Tuesday 21 October, 2008

रोटियां और पराठे

वाह!
फूल रही हैं रोटियां
इस बार मान गई हैं,
खुशी में हो रही हैं गोल-गोल।

ओह!
पर हो गई एक गड़बड़
रोटियों से यारी पर
खफा हैं परांठे,
टेढ़े-तिरछे।
बनाए नहीं मानते,
बार-बार बिगड़ जाते,
चकले पर उलट जाते,
बेलन से झगड़ जाते,
पकने से द्रोह करते,
जैसे सीधे बाप के बिगड़ैल बेटे।

पर खुश हैं रोटियां
जैसे अच्छी मां,
प्यारी पत्नी और दुलारी बेटियां।

इन दिनों घट गई रसोई से दूरियां
रोटियों के प्रेम में तल रहा हूं पूरियां।

--दो--

भोलीभाली रोटियां
चालाक परांठे,
रोटियां तालमेल
परांठे घालमेल,
रोटियां सहारा
परांठे साजिश,
रोटियां जरूरत
परांठे ऐय्याशी,
रोटियां हकीकत
परांठे तमाशा।

--तीन--

कहते हैं, पहले नहीं थे परांठे
बस रोटियां थीं
जब तेल आया,
हुआ भ्रष्टाचार
सादगी पर प्रहार,
तो बने परांठे,
जैसे भ्रष्ट, कमजोर नेता,
थोड़े राजा, ज्यादा अभिनेता।
पालक, मूली हो या आलू
हो गया गठजोड़ चालू।
अच्छा लगा, लच्छा लगा,
चल गए परांठे,
जैसे चल गए नेता।

नेता और परांठे
दोनों देखते तेल की धार।
तेल में सिमटा सारा सार।
पर जब नाराज होंगे
पेटों के ज्वालामुखी,
भाग जाएंगे नेता और परांठे,
बस, अकेले काम आएंगी रोटियां।

Monday 20 October, 2008

चावल का चक्कर

जाति .... : भाग नौ

उस वर्ष धान बहुत कम हुआ था, लेकिन तब मैं पैदा नहीं हुआ था। मुझसे बड़े वाले भाई साहब का दुनिया में पदार्पण होने वाला था। पिता जी परिवार लेकर राउरकेला से शीतलपुर आए हुए थे। इस छोटे परिवार का मतलब, माता, पिता, मेरे दो बड़े भाई, जो तब तीन और एक साल के हुआ करते थे।

उन्हीं दिनों बांग्लादेश की आजादी के लिए संघर्ष तेज होने लगा था। बड़ी तादाद में बांग्लादेशी भारत आ रहे थे, मेरे गांव की ओर तो नहीं, लेकिन मेरे शहर राउरकेला में पलायन का प्रभाव दिखने लगा था। इंदिरा गांधी ने कुछ ही महीने पहले गरीबी हटाओ का नारा दिया था, लेकिन ये वही वर्ष थे, जब बिहार, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा जैसे राज्य पिछड़ने लगे थे। महाराष्ट्र, पंजाब और दक्षिण के राज्यों में तरक्की तेज होने लगी थी। बिहार विकास की सीढियों पर लुढ़क रहा था। यह वह दौर था, जब बिहार अपने पहले मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह के दौर में अर्जित दिशा और दशा को गंवाना शुरू कर चुका था।

