ज्ञानेश उपाध्याय
देश के एक लोकतांत्रिक सेकुलर निर्माता पंडित नेहरू ने जेएनयू को जन्म दिया था, वरना ऐसे संस्थान को वामपंथ अपने स्वप्न में भी जन्म नहीं दे सकता। यह भी तय है कि देश में अगर लेनिन, स्टालिन या माओ की सरकार आ जाए, तो जेएनयू पहली फुरसत में मार दिया जाएगा। बंदूक और तोप पर भरोसा करने वाली विचारधारा में वैकल्पिक विचारों के लिए कितनी जगह है, दुनिया लगातार देख रही है।
महान मार्क्स ने एक सपना देखा था कि साम्यवाद यानी एक सुंदरतम मानवीय कविता। लेकिन इस कविता का जन्म स्वाभाविक रूप से वैध तरीकों से नहीं हुआ। तत्कालीन समाजों के साथ बलात्कार स्वरूप ही उस अधूरी अवैध-सी कविता का जन्म हुआ। जो सत्ता बंदूक से निकली थी, वह ज्यादा पसर नहीं पाई। दुनिया के मजदूरों के एक होने से पहले ही पोल खुल गई। यह कविता संसार में महानता हासिल करने से वंचित रह गई। भिन्न विचारों के साथ चीन आज क्या करता है? अपने विचारवान छात्रों के साथ, लोकतंत्र प्रेमियों के साथ चीन ने क्या किया है? यह हम क्यों भूल जाएं? वामपंथी जेएनयू में हर मुद्दे पर जिस तरह से गरजते रहे हैं, क्या यह चीन में संभव है, क्या सोवियत संघ में ये संभव था?
वामपंथियों में स्वतंत्र मुखर विचारवान होने का अहंकार जेएनयू तक ही सीमित क्यों है? इन्होंने केरल या पश्चिम बंगाल में ऐसे संस्थान क्यों नहीं बना लिए? जेएनयू अगर आज वामपंथियों के लिए आदर्श संस्थान है, तो वामपंथी प्रभाव वाले सभी राज्यों में अनेक जेएनयू क्यों नहीं खुले?
दरअसल, ऐसे किसी विचार-संपन्न संस्थान के बारे में लाल सलाम वाली विचारधारा सोच भी नहीं सकती। सोचने की आजादी का मतलब कतई यह नहीं कि कोई सोचते-सोचते अपनी सीमाएं भूल जाए और पाकिस्तान या चीन चला जाए। देश के धन पर पलने वाले जिस संस्थान की सोच देश, संविधान, न्यायालय के विरुद्ध चली जाए, वैसे किसी संस्थान को क्या चीन जीने देगा? क्या पाकिस्तान ने मंटो जैसों को चैन से जीने दिया था?
हम रूखी-सूखी खाने वाले देश के लोग हैं, हमें खून में चुपड़ी हुई रोटी कैसे पचेगी, यह सोचना मुश्किल है। एक तरफ पाकिस्तान है, जिसने जमींदारों को अभी तक जीवित रखा है, तो दूसरी तरफ चीन, जिसने लाखों जमींदारों को फांसी पर लटकाकर दुनिया को लाल सलाम ठोंक रखा है। दोनों गहरे दोस्त हैं, एक घोर सांप्रदायिक, तो दूसरा घोर माओवादी?
पता नहीं इस नापाक-बेमेल आदर्श दोस्ती पर कभी जेएनयू में चर्चा होती होगी या नहीं ?
पाकिस्तान के संदर्भ में किसी ने नहीं सुना ...
