‘रंग दे बसंती’, ‘भाग मिल्खा भाग’ जैसी शानदार फिल्में बनाने वाले फिल्मकार राकेश ओमप्रकाश मेहरा की नई फिल्म ‘मिर्जया’ रीलिज होने वाली है। इस फिल्म की ज्यादातर शूटिंग जोधपुर और राजस्थान में हुई है। मेहरा एक अलहदा निर्देशक हैं, फिल्म कहने-दिखाने का उनका अंदाज निराला है। पेश है पिछले दिनों उनसे ज्ञानेश उपाध्याय द्वारा लिया गया टेलीफोनिक इंटरव्यू...
पत्रिका : एक ऐसी प्रेम कहानी पर आपने फिल्म ‘मिर्जया’ बनाई है, जिसमें प्रेमी-प्रेमिका एक ही मां का दूध पीकर बड़े हुए? आपको नहीं लगता कि आज के समय में ऐसे विषय पर फिल्म बनाना बड़े साहस या दुस्साहस का काम है?
मेहरा : यह एक कहानी है। हर कहानी का अपना सच होता है। कोई कहानी कहता है, तो उसके अंदर जो आग जल रही है, वह धुंआ बनकर निकलती है और निकलनी ही चाहिए। साहस और दु:साहस तो दुनिया में कोई भी अच्छा-नया काम करने के लिए जरूरी है।
पत्रिका : आपकी फिल्म ‘रंग दे बसंती’ का भी अंत बलिदान या दुख के साथ हुआ था और ‘मिर्जया’ का अंत भी बलिदान या दुख के साथ हो रहा है? क्या ये आपको अच्छा लगता है?
मेहरा : अच्छे या बुरे की बात नहीं है। हालांकि यहां केवल बलिदान या दुख ही नहीं है। कहानी पर निर्भर करता है, जो भी गाथाएं हैं, जो प्रेम कहानियां हैं - हीर रांझा, लैला मजनूं इत्यादि, कोई चीझ हमें तभी अपील करती है, जब उसमें बलिदान का जज्बा हो। उसमें सच्चाई, मासूमियत होती है, तभी बात अमर होती है।
पत्रिका : क्या जुनूनी या सनक वाले या भ्रम के शिकार चरित्र आपको ज्यादा अच्छे लगते हैं ?
मेहरा : अच्छे ही नहीं, मुझे समझ ही वे आते हैं। आप कोई भी काम करें, उसमें अगर जुनून न हो, तो शायद वह काम फीका पड़ जाता है। कोई पोस्टमैन का काम हो या स्टूडेंट हो या मां हो, देखिए, मां में कितना जुनून होता है बच्चे को लेकर। मेरे लिए जुनून जरूरी है।
पत्रिका : फिल्म ‘मिर्जया’ इतिहास के कितने करीब है? इस लोकगाथा में आपने कितना बदलाव किया है?
मेहरा : यह नाटक मैंने दिल्ली में अपने कॉलेज के जमाने में देखा था। आखिर साहिबा ने मिर्जया के तीर क्यों तोड़े, यह बात कहीं न कहीं मेरे जेहन में रह गई। मैंने ३५ साल बाद गुलजार भाई से संदेश भेजकर पूछा कि क्या है ये? मैंने उन्हें यह नहीं कहा कि कोई कहानी लेकर आ रहा हूं। उन्होंने कहा कि आ जाओ। वे मेरे पड़ोसी हैं। चाय पर मैंने उनसे पूछा, साहिबा ने तीर क्यों तोड़े? उन्होंने कहा, बच्चू, (वे मुझे बच्चू ही कहते हैं) तुम यह तो साहिबा से ही जाकर पूछो। मैंने कहा, कब से ढूंढ़ रहा हूं, साहिबा मिल नहीं रही है। तो उन्होंने कहा, चलो हाथ पकडक़र चलते हैं साहिबा को ढूंढ़ते हैं। जब मिल जाएंगी, तो उन्हीं से पूछ लेंगे। तो ऐसे फिल्म समझने, लिखने का काम आगे बढ़ा।
गुलजार भाई से पूछा कि क्या हम आज के जमाने की मिर्जा-साहिबा को खोज सकते हैं। उन्होंने कहा, बिल्कुल खोज सकते हैं। यह जज्बा ही ऐसा है, इस दुनिया में जिंदगी की रफ्तार कितनी भी तेज हो जाए, दिल तो उसी रफ्तार से धडक़ता है, जैसे वह धडक़ता आया है। हमने आज के जमाने में मिर्जया-साहिबा खोजने की कोशिश की, खोज राजस्थान आकर पूरी हुई।
पत्रिका : पंजाब और पाकिस्तान की पृष्ठभूमि वाली कहानी को राजस्थान से क्यों जोड़ा गया है?