खैर, उस साल हमारे खेतों में धान नहीं के बराबर हुआ था, जो चावल उपलब्ध था, वह मां को अच्छा नहीं लगता था और बार-बार रोटियों से पाला पड़ता। मुझसे बड़े वाले भाई साहब पेट में थे, शायद चावल के शौकीन, धमाल मचा देते होंगे। मां की इस तकलीफ से बुआ लालदेई अनभिज्ञ नहीं थीं। दादी तो थी नहीं, वैसे मेरे किसी भाई को दादी या दादा की गोद में खेलने का सौभाग्य हासिल नहीं हुआ। मेरे बड़े पिताजी अर्थात बाबूजी की भार्या अर्थात मेरी बड़ी मम्मी भी नहीं थी, लेकिन एक बूçढ़या अम्मा और एक बड़ी अम्मा थीं। बड़ी अम्मा घर की मालकिन थीं। दुर्भाग्य से घर में बेवाओं का जमावड़ा था, उनमें यदा-कदा विवाद भी होता क्योंकि वे सब अपने-अपने दुख से परेशान थीं। लेकिन मां को मैंने आज तक कभी कलह में नहीं देखा है। तब मां गांव में घूंघट भी काढ़ती थीं, दुलहिन बोली जाती थीं। अच्छे चावल खाने की इच्छा बोलें, तो किससे बोलें। पिता को बोलना बेकार था, वे आज भी कहते हैं, `जो है, क्या वह कम है?´ लेकिन मां का मन न मानता, काश, कहीं से अच्छे चावल का इंतजाम किया जाता। चावल खरीदने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता, बदनामी होती। इतने खेत हैं, फिर भी चावल खरीदते हैं। गांवों में बनियों की दूकानों से ही तमाम घरों के रसोईघरों की कमियां दुनिया में फैलती हैं, वैसे भी तब गांव के बाजार पर गिनती की तीन-चार दूकानें हुआ करती थीं और सभी पहचान के बनिये थे। तो चावल खरीदने का विचार दमदार नहीं था। चुपचाप रहने वाली मां ने किसी से नहीं कहा, हालात से समझौते के लिए मन को तैयार कर लिया। फिर भी मन न मानता, शायद गर्भ में पल रहे भाई साहब को चावल बिना चैन नहीं था। जो चावल उपलब्ध था, वह न देखने में ठीक, न खाने में और न सूंघने में।

वैसे भी जिन महिलाओं के पैर भारी होते हैं, वे सूंघ-सूंघकर खाती हैं, बल्कि सूंघती ज्यादा हैं और खाती कम हैं। अगर एक बार किसी चीज की गंध से घृणा हो गई, तो फिर वह चीज पास नहीं दिखनी चाहिए।

लेकिन भाई साहब के हिस्से में ढेर सारा अच्छा चावल लिखा था और है। अगर ऊपर से देने वाला तैनात हो, तो लेने वाला तो मात्र दर्शक है। उन्हीं दिनों हमारे एक सामा बाबा था। बर्नपुर कारखाने से रिटायर होकर लौटे थे। घर के बंटवारे में वे पहले ही अलग हो गए थे। अकेले थे, शादी नहीं हुई थी। बासठ-तीरसठ की उम्र में ही काफी बूढ़े लगने लगे थे। बीमार रहते थे। अपना घर तो बनाया नहीं। जवानी कारखाने और बर्नपुर में झोंक दी, रिटायर होकर लौट आए गांव। यहां-वहां किसी-किसी के यहां रहते थे। गांवों के अनेक लोगों ने उन्हें प्यार दिखाकर खूब लूटा था। उनका पैसा किसी के पास, बर्तन-सामान किसी और के पास, तो अनाज किसी और के खलिहान में होता था। गांव में पॉपुलर थे, क्योंकि उनमें लोगों की मदद करने का माद्दा था। सामा बाबा को मेरे