Wednesday, 7 July 2021

दिलीप कुमार का वतन 

दिलीप कुमार पाकिस्तान में भी बहुत लोकप्रिय हैं, पाकिस्तान के दर्शक भी उन्हें अपना कलाकार मानते हैं। पाकिस्तान की धरती और वहां के लोगों के प्रति दिलीप कुमार ने हमेशा प्रेम दर्शाया है। वे कभी भूल नहीं पाए कि वे भी पाकिस्तानी जमीन - पेशावर से भारत आए थे और पूरे होशो-हवाश में आए थे। पाकिस्तान की यादें उनके दिमाग में हमेशा बसी रहीं, उनके दिल ने कभी पाकिस्तान को पराया नहीं माना। अगर हम गौर करें, तो दिलीप कुमार ही नहीं, उनके दौर के बहुत से लोग न कभी कट्टर पाकिस्तानी हो पाए और न कभी कट्टर हिन्दुस्तानी, ये लोग भारत वर्ष में ही छूट गए। वे हमेशा उस अविभाजित भारत के ही नागरिक बने रहे, जिसे सियासत ने साजिश करके मजहब के आधार पर बांट दिया। विभाजन के समय ढेर सारे मुस्लिम पाकिस्तान लौट गए, कलाकारों की दुनिया में भी बंटवारा हुआ, लेकिन दिलीप कुमार ने यह जान लिया था कि कला की बड़ी दुनिया भारत वर्ष की इस विशाल भूमि पर विकसित होगी। उनका आकलन सही साबित हुआ, उन्हें कभी भी भारतीय दर्शकों ने धर्म के आधार पर नहीं आंका। उनकी फिल्मों को उतना ही प्यार मिला, जितना राज कपूर और देव आनंद की फिल्मों को मिला। 

