ज्ञानेश उपाध्याय
वो सभ्यताएं दगाबाज होती हैं, जो अपनी विरासत बचा नहीं पातीं। इमारतों और ऐतिहासिक मुकामों से भरपूर जोधपुर तो पूरा का पूरा हमारी विरासत है। हम सभी को यह सोचना चाहिए कि हमने अपनी विरासत को कैसे-कितना बचाया है। विरासत और इस शहर को बचाने में हमारा क्या योगदान है? सबकी आंखों के सामने अतिक्रमण होता है। दुर्भाग्य देखिए, अतिक्रमण होना कोई मुद्दा नहीं है, लेकिन अतिक्रमण हटाना आज शहर का सबसे बड़ा मुद्दा है। अतिक्रमण हटते ही, कहीं न कहीं से राजनीति गरीबी में आटा गीला करने पहुंच जाती है। धन्य है हमारा शहर, जहां अतिक्रमण हटाने गए लोग पत्थर मारकर खदेड़ दिए जाते हैं। आखिर यह शहर किसका है, अतिक्रमण करने वालों का या अतिक्रमण हटाने वालों का या उनका जिन्होंने अतिक्रमण होने दिया? इसी शहर में ऐसे हजारों लोग हैं, जो हर महीने ईमानदारी से किराया अदा कर अपने सिर पर छत का इंतजाम करते हैं, सालों तक अपनी आंखों में अपने घर का सपना संजोए रहते हैं। ऐसे ईमानदार परिवारों, लोगों को याद करने वाली राजनीति कहां है? आज राजनीति तो उन लोगों के लिए आंसू बहाती है, जिन्होंने अतिक्रमण किया, खाली जगह देखकर बस गए, जिन्होंने कानून की पालना नहीं की, जिन्हें यह पता था कि एक बार कहीं बस-बैठ गए, तो फिर हटाने वालों को मिल-जुलकर देख लेंगे। क्या आज की राजनीति ईमानदार लोगों के साथ नहीं है? शहर के राजनेताओं को भी यह सोचना चाहिए कि वे अतिक्रमण हटाने के प्रति कितने समर्पित हैं। काश! आज पुनर्वास के प्रति जो समर्पण दिख रहा है, वही समर्पण अतिक्रमण के विरुद्ध भी दिखता, तो आज यह शहर देश के सुन्दरतम शहरों में शुमार होता।
सोचिए उन पूर्वजों के बारे में जिन्होंने १९१० में घंटाघर बनवाया था। केवल घड़ी में ३ लाख रुपए लगे थे, यानी आज के हिसाब से ४२ करोड़ रुपए। पूर्वजों के उस दौर में तोला भर सोना १८ रुपए का भी नहीं था, लेकिन विरासत की कीमत थी, सौंदर्यबोध था कि शहर को शानदार और यादगार बनाना है। उस समय से आज तक महंगाई तो १४०० गुणा बढ़ गई है, लेकिन शहर के प्रति हम शहरवासियों की अपणायत कितना गुणा बढ़ी है, फैसला हमें करना चाहिए। विरासत खड़ी करने वालों ने कभी नहीं चाहा होगा कि उनकी योजना के सरदार मार्केट के अलावा भी वहां खचाखच भरा बाजार लग जाए।
हमें स्मार्ट सिटी का दर्जा नहीं मिला, तो क्यों? आज सोलह आने का सवाल तो यह है कि जिस शहर की राजनीति ईमानदार और स्मार्ट नहीं है, क्या उस शहर को स्मार्ट होने का दर्जा मिल सकता है? शहर की पहाडिय़ों को लूटा जा रहा है, अवैध कब्जों की होड़ मची है, जिसकी लाठी उसकी भैंस की कहावत को चरितार्थ किया जा रहा है, क्या यही है स्मार्टनेस की ओर ले जाने वाला रास्ता ?