पिता और बाबूजी से काफी लगाव था, जो दुनिया से धोखा खाते हुए निरंतर बढ़ता जा रहा था। पिता और बाबूजी ही थे, जो बिना स्वार्थ के अपने सामा चाचा की सेवा करते थे। वे कई-कई दिनों पर हमारे घर आते थे, लेकिन घर की महिलाएं भी उनकी सेवा करने, उन्हें भोजन करवाने को तत्पर रहती थीं। पिताजी परिवार के साथ गांव आए हैं, इसकी सूचना सामा बाबा को लग चुकी थी। एक दिन सुबह मिलने के लिए हमारे घर आए। वे सीधे आवाज देते हुए आंगन में चले आए। दीन-हीन, दुबले, मटमैली होती धोती, पुराना पड़ता कुर्ता, चारों ओर से तेजी से घेरता बुढ़ापा। उन्हें आंगन में देख सहर्ष हलचल हुई। बुआ, मां सबने आगे बढ़कर उनके चरण छुए। बैठने के लिए खाट गिरा दी, चादर बिछ गई। पीने को पानी आ गया। सामा बाबा सबसे हालचाल पूछने लगे। सबने गौर किया, उनकी रूखी त्वचा पर छोटे-छोटे चकते बन गए थे। वे किसी अनाथ बूढे़ से लग रहे थे। घर की सभी महिलाओं को उन पर दया आई, तो मां बैठ गई चचिया सुसर की सेवा करने। बूçढ़या अम्मा, बड़ी अम्मा, बुआ, घर के काम करने वाली काकी, सभी से वे बात करते रहे। हमने तो सामा बाबा को नहीं देखा, लेकिन सुनते हैं, गजब के मिलनसार और दिल के बड़े मीठे आदमी थे। खड़ा और साफ-सुथरा बोलते थे, दिखावे से कोसों दूर। कुछ देर बाद उनके हाथ-पैर की त्वचा के चकते दूर हो गए, रूखापन गायब हो गया, उनकी आत्मा प्रसन्न हो गई। वे कुछ भावुक भी हुए होंगे, उन्हें अपना-सा अहसास हुआ होगा। बातों-बातों में बुआ ने मां की स्थिति और चावल की कमी के बारे में उन्हें बता दिया था। बाबा ने चावल की कमी पर कुछ नहीं कहा। खाट पर कुछ देर सुस्ताने के बाद चुपचाप आंगन से बाहर आ गए। पिता, बाबूजी और बच्चों के बारे में पूछा और नारा की ओर बढ़ चले। नारे से होते हुए नौतन बाजार की ओर जाती सड़क के पश्चिम में नारे वाले खेत में बाबूजी, पिता काम में जुटे थे। मेरे दोनों छोटे-छोटे बड़े भाई भी खेत में मिटटी-मिटटी खेल रहे थे। सामा बाबा तेजी से खेत में उतरे, सभी ने बढ़कर उनका अभिवादन किया। आदेश पर मेरे बड़े भाइयों ने भी उनके चरण छुए। उन्हें देखकर बाबा का मन खिल उठा। उन्हें पुचकारते रहे, दूसरे ही पल मन में चावल की बात उभर आई, वे थोड़े गुस्से में बाबूजी की ओर मुखातिब हुए, `मास्टर, घर में चावल का अभाव हो गया है और मुझे पता नहीं है? मुझे पराया समझे हो?´बाबूजी चुपचाप सुन रहे थे। उनमें वैसे भी पहाड़-सा संयम रहा है। `हम और तुम मिट्टी में पैदा हुए, मिट्टी में मर जाएंगे। तरह-तरह के अभाव देखे, लेकिन अब यहां से हमारी पीढ़ी बदल रही है। देखो, इन बच्चों के सुंदर-साफ चेहरे देखो, ये मिट्टी के लिए नहीं बने हैं। ये गांव में नहीं रुकने वाले। ये हमारी मेहनत के हीरे-मोती हैं, इन्हें कोई अभाव नहीं होना चाहिए। कुछ दिन के लिए गांव आए हैं और हमारे रहते, इन्हें अभाव हो?´