पाकिस्तान और भारत की दोस्ती के बारे में वे हमेशा सोचते रहे और इसमें जहां तक हो सका, उन्होंने अपना सहयोग दिया। भारत और पाकिस्तान की मैत्री के सतत प्रयास करने वाला उनके जैसा कोई दूसरा अभिनेता न तो सीमा के इस पार हुआ और न उस पार। जब दुश्मनी की बयार चलती थी, तब भी दिलीप कुमार दोस्ती की धुन में मस्त रहते थे, वे दोस्ती के प्रति कभी निराश नहीं हुए। वर्ष १९९९ में जब कारगिल संघर्ष के बाद देश में पाकिस्तान के खिलाफ माहौल था, शिव सेना इत्यादि पार्टियों ने साफ-साफ कहा कि दिलीप कुमार पाकिस्तान द्वारा दिया गया सर्वोच्च सम्मान 'निशान-ए-इम्तियाज' लौटा दें, लेकिन दिलीप कुमार ने तब भी भारत-पाकिस्तान की मैत्री की ही बात की और साफ कर दिया कि बांटने की राजनीति उन्हें बदल नहीं सकती।
वैसे यह कहने में कोई हर्ज नहीं कि पाकिस्तान ने दिलीप कुमार के काम, योगदान, बयान से कुछ भी नहीं सीखा। पाकिस्तान के लोग बस इसी बात में मस्त रहे कि ये उनके धर्मभाई यूसुफ खान हैं, जो भारतीय फिल्म दुनिया पर राज कर रहे हैं। उनकी यह धारणा है कि यह महानायक पाकिस्तान की जमीन पर जन्मा है, तो पाकिस्तान का ही है। जबकि वास्तव में दिलीप कुमार पाकिस्तान की जमीन पर नहीं, अविभाजित भारत की जमीन पर जन्मे थे। किसी को भी इस बात पर आश्चर्य होगा कि दिलीप कुमार ने करीब ६१ फिल्मों में काम किया, जिसमें से केवल तीन ही फिल्मों में उन्होंने हिन्दू का किरदार नहीं निभाया। वर्ष १९६० में बनी 'मुगल-ए-आजम' में शहजादा सलीम के उनके किरदार से सभी परिचित है, लेकिन उनके द्वारा निभाया गया कोई अन्य मुस्लिम चरित्र लोगों को याद नहीं होगा। फिल्म दुनिया में आने के ११ साल बाद १९५५ में उन्होंने पहली बार किसी मुस्लिम का किरदार निभाया। इस वर्ष फिल्म 'आजाद' में अब्दुल रहीम खान की भूमिका निभाई, हालांकि इस फिल्म में वे एक हिन्दू किरदार में भी रहे। १९५८ में आई 'यहूदी' में वे शहजादा मार्कस के किरदार में रहे।
बहुतों को आश्चर्य होगा कि भारतीय यूसुफ खान ने जगदीश (फिल्म - ज्वार भाटा - वर्ष १९४४) के किरदार से फिल्मों में शुरुआत की थी और जगन्नाथ (फिल्म - किला - १९९८) के किरदार के साथ विदा हुए। दिलीप कुमार को मजहबी नजरिये से देखने वाले आश्चर्य करेंगे कि राम, रमेश, गंगाराम, श्याम, मोहन और शंकर जैसे नाम उन पर खूब जमते थे। वे कम से कम तीन बार राम बने और तीन बार शंकर।
इन तथ्यों की रोशनी में अगर हम दिलीप कुमार के सामाजिक योगदान पर चर्चा करें, तो भारत में धर्मनिरपेक्षता के संदर्भ में उनके सामने कोई नहीं टिकता। यदि पाकिस्तान के लोग भारतीय दिलीप कुमार के सामाजिक योगदान पर थोड़ी भी निगाह डालेंगे, तो उन्हें पता चलेगा कि भारत वास्तव में किस चीज का बना है और धर्मनिरपेक्षता किसको कहते हैं। दिलीप कुमार एक प्रतीक हैं, जिन पर भारतीयता गर्व कर सकती है। भारत में प्रगतिशील सामाजिकता के निर्माण में उनका योगदान सर्वाधिक है, वे सांप्रदायिक घृणा की दीवारों को गिरा देते हैं। उनके बारे में कोई भी यह नहीं कह सकता कि राम, श्याम, शंकर इत्यादि नाम से किरदार निभाने में उनका क्या योगदान है। हमें यह पता होना चाहिए कि निर्माताओं और निर्देशकों से बहुत विचार-विमर्श के बाद ही दिलीप कुमार किसी फिल्म में अभिनय के लिए तैयार होते थे। वे न केवल अपने किरदार में बदलाव करते थे, बल्कि वे कहानी में भी बदलाव करते थे, अपनी फिल्म की पूरी योजना में वे शामिल रहते थे। इसलिए जो नाम उन्होंने अपने किरदारों के लिए चुने, उसके लिए उन्हें पूरा श्रेय देना चाहिए। दरअसल, उन्हें पता था कि कौन-सा नाम किस किरदार के ज्यादा मुफीद रहेगा और किन नामों की पहुंच लोगों तक सबसे ज्यादा होगी। वे चाहते, तो ऐसे नाम भी चुन सकते थे, जिनमें किसी हिन्दू ईश्वर के नाम का स्पर्श नहीं होता, लेकिन फिल्मों के प्रभाव के बारे में उनकी समझ बेमिसाल थी। उनके किरदारों के नाम भले राम, रमेश, शंकर, श्याम रहे, लेकिन उन्हें भारतीय मुस्लिम समाज ने भी दिलोजान से पसंद किया। उन्हें यह बात कभी नहीं चुभी की कोई यूसुफ खान राम, रमेश, शंकर, श्याम की भूमिका क्यों निभा रहा है। यही भारतीय समाज की ताकत है। भारतीय समाज को अपना सकारात्मक संदेश देने में दिलीप कुमार एक विचारवान अभिनेता के रूप में बहुत सफल रहे।
निश्चित रूप से भारतीय समाज में उनका योगदान हमेशा याद किया जाएगा। सामाजिक समरसता ही नहीं, राष्ट्रीय एकता और राष्ट्र प्रेम के मामले में भी उनका योगदान अतुलनीय है। आप क्रांति (१९८१) देखिए या कर्मा (१९८६) दिलीप कुमार अपने अनुपम अभिनय से देश प्रेम को ऐसी ऊंचाई पर पहुंचा देते हैं कि हर दिल उनके साथ गा उठता है :
हम जीयेंगे और मरेंगे,
ऐ वतन तेरे लिए,
दिल दिया है, जां भी देंगे,
ऐ वतन तेरे लिए।
दिलीप कुमार का जो वतन है, उसमें पाकिस्तान अनायास शामिल है। वे पाकिस्तान को अलग रखकर सोच ही नहीं सकते, पाकिस्तान को अलग रखकर सोचना उनके लिए अपने आप को बांटकर सोचने जैसा है। उनके लिए मजहब के खांचे में सोचना मुश्किल है, इस गीत को दिलीप कुमार आगे बढ़ाते हैं -
हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई
हम वतन हम नाम हैं,
जो करे इनको जुदा
मजहब नहीं इल्जाम है।
हम जीयेंगे और मरेंगे,
ऐ वतन तेरे लिए...
कट्टरता बहुत टुच्ची चीज होती है, उदारता - सहिष्णुता सदैव महान होती है। बहुत सारे लोग यह सपना देखते थे कि पाकिस्तान और भारत में दोस्ती हो जाएगी, कई लोगों का यह सपना समय के साथ टूटता गया। एक युद्ध, दो युद्ध, छद्म युद्ध और फिर सतत आतंकवाद ने पूरी दुनिया को पाकिस्तान के बारे में फिर से सोचने पर विवश कर दिया, लेकिन दिलीप कुमार ने कभी यह आभास नहीं होने दिया कि वे अपनी सोच बदलने पर काम कर रहे हैं। दिलीप कुमार जैसों के बारे में वे लोग कभी ईमानदारी से नहीं सोच पाएंगे, जो १९४७ के बाद पैदा हुए हैं। हालांकि १९४७ से पहले ही अपना विचार पुख्ता करने वाले ऐसे लोग ज्यादा रहे हैं, जिन्होंने भारत और पाकिस्तान के अलग-अलग खांचों पर रहकर सोचना शुरू कर दिया, लेकिन दिलीप कुमार वाली जमात भी रही, जो चाहकर भी अलग-अलग खांचों में नहीं सोच पाई। उनकी मानसिकता में वह विशाल देश ठहर-सा गया, जो वाकई सदियों से महान था। वह ऐसा महान देश था, जिसमें कभी घृणा के बीज जड़ें नहीं जमा पाए, घृणा के थपेड़ों को पछाड़ कर वह महान देश आगे बढ़ता गया। दुर्भाग्य से बाद में वह बंटा, नतीजतन कुछ लोग टूट गए, लेकिन कुछ लोग नहीं टूटे, उनमें से एक नाम दिलीप कुमार हैं। दौर कोई भी हो, प्रेम का स्थान घृणा से सदैव ऊपर रहेगा, दोस्ती का स्थान दुश्मनी से सदैव ऊपर रहेगा।
बेशक, यह अच्छा हुआ कि दिलीप कुमार पाकिस्तानी जमीन पर नहीं गए, वहां चले जाते, तो वे इतने बड़े कलाकार कभी नहीं हो पाते, यह वास्तव में पाकिस्तान के लिए भी लाभकारी रहा। पाकिस्तान के लोग जब भी पलटकर दिलीप कुमार का ईमानदार अध्ययन करेंगे, तो उन्हें पता चलेगा कि उन्होंने क्या खो दिया और उनके बड़े पड़ोस ने क्या खूब पा लिया। आज हिन्दुओं के बीच एक यूसुफ खान है, जो बताता है कि धर्मनिरपेक्ष भारत कैसा होना चाहिए।
हालांकि वे कभी नहीं चाहेंगे कि उन्हें मजहब के चश्मे से देखा जाए। वे यही मानेंगे कि कलाकार के लिए समाज सापेक्ष कला सबसे बड़ी चीज है। मजहब यहां खास मायने नहीं रखता। यहां इंसानियत और कलाकारी ही मायने रखती है। उन्होंने फिल्मों के जरिये भी कभी घृणा का व्यवसाय नहीं किया। वे हमेशा ही 'गाये जा गीत मिलन के...' वाले मूड में रहे। यह गौर करने की बात है कि यह 'मेला' फिल्म १९४८ में बनी थी, जब देश का विभाजन हो चुका था और उसका दर्द हावी था। बाद में दोनों ओर के माहौल के कारण जिस जगह वे घिरे रहे, उसका भी अफसोस हम पढ़ सकते हैं, 'ऐ दिल मुझे ऐसी जगह ले चल...' (आरजू - १९५०), तो कभी 'ऐ मेरे दिल कहीं और चल', (दाग - १९५२)। कहीं न कहीं उनके अंदर बेचैनी थी, जो मुखर हो रही थी। शायद अनायास ही हो, लेकिन उनकी तड़प में अकेलापन, विरह या भटक जाने का भाव शामिल था। पाकिस्तान वास्तव में भारत से केवल अलग ही नहीं हुआ, बल्कि अलग-थलग हो गया। बहुत सारे लोग मजहब के आधार पर पाकिस्तान चले गए थे, लेकिन दिलीप कुमार नहीं गए। वे संभवत: पाकिस्तान न जाकर भारत को चुनने वाले सबसे बड़े मुस्लिम अभिनेता थे। उनके अलावा निर्देशकों में सबसे बड़े महबूब खान, संगीत निर्देशकों में सबसे बड़े नौसाद और फिल्मी लेखकों में सबसे बड़े ख्वाजा अहमद अब्बास पाकिस्तान नहीं गए। यह सेकुलर भारत की एक बड़ी सफलता थी और मजहबी पाकिस्तान की एक बड़ी विफलता। वैसे यहां यह भी जोडऩा उचित होगा कि पाकिस्तान के निर्माता स्वयं मोहम्मद अली जिन्ना की इकलौती बेटी डिना वाडिया भी पाकिस्तान नहीं गईं। उनका मायका भी भारत था और ससुराल भी भारत रहा। 
खैर, अगर हम ध्यान दें, तो कहीं न कहीं भारत को चुनने वाले फिल्मी कलाकारों का काम पाकिस्तान को सम्बोधित लगता है। अगर भावना प्रधान होकर देखा जाए, अगर सिनेमा के जरिये भारत-पाकिस्तान के रिश्ते को देखा जाए, तो विशेष रूप से दिलीप कुमार पाकिस्तान को कुछ ज्यादा ही सम्बोधित करते लगते हैं। उनके कई गीत फिल्मी परदे से बाहर आकर एक अलग ही व्यापक अहसास पैदा कर देते हैं। जैसे १९५८ में आई उनकी एक फिल्म 'यहूदी' का एक गीत है, जिसे शैलेन्द्र ने लिखा है और शंकर-जयकिशन ने संगीत दिया है, मुकेश ने गाया है : ये मेरा दीवानापन है या मोहब्बत का सुरूर. . .
क्या उस दौर में भारत को रहने के लिए चुनना किसी दीवानेपन से कम था, इस माटी से मोहब्बत का सुरूर भी तो था। गीत इस तरह से शुरू होता है :-
दिल से तुझको बेदिली है, मुझको है दिल का गुरूर
तू ये माने के ना माने, लोग मानेंगे जरूर।
पाकिस्तान एक ऐसा मुल्क हो गया, जिसे अपने दिल से ही बेदिली हो गई, दिल का कद्र न हुआ और भारत ऐसा है कि जिसे बड़े दिल वाला होने का घमंड हो गया। पाकिस्तान भले इस बात को न माने, लेकिन दुनिया यही मानती है। क्या ऐसा नहीं लगता कि 'यहूदी' फिल्म का नायक उलाहना दे रहा है, यह उलाहना नायिका के लिए है, लेकिन अगर नायिका की जगह पाकिस्तान को रखकर देखें, तो क्या होगा? नायक बोल रहा है :-
ये मेरा दीवानापन है, या मोहब्बत का सुरूर
तू न पहचाने तो है ये, तेरी नजरों का कुसूर
क्या यह बात भारतीयों के मन में नहीं आती है कि भारत की मोहब्बत को पाकिस्तान पहचान न सका, पाकिस्तान की नजरों का कुसूर था, जो उसने भारत में अपने सबसे बड़े दुश्मन को देखा। लेकिन देखिए फिर भी ज्यादातर भारतीय या दिलीप कुमार जैसे महान लोग यही उम्मीद करते हैं :-
दिल को तेरी ही तमन्ना दिल को है तुझसे ही प्यार
चाहे तू आए ना आए, हम करेंगे इंतजार।
बेशक, मिलन का चाह रखने वालों को निराशा हाथ लगती है। खत्म होते जा रहे हैं वो लोग, जो उन इलाकों में जन्मे थे, जो पाकिस्तान के नाम से जाना जाता है, एक दिन शायद खत्म हो जाएगी दिलीप कुमार की वह पीढ़ी, जो सेकुलर होने और मिलकर रहने का संदेश देती है। लगातार बंदूकें चल रही हैं, दहशतगर्द अमन-चैन को नाजुक मौका देखकर आग लगाने के लिए चप्पे-चप्पे पर फैल गए हैं, सिर काटे जा रहे हैं, दुश्मनी का वीराना-सा तैयार होता जा रहा है :-
ऐसे वीराने में एक दिन घुट के मर जाएंगे हम।
जितना जी चाहे पुकारो, फिर नहीं आएंगे हम।
ये मेरा दीवानापन है. . .। 
दिलीप कुमार का दिल जानता होगा कि हमने कितना कुछ खो दिया है। वे पाकिस्तान के बारे में जब बात करते हैं, तब कितना प्रेम झलकता है, मानो किसी अपने दिल के टुकड़े से बात कर रहे हों। पाकिस्तान ने क्या खो दिया है। लगातार हमले के बावजूद अपनी सेकुलरिटी बचाए रखने की कोशिश के साथ भारत कुछ खुश हो सकता है, लेकिन अंतत: खोया तो उसी अखंड भारत ने है, जिसमें दिलीप कुमार उर्फ यूसुफ खान जन्मे थे। यह बहुत जरूरी है कि पाकिस्तान के लोग दिलीप कुमार होने का मतलब समझें, तो वे भारत या हिन्दुस्तान का भी मतलब समझ पाएंगे।