मेहरा : यह आज की कहानी है, यह कहानी आपको रूस में भी मिल सकती है, यह तो प्यार है, हर जगह है। यह जात-पात-क्षेत्र से ऊपर है। यह चरित्र हम आज के जमाने में डाल दें, तो क्या होगा? हमारे नायक का नाम आदिल है, साहिबा का नाम सुचित्रा है? राजस्थान में लोहार, बंजारे हैं, अन्य ऐसे अनेक समूह हैं, राजस्थान इस बात के लिए मशहूर है - कथाओं, लोकगाथाओं, ढोला मारू, महाराणा प्रताप इत्यादि। मिर्जया-साहिबा लोक कथा की गूंज आज के राजस्थान से आकर जुड़ती है। आज के यूथ को जोडऩा जरूरी है, हम उन्हें कोई पीरियड फिल्म दिखाएं, तो युवा उतना उससे नहीं जुड़ेगा। मैंने कहानी को इसलिए न पंजाब में रखा न पाकिस्तान में। फिल्म राजस्थान में भी है, लद्दाख में भी। इसमें लोक कथा को साइलेंट रखा गया है।
पत्रिका : आपके यहां सब्जेक्ट, क्राफ्ट और नेरेशन की विविधता है, लेकिन एक बड़ा सवाल यह है कि आप सिनेमा किसके लिए बनाते हैं?
मेहरा : सिनेमा कहानी कहने का आधुनिक तरीका है। पहले जो लोग ट्रेवल करते थे, कथा सुनाते थे, गाकर सुनाते थे। फिर किताबें आईं, आज का जमाना सिनेमा का है। हम कर वही रहे हैं, जो हजार साल पहले करते थे, कहानियां सुनाना। मैं वही कहानियां सुनाता हूं, जो मेरे अंदर से आती हैं, जिन्होंने मुझे अंदर से हिलाया-झिंझोड़ा है। अंदर से भावना आती है कि मुझे बोलना ही पड़ेगा। हम दुखों से हार नहीं मान सकते। हम चुप बैठ नहीं सकते। फिल्म तभी बनती है, जब फिल्मकार कुछ बताना चाहता है। मैं ऐसी कहानी कहता हूं, जिसे पूरी दुनिया में लोग देख-सुन सकते हैं।
पत्रिका : पिछली फिल्मों की तरह ही आपने अपनी ताजा फिल्म में भी युवाओं पर भरोसा किया है, क्या आज के भारतीय युवाओं पर आपको पूरा भरोसा है?
मेहरा : अपने से ज्यादा भरोसा मुझे युवाओं पर है। मुझे हमेशा लगता है कि युवा पीढ़ी का समाज बनाने में बड़ा योगदान है। युवाओं से मेरा सम्बंध ज्यादा मजबूत है। मैं उन्हें समझ पाता हूं और वे उससे भी ज्यादा मुझे समझ पाते हैं।
पत्रिका : एक ऐसी प्रेम कहानी पर आपने फिल्म ‘मिर्जया’ बनाई है, जिसमें प्रेमी-प्रेमिका एक ही मां का दूध पीकर बड़े हुए? आपको नहीं लगता कि आज के समय में ऐसे विषय पर फिल्म बनाना बड़े साहस या दुस्साहस का काम है?
मेहरा : यह एक कहानी है। हर कहानी का अपना सच होता है। कोई कहानी कहता है, तो उसके अंदर जो आग जल रही है, वह धुंआ बनकर निकलती है और निकलनी ही चाहिए। साहस और दु:साहस तो दुनिया में कोई भी अच्छा-नया काम करने के लिए जरूरी है।
पत्रिका : आपकी फिल्म ‘रंग दे बसंती’ का भी अंत बलिदान या दुख के साथ हुआ था और ‘मिर्जया’ का अंत भी बलिदान या दुख के साथ हो रहा है? क्या ये आपको अच्छा लगता है?
मेहरा : अच्छे या बुरे की बात नहीं है। हालांकि यहां केवल बलिदान या दुख ही नहीं है। कहानी पर निर्भर करता है, जो भी गाथाएं हैं, जो प्रेम कहानियां हैं - हीर रांझा, लैला मजनूं इत्यादि, कोई चीझ हमें तभी अपील करती है, जब उसमें बलिदान का जज्बा हो। उसमें सच्चाई, मासूमियत होती है, तभी बात अमर होती है।
पत्रिका : क्या जुनूनी या सनक वाले या भ्रम के शिकार चरित्र आपको ज्यादा अच्छे लगते हैं ?
मेहरा : अच्छे ही नहीं, मुझे समझ ही वे आते हैं। आप कोई भी काम करें, उसमें अगर जुनून न हो, तो शायद वह काम फीका पड़ जाता है। कोई पोस्टमैन का काम हो या स्टूडेंट हो या मां हो, देखिए, मां में कितना जुनून होता है बच्चे को लेकर। मेरे लिए जुनून जरूरी है।
पत्रिका : फिल्म ‘मिर्जया’ इतिहास के कितने करीब है? इस लोकगाथा में आपने कितना बदलाव किया है?
