ देसी।
लिट्टी सेंक रहे बिहारी भाई से मैंने कहा, लिट्टी खिआईं ना!
जवाब मिला, अभी चोखा नइखे, चोखा आवे दीं।
और उधर शारदा सिन्हा गा रही थीं, बताव चांद केकरा से कहां मिले जाल...
यह गीत ही ऐसा है कि दुनिया का कोई भी कोना हो, चांदनी रात में बिहारियों को यह अकसर याद आ जाता है, और साथ में गांव की याद बोनस के रूप में आती है। चांद जो स्वयं ही बहत सुन्दर है, वह भला किससे मिलने चला जाता है? बिहारी पूरी दुनिया में बिखर गए हैं, लेकिन चांद एक ही है। बिहार भी एक ही है, जिसे इन दिनों एक ठीकठाक सरकार चला रही है। बिहार महोत्सव भी इसी सरकार का एक आयोजन है, लोगों को बिहार की ओर आकर्षित करने का एक आयोजन। मैं कुछ देर सोचता रहा कि ऐसे आयोजन पहले क्यों नहीं होते थे?
एक गीत खत्म हो चुका था, भीड़ में से एक महिला ने फरमाइश की, ‘पटना से वैदा बुलाई द।’
शरीर में झुरझुरी हुई, यकीन करने में मुश्किल आ रही थी कि क्या वाकई यह जयपुर है। पटना वाले वैद की डिमांड तो जयपुर में पहले भी रही होगी, लेकिन आज वह डिमांड पूरी होने वाली थी। वहां मौजूद बिहारी धन्य होने वाले थे। काश! सारे बिहारी यहां होते, सब पटना वाले वैद से पकिया इलाज करवाते। आज कितने बीमार हो गए हैं बिहारी? परदेस में रहते इतने घाव खाते हैं कि कोई गिनती नहीं है। कड़ा परिश्रम करने वाले किसी भी जातीय वर्ग को अपने ही देश में इतनी गालियां नहीं मिली होंगी, जितनी बिहारियों को मिली हैं। मेहनत भी करते हैं और मार भी खाते हैं, प्रतिवाद करते हैं, तो अपराधी कहलाते हैं।
शारदा सिन्हा ने कहा कि जहां जाती हूं, खूब फरमाइश होती है, सुनाऊंगी जरूर, लेकिन पहले एक पूरबी सुना दूं। उन्होंने पूरबी शुरू किया, कोठवा अटारी चढ़ी चितवे ली धनिया, कि नाहीं अइले ना, आहो राम नाहिं अइले ना परदेसिया रे बलमवा...
बिहार में न जाने कितनी धनियाएं छत और अटारी पर चढक़र अपने पति का इंतजार करती रहती हैं, जयपुर में भी कई बलम होंगे, मुंबई, हैदराबाद, अहमदाबाद, दिल्ली,कोलकाता में ही क्यों, शायद कोई ऐसा शहर नहीं होगा, जहां ऐसे बिहारी न होंगे, जिनका इंतजार बिहार में न हो रहा होगा। बिहार में लाखों धनियाओं की जिंदगी बीत जाती है इंतजार करते। अब तो थोड़ा ठीक हो गया है मोबाइल के आने से, वरना पहले चिट्ठियों को पहुंचने में कई-कई दिन लग जाते थे। चिट्ठी न आती, तो दर्द विलंबित हो जाता था, कई चिट्ठियां दर्द बढ़ा देती थीं, तो कइयों से कुछ आराम मिलता था। अब मोबाइल आने से इतना लाभ जरूर हो गया है कि छत और अटारी पर चढक़र धनियाएं अपने बलम से बात कर लेती हैं। फिर भी सशरीर बलम का जो इंतजार है, वह तो अपनी जगह कायम है।
शारदा सिन्हा ने अगला गीत शुरू किया था, अमवा महुअवा के झूमे डलिया, तनी ताक न बलमवा हमार ओरिया...