जमींदारों की बर्बादी तक
जंग रहेगी जंग रहेगी।
चीन के संदर्भ में किसी ने नहीं सुना
लोकतंत्र के आने तक
जंग रहेगी, जंग रहेगी।
लेकिन हम सुन रहे हैं
भारत की बर्बादी तक
जंग रहेगी, जंग रहेगी।
मुंह पर कपड़ा बांधकर अलगाववादी नारे लगाने वाले और अंडरग्राउंड हो जाने वाले यह भूल गए कि भारत की बर्बादी में जेएनयू की बर्बादी भी शामिल है। भारत बर्बाद कर दिया जाएगा, तो यहां क्या बचेगा - पाकिस्तान या चीन ? लेकिन तब जेएनयू तो अपने होने को भूल ही जाए।
भारत होना एक महान विचार का हिस्सा है, भारत के आकाश को एक खिडक़ी खोलकर नहीं समझा जा सकता। खिडक़ी वामपंथ की हो या कथित हिन्दू राष्ट्रवादियों की, पूरा आकाश नहीं दिखा पा रही है। समेकित भारतीय विचार में विरोधाभास हैं, उसे किसी एक संहिता के पैमाने पर सरलीकृत नहीं किया जा सकता, वह जटिल है और जटिल ही रहेगी। यहां सीताराम और कन्हैया जैसे पौराणिक नाम वाले भी वामपंथ के झंडाबरदार हो सकते हैं और यह बोल सकते हैं कि हमारे नाम में क्या रखा है। बड़ी संख्या में ऐसे वामपंथी हैं, जिनकी औलादें उन्हीं पूंजीवादी देशों में सेवारत हैं, जिन्हें ये अपशब्द कहते रहते हैं। जाहिर है, वामपंथियों के सिद्धांत और व्यवहार में उतना ही फर्क है, जितना कथित हिन्दू राष्ट्रवादियों के सिद्धांत और व्यवहार में। भारतीय होने का आदर्श न लेफ्ट में पैदा हो सका है और न राइट में। भारतीय होने का आदर्श अभी भी सेंटर में है, उसी सेंटर में जेएनयू स्थित है।
कोई शक नहीं, जेएनयू को न तो वामपंथियों ने जन्म दिया है और न कथित हिन्दू राष्ट्रवादियों ने...लेकिन तब भी दोनों इसके लिए आपस में जूतम-पैजार में लगे हैं।
प्यारे भैया जी, यह तो मानिए कि इंडिया दैट इज भारत को कथित हिन्दू राष्ट्रवादियों ने नहीं, बल्कि लोकतांत्रिक सेकुलर लोगों ने खून-पसीने से सींचा है, खड़ा किया है। सांप्रदायिक लोग तो देश लेकर चले गए, उनका देश ही सांप्रदायिकता आधारित है, वे हमारे लिए कतई आदर्श नहीं हो सकते। यहां अफजल जैसे लोग कभी यह समझ नहीं पाएंगे कि उनके नाम के साथ गुरु क्यों जुड़ा है? इस पर उन जैसौं ने कभी सोचा ही नहीं है। सांप्रदायिक आधार पर मेलजोल या भारत की मिलीजुली संस्कृति का मखौल पैदा करना और अभिव्यक्ति के अधिकार का पूरा लाभ लेते हुए अपने संविधान निर्धारित कत्र्तव्यों को भूल जाना, भारत की यही वो नब्ज है, जो कमजोर चल रही है। मुझे नहीं पता नारा लगाकर अधिकार मांगने वालों को नागरिक के रूप में अपने कत्र्तव्य कितने याद हैं?
लेकिन सावधान! आज के समय में कोई व्यक्ति भारत माता के समर्थन में नारे लगाए, तो जरूरी नहीं कि उसे भारतीय नागरिक या देश भक्त मान लिया जाए। यह नारा भी मजाक का कारण बन गया है। सोशल मीडिया पर चुटकुला चला कि विजय माल्या को विदेश जाते समय एयरपोर्ट पर रोका गया, तो विजय माल्या ने भारत माता की जय का नारा लगाया, और अधिकारियों ने उसे देशभक्त मानकर जाने दिया।
यकीन मानिए, हम किसी पौराणिक काल में नहीं हैं, जहां हम संसद में बोल दें कि सिर काटकर किसी के चरण में चढ़ा देंगे। यहां महाभारत नहीं चल रहा, भारत चल रहा है। ऐसा कैसे चलेगा कि आप कन्हैया को जेल में रखना चाहेंगे, लेकिन उसके खिलाफ ठोस सुबूत पेश नहीं करेंगे।
राष्ट्रवाद के नाम पर फेंकने का चलन ऐसा चला है कि अंधाधुंध फेंका जा रहा है। नारा हो या देशभक्ति का सर्टिफिकेट हो या कोई वस्तु, ध्यान रखें... फेंके जाने वाली कई चीजें कूड़ेदान में ही पहुंचती हैं। ऐसा न हो कि लोग देशभक्ति और देशद्रोह जैसे शब्द से ही ऊब जाएं, इन पर ध्यान देना छोड़ दें।
कथित हिन्दू राष्ट्रवादियों के हाथ में सत्ता है, तो उन्हें ठोक-बजाकर, सोच-समझकर चलना चाहिए। झगड़े उलझने नहीं, सुलझने चाहिए। यह एक भयानक बात है - हमारा कथित हिन्दू राष्ट्रवाद दक्षिणपंथ नहीं, बल्कि मुस्लिम सांप्रदायिकता का प्रतिविंब या प्रतिध्वनि मात्र रह गया है। दक्षिणपंथ की असली आवाज... खोजिए तो भैया जी, वह कहां है?