मेहरा : यह नाटक मैंने दिल्ली में अपने कॉलेज के जमाने में देखा था। आखिर साहिबा ने मिर्जया के तीर क्यों तोड़े, यह बात कहीं न कहीं मेरे जेहन में रह गई। मैंने ३५ साल बाद गुलजार भाई से संदेश भेजकर पूछा कि क्या है ये? मैंने उन्हें यह नहीं कहा कि कोई कहानी लेकर आ रहा हूं। उन्होंने कहा कि आ जाओ। वे मेरे पड़ोसी हैं। चाय पर मैंने उनसे पूछा, साहिबा ने तीर क्यों तोड़े? उन्होंने कहा, बच्चू, (वे मुझे बच्चू ही कहते हैं) तुम यह तो साहिबा से ही जाकर पूछो। मैंने कहा, कब से ढूंढ़ रहा हूं, साहिबा मिल नहीं रही है। तो उन्होंने कहा, चलो हाथ पकडक़र चलते हैं साहिबा को ढूंढ़ते हैं। जब मिल जाएंगी, तो उन्हीं से पूछ लेंगे। तो ऐसे फिल्म समझने, लिखने का काम आगे बढ़ा।
गुलजार भाई से पूछा कि क्या हम आज के जमाने की मिर्जा-साहिबा को खोज सकते हैं। उन्होंने कहा, बिल्कुल खोज सकते हैं। यह जज्बा ही ऐसा है, इस दुनिया में जिंदगी की रफ्तार कितनी भी तेज हो जाए, दिल तो उसी रफ्तार से धडक़ता है, जैसे वह धडक़ता आया है। हमने आज के जमाने में मिर्जया-साहिबा खोजने की कोशिश की, खोज राजस्थान आकर पूरी हुई।
पत्रिका : पंजाब और पाकिस्तान की पृष्ठभूमि वाली कहानी को राजस्थान से क्यों जोड़ा गया है?
मेहरा : यह आज की कहानी है, यह कहानी आपको रूस में भी मिल सकती है, यह तो प्यार है, हर जगह है। यह जात-पात-क्षेत्र से ऊपर है। यह चरित्र हम आज के जमाने में डाल दें, तो क्या होगा? हमारे नायक का नाम आदिल है, साहिबा का नाम सुचित्रा है? राजस्थान में लोहार, बंजारे हैं, अन्य ऐसे अनेक समूह हैं, राजस्थान इस बात के लिए मशहूर है - कथाओं, लोकगाथाओं, ढोला मारू, महाराणा प्रताप इत्यादि। मिर्जया-साहिबा लोक कथा की गूंज आज के राजस्थान से आकर जुड़ती है। आज के यूथ को जोडऩा जरूरी है, हम उन्हें कोई पीरियड फिल्म दिखाएं, तो युवा उतना उससे नहीं जुड़ेगा। मैंने कहानी को इसलिए न पंजाब में रखा न पाकिस्तान में। फिल्म राजस्थान में भी है, लद्दाख में भी। इसमें लोक कथा को साइलेंट रखा गया है।
पत्रिका : आपके यहां सब्जेक्ट, क्राफ्ट और नेरेशन की विविधता है, लेकिन एक बड़ा सवाल यह है कि आप सिनेमा किसके लिए बनाते हैं?
मेहरा : सिनेमा कहानी कहने का आधुनिक तरीका है। पहले जो लोग ट्रेवल करते थे, कथा सुनाते थे, गाकर सुनाते थे। फिर किताबें आईं, आज का जमाना सिनेमा का है। हम कर वही रहे हैं, जो हजार साल पहले करते थे, कहानियां सुनाना। मैं वही कहानियां सुनाता हूं, जो मेरे अंदर से आती हैं, जिन्होंने मुझे अंदर से हिलाया-झिंझोड़ा है। अंदर से भावना आती है कि मुझे बोलना ही पड़ेगा। हम दुखों से हार नहीं मान सकते। हम चुप बैठ नहीं सकते। फिल्म तभी बनती है, जब फिल्मकार कुछ बताना चाहता है। मैं ऐसी कहानी कहता हूं, जिसे पूरी दुनिया में लोग देख-सुन सकते हैं।
पत्रिका : पिछली फिल्मों की तरह ही आपने अपनी ताजा फिल्म में भी युवाओं पर भरोसा किया है, क्या आज के भारतीय युवाओं पर आपको पूरा भरोसा है?
मेहरा : अपने से ज्यादा भरोसा मुझे युवाओं पर है। मुझे हमेशा लगता है कि युवा पीढ़ी का समाज बनाने में बड़ा योगदान है। युवाओं से मेरा सम्बंध ज्यादा मजबूत है। मैं उन्हें समझ पाता हूं और वे उससे भी ज्यादा मुझे समझ पाते हैं।
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