Thursday 11 October, 2018

सुनो तो गंगा ये क्या सुनाए

सत्ता के धूम-धड़ाके में फिर एक आवाज दम तोड़ गई। एक और गांधी गंगा के लिए शहीद हो गए। आई.आई.टी. में प्रोफेसर रह चुके जी.डी. अग्रवाल गंगा के प्रेम में साधु हो गए थे। १११ दिन उपवास करने के बाद परमधाम चले गए। उन्हें झूठ से मना लेने की झूठी और छोटी-छोटी कोशिशें होती रहीं, वे नहीं माने, तो सरकार भी नहीं मानी। गंगा नदी को तो खत्म ही करना है। आज गंगा का क्या काम? लोग नहीं सुधर रहे, तो सरकार ने सुधरने का ठेका तो नहीं ले रखा। बहने दीजिए, अपने बल पर जितने दिन बह जाए गंगा, वैसे ही सबको पता है कि इस नदी को एक दिन सूख जाना है, तो इसे क्यों बचाया जाए ? 
राज कपूर ने फिल्म बनाई थी, जिसमें गाना था - राम तेरी गंगा मैली हो गई, पापियों के पाप धोते-धोते...
बेशर्म पापी ऐसे-ऐसे कि थक नहीं रहे हैं। इस गीत की शुरुआत इन पंक्तियों से होती है - 
सुनो तो गंगा ये क्या सुनाए कि मेरे तट पर वो लोग आए।
जिन्होंने ऐसे नियम बनाए कि प्राण जाए पर वचन न जाए। 
अब तो वचन का क्या अर्थ? एक सत्ताधारी नेता जी ने साफ बता दिया कि हमें अंदाजा नहीं था कि हम सत्ता में आ जाएंगे, तो हमने बड़े-बड़े वचन दे दिए, अब लोग हमें गिनाते हैं और हम हंसते हैं।  
तो लीजिए, हंसी-हंसी में एक प्रोफेसर साधु चला गया, क्योंकि उसका संघर्ष गांधीवादी था। कान खोलकर सुन लीजिए, गांधियों को अब गोली नहीं मारी जाती, उन्हें अपनी मौत मरने के लिए छोड़ दिया जाता है। 
वाकई गांधी जी होते, तो बड़े खुश होते कि भारत सरकार ने पहली बार इतने बड़े पैमाने पर स्वच्छता और शौचालय निर्माण का काम अपने हाथों में लिया है, लेकिन वे इस बात से दुखी भी होते कि गंगा की सफाई युद्धस्तर पर नहीं हो रही है और एक साधु को उपवास करके मरने दिया गया। एक और छोटे गांधी हैं अन्ना हजारे - बताते हैं कि वे इसी डर से उपवास से बच रहे हैं कि कहीं सरकार मरने के लिए छोड़ न दे। उपवास वही करे, जो मरने की ठाने। 
क्या आपको नहीं दिख रहा, देश के ज्यादातर लोग अपने स्वार्थ का इस तरह पीछा कर रहे हैं कि आज के गांधियों का देशवासियों से भरोसा हिल गया है। यह मौत वाकई शहादत है, यह आतंकित करने के लिए होने दी गई है, यह इस बात का भी संकेत है कि गंगा यदि संपूर्ण और स्वच्छ चाहिए, तो संघर्ष को और बड़ा करना होगा। कहां हैं गांधीवादी, जरा गिनिए तो एक छतरी के नीचे कितने आए हैं? कहां हैं विपक्षी, गिनिए, एक मंच पर कितने दिख रहे हैं? ऐसा कतई नहीं है कि सरकार सुनती नहीं है, सुनाने वाले में दम चाहिए। जिसमें दम है, वह सुना रहा है, जिसमें दम नहीं, उसे तो दम तोडऩा ही है।
ऐसा भी नहीं है कि अचानक से ऐसी सरकार हमारे देश में आ गई है। सभ्यता, संवेदना, मानवीयता की जो सिलसिलेवार गिरावट हुई है, उसके फलस्वरूप ही ऐसी सरकार सत्ता में चुनकर आई है। कोई चुनी हुई सरकार कतई तानाशाह नहीं होती, वह केवल उसकी सुनती है, जिसमें दम होता है। अच्छाइयों को भुलाकर, स्वार्थ में लगे हुए, मौकापरस्त लोगों से भरे समाज में क्या इतना दम है कि वह सरकार से अपने काम करवा ले? उनके काम कतई नहीं होंगे, जो एकजुट नहीं हैं। उनके काम कतई नहीं होंगे, जिनको मात्र वोट चाहिए या जिनको वोट के बदले अपने लिए कोई उपहार चाहिए? उनके काम कतई नहीं होंगे, जिनके मन में मैल है? 
हमने इस शहर को, इस गंगा को स्वयं गंदा किया है और हम उम्मीद लगाए बैठे हैं कि कोई साफ कर जाए। ये कैसे होगा? किसी न किसी तरह से हम भ्रष्ट हैं या भ्रष्टाचार को अपने सामने होते देख रहे हैं, तो फिर हम कैसे ये उम्मीद कर सकते हैं कि सरकार पूरी ईमानदार होगी। बड़े रसूखदार लोग जब बिना बेल्ट, बिना हेलमेट सडक़ पर पकड़े जाते हैं, तो फोन उसी सरकारी मंत्री-संत्री को लगाते हैं, जो उन्हें कानून के जाल से निकाल सके। ऐसे पत्रकार हैं, जो किसी को चिडिय़ाघर दिखाने ले जाते हैं, तो वहां भी दो फोन लगाते हैं कि १०-१० रुपए का टिकट न लेना पड़े। फोन लगाते हैं कि पार्किंग का पैसा, टोल का पैसा न देना पड़े, अब बताइए ऐसे पत्रकार को क्या लाभ, अगर भ्रष्टाचार खत्म हो जाए। लिखना अलग चीज है और उसे जीना अलग चीज। कहां-कहां तक आप गिनेंगे। साधु-महात्माओं के दरबार का क्या हाल है? क्या वहां आचरण में भ्रष्टाचार नहीं है?  धर्म क्षेत्र में अनेक लोग होंगे, जो सोच रहे होंगे कि वो साधु तो पागल था, जो गंगा जी के लिए मर मिटा। छप्पन भोग खाओ भाई, गंगा जी के लिए आप सारे साधु चिंतित हो गए, तो गंगा साफ न हो जाएगी। 
बताते हैं कि एक बार किसी संगठन ने मदर टेरेसा को अमरीका में ही रहने के लिए मनाने की बड़ी कोशिश की। मदर कोलकाता छोडऩे को तैयार नहीं थीं। उन्हें कहा गया कि यहीं एक छोटा कोलकाता बना दिया जाएगा, तब मदर ने प्रश्न किया - गंगा कहां से लाओगे? 
विदेश से आई एक ईसाई लडक़ी ने गंगा का मोल समझ लिया, क्योंकि उसके मन में गंगा बहने लगी। वाकई हमारे मन वाली गंगा पहले गंदी हुई, उसके बाद तो बाहर वाली को गंदा होना ही था, हो गई। सिसक रही है, पुकार रही है कि समझो, मैं मात्र नदी नहीं हूं। नदियों का पानी तो सड़ जाता है, मेरा नहीं। क्यों? सोचो... सोचो...

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