यह गीत बचपन से सुन रहा हूं। शारदा सिन्हा १९८० के दशक के शुरू में ही प्रसिद्ध हो गई थीं, १९८९ में सलमान खान की पहली हिट फिल्म ‘मैंने प्यार किया’ में उन्होंने एक गीत गाया था, कहे तोसे सजना ये तोहरी सजनिया, पग-पग लिए जाऊं तोहरी बलइयां। ... बदरिया सी बरसूं घटा बनके छाऊं, जिया तो ये चाहे, तोहे अंग लगाऊं, लाज निगोड़ी मोरी रोके है पइयां।
तब मैं स्कूल में था, दिनों तक यह गीत कानों में गूंजता रहा था। कैबल टीवी नहीं आया था, वीडियो का जमाना था, वीसीपी और वीसीआर, पर देखी गई इस फिल्म का यह गाना और शारदा सिन्हा की आवाज मानो सदा के लिए साथ रह गई। इस गीत का एक अर्थ मैं वर्षों से यह भी लगाता आया हूं कि मानो बिहार की माटी पुकार रही हो। बिहार पुकार रहा हो कि तनी ताक न हमार ओरिया। जरा मेरी ओर तो देखो कि मुझे क्या हुआ है। मैं कुछ इस तरह से गाना चाहूंगा कि तनी ताक न भारत जी बिहार ओरिया।
वाकई भारत ने बिहार की ओर देखना छोड़ दिया है, गालियां मिलती हैं, ऐ बिहारी, ओ बिहारी, कहां से आ जाते हैं बिहारी, कहकर चिढ़ाने की कोशिशें होती हैं, लेकिन बिहार का दिल कोई नहीं देखता कि दिल कितना बड़ा है। एक समय ऐसा आया था, जब बिहारी भी अपने बिहारी होने को छिपाने लगे थे, लेकिन शारदा सिन्हा को देखिए, उनके पास जयपुर में मंच था, वह केवल भोजपुरी गीत गा सकती थीं, लेकिन वे राजस्थानी गीत गा रही थीं, ‘म्हारा छैल भवर का अलगोजा खेता मा बाजे...
सबको साथ लेकर सबको खुश रखकर राष्ट्र को मजबूत करने का काम बिहार ने किया है, बिहार ने पूरे देश को देखा है, लेकिन देश बिहार को कितना देख रहा है? बिहार को मजदूर पैदा करने के बाड़े में बदल दिया गया है, अच्छे कुशल श्रमिक, पेशेवर, विद्वान भी बिहार देता है, लेकिन मजदूर ही ज्यादा दे रहा है, यह उसकी मजबूरी है। जहां बिजली ही पर्याप्त न हो, वहां आप विकास के किस कार्य की उम्मीद कर सकते हैं? बिहार को विशेष राज्य का दर्जा मिलना चाहिए, विशेष रियायत मिलनी चाहिए, लेकिन हाल ही में केन्द्र सरकार के एक सलाहकार सैम पित्रोदा पटना में बोल आए हैं कि कोई विशेष पैकेज नहीं मिलेगा, बिहार को अपने ही दम पर विकास करना होगा। यानी देश को सस्ते मजदूरों की आपूर्ति जारी रहेगी?
शारदा सिन्हा अगला गीत गा रही थीं, पनिया के जहाज से पलटनिया बनी अइह पिया, ले ले अइह हो, पिया सिन्दूर बंगाल से...