Thursday, 31 December 2020





 

Monday, 30 December 2019

स्कूल ने निकाला तो हुनर याद आया

रिचर्ड ब्रेंसन 
(मशहूर उद्यमी)


पढ़ाई उस लड़के के लिए एक ऐसा मुश्किल पहाड़ थी, जिस पर चढ़ना नामुमकिन था। पढ़ाई में आलम ऐसा था कि हर राह-मंजिल पर डांट-फटकार बरसती रहती थी। गणित देखकर दिमाग पैदल हो जाता, विज्ञान सिर के ऊपर से निकल जाता, भाषा ऐसे लंगड़ाती कि पूरे ‘रिजल्ट’ को बिठा देती। कई बार ऐसी पिटाई की नौबत आन पड़ती कि अपना भूगोल ही खतरे में पड़ जाता। हाथ भले पढ़ाई में तंग था, लेकिन दिमाग में बदमाशियां इफरात थीं। हरकतें ऐसी थीं कि एक दिन प्रिंसिपल साहब ने यहां तक कह दिया, ‘यह लड़का या तो जेल पहुंचकर मानेगा या फिर करोड़पति बन जाएगा।’ शिक्षकों ने बहुत पढ़ाया-समझाया, प्रिंसिपल ने भी लाख कोशिशें कीं, लेकिन पढ़ाई उस लड़के के पल्ले नहीं पड़ी, और अंतत: वह दिन आ गया, जब वह लड़का स्कूल से बाहर कर दिया गया। उम्र महज 15 साल थी, मैट्रिक का मुकाम भी दूर रह गया। पढ़ाई छूट गई, अब क्या होगा? मां बैले डांसर थीं और कभी एयर होस्टेस रही थीं। पिता काम लायक भी कामयाब नहीं थे। ऐसे में घर का बड़ा लड़का ही पटरी से उतर गया। जो लोग पढ़ाई के लिए कहते थे, वही पूछने लगे कि अब यह लड़का क्या करेगा? 