देश के एक लोकतांत्रिक सेकुलर निर्माता पंडित नेहरू ने जेएनयू को जन्म दिया था, वरना ऐसे संस्थान को वामपंथ अपने स्वप्न में भी जन्म नहीं दे सकता। यह भी तय है कि देश में अगर लेनिन, स्टालिन या माओ की सरकार आ जाए, तो जेएनयू पहली फुरसत में मार दिया जाएगा। बंदूक और तोप पर भरोसा करने वाली विचारधारा में वैकल्पिक विचारों के लिए कितनी जगह है, दुनिया लगातार देख रही है।
महान मार्क्स ने एक सपना देखा था कि साम्यवाद यानी एक सुंदरतम मानवीय कविता। लेकिन इस कविता का जन्म स्वाभाविक रूप से वैध तरीकों से नहीं हुआ। तत्कालीन समाजों के साथ बलात्कार स्वरूप ही उस अधूरी अवैध-सी कविता का जन्म हुआ। जो सत्ता बंदूक से निकली थी, वह ज्यादा पसर नहीं पाई। दुनिया के मजदूरों के एक होने से पहले ही पोल खुल गई। यह कविता संसार में महानता हासिल करने से वंचित रह गई। भिन्न विचारों के साथ चीन आज क्या करता है? अपने विचारवान छात्रों के साथ, लोकतंत्र प्रेमियों के साथ चीन ने क्या किया है? यह हम क्यों भूल जाएं? वामपंथी जेएनयू में हर मुद्दे पर जिस तरह से गरजते रहे हैं, क्या यह चीन में संभव है, क्या सोवियत संघ में ये संभव था?
वामपंथियों में स्वतंत्र मुखर विचारवान होने का अहंकार जेएनयू तक ही सीमित क्यों है? इन्होंने केरल या पश्चिम बंगाल में ऐसे संस्थान क्यों नहीं बना लिए? जेएनयू अगर आज वामपंथियों के लिए आदर्श संस्थान है, तो वामपंथी प्रभाव वाले सभी राज्यों में अनेक जेएनयू क्यों नहीं खुले?
दरअसल, ऐसे किसी विचार-संपन्न संस्थान के बारे में लाल सलाम वाली विचारधारा सोच भी नहीं सकती। सोचने की आजादी का मतलब कतई यह नहीं कि कोई सोचते-सोचते अपनी सीमाएं भूल जाए और पाकिस्तान या चीन चला जाए। देश के धन पर पलने वाले जिस संस्थान की सोच देश, संविधान, न्यायालय के विरुद्ध चली जाए, वैसे किसी संस्थान को क्या चीन जीने देगा? क्या पाकिस्तान ने मंटो जैसों को चैन से जीने दिया था?
हम रूखी-सूखी खाने वाले देश के लोग हैं, हमें खून में चुपड़ी हुई रोटी कैसे पचेगी, यह सोचना मुश्किल है। एक तरफ पाकिस्तान है, जिसने जमींदारों को अभी तक जीवित रखा है, तो दूसरी तरफ चीन, जिसने लाखों जमींदारों को फांसी पर लटकाकर दुनिया को लाल सलाम ठोंक रखा है। दोनों गहरे दोस्त हैं, एक घोर सांप्रदायिक, तो दूसरा घोर माओवादी?
पता नहीं इस नापाक-बेमेल आदर्श दोस्ती पर कभी जेएनयू में चर्चा होती होगी या नहीं ?
पाकिस्तान के संदर्भ में किसी ने नहीं सुना ...