आज जरूर यह देखा जाना चाहिए कि बिहारी क्या लेकर बिहार लौट रहे हैं? बिहारी भाई बिहार को क्या दे रहे हैं? बिहार की माटी मांग रही है, माटी का कर्ज चुकाना होगा। जिससे जितना बन पड़े चुकाए, लेकिन कुछ न कुछ चुकाए जरूर।
इधर, मेले में चोखा फिर बनकर आ गया था, लिट्टी फिर बिक रही थी। लिट्टी का भाव बढ़ता चला जा रहा था। दो ठो लिट्टी, चोखा के साथ पहले २० रुपए में बिकी, फिर २५ में और बाद में ३० में बिकने लगी। वैसे बता दें कि जयपुर के इस शिल्पग्राम में जो भी मिला लगता है, उसमें सबकुछ महंगा बिकता है, पचास-पचास रुपए के छोले-भटूरे और पाव भाजी बिकते रहे हैं। एक जयपुर के साथी पत्रकार ने मुझसे कहा, आज पता लग गया कि बिहार में कितनी भुखमरी है।
मैंने पूछा, ‘क्यों कैसे पता लग गया?’
उन्होंने कहा, ‘बिहारी बीस रुपये में लिट्टी-चोखा बेच रहे हैं, उन्हें पता ही नहीं कि वह उससे बहुत ज्यादा कीमत में बिक सकता है?’
मैंने जवाब दिया, ‘आप गलत बोल रहे हैं, इसका सीधा-सा मतलब है कि बिहारियों को व्यापार करना नहीं आता। वे दूसरों की तरह ऐसा धोखेबाज होने की हिम्मत नहीं कर पा रहे हैं कि दस रुपए का सामान ५० या १०० रुपए में बेच सकें। और यह आकलन तो बिल्कुल ही गलत है कि बिहार में भुखमरी है, बिहारी की धरती इतनी उपजाऊ है कि भूख से किसी के मरने की नौबत नहीं आती। बिहार अभाव का इलाका रहा है, लेकिन भूख से मौत वाली खबरों का इलाका कभी नहीं रहा। क्या आपने कभी सुना है कि कर्ज से परेशान बिहारी किसान ने आत्महत्या कर ली?’
पता नहीं, साथी पत्रकार कितना समझ पाए। लेकिन यह सच है कि बिहारी ठग या धूर्त नहीं हैं। जयपुर में ही एक बिहारी युवा हैं, बापूनगर इलाके में, ठेले पर डोसा बेचते हैं, पचीस रुपए में मसाला डोसा। बहुत बढिय़ा डोसा बनाते हैं, स्वाद के मामले में दक्षिण के अन्ना भाई लोगों को भी फेल कर देते हैं। उन्हें कई लोग सलाह देते हैं कि दाम दुगने भी कर दोगे, तो लोग खाएंगे। उस युवक का जवाब होता है, देखिए, आपसे क्या छिपा है, एक डोसे पर १२-१३ रुपए की लागत आती है, जिसे में पहले ही २५ रुपए में बेच रहा हूं, अब इससे ज्यादा और क्या?
बिजनेस का ऐसा खुला भेद एक बिहारी ही खोल सकता है। बिहारी सरलता की तारीफ महात्मा गांधी ने भी की थी, लेकिन जब लोग बिहारियों को गाली देते हैं, तो लगता है, उन्हें पटना वाले वैद से इलाज करवाना चाहिए।
देर रात हो चुकी थी और शारदा सिन्हा मंच पर गा रही थीं, पटना से वैदा बुलाय द हो नजरा गइनी गुइयां। बारे बलम गइले पूरबी वतनीया, कोई संनेशा भिजवाइद... हो नजरा गइनी गुइयां ...
१०० साल के हो रहे आधुनिक बिहार का महोत्सव खूब जमा, जयपुर में तीन दिन देर रात बिहार प्रेमी लोग ऐसे घर लौटे मानो बिहार से लौट रहे हों. बिहार की डिमांड बढ़ रही है. महोत्सव समापन के दिन लिट्टी चोखा की कीमत ५० रूपये तक पहुँच गयी थी. इतना ही नहीं, दो साइज़ की लिट्टियाँ बिक रही थीं. मनेर का लड्डू तो दस रूपये का एक बिका. वाकई बिहार और बिहारी बदल रहे हैं, बदलना ही होगा. अब बदले बिना खैर नहीं।