बाबूजी चुप रहे, पिताजी काम में लगे रहे। भाई साहबों का खेल जारी रहा, बाबा पुलिया पार करते हुए नौतन बाजार चले गए। कुछ देर बाद नौतन बाजार की ओर से एक मजदूर हमारे घर की ओर आता दिखा। कंधे पर भरा-भारी बोरा था, वह पुलिया पार करके हमारे दरवाजे पर पहुंचा। कंधे से बोरे को उतारकर बोला, `सामा बाबा, अपने खलिहान से धान भिजवाए हैं? बोले हैं, घटे, तो संकोच करने की जरूरत नहीं है।´ बुआ ने आगे बढ़कर बोरे में बनी एक छेद से थोड़ा-सा धान निकला, चावल के कुछ दाने निकाले , हथेली पर लिया, सूंघा और खुश होकर कहा, `ए दुलहिन, ये चावल बहुत अच्छा है।´

Saturday 18 October, 2008

स-स्वाद यादें

(एक मित्र के लिए )
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यादों का भी स्वाद
दिल में आबाद
कुछ मीठी और ढेर सारी खट्टी
बेकार, बेमजा यादें
पीछा नहीं छोड़तीं
रहरहकर जीवन की जीभ पर
दौड़ती बिना ब्रेक
हंसती, दुखी देख।

मन करता है बुलाऊं
जो छोड़ गए ढेर सारा खट्टापन जिंदगी में मेरे
रस में गिरा गए
कुछ ऐसा, जो घुल न सका
निर्मम हठी ढेले-सा
उजड़े हुए मेले-सा
कुछ लगा है मेरे दिल में।

वर्षों से अधपकी कढ़ाई चढ़ी जलेबियां,
आंच मांगते समोसे,
तलने के इंतजार में पूरियां,
बासी होने पर अड़ी तरकारी
झूलने को लालायित झूले,
खेले जाने के इंतजार में बैलून,
अकेलेपन के राग में बांसूरी
मेले के माइक में अटका कोई विरह गीत
किसी मित्र का छूटा हुआ हाथ
जगह-जगह टूटे ठेले
तोल-मोल के झमेले,
कादो-कीचड़ कौन हेले,
यादों में उजड़े पड़े मेले में
छूटा बहुत कुछ बदसूरत।