जमींदारों की बर्बादी तक
जंग रहेगी जंग रहेगी।
चीन के संदर्भ में किसी ने नहीं सुना
लोकतंत्र के आने तक
जंग रहेगी, जंग रहेगी।
लेकिन हम सुन रहे हैं
भारत की बर्बादी तक
जंग रहेगी, जंग रहेगी।
मुंह पर कपड़ा बांधकर अलगाववादी नारे लगाने वाले और अंडरग्राउंड हो जाने वाले यह भूल गए कि भारत की बर्बादी में जेएनयू की बर्बादी भी शामिल है। भारत बर्बाद कर दिया जाएगा, तो यहां क्या बचेगा - पाकिस्तान या चीन ? लेकिन तब जेएनयू तो अपने होने को भूल ही जाए।
भारत होना एक महान विचार का हिस्सा है, भारत के आकाश को एक खिडक़ी खोलकर नहीं समझा जा सकता। खिडक़ी वामपंथ की हो या कथित हिन्दू राष्ट्रवादियों की, पूरा आकाश नहीं दिखा पा रही है। समेकित भारतीय विचार में विरोधाभास हैं, उसे किसी एक संहिता के पैमाने पर सरलीकृत नहीं किया जा सकता, वह जटिल है और जटिल ही रहेगी। यहां सीताराम और कन्हैया जैसे पौराणिक नाम वाले भी वामपंथ के झंडाबरदार हो सकते हैं और यह बोल सकते हैं कि हमारे नाम में क्या रखा है। बड़ी संख्या में ऐसे वामपंथी हैं, जिनकी औलादें उन्हीं पूंजीवादी देशों में सेवारत हैं, जिन्हें ये अपशब्द कहते रहते हैं। जाहिर है, वामपंथियों के सिद्धांत और व्यवहार में उतना ही फर्क है, जितना कथित हिन्दू राष्ट्रवादियों के सिद्धांत और व्यवहार में। भारतीय होने का आदर्श न लेफ्ट में पैदा हो सका है और न राइट में। भारतीय होने का आदर्श अभी भी सेंटर में है, उसी सेंटर में जेएनयू स्थित है।
कोई शक नहीं, जेएनयू को न तो वामपंथियों ने जन्म दिया है और न कथित हिन्दू राष्ट्रवादियों ने...लेकिन तब भी दोनों इसके लिए आपस में जूतम-पैजार में लगे हैं।
प्यारे भैया जी, यह तो मानिए कि इंडिया दैट इज भारत को कथित हिन्दू राष्ट्रवादियों ने नहीं, बल्कि लोकतांत्रिक सेकुलर लोगों ने खून-पसीने से सींचा है, खड़ा किया है। सांप्रदायिक लोग तो देश लेकर चले गए, उनका देश ही सांप्रदायिकता आधारित है, वे हमारे लिए कतई आदर्श नहीं हो सकते। यहां अफजल जैसे लोग कभी यह समझ नहीं पाएंगे कि उनके नाम के साथ गुरु क्यों जुड़ा है? इस पर उन जैसौं ने कभी सोचा ही नहीं है। सांप्रदायिक आधार पर मेलजोल या भारत की मिलीजुली संस्कृति का मखौल पैदा करना और अभिव्यक्ति के अधिकार का पूरा लाभ लेते हुए अपने संविधान निर्धारित कत्र्तव्यों को भूल जाना, भारत की यही वो नब्ज है, जो कमजोर चल रही है। मुझे नहीं पता नारा लगाकर अधिकार मांगने वालों को नागरिक के रूप में अपने कत्र्तव्य कितने याद हैं?
लेकिन सावधान! आज के समय में कोई व्यक्ति भारत माता के समर्थन में नारे लगाए, तो जरूरी नहीं कि उसे भारतीय नागरिक या देश भक्त मान लिया जाए। यह नारा भी मजाक का कारण बन गया है। सोशल मीडिया पर चुटकुला चला कि विजय माल्या को विदेश जाते समय एयरपोर्ट पर रोका गया, तो विजय माल्या ने भारत माता की जय का नारा लगाया, और अधिकारियों ने उसे देशभक्त मानकर जाने दिया।
यकीन मानिए, हम किसी पौराणिक काल में नहीं हैं, जहां हम संसद में बोल दें कि सिर काटकर किसी के चरण में चढ़ा देंगे। यहां महाभारत नहीं चल रहा, भारत चल रहा है। ऐसा कैसे चलेगा कि आप कन्हैया को जेल में रखना चाहेंगे, लेकिन उसके खिलाफ ठोस सुबूत पेश नहीं करेंगे।
राष्ट्रवाद के नाम पर फेंकने का चलन ऐसा चला है कि अंधाधुंध फेंका जा रहा है। नारा हो या देशभक्ति का सर्टिफिकेट हो या कोई वस्तु, ध्यान रखें... फेंके जाने वाली कई चीजें कूड़ेदान में ही पहुंचती हैं। ऐसा न हो कि लोग देशभक्ति और देशद्रोह जैसे शब्द से ही ऊब जाएं, इन पर ध्यान देना छोड़ दें।
कथित हिन्दू राष्ट्रवादियों के हाथ में सत्ता है, तो उन्हें ठोक-बजाकर, सोच-समझकर चलना चाहिए। झगड़े उलझने नहीं, सुलझने चाहिए। यह एक भयानक बात है - हमारा कथित हिन्दू राष्ट्रवाद दक्षिणपंथ नहीं, बल्कि मुस्लिम सांप्रदायिकता का प्रतिविंब या प्रतिध्वनि मात्र रह गया है। दक्षिणपंथ की असली आवाज... खोजिए तो भैया जी, वह कहां है?
3 comments:
अच्छा है ज्ञानेश्वर जी बेहतरीन - संजय पांडेय
behatreen
Pandey ji...pramod ji bahut bahut aabhaar
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