एक दिन वह लड़का उसी छूटे स्कूल के बाहर बैठकर सोच रहा था। बाकी लड़के स्कूल जा रहे थे। उनमें से कुछ शायद मुस्करा भी रहे थे। दुनिया में ऐसे लोग बहुत हैं, जो सिर्फ किसी की नाकामी का इंतजार करते हैं, घात लगाए बैठे रहते हैं कि कब किसी को नाकामी का घाव लगे और उस पर नमक छिड़का जाए। ऐसी निर्मम दुनिया में स्कूल ने उसे ऐसे ठुकरा दिया था कि किसी दूसरे स्कूल में दाखिले की सोचना भी फिजूल था। उसके साथ ऐसा क्यों हुआ? वह क्यों न पढ़ सका? कहां कमी रह गई? क्या जिंदगी में आज तक हर काम बुरा ही किया है? वहां बैठे-बैठे पहले तो वह लड़का अपनी तमाम बुरी यादों से गुजरा। बीते लम्हों के हादसों के तमाम मंजर जब खर्च हो गए, तब सोच की सही लय लौटी। दिलो-दिमाग में सवाल पैदा हुआ, क्या आज तक की जिंदगी में कभी उसे तारीफ मिली है? वह कौन-सा काम था, जिसके लिए उसे तारीफ मिली थी? आखिर ऐसा कोई तो काम होगा? फिर उसे याद आया कि उसने एक बार स्कूल की पत्रिका के प्रकाशन में शानदार योगदान दिया था, जिसके लिए उसे सबसे तारीफ हासिल हुई थी। जिसके हाथ में भी वह पत्रिका गई थी, लगभग सभी ने उसेबधाई दी थी।

पत्रिका का प्रकाशन अकेला ऐसा काम था, जिससे उस लड़के को कुछ समय के लिए ही सही, स्कूल में शोहरत नसीब हुई थी। लड़के ने अपना हुनर खोज लिया था, उसे अपनी काबिलियत दिख गई थी। उसे लग गया था कि यही वह काम है, जो वह सबसे बेहतर कर सकता है। वह उठा, पूरे जोश के साथ स्कूल के अंदर गया और अभिवादन के बाद प्रिंसिपल से बोला, ‘सर, आप कहते हैं, मैं कुछ नहीं कर सकता, लेकिन एक काम है, जो मैं बेहतर कर सकता हूं, जिसके लिए मुझे आपसे तारीफ भी मिल चुकी है। मैं छात्रों के लिए एक अच्छी पत्रिका निकालूंगा। आपसे मदद की उम्मीद रहेगी।’ प्रिंसिपल भी उसका जोश देख खुश हो गए। उन्होंने लड़के को मदद के आश्वासन और शुभकामनाओं के साथ विदा किया। फिर क्या था, वह लड़का दिन-रात पत्रिका की तैयारी में जुट गया। पैसा, संसाधन, सामग्री, सहयोग इत्यादि वह जुटाता गया। छात्रों को ही नहीं, उनके अभिभावकों को भी अपने शीशे में उतारने में वह लड़का इतना माहिर था कि सभी ने मिलकर उसकी मदद की और सवा साल की बेजोड़ मेहनत के बाद उसकी पत्रिका स्टूडेंट  का पहला अंक 1 जनवरी, 1968 को बाजार में आ गया। वह पत्रिका छात्रों, शिक्षकों और अभिभावकों के बीच हाथों-हाथ ऐसी बिकी कि सबने उस 17 साल के लड़के रिचर्ड ब्रेंसन को सिर-आंखों पर बिठा लिया। 

ब्रेंसन बहुत कम उम्र में दूसरों के लिए नजीर बन गए। वह समझ गए थे, जिंदगी में वही काम करना चाहिए, जो हम सबसे बेहतर कर सकते हैं या जिसमें हम सबसे ज्यादा हुनरमंद हैं या जिसके लिए लोग हमारी तारीफों के पुल बांधते हों। ब्रेंसन के एक हुनर ने उनके लिए आगे बढ़ने की ऐसी राह बना दी कि उन्होंने कभी पलटकर नहीं देखा। आज वह वर्जिन ग्रुप की 400 से ज्यादा सफल कंपनियों के मालिक हैं और दुनिया के मशहूर अमीरों में उनकी गिनती होती है। नाकामियों से निकलने के लिए अपने गिरेबां में कैसे झांकना पड़ता है, रिचर्ड ब्रेंसन इसकी बेहतरीन मिसाल हैं। गौर कीजिएगा, जिस लड़के को कभी स्कूल से निकाल दिया गया था, उस लड़के की कामयाबी आज दुनिया के तमाम सर्वश्रेष्ठ प्रबंधन संस्थानों और विश्वविद्यालयों में पढ़ाई जाती है। -

जीते जी छप गई मौत की खबर

अल्फ्रेड नोबेल (वैज्ञानिक-उद्यमी)


जिंदगी है, तो इम्तिहान भी हैं। एक इम्तिहान खत्म, तो दूसरा शुरू। इस बेरहम दुनिया में इम्तिहान मौत के बाद भी पीछा नहीं छोड़ते। अच्छा है, आदमी ऐसे चला जाता है कि फिर नहीं लौटता यह देखने कि दुनिया ने उसे आखिरी इम्तिहान में पास किया या फेल? लेकिन यहां तो अजीब ही वाकया हो गया। आदमी जिंदा था और अखबार में उसकी मौत की सुर्खियां थीं। आदमी अपनी ही मौत की खबर पढ़ रहा था। खबर का शीर्षक था, ‘मौत के सौदागर की मौत।’ खबर ऐसे लिखी गई थी, मानो दुनिया उसकी मौत के इंतजार में बैठी थी और उसकी मौत से सबने राहत का एहसास किया। उस आदमी को लग रहा था कि दुनिया उसका आखिरी इम्तिहान ले चुकी है, जिसमें उसे फेल कर दिया गया है और उसे ढंग से शोक संवेदना भी नसीब नहीं हो रही है।  

वह आदमी कोई और नहीं, बल्कि अल्फ्रेड नोबेल थे, जिनकी दौलत और नाम से आज दुनिया का सबसे प्रतिष्ठित सम्मान दिया जाता है। दरअसल, 13 अप्रैल, 1888 को छपी वह खबर गलत थी। मौत अल्फ्रेड नोबेल की नहीं, बल्कि उनके बड़े भाई लडविग नोबेल की हुई थी। नोबेल बंधुओं में सबसे कामयाब लडविग दुनिया के चुनिंदा अमीरों में एक थे, पर अल्फ्रेड के लिए गुस्सा इस कदर था कि उनकी मौत की खबर छप गई। उस लम्हे ने अल्फ्रेड को हिलाकर रख दिया, क्या दुनिया उसके बारे में इतना खराब सोचती है? अल्फ्रेड आजीवन अकेले रहे थे। पूरी जिंदगी वैज्ञानिक जुनून और तिजारत पर कुर्बान थी। अरब-खरब में दौलत थी, पर कुल जमा जिंदगी का निचोड़ यह कि ‘मौत के सौदागर की मौत।’