कटारी-सा काटता कसैलापन
कभी टनों मिर्चियों का तीखापन
दौड़ता रगों में
चिढ़ता रतजगों में।

बार-बार, हर बार मजबूरन
चखा, तो जाना
स-स्वाद होती हैं यादें।

लबालब भरा दिल
लेकिन मुंह में नहीं आती
वरना थूककर चल देते हम
मुंह में रह जाता मीठा
और धूल चाटता
कसैला, खट्टा और तीखा।

Wednesday 8 October, 2008

उनकी पुरानी बदमाशी

जाति के जर्रे : भाग आठ
तो नारा क्षेत्र की अहिमयत पूरे इलाके में है। जब ज्यादा बारिश होती है, तो पुलिया तक पानी चढ़ जाता है, सड़क पर से पानी बहने लगता है। लाठी के सहारे लोग जमीन खोजते हुए नारा पार करते हैं।
लेकिन उस साल बारिश शुरू ही हुई थी, मोहन और जवाहिर के पिताजी धूनीराम बीमार थे। जब बूंदाबांदी ठीक-ठाक होती दिखी, तो धूनीराम ने अपनी पत्नी को बुलाया और कहा, `मैं तो नहीं जा पाऊंगा। जाओ, बाबाजी लोग को बोलो, धान रोपाई का समय आ गया है। चंवर में पहले धान रोपा जाएगा, तो ठीक रहेगा।´ धूनीराम की पत्नी बारिश में पन्नी से खुद को ढके हुए हमारे घर तक आई थी और बाबूजी से कहा था, `चलिए बोआई करवाइए।´ बाबूजी भी तैयार बैठे थे, स्कूल में शायद छुट्टी का दिन होगा या फिर बारिश के कारण छुट्टी घोषित हो गई होगी। तो वे चल पड़े चंवर। खेत पर पहुंचे, तो वहां पहले से बोआई करने के लिए धूनीराम के परिवार के लोग व अन्य खेतिहर मजदूर जुटे थे, मोहन और जवाहिर भी मां और बीमार पिता के आदेश सुनकर चंवर में पहुंच गए थे। रुक-रुककर झीमी-झीमी बारिश हो रही थी, बोआई के लिए बिल्कुल सटीक समय था। धान के पौधे लेकर सबसे पहले धूनी की पत्नी पानी भरे खेतों में उतरी, तो पैर खेत में बिल्कुल नहीं गड़े। कुछ और चली, तो आगे भी खेत में पैर नहीं धंस रहे थे। चिंतित हो गई, भोजपुरी में चिल्लाई, `आहे राम, खेत में बोआई कइसे होई?´ बाबूजी मुस्कराए कि धूनी की पत्नी शायद मजाक कर रही है, लेकिन धूनी की पत्नी ने फिर ठेठ भोजुपरी में कहा, `ऐ बबुआ, बोआई कइसे होई?´
बाबूजी ने पूछा, `क्या बात है? क्यों नहीं होगी बोआई?´तब धूनी की पत्नी बोली, `मेड़ पर से उतर कर थोड़ा खेत में आइए और देखिए।´बाबूजी थोड़ा चिंतित हुए और मेड़ पर से उतर कर खेत में आए। यह क्या? खेत तो जुता ही नहीं था। बेहिसाब अचरज हुआ। थोड़ा और चले, फिर वही बात, खेत जुता ही नहीं था और ऊपर-ऊपर पानी जमा था। बोआई मुश्किल थी। उन्हें समझते देर नहीं लगी। उन्होंने गुस्से के साथ मोहन और जवाहिर की ओर देखा, जो जानबूझकर अनजान बनते हुए किसी और दिशा में देख रहे थे।धूनी की पत्नी ने भोजपुरी में कहा, `खेत त जोताइले नइखे, बोआई का हुई? रउआ, खेत न जोतवैनी हं?´ गुस्साए बाबूजी ने कहा, `अपने बेटों से पूछो, जो इस खेत को जोतने का पैसा मुझसे दो बार ले चुके हैं। पांच-छह दिन बैल खोलकर ले गए थे कि बारिश आने वाली है, चंवर में खेत जोतना है, लेकिन देख लो कैसी जोताई हुई है।´
धूनी की पत्नी ने बेटों से चिल्लाकर पूछा, `खेत की जुताई क्यों नहीं हुई?´
कोई जवाब न मिला। खेत पर बोआई के लिए आए अन्य मजदूर भी पूछने लगे, मोहन और जवाहिर की बोलती बंद थी। क्या जवाब देते? बाबूजी के बैल लेकर उन्होंने दूसरों के खेतों में जुताई की थी, कमाई की थी। दोनों ही तरफ से पैसे वसूले थे। दिमाग पर लोभ का परदा पड़ा था, उन्हें अंदाजा न था कि बारिश इतनी जल्दी आ जाएगी और उनमें बाबूजी के प्रति कोई डर भी नहीं था। वे जानते थे, बाबूजी थोड़ा-बहुत नाराज होने के सिवाय और कुछ नहीं कर सकेंगे। मोहन और जवाहिर की चुप्पी में उनकी मां को जवाब मिल चुका था, वह गुस्से से कांप रही थी, `बाबूजी के बैल भी लिए, पैसे भी लिए, लेकिन दूसरों का खेत जोता और बाबूजी का खेत यों ही पड़ा रह गया। राक्षसों, तुम लोगों ने ऐसा क्यों किया? भले आदमी को ही ठगोगे? दूसरा कोई न मिला?´मोहन और जवाहिर चुप थे, मन ही मन पछता रहे थे। उनकी मां का गुस्सा चरम पर था, वह बेटों पर बुरी तरह कुपित थी, रहा न गया, लगी श्राप देने, `जिससे सबसे ज्यादा अन्न और धन मिलता है, उसी को तुम लोगों ने धोखा दिया है, जाओ, तुम लोग हमेशा अभाव में ही रहोगे, क्योंकि तुम लोगों के मन में बेईमानी है। तुम लोगों को अन्न-धन के लिए तरसना पड़ेगा।´
बाबूजी बिना कुछ बोले निराश होकर चंवर से भीगते हुए लौट आए थे। उन लोगों ने धोखा दिया था, जिन पर सर्वाधिक भरोसा था। बाबूजी को ऐसा लगा था, मानो वे सेना विहीन हो गए हों। उस साल चंवर में धान की काफी कम उपज हुई थी, लेकिन उस साल बहुत दिनों तक मोहन और जवाहिर नजर नहीं आए थे और उनके पिता धूनीराम दुख के कारण ज्यादा बीमार रहने लगे थे। बाद में धूनीराम के यहां जब अन्न का ज्यादा अभाव हो गया, तब भारी अपराध बोध के साथ उन्हें बाबूजी के पास आना ही पड़ा था। यहां न आते, तो कहां जाते? मां का श्राप जो मिला था, अन्न और धन के लिए तरस रहे थे। भूखे बच्चों का रोना बर्दास्त नहीं होता था, बीवियों ने ताना मारकर बेहाल कर रखा था। पहले मोहन भाई आए थे, बिना कुछ बोले हमारे यहां साफ-सफाई में लग गए थे। बाबूजी ने काम करते देखा, लेकिन कहा कुछ नहीं, स्कूल चले गए। शाम के समय बड़ी अम्मा ने सबसे छिपाकर मोहन को सेर भर गेहूं दिया और बाबूजी ने हथेली पर पांच रुपये मजदूरी के रखे, तो मोहन भाई की आंखों से पछतावे के आंसू बह निकले।