स्मार्ट होने का दर्जा नहीं मिला, १०० से २०० करोड़ रुपए हाथ से फिसल गए, तो शहर में एक भी रैली नहीं निकली, लेकिन गरीबी और गरीबों की आड़ में (अतिक्रमण विरोधी कार्रवाई के खिलाफ) लंबी रैली निकली है। ऐसी रैली से राजनीति के लिए थोड़ा कुछ निकल सकता है, लेकिन समाधान कतई नहीं निकलेगा। जिस शहर में अवैध बसावट का पुनर्वास होता है, उस शहर में अवैध बस्तियां बसने का सिलसिला कौन रोक पाएगा? उन सरकारी लोगों को सबसे ज्यादा धिक्कार है, जो मोटा पैसा लेकर भी दशकों तक वैध कॉलोनियां नहीं बसा पाते हैं, लेकिन अवैध बस्तियों तक बिजली, पानी, फोन, सडक़ लिए रातों-रात पहुंच जाते हैं। ऐसी बेईमान स्मार्टनेस शहर के दामन पर सबसे बड़ा अतिक्रमण है, इसका इलाज सबसे पहले करना होगा।
(अगस्त पत्रिका में प्रकाशित टिप्पणी)
वो सभ्यताएं दगाबाज होती हैं, जो अपनी विरासत बचा नहीं पातीं। इमारतों और ऐतिहासिक मुकामों से भरपूर जोधपुर तो पूरा का पूरा हमारी विरासत है। हम सभी को यह सोचना चाहिए कि हमने अपनी विरासत को कैसे-कितना बचाया है। विरासत और इस शहर को बचाने में हमारा क्या योगदान है? सबकी आंखों के सामने अतिक्रमण होता है। दुर्भाग्य देखिए, अतिक्रमण होना कोई मुद्दा नहीं है, लेकिन अतिक्रमण हटाना आज शहर का सबसे बड़ा मुद्दा है। अतिक्रमण हटते ही, कहीं न कहीं से राजनीति गरीबी में आटा गीला करने पहुंच जाती है। धन्य है हमारा शहर, जहां अतिक्रमण हटाने गए लोग पत्थर मारकर खदेड़ दिए जाते हैं। आखिर यह शहर किसका है, अतिक्रमण करने वालों का या अतिक्रमण हटाने वालों का या उनका जिन्होंने अतिक्रमण होने दिया? इसी शहर में ऐसे हजारों लोग हैं, जो हर महीने ईमानदारी से किराया अदा कर अपने सिर पर छत का इंतजाम करते हैं, सालों तक अपनी आंखों में अपने घर का सपना संजोए रहते हैं। ऐसे ईमानदार परिवारों, लोगों को याद करने वाली राजनीति कहां है? आज राजनीति तो उन लोगों के लिए आंसू बहाती है, जिन्होंने अतिक्रमण किया, खाली जगह देखकर बस गए, जिन्होंने कानून की पालना नहीं की, जिन्हें यह पता था कि एक बार कहीं बस-बैठ गए, तो फिर हटाने वालों को मिल-जुलकर देख लेंगे। क्या आज की राजनीति ईमानदार लोगों के साथ नहीं है? शहर के राजनेताओं को भी यह सोचना चाहिए कि वे अतिक्रमण हटाने के प्रति कितने समर्पित हैं। काश! आज पुनर्वास के प्रति जो समर्पण दिख रहा है, वही समर्पण अतिक्रमण के विरुद्ध भी दिखता, तो आज यह शहर देश के सुन्दरतम शहरों में शुमार होता।
सोचिए उन पूर्वजों के बारे में जिन्होंने १९१० में घंटाघर बनवाया था। केवल घड़ी में ३ लाख रुपए लगे थे, यानी आज के हिसाब से ४२ करोड़ रुपए। पूर्वजों के उस दौर में तोला भर सोना १८ रुपए का भी नहीं था, लेकिन विरासत की कीमत थी, सौंदर्यबोध था कि शहर को शानदार और यादगार बनाना है। उस समय से आज तक महंगाई तो १४०० गुणा बढ़ गई है, लेकिन शहर के प्रति हम शहरवासियों की अपणायत कितना गुणा बढ़ी है, फैसला हमें करना चाहिए। विरासत खड़ी करने वालों ने कभी नहीं चाहा होगा कि उनकी योजना के सरदार मार्केट के अलावा भी वहां खचाखच भरा बाजार लग जाए।
हमें स्मार्ट सिटी का दर्जा नहीं मिला, तो क्यों? आज सोलह आने का सवाल तो यह है कि जिस शहर की राजनीति ईमानदार और स्मार्ट नहीं है, क्या उस शहर को स्मार्ट होने का दर्जा मिल सकता है? शहर की पहाडिय़ों को लूटा जा रहा है, अवैध कब्जों की होड़ मची है, जिसकी लाठी उसकी भैंस की कहावत को चरितार्थ किया जा रहा है, क्या यही है स्मार्टनेस की ओर ले जाने वाला रास्ता ?
स्मार्ट होने का दर्जा नहीं मिला, १०० से २०० करोड़ रुपए हाथ से फिसल गए, तो शहर में एक भी रैली नहीं निकली, लेकिन गरीबी और गरीबों की आड़ में (अतिक्रमण विरोधी कार्रवाई के खिलाफ) लंबी रैली निकली है। ऐसी रैली से राजनीति के लिए थोड़ा कुछ निकल सकता है, लेकिन समाधान कतई नहीं निकलेगा। जिस शहर में अवैध बसावट का पुनर्वास होता है, उस शहर में अवैध बस्तियां बसने का सिलसिला कौन रोक पाएगा? उन सरकारी लोगों को सबसे ज्यादा धिक्कार है, जो मोटा पैसा लेकर भी दशकों तक वैध कॉलोनियां नहीं बसा पाते हैं, लेकिन अवैध बस्तियों तक बिजली, पानी, फोन, सडक़ लिए रातों-रात पहुंच जाते हैं। ऐसी बेईमान स्मार्टनेस शहर के दामन पर सबसे बड़ा अतिक्रमण है, इसका इलाज सबसे पहले करना होगा।
(अगस्त पत्रिका में प्रकाशित टिप्पणी)
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