उन लम्हों में बड़े भाई की मौत का गम तो था ही, पर छोटे भाई एमिल की मौत भी ख्यालों में उमड़ने लगी। एमिल नोबेल परिवार में कॉलेज जाने वाले पहले सदस्य थे। प्रयोगों में बड़े भाई अल्फ्रेड की मदद करते थे। उन दिनों नाइट्रोग्लिसरीन से ताकतवर और इस्तेमाल के काबिल विस्फोटक बनाने की जद्दोजहद जारी थी। इस खोज की कमान अल्फे्रड के हाथों में थी। ऐसे तरल विस्फोटक को मुकम्मल रूप दिया जा रहा था, जिसे एक जगह से दूसरी जगह ले जाना ज्यादा आसान हो। उस दिन न जाने क्या कमी रह गई, प्रयोगशाला में भयंकर विस्फोट हुआ। वह दिन था,  3 सितंबर, 1864, इस हादसे में छोटा भाई चार सहयोगियों के साथ शहीद हो गया। महज इत्तफाक था कि तब अल्फ्रेड वहां मौजूद नहीं थे। तब भी अखबारों ने इस खोज के खिलाफ बहुत छापा, पर अल्फ्रेड पर कोई असर नहीं हुआ। अपने सबसे छोटे बेटे को खोकर पिता तो इतने गमजदा हुए कि इस खोज से ही पीछे हट गए, लेकिन उन दिनों अल्फ्रेड पर मानो जुनून सवार था। वह हादसे भुलाकर आगे बढ़े और लगभग तीन साल की मेहनत से एक मुकम्मल विस्फोटक डायनामाइट ईजाद करने में कामयाब हो गए।

अल्फ्रेड को विस्फोटक और हथियार बनाने का ऐसा चस्का था कि वह लगातार अपनी धुन में लगे रहे। कभी पलटकर नहीं सोचा कि दुनिया उनके बारे में क्या सोचती है। खदानों और पत्थर तोड़ने में तो डायनामाइट और अन्य विस्फोटक काम आते ही थे, जंगों में भी उनके विस्फोटक लोगों की मौत का सामान बनने लगे थे। सबसे बढ़कर यह कि अल्फ्रेड को अपने ऐसे आविष्कारों पर बड़ा गुरूर था। सोचने का ढंग ही अलहदा था। वह आसानी से दूसरों को नाराज कर देते थे। सच बोलने वालों से एक बार ऐसी चिढ़ हुई कि कह दिया, सच्चा आदमी आमतौर पर झूठा होता है। उम्मीद को सच की नग्नता छिपाने का परदा मानते थे। 

आगे बढ़ने के लिए अल्फ्रेड ने किसी की परवाह नहीं की थी। अपनी मौत की खबर पढ़कर उस दिन निर्मम-निराशावादी इंसान का सामना पहली बार इस बात से हुआ था कि दुनिया उससे नफरत करती है। जब भी दुनिया में उसके बनाए विस्फोटकों से कोई मारा जाता है, लोग उसे कोसते हैं। विस्फोटकों ने युद्ध को बदल दिया है। अब युद्ध में वीरता की नहीं, धोखे की जीत होने लगी है। जो पहले डायनामाइट बिछा गया, वह जीत गया। उस फ्रेंच अखबार ने उस दिन बिना रियायत यह भी लिखा था, ‘यह वही आदमी है, जो पहले से ज्यादा तेजी से अधिक लोगों को मारने के तरीके खोजकर अमीर हुआ है।’ 

उस दिन अल्फ्रेड की जिंदगी तो नहीं बदली, लेकिन उनकी सोच के ढांचे दरक गए। वह छवि सुधार की कोशिशों में लग गए, ताकि दुनिया उन्हें अच्छे रूप में भी याद करे, और आखिरकार अपनी मौत से एक साल पहले उन्होंने देशों की सीमाओं से परे दुनिया के योग्यतम लोगों को नोबेल सम्मान देने का फैसला किया। उनकी ही दौलत से नोबेल सम्मान बंटते 118 साल बीत चुके हैं। सभ्य दुनिया में अब कोई नहीं कहता कि अल्फ्रेड नोबेल मौत का सौदागर 

डर को धूल चटाकर जीता आसमान



सबिहा गोचेन (पहली महिला फाइटर पायलट)


क्रांति होती है, देश आजाद होता है, तो सारे लड़के एक साथ आजाद हो जाते हैं, लेकिन क्या लड़कियां भी वैसे ही आजाद होती हैं? दुनिया में लड़कियों को क्यों अनसुना कर दिया जाता है? लड़कों की किस्मत में सब कुछ है और लड़कियों की किस्मत में सिर्फ रसोई, गुलामी और सबकी सेवा? और ऊपर से यह सवाल भी कि लड़कियां आखिर करती क्या हैं? लड़कों की जिंदगी बढ़ती है, लेकिन लड़कियों की ठहरी-सी रहती है, जैसी मेरी ठहरी है? तुर्की देश के बुर्सा शहर में 12-13 साल की अनाथ लड़की सबिहा के मन में ऐसे ही ख्याल उमड़ते रहते थे। नए गणराज्य तुर्की में जश्न का माहौल था, लेकिन सबिहा की जिंदगी गम के स्याह अंधेरे में थी। अर्मेनिया नरसंहार में मां की गोद छिन गई, पिता का साया न रहा, तो किस्मत ने अनाथालय ला पटका, जहां खैरात से टुकड़ा भर रोटी और टुकड़ा भर पढ़ाई नसीब होने लगी थी। उस बच्ची की जिंदगी में सब कुछ टुकड़ा-टुकड़ा था, सिवाय गम के। वह दूसरे बच्चों को सज-धजकर अच्छे स्कूलों में जाते देखती, तो उसके आंसू बह निकलते। काश! मैं भी अच्छे स्कूल जाती, अच्छे कपड़े पहनती, अच्छी जगह रहती। 