हमारे गांव का नारा


जाति के जर्रे : भाग सात

मेरे नारा का नाता कतई राजनीति से नहीं है। मेरे नारा का मतलब है नाला। भोजपुरी में नाला को नारा ही बोला जाता है, जो ध्वनि के लिहाज से नाला की तुलना में ज्यादा बेहतर सुनाई पड़ता है। यह नारा मेरे लिए शुरू से रहस्य और रोमांच का विषय रहा है। हम नारा पार करके ही अपने घर पहुंचते हैं , हम अपने खेतों की ओर जाते हैं , तो नारा पार करना पड़ता है । हमारे आम के बगीचे भी नारा के उस पार पड़ते हैं। मोहन और जवाहिर राम के घर भी नारा पार ही स्थित हैं। लेकिन माफी कीजिएगा, नारा का मतलब यह नहीं है कि उसमें गांव का बदबूदार पानी बहता हो। लगभग दो सौ मीटर चौड़ा यह नारा अब सूख चुका है, किसी जमाने में यहां दरिया हुआ करता था। बताते हैं, कमर तक पानी बहा करता था। शायद यह नारा गंडक और सरयू नदी के बीच बहता होगा। यह दशकों तक एकमा और मांझी थाना की सीमा रेखा रहा है, लेकिन अब एक नया थाना बन गया है दाऊदपुर। इसमे पानी भले न रहा हो, लेकिन नारा की निशानियां अभी भी बरकरार हैं। मैंने जहां तक चलकर देखा है, नारा करीब तीन से चार किलोमीटर लंबा है। थोड़ी-सी बारिश होते ही नारा पानी से भर जाता है और गवाही देता है कि मैं कभी जिंदा था, बहता था। नारा के उत्तर में नौतन बाजार गांव है और दक्षिण में शीतलपुर बाजार। नारा के ऊपर एक पक्की सड़क है, जो शायद राज्यमार्ग है, एकमा और मांझी को जोड़ता है। पक्की सड़क से लगभग तीन सौ मीटर पश्चिम में कच्ची सड़क है, जो नौतन बाजार और शीतलपुर बाजार को जोड़ती है। इस कच्ची सड़क से आप नौतन बाजार से जब शीतलपुर की ओर आते हैं, तो पहला मकान हमारा ही पड़ता है। इस कच्ची सड़क पर एक पुलिया भी है, क्योंकि नारा के एक हिस्से में गहरे गड्ढे हैं। एक दूसरे से जुड़े इन गड्ढों का भी अपना इतिहास है। जब गांवों में मिट्टी के घर बना करते थे, तब नौतन बाजार के लोग अपने ओर के नारा की मिट्टी काट-काट कर ले जाते थे। नारा की मिट्टी काफी मजबूत है, सिमेंट के रंग की, सिमेंट जैसी। मिट्टी काटते-काटते जब गड्ढे गहरे हो गए होंगे, तो इस जगह पर एक गांव से दूसरे गांव जाना मुश्किल हो गया होगा। तब शायद नारा से ही और मिट्टी काटकर नारा और उसमें पैदा हुए गड्ढों पर बांध जैसा बनाया गया होगा और बांध पर सड़क बनाई गई होगी। बांध के नीचे से पानी आर-पार हो जाए, इसके लिए पुलिया बनाई गई होगी, जो आज भी है।

यह पुलिया अंग्रेजों के समय ही बनाई गई थी। आज भी पुलिया ऊपर-ऊपर भले टूट जाती है, लेकिन उसका ढांचा मजबूत है। हर तीन-चार साल बाद पुलिया पर ऊपर से चढ़ाया गया ज्यादा बालू और कम सिमेंट का लेप उधड़ जाता है, तो पुराने जमाने की तगड़ी ईंटें झांकने लगती हैं। ईंटों को झांकते देख हमारे बाबूजी और अन्य बुजुर्गों को शर्म आने लगती है। वे पंचायतों पर दबाव बनाते हैं, कई गांवों के लोगों का दबाव पड़ता है, तब जाकर पुलिया की मरम्मत होती है, लेकिन बस तीन-चार साल के लिए।

हमारे नारा पर बनी यह पुलिया ही नहीं, बल्कि बिहार में असंख्य पुल हैं, तो अंग्रेजों की ईमानदारी की मिसाल हैं। केवल सड़क वाले पुल ही नहीं, कई रेल पुल भी हैं, जो अंग्रेजों के समय के हैं, आदर्श हैं। वरना पटना में गंगा नदी पर बने विशाल गांधी सेतु को बने तीस साल भी तो नहीं हुए, लेकिन हालत जर्जर है। मरम्मत जारी रहती है, खत्म होने का नाम नहीं लेती।

खैर नारे के गहरे हिस्सों पर बनी पुलिया हमारे घर से मात्र डेढ़ सौ मीटर उत्तर में स्थित है। अगर आप पुलिया पर साइकिल को बिना पैडल मारे लुढ़कने दें, तो साइकिल हमारे घर के सामने आकर रुकेगी। यह पुलिया मेरे लिए आज भी कौतूहल का विषय है। जब हम छोटे थे, तो पुलिया और घर के बीच रोज दस बार अप-डाउन किया करते थे। मेरे पिता और बाबूजी ने भी खूब अप-डाउन किया होगा। मेरे भाइयों ने भी खूब अप-डाउन किया है और अब मेरे छोटे-बड़े तमाम भतीजे भी बड़े मजे से अप डाउन करते हैं। गांव के दूसरे बच्चे भी आते हैं अप-डाउन के लिए। यह अप-डाउन एडवेंचरस स्पोट्र्स की तरह है। चुनौतीपूर्ण है बच्चों के लिए विशेष रूप से, इसलिए उन्हें आनंद भी आता है।

