Monday, 10 May 2010

विदा आचार्य


अतुलनीय संत आचार्य महाप्रज्ञ का निर्वाण केवल श्वेताम्बर तेरापंथ ही नहीं, वरन पूरे राष्ट्र व विश्व के लिए एक अपूरणीय क्षति है। आज संसार आध्यात्मिकता के एक ऐसे 'लाइट हाउस से वंचित हो गया है, जिसने संसार रूपी अथाह समुद्र में अपने पवित्रतम उजास से लगभग दो-तीन पीढिय़ों को भटकने से बचाया। वे धर्म सिद्धांतों के अद्भुत शिखर पुरुष थे। उनके सिद्धांत किसी भी दृष्टि से कोरे नहीं थे, उनके सिद्धांत व्यावहारिकता के ताप में पके-पगे हुए थे। संसार में जहां उन्हें असीमित एश्वर्य से बढ़ते असंतुलन की चिंता थी, वहीं उन्हें भूख की समस्या भी समाज सेवा हेतु प्रेरित करती थी। आज ऐसे अनेक साधु-मुनि हैं, जिनके पास प्रश्नों के ढेर हैं, किन्तु आचार्य तो उत्तरों के अपरिमित भण्डार थे। उनके बेजोड़ उत्तर ही उन्हें आध्यात्मिक क्षेत्र में धर्म-सूर्य समान प्रतिष्ठा प्रदान करते थे। उनके कर कमलों से २०० से ज्यादा पुस्तकें रची गईं, जिनमें जीवन के हर क्षेत्र से जुड़े प्रश्नों के उत्तर देखे जा सकते हैं। १९२० में जन्मे महाप्रज्ञ का जीवन स्वयं किसी गुरुकुल से कम न था। दस वर्ष की बाली उमर लुकाछिपी खेलने की होती है, लेकिन उम्र का यही पड़ाव था, जब नन्हे नथमल ने संन्यास के दुर्गम क्षेत्र में प्रवेश किया। साधुता की गोद और आचार्य तुलसी की छत्रछाया में महाप्रज्ञ का ज्ञान वृक्ष इतना घना और विशाल हो गया कि जिसमें किसी एक पंथ के नहीं, वरन तमाम पंथों के गुणिजन ठौर पाने लगे। अहिंसा पर कार्य का अवसर महात्मा गांधी को ज्यादा नहीं मिला, लेकिन आचार्य ने अहिंसा के क्षेत्र में इतने कार्य किए कि सम्भवत: आने वाली सदियों में भी शायद ही कोई उतने कार्य कर पाएगा।

वर्षों पहले राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने उन्हें 'आधुनिक विवेकानंद कहा था। आज दिनकर की वह उक्ति कदापि अतिशयोक्ति नहीं लग रही है। समस्याग्रस्त राष्ट्र में जब साधु-संत अपने-अपने डेरों, आश्रमों, शिविरों में कैद होने लगे, तब महाप्रज्ञ समस्याओं से मुक्ति का मार्ग बताने ऐतिहासिक अहिंसा यात्रा पर निकले। ५ दिसम्बर २००१ को सुजानगढ़ से यात्रा शुरू हुई थी, जो देश भर के ८७ जिलों, २४०० गांवों से होती हुई सुजानगढ़ में ही संपन्न हुई। आंखें खोलकर तलाश लीजिए, ऐसा कोई आध्यात्मिक व्यक्ति नहीं मिलेगा, जो समाज के व्यापक हित में ऐसी विशाल व उपयोगी यात्रा पर निकला हो। उन्होंने बताया कि अहिंसा और सत्य को भी विश्वविद्यालयों में पाठ्यक्रम बनाया जा सकता है। उन्होंने स्वयं जीकर दिखाया कि गुरु भक्ति क्या होती है। आज कोई भी गुरु अपने जीते-जी किसी शिष्य को गद्दी नहीं सौंपता, लेकिन आचार्य तुलसी ने अपने जीवन काल में ही अपने शिष्य को गद्दी प्रदान की थी। अविश्वास के दौर में विश्वास का यह स्तर वस्तुत: महाप्रज्ञ को न केवल विलक्षण समर्पित, स्नेही शिष्य, वरन विलक्षण संत भी सिद्ध करता है। हमारे पूर्व राष्ट्रपति, वैज्ञानिक अब्दुल कलाम से महाप्रज्ञ का मेल भी अविस्मरणीय रहेगा, वे जब-जब मिले, तब-तब राष्ट्र को समयोचित दिशानिर्देश मिले। अंतिम समय तक सक्रिय रहे महाप्रज्ञ अणुव्रत के महा-अनुष्ठान का ही चिन्तन संघ से कर रहे थे। जैन आगमों का अनुवाद-संरक्षण व प्रेक्षा प्राणायाम का आविष्कार उनके ऐसे अनमोल योगदान हैं, जो सदैव प्रासंगिक रहेंगे। आज जैन दर्शन व न्याय क्षेत्र बहुत सूना हो गया। आने वाली पीढिय़ों के लिए उनके ज्ञान की विशाल थाती छूट गई है, जो पग-पग पर काम आएगी।


(महाप्रज्ञ के महाप्रयाण पर लिखा गया सम्पादकीय )