संयोग की बात है, उन्हीं दिनों तुर्की गणराज्य के संस्थापक राष्ट्रपति मुस्तफा कमाल पाशा बुर्सा आए हुए थे। जहां वह ठहरे थे, वहां उन्हें आते-जाते सबिहा रोज दूर से देखती थी। मिलने की इच्छा जागती। अब पूरे देश के पिता मुस्तफा क्या एक अनाथ, लाचार, गरीब और अकेली लड़की की सुनेंगे? कई बार उसके कदम उठते, लेकिन फिर ठहर जाते। कभी डर का बोझ बढ़कर बैठा देता, तो कभी हिचक पांव में बेड़ियां डाल देती। कुछ दिन ऐसे ही चला। पता नहीं कब, राष्ट्रपति राजधानी अंकारा के लिए निकल जाएंगे? अभी मिल पाने की थोड़ी गुंजाइश है, लेकिन बाद में हो सकता है, उन्हें देखना भी नामुमकिन हो जाए। लेकिन एक दिन, हिचक और डर को दरकिनार कर सबिहा चल पड़ी, जो होगा, देखा जाएगा, कोशिश तो करूं कि जिंदगी में आगे कोई अफसोस न रहे। वह बढ़ती गई, सुरक्षा घेरों को बेहिचक-बेरोक पार करती गई। उसने महसूस किया कि जब कोई आत्म-विश्वास से भरपूर चलता है, तो दुनिया भी नहीं टोकती। उसने आगे बढ़कर राष्ट्रपति का अभिवादन किया और कहा, ‘मुझे आपसे बात करनी है?’ राष्ट्रपति ने गौर किया, एक छोटी लड़की कुछ कहना चाहती है, ‘क्या बात है?’

‘मदद मांगने आई हूं। आप सबके लिए कुछ न कुछ कर रहे हैं, क्या आप मेरी मदद करेंगे? मेरा कोई नहीं है, अनाथ हूं, गरीब हूं, लेकिन मैं बोर्डिंग स्कूल में पढ़ना चाहती हूं। हिम्मत जुटाकर आपके पास बहुत आस लिए आई हूं, मेरे लिए कुछ कीजिए..।’ देखने वाले चकित थे, कहां से आ गई यह लड़की,  लेकिन वह तो सिर्फ राष्ट्रपति को देख रही थी, तब दुनिया को क्या देखना? वर्षों बाद जो शख्स गौर से दुखड़ा सुन रहा था, उसे निडर होकर लड़की सुनाए जा रही थी। पूरी बातें सुनने के बाद राष्ट्रपति ने उस अनाथ के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘अब तुम अनाथ नहीं हो, आज से मैं तुम्हारा पिता हूं। चलो उस घर, जहां तुम्हारा यह पिता रहता है।’ अनाथालय से राष्ट्रपति भवन के बीच यही वह छोटा-सा लम्हा था, जिसने हिचक और डर को धूल चटाकर सबिहा की जिंदगी को आमूल-चूल बदल दिया। वह राष्ट्रपति भवन में अकेली नहीं थीं, उनकी करीब तेरह बहनें और एक भाई साथ रहते थे। सबको राष्ट्रपति ने गोद ले रखा था, लेकिन इन सभी में सबसे खास निकली सबिहा। अच्छी पढ़ाई, अच्छी संगत में जिंदगी संवर गई। जब वह 21 की हुई, परंपरागत पढ़ाई पूरी होने वाली थी, तब पिता ने नाम दिया, सबिहा गोचेन। गोचेन का अर्थ है- आसमानी अर्थात आकाश का।

इस नाम ने सबिहा को नई ऊर्जा से भर दिया। पिता एक बार वायु सेना के करतब दिखाने ले गए। सबिहा के दिमाग में पायलट बनने का जुनून सवार हो गया। पिता ने हामी भर दी। फिर शुरू हुई पुरुषों में अकेली महिला पायलट की ट्रेनिंग। सीखते-सीखते सबिहा दुनिया की पहली महिला फाइटर पायलट बन गईं। दुश्मनों पर बम बरसाने और कामयाब लौटने का उनका रिकॉर्ड दुनिया भर में पायलटों और महिलाओं को प्रेरित करता है। सबिहा की जिंदगी आज भी साबित करती है कि लड़कियां डर और हिचक के पार निकल जाएं, तो शक्ति बन जाती हैं। सबिहा जैसी बेटियों और माताओं ने ही मुस्तफा को प्रेरित किया और महिलाओं को मताधिकार देने वाला तुर्की दुनिया का अग्रणी देश बना। सबिहा हमेशा मिसाल रहेंगी। उनके जिंदा रहते ही तुर्की की राजधानी इस्तांबुल में विशाल अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा बना, जिसका नाम रखा गया : सबिहा गोचेन इंटरनेशनल एयरपोर्ट। 

प्रस्तुति : ज्ञानेश उपाध्याय

साहबी ऐसे छूटी कि फिर न लौटी


राजेंद्र प्रसाद, आजाद भारत के पहले राष्ट्रपति


बाबू साहबों का वहां बड़ा जलवा था। एक से बढ़कर एक बाबू साहब! उनकी गिनती के लिए उनके डेरों से कुछ दूर बैठना पड़ता था। सुबह से रात तक चूल्हों से उठते धुएं की लड़ियां गिनने से पता चल जाता था, जितने चूल्हे जल रहे हैं, उतने ही बाबू साहब लोग आराम फरमा रहे हैं। आज से 102 साल पहले अंग्रेजों के गुलाम भारत के चंपारण में यही तो हो रहा था, जिसे मोहनदास करमचंद गांधी नाम के वकील सहन नहीं कर पा रहे थे। खास तो यह कि वे सभी बड़े साहब या बड़का बाबू लोग भी वकील थे। नील उत्पादक किसानों को न्याय दिलाने की लड़ाई में शामिल होने गांधीजी के नेतृत्व में चंपारण आए थे। ऐसे-ऐसे वकील कि उस जमाने में महज सलाह देने के 10 हजार रुपये तक वसूल लेते थे। क्या मजाल कोई एक रुपये की भी रियायत ले जाए। 


देश के योग्य और विद्वान वकील ऐसे बिखरे हुए थे, तो देश के आम लोग कितने बिखरे हुए होंगे? एक दिन रहा नहीं गया, तो गांधीजी ने वकीलों को फटकारा, यहां हम आठ-दस अपनी ही मंडली के साथी साथ भोजन नहीं कर सकते, सबका भोजन साथ पक नहीं सकता, तो क्या हम करोड़ों देशवासियों को एकजुट कर पाएंगे? हम आंदोलन के लिए आए हैं, लेकिन यहां किसानों और अंग्रेजों को क्या संदेश दे रहे हैं? क्या यहां हम यह बताने आए हैं कि हम कितने बंटे हुए हैं, हमारा दाना-पानी भी साथ संभव नहीं है?