पुलिया लगभग आठ फीट चौड़ी है, उससे जब शीतलपुर या हमारे घर की ओर उतरते हैं, तो दोनों ओर बीस-बीस फीट गहरे गड्ढे हैं, जो लगभग तीस फीट तक साथ-साथ चलते हैं। उसके बाद ही हमारे घर की ओर थोड़ी समतल भूमि शुरू होती है। इन गड्ढों को किसी से बैर नहीं है। इन्हीं भोजपुरी में गड़हा कहा जाता है। उच्चारण से ही जाहिर है, गड्ढा की तुलना में गड़हा शब्द में ज्यादा आकर्षण है। हां, पुलिया पर से साइकिल लुढ़काते हुए अगर संभलकर न चला जाए, तो लुढ़कते हुए गड्ढों में जाना पड़ता है। फिर अपने आप धूल झाड़ते हुए गड्ढे से निकलना पड़ता है या फिर कोई न कोई मददगार मिल ही जाता है। बारिश के महीने में लगभग डेढ़ महीने पूरे नारा में पानी जमा रहता है और नारा में जब पानी सूख जाता है, तब भी नारे में स्थित इन गड्ढों में लगभग तीन-चार महीने तक पानी बचा रहता है। पानी भर जाए, तो ये गड्ढे इतनी मछलियां देते हैं कि आस-पास के दस-दस गांवों के शौकीनों की आत्मा तृप्त हो जाती है।

नारा वाले गड्ढे शुरू से ही मेरे लिए आकर्षण का केन्द्र रहे हैं। आज भी जब गांव जाता हूं, मौसम चाहे कोई हो, मौका पाते ही पहले गड्ढों में झांक आता हूं कि पानी है या सूख गया। मेरे पिताजी और बाबूजी भी शायद ऐसा ही करते होंगे। मेरे भाई भी गांव जाते हैं, तो उन्हें मैं गड्ढों का मुआयना करते देख ही लेता हूं और मेरे छोटे-बड़े तमाम भतीजे तो बेशक गड्ढों का मुआयना करते होंगे।

कई बार मैं नारे और गड्ढों को लेकर भावुक या नोस्टेलजिक हो जाता हूं। सोचता हूं, अगर जल स्रोतों को ठीक से सहेजा जाए, तो यह नारा भी बह चलेगा, लेकिन मेरा अनुमान है कि जब गंडक या सरयू पर बांध नहीं बने थे, तब उनका पानी इस नारे में आता होगा। आज मजबूत बांध बन गए हैं, तो नारों में पानी कम ही आता है। उत्तर बिहार का एक बड़ा इलाका गंडक और सरयू पर बने बांधों के कारण बाढ़ से बचा रहता है, मधेपुरा, सुपौल जैसी तबाही नहीं होती है, लेकिन बांधों का एक खामियाजा यह हुआ है कि हमारे इलाके में पानी की कमी हो गई है। हालांकि अब एक नहर इधर चार-पांच साल से बह रही है, लेकिन उससे दो बातें जुड़ी हैं, अव्वल तो इस नहर के बनने में लगभग तीस साल का समय बरबाद हुआ है और दूसरी बात, यह नहर जल-कुप्रबंधन का शिकार है। जरूरत के समय पानी नहीं होता और पानी जब आता है, तो खड़ी फसल सड़ा जाता है। मेरा खयाल है, अगर नारा में बहता दरिया आज जीवित होता, तो इलाके में नहर की जरूरत ही नहीं पड़ती। इलाके के लोग न दरिया को भूले हैं और न नारा विस्मृत हो रहा है। आज भी कोई भी इस नारे में घर नहीं बनाता है। क्या पता कब नारा जाग जाए और बह चले?

