Monday, 28 October 2019

एक ख्वाब जिसे दुनिया पहनती है

एलिअस होव, सिलाई मशीन के आविष्कारक

एक भयावह दरबार लगा है, जहां बर्बर राजा के सामने लोग घसीटकर लाए जाते हैं। थर्र-थर्र कांपते, रहम की गुहार में बिलखते। रक्त की प्यासी निगाहें घात लगाए टिकी हैं, शातिर मुस्कान से इस्तकबाल करतीं। मुझे भी घसीटकर लाया जाता है और पटक दिया जाता है। मुकदमा पेश होता है, ‘माय लॉर्ड, ये दोषी मैकेनिक, बता नहीं पा रहा कि सुई की आंख कहां होनी चाहिए।’  मैं घुटनों पर बैठ गिड़गिड़ाया, ‘माय लॉर्ड, मैं दिन-रात बहुत कोशिश कर रहा हूं कि सुई की आंख खोज लूं, लेकिन...’

राजा ने बीच में ही रोककर फरमान सुना दिया, ‘बस बहुत हो गया, महज 24 घंटे का समय दिया जाता है। ये आदमी सुई की आंख नहीं खोज पाए, तो इसे आदमखोरों को सौंप दिया जाए।’ जब आखिरी फरमान ही आ गया, तो फिर फरियाद की गुंजाइश कहां थी? मुझे पकड़कर छोटी प्रयोगशाला में धकेल दिया गया। मरता क्या न करता? मैं फिर खोज में जुट गया।

आखिरी बार युद्ध स्तर पर, बहुत सोचा, तरह-तरह से प्रयोग किए। सुई में जगह-जगह छेदकर देखा कि सही सिलाई में कामयाबी मिल जाए। उंगलियां लहूलुहान हो गईं। बेरहम समय पल-पल रिस रहा था। प्रयोग में बेकार हुई सुइयों का ढेर लग गया। दिमाग ने काम करना मानो बंद कर दिया। बाद में तो घायल उंगलियां हिल भी नहीं पा रही थीं। बीतना ही था, समय बीत गया। फिर क्या, मुझे आदमखोरों को सौंप दिया गया, जो मुझे कहीं निर्जन इलाके में घसीट ले गए। उन आदमखोरों ने मुझे बांध दिया। मेरी ओर अपने भाले दिखा-दिखाकर डराने लगे। देर तक भाले से डराने का दौर चला। भाले जब मेरी देह में चुभे, तब हठात् वह डरावनी दुनिया ओझल हो गई।

यह एक ख्वाब था, जो टूट गया। एक ख्वाब, जो अमेरिकी शहर स्पेंसर के एक कारीगर एलिअस होव देख रहे थे। त्रासद ख्वाब से गुजरकर पसीने से लथपथ वह सोचने लगे कि यह सपना आखिर क्या था? चूंकि वह एक सिलाई मशीन का आविष्कार करने में दिलोजान से जुटे थे, तो सोते-जागते हर समय उन्हें सिलाई के औजार ही दिखते थे। सिलाई से जुड़ा औजार है सुई और सुई जैसा ही भाला। अचानक ख्वाब में दिखे भालों पर उनका ध्यान गया। भाले कैसे थे? क्या उनकी नोक में छेद था? यह खयाल आते ही एलिअस होव बिस्तर से उछलकर उठे। सुबह के चार बज रहे थे। तत्काल अपनी प्रयोगशाला में घुसे और एक सुई की नोक में उन्होंने छेद किया। उसे सिलाई मशीन में लगाया और धागा लगाकर आजमाया। सुई धागे को बहुत सफाई से कपड़े के नीचे ले जाती और सिलकर ऊपर आ जाती। सिलाई भी निखर उठी।

कामयाबी एलिअस के कदमों में आ गई। जब सुई को आंख मिल गई, तब वह कहां रुकने वाली थी। वह ऐसी ही सुई की तलाश में पिछले तीन वर्ष से लगे थे। तमाम प्रयोग-प्रयास के बावजूद उन्हें कामयाबी नहीं मिल रही थी। मन हारने लगा था, तभी वह ख्वाब आया। अगर उन्हें वह ख्वाब न आता, यदि उन्हें ख्वाब में राजा सजा न सुनाते, यदि उन्हें आमदखोर अपने उन खास भालों से न डराते, तो शायद सिलाई मशीन को मुकम्मल सुई के लिए और कई वर्ष-दशक इंतजार करना पड़ता। यह आज से करीब पौने दो सौ साल पहले की बात है। शिल्प क्रांति के दौर में बड़े-बड़े कारखानों में कपड़े बनने लगे थे, लेकिन दुनिया एक कारगर सिलाई मशीन के लिए तरस रही थी। बताते हैं, उस दौर में वैसी सिलाई मशीन बनाने की कोशिश में 60 से ज्यादा आविष्कारक या मैकेनिक लगे थे, लेकिन वह ख्वाब, वो लम्हा तो एलिअस होव को ही नसीब हुआ। होव यह मानते थे कि जीवन में कड़े संघर्ष की वजह से ही उन्हें वह ख्वाब आया। करीब 48 की उम्र उन्हें नसीब हुई और उनका लगभग पूरा जीवन संघर्षमय रहा।

उन्होंने वर्ष 1846 में उस सुई का पेटेंट करा लिया था, लेकिन अपनी मशीन बेचने में कामयाबी नहीं मिली, तो अमेरिका से इंग्लैंड चले गए। लेकिन वहां तो गरीबी ने घेर लिया, फिर अमेरिका लौटे और देखा कि उनकी सुई का सिक्का सिलाई बाजार में चल निकला है। सिलाई मशीन बनाने वाली सबसे बड़ी कंपनी खूब चांदी कूट रही है। उन्होंने पेटेंट दिखाकर दावा पेश किया। वर्ष 1854 में वह पेटेंट का मुकदमा जीत गए। कहते हैं, उन्हें इतना धन मिला कि वह अमेरिका के दूसरे सबसे अमीर आदमी हो गए थे। दुनिया में कहीं भी कोई सिलाई मशीन या सिलाई की सुई बिकती थी, तो एलिअस की तिजोरी बड़ी हो जाती थी। कौन कहता है, ख्वाब का वो लम्हा वहीं थम गया, उसका तमाशा तो दुनिया डेढ़ सौ साल से पहने घूम रही है और हमेशा घूमेगी।

As published in Hindustan 

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