गांधीजी की इस फटकार ने स्तब्ध कर दिया। शानदार कपड़े और रहन-सहन के शौकीन मालदार वकीलों के लिए यह फटकार बिल्कुल नई बात थी। वकील मंडल में हर एक का अपना रसोइया था और हर एक की अलग रसोई। वे 12 बजे रात तक भोजन करते, मनमाना खाना खाते, लेकिन उस दिन गांधीजी की अकाट्य दलील के आगे सारे वकील निरुत्तर हो गए। उन्हीं वकीलों में 33 वर्षीय राजेंद्र प्रसाद भी शामिल थे, जो जाति-पांति के भेद को मुस्तैदी से मानते आए थे। ब्राह्मण छोड़कर किसी दूसरी जाति के आदमी का छुआ दाल-भात इत्यादि, जिसे कच्ची रसोई भी कहते हैं, कभी नहीं खाते थे। राजेंद्र प्रसाद सामंती सुविधाओं में रचे-बसे थे। स्कूल-कॉलेज के दिनों में ही छपरा से कलकत्ता (अब कोलकाता) तक, उनके साथ विशेष नौकर-चाकर रहते थे। आदत से मजबूर, वह चंपारण में आंदोलन करने गए, तो वहां भी नौकर और रसोइया ले गए। सच है कि गांधीजी ने उस दिन बुरी तरह डांटा था, सहयोगी वकील साथ छोड़ जाएंगे, ऐसा खतरा था। संकेत स्वयं गांधीजी की जीवनी में है, उन्होंने संभलते-संभालते लिखा है, ‘मेरे और मेरे साथियों के बीच इतनी मजबूत प्रेमगांठ बंध गई थी कि हममें कभी गलतफहमी हो ही नहीं सकती थी। वे मेरे शब्दबाणों को प्रेम-पूर्वक सहते थे।’ 


बेशक विद्वान वही है, जो किसी अनुभवी की फटकार से भी सीखता हो। गांधीजी की यह बात राजेंद्र प्रसाद के मन में बैठ गई, ‘जो लोग एक काम में लगे हैं, मान लो कि वे सब एक जाति के हैं।’ गांधी जी की फटकार के बाद तमाम रसोइयों की विदाई हो गई थी। भोजन संबंधी नियम बने, जिनका पालन अनिवार्य कर दिया गया। सब निरामिषहारी नहीं थे, लेकिन तब भी दो रसोई की सुविधा नहीं रखी गई। एक ही रसोई रह गई, जिसमें मात्र निरामिष भोजन पकता था। भोजन सादा रखने का आग्रह था, इससे आंदोलन के खर्च में भी बड़ी बचत होने लगी। काम करने की शक्ति बढ़ी और समय की भी बचत हुई। राजेंद्र प्रसाद के चिंतन और जीवन में आमूल-चूल परिवर्तन आ गया। लगभग सप्ताह भर की सोचकर चंपारण गए थे, लेकिन वहां आंदोलन और समाज सेवा का काम ऐसे फैला कि महीनों बीत गए। जब लौटे, तो पटना में घर पर नौकर-चाकर सब यथावत इंतजार में थे, लेकिन उनका मजा पहले जैसा नहीं रह गया था। वह पूर्ण रूप से आत्मनिर्भर, सहज और सरल बन गए थे। तीसरे दर्जे में सफर की आदत पड़ गई थी। जहां तक हो सके, पैदल ही चलकर पहुंचने लगे थे। 


चंपारण के उन लम्हों को याद करते हुए उन्होंने अपनी जीवनी में लिखा है, ‘हम सब लोग एक-दूसरे की बनाई रसोई खाने लगे, जबकि हममें कई जातियों के लोग थे। जिंदगी में सादगी भी बहुत आ गई। अपने हाथों से कुएं से पानी भरना, नहाना, कपड़े साफ कर लेना, अपने जूठे बर्तन धोना, रसोई घर में तरकारी बनाना, चावल धोना इत्यादि सब काम हम खुद किया करते।’ 


अपने सारे काम खुद करने वाले राजेंद्र प्रसाद आजाद भारत के पहले राष्ट्रपति बने। वह तमाम वैभवों से घिरे देश के सर्वोच्च पद पर रिकॉर्ड 12 
साल रहे, लेकिन चंपारण में ‘साहबी’ ऐसे छूटी कि फिर ख्वाब में भी न लौटी।
प्रस्तुति : ज्ञानेश उपाध्याय 