Tuesday 7 October, 2008

पापी पार्टियों की परिपाटी




धिक्कार है ऐसे मां-बाप पर, जो अपने बच्चों को शुरू में तो दूध पिलाते हैं और बाद में नशा पीने के लिए छोड़ देते हैं। मुंबई में रेव पार्टी मनाते हुए लगभग ढाई सौ युवाओं का पकड़ा जाना न केवल दुखद, बल्कि शर्मनाक है। देर रात हुई पार्टी में सारे लड़के नहीं थे, वहां 65 लड़कियां भी कंधे से कंधा मिलाकर नए जमाने के नए पतन की परिपाटी को आगे बढ़ा रही थीं। इस पार्टी के लिए जिम्मेदार लोगों को अगर माफ किया गया, बिना सजा दिए छोड़ा गया, तो रेव पाटिüयों का चलन हमारे समाज में तेजी से बढ़ेगा। इसके अलावा जो युवा पार्टी में शामिल हुए थे, उन्हें भी बेदाग नहीं जाने देना चाहिए, ताकि बाकी युवाओं को नसीहत मिले कि ऐसी पार्टियों का क्या हश्र होता है। रेव पार्टियाँ कोई आम पार्टियाँ नहीं होतीं, उनमें खुलकर नशेबाजी होती है। नशेबाजी में भी शराब नहीं, बल्कि सीधे ड्रग्स का इस्तेमाल होता है। तड़क भड़क वाली रोशनी जरूरी नहीं है क्योंकि समुद्र के किनारे या जंगल या और कहीं भी यह हो सकती है. हाँ इनमें खास तरह का तरंगित संगीत भी होता है, संगीत में शब्द कम होते हैं और एक ही तरह के शब्दों का दोहराओ होता है कान को झनझना देने वाले बीट्स होते हैं कुल मिलकर संगीत ऐसा होता है की नशा बढ़ जाए। लेकिन संगीत सहायक का काम करता है, मुख्य काम तो ड्रग्स करते हैं। आम तौर पर रेव पार्टी में ड्रग्स के शौकीन ही जाते हैं। ये पार्टियाँ खचाखच भरी होती हैं, जितनी ज्यादा भीड़ उतना ही लाउड इलैक्ट्रिक संगीत और उतना ही ज्यादा नशे का सामान। पश्चिमी देशों में आयोजित होने वाली ऐसी पाटियों में तो पांच-पांच हजार की भीड़ जुटती है, जो एक साथ नशे के अंधेरे गड्ढे में उतरती है। ऐसे अंधेरे गड्ढों से चंद युवा ही वापसी कर पाते हैं, ज्यादातर युवा तो अपनी जिंदगी का बहुमूल्य समय हमेशा के लिए ड्रग्स के नाम कर देते हैं।


रेव कहिए या एसिड हाउस पार्टी कहिए या वाइल्ड बोहमियन पार्टी, पश्चिम के खाए-पीए-अघाए समाज को 1950 के दशक में ऐसी पार्टियों का रोग लगा था। पूंजीवाद और `इजी मनी´ की गंदी कोख से रेव पार्टियों का जन्म हुआ था। पूंजी के प्रभाव में अमेरिका के हु ूस्टन शहर और ग्रेट ब्रिटेन के लंदन में अकूत अमीरी में पले उदास युवाओं ने रेव पार्टियों में जीवन की तलाश शुरू की थी, वह जीवन तो आज भी हाथ नहीं आया, लेकिन बेहूदी खोज आज भी जारी है। भारत में भी अमीरी की मलाई जम रही है, तो रेव और जंगल पार्टियाँ यहां भी न केवल बड़े शहरों, बल्कि छोटे शहरों में भी होने लगी हैं। अमीरी का यह घिनौना रूप न केवल अभद्र डिजाइनर डे्रसेज, बल्कि डिजाइनर ड्रग्स से तैयार होने लगा है। हमारी सरकारें आंखें मूंदकर बैठी हैं, शासन-प्रशासन चला रहे लोग भी कहीं न कहीं इन पार्टियों में भागीदारी करते पाए जा रहे हैं। यह देश रेव पार्टियों को कदापि बर्दास्त नहीं कर सकता। जहां 25 प्रतिशत लोगों को एक-दो रुपये की रोटी के लिए भी संघर्ष करना पड़ रहा है, वहां चंद लोग रेव पार्टियों में हजारों रुपये उड़ा रहे हैं। ऐसी पार्टियाँ न केवल नशा देंगी, बल्कि इनसे तमाम तरह के अपराध भी बढ़ेंगे। अगर हम रेव पार्टियाँ होने देंगे, तो यकीन मानिए, कल ये पार्टियाँ हमारा सुख-चैन लूट लेंगी।