Sunday, 10 November 2019

पूरब देश उड़ चला परिंदा

इब्न बतूता, यायावर
भय से बुरा हाल था। आसमान में तेज हवाओं के बीच भी पसीने का आलम था। एक बहुत बड़ा परिंदा अपने पंख फैलाए पूरब की ओर उड़े जा रहा था और उसके पंखों में फंसा इंसान मजबूर था। फर्र-फर्र करते पंखों के बीच थर्र-थर्र कांपते इंसान के हाथ में कुछ नहीं था। कूदकर भागना तो दूर, नीचे देखना भी दुश्वार था। आसमान में खूब ऊंचाई पर पक्षी कभी इधर मुड़ता, कभी उधर मुड़ता, लेकिन कुल सफर तो पूरब की ओर ही था। एक बेहतर इंसान उम्मीद की डोर से बंधा होता है, यही सोचता है कि कभी न कभी तो यह परिंदा मुझे जमीन पर उतारेगा या यह भी हो सकता है, थोड़ा नीचे आए, तो मैं ही कूद भागूं। खूब देर तक परिंदा उड़ता गया और पूरब की ओर एक सघन हरे-भरे अनूठे देश पर उड़ने लगा और फिर धीरे से जमीन पर आकर उसने उस इंसान को उतरने दिया। इंसान के उतरते ही परिंदा फिर उड़ चला। इंसान की मुसीबतें कभी खत्म नहीं होतीं, एक मुसीबत गई, तो दूसरी सताने लगी कि परिंदा तो छोड़कर जा रहा है। घबराया इंसान जोर-जोर से पुकारने लगा, ओ परिंदे, ओ यायावर सुनो, रुको, मुझे यहां अनजाने इलाके में न छोड़ जाओ... रुको... ठहरो...।
...और वह इंसान उठ-बैठा, ख्वाब टूट गया। आज से करीब 700 साल पहले जिसने यह ख्वाब देखा था, दुनिया आज उसे इब्न बतूता के नाम से पहचानती है। इधर कुछ दिनों से यही होता आया था, जब भी नींद आती, यही ख्वाब लौट आता और जब ख्वाब टूटता, तो नींद उड़ जाती। यह क्यों आता है? खैर, उस रात यह ख्वाब मिस्र के अलेक्जेंड्रिया में तब आया था, जब इब्न बतूता एक सूफी शेख मुर्शीदी के डेरे की छत पर आराम फरमा रहे थे। कहते हैं, अच्छे संत इसलिए जागते हैं कि दुनिया ढंग से सो सके। जब ख्वाब टूटा, तब भी शेख मुर्शीदी जाग रहे थे, उन्हें हलचल-सी लगी, तो उन्होंने आवाज लगाकर बतूता से पूछा, ‘क्या हुआ? सब ठीक तो है?’ बतूता भी मानो इंतजार में थे। बार-बार आने वाले ख्वाब का किस्सा सिलसिलेवार सुना डाला और पूछा, ‘हुजूर, मतलब बताइए, यह क्या ख्वाब है?’ शेख मुर्शीदी ने लाजवाब मुस्कान के साथ कहा, ‘तुम्हें पूरब देश जाना है। उस ओर तुम्हारे कदम और पड़ाव तुम्हारी किस्मत में दर्ज हैं?’ बतूता की आंखें आश्चर्य से फैल गईं, ‘पूरब, मतलब एशिया... भारत...?’ शेख ने मुस्कराकर कहा, ‘नहीं जाओगे, तो शायद तुम्हारा ख्वाब और तुम्हारे ख्वाब का र्पंरदा तुम्हें चैन नहीं लेने देगा।’
गौर करने की बात है, उन्हीं दिनों बतूता को अलेक्जेंड्रिया में ही एक और सूफी संत बुरहम-अल-दीन मिल गए। चर्चा चली, तो पूरब देश पहुंच गई। पूरब की चर्चा करते संत की आंखों में चमक बेमिसाल हो गई। वह पूरा पूरब घूम चुके थे। संत ने बतूता से कहा, ‘लगता है, तुम्हें दूर देश घूमने का बड़ा शौक है। तो सुनो, जब तुम सिंध पहुंचना, तो मेरे भाई रुकोनुद्दीन से मिलना, भारत में भाई फरीदुद्दीन से मिलना और जब चीन पहुंच जाओ, तो वहां तुम्हारी मुलाकात भाई बुरहानुद्दीन से होगी। इनको मेरा हाल सुनाना, कहना, मैं बहुत याद करता हूं।’ 
बतूता का मन खुशी से झूम उठा कि क्या लाजवाब संत है, दुनिया देख रखी है और दुआ कर रहा है कि मैं भी दुनिया देखूं। जिंदगी को मानो मकसद मिल गया। 1304 ई. में इब्न बतूता तेंजियर, मोरक्को में जन्मे थे। 1325 में वह हज के लिए घर से निकले। लगभग एक साल में 3,500 किलोमीटर का सफर तय कर वह अलेक्जेंड्रिया पहुंचे थे, अभी मक्का-मदीना काफी दूर थे। कभी गधे पर, कभी घोड़े, कभी ऊंट, कभी नाव से और कभी पैदल ही, कभी अकेले, कभी किसी कारवां के साथ बढ़ते रहे। वह मक्का-मदीना पहुंचे, तो वहीं दो-तीन साल रह गए, लेकिन अलेक्जेंड्रिया के वो लम्हे, वो संत उन्हें हमेशा पूरब की ओर जाने के लिए उकसाते रहे और एक दिन वह निकल पड़े। ठीक वैसे ही, जैसे इधर-उधर मुड़ता पक्षी पूरब देश में उतरा था। उनके पैरों में मानो पंख लगे थे। 1332 के आसपास भारत पहुंच गए। यह वही देश था, जहां ख्वाब वाला परिंदा उन्हें बार-बार उतार जाता था। वह बहुत अच्छे खानदानी काजी थे। दिल्ली में सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक के दरबार में काजी हो गए। यहां उनकी जिंदगी के आठ बेहतरीन साल बीते और फिर यहां से वह चीन के लिए निकल गए, वैसे ही इधर-उधर मुड़ते-घूमते। आखिरकार करीब 30 साल यायावरी के बाद घर लौटे। उन्होंने 44 देशों को देखा और 1,20,000 किलोमीटर से भी ज्यादा का सफर तय किया। मोरक्को के सुल्तान के हुक्म पर वह अपने लंबे सफर का पूरा किस्सा करीब दो वर्ष तक सुनाते रहे, जिसे इब्न जूजे ने लिखा। किताब बनी- रेहला अर्थात सफर, जिसमें दर्ज हैं सूफी संत और ख्वाब का वह परिंदा।
As published in Hindustan - 21 sept, 2019

उस सजा-ए-मौत ने पीछा नहीं छोड़ा

लियो टॉलस्टॉय
हमें सभ्य होने में सदियां लगी हैं। इन सदियों में खून, पसीने और आंसुओं की अनगिन बूंदें बही हैं, तभी मानवता की मजबूत धारा चली है। मानवता की ऐसी ही धारा में फ्रांस का शहर पेरिस आज दुनिया के शालीनतम शहरों में शुमार है, लेकिन कभी पेरिस भी बर्बरता का गढ़ था। वहां उस सुबह एक खुली जगह पर करीब 15,000 दर्शकों की भीड़ जुटी थी। कभी सन्नाटा पसर जाता, तो कभी कोलाहल। नजरें बार-बार उस युवक की ओर उठ जाती थीं, जिसे घेरे सिपाही खड़े थे। भीड़ में रुक-रुककर फुसफुसाहट फैलती थी कि लुटेरा है, हत्यारा है, शक्ल से सामान्य लगता है, लेकिन कर्म बुरे हैं, तो सिपाही पकड़ लाए हैं। जज ने फैसला सुना दिया है और सजा का तमाशा देखने भीड़ जुटी है।

एकाएक सन्नाटा गहरा हो जाता है, एक तीखी चीख गूंजती है, धारदार तलवार चलती है और उस युवक का सिर धड़ से अलग जमीन पर जा गिरता है। कुछ लोग देख पाते हैं, कुछ नजरें चुरा लेते हैं, तो कुछ तत्क्षण निकल पड़ते हैं। उसी भीड़ में नौजवान लियो टॉलस्टॉय भी हैं, बुरी तरह स्तब्ध। पल भर में गर्दन नीचे उतर आई! नीचे उतरकर भी आंखें कुछ देर देखती रहीं, धड़ ढेर होकर कुछ देर पूर्णता को तड़पता रहा। क्या यही इंसानियत है? क्या इन्हीं लोगों को इंसान कहते हैं? क्या इन्हीं का पाप अपने माथे लेकर ईसा मसीह सूली चढ़ गए थे?  एक अजीब-सा दर्द लियो की

नसों में उतरकर ठहर गया। दिल बार-बार पूछने लगा, क्या यही तमाशा दिखाने लाए थे? दिमाग सांत्वना देता, ऐसी सजा का तमाशा कभी देखा नहीं था, इसीलिए आए, तजुर्बा तो हुआ। दिल पूछता, माना कि वह अपराधी था, लेकिन किसी का पुत्र, भाई, पति या पिता भी तो होगा। दिमाग अड़ जाता, कानून अंधा होता है और अपराध करने वाला मात्र अपराधी। दिल तड़पता, यह तो असभ्यता है, ऐसी सजा और वह भी खुलेआम? दिमाग समझाता, ताकि सब देखें, सबक सीखें। उस दिन भीड़ तो तमाशा देखकर निकल गई, लेकिन लियो मानो वहीं ठहर गए। पता नहीं, तमाशा बार-बार लौटता था या लियो खुद उस तमाशे में बार-बार लौट आते थे। कुल मिलाकर, वह सजा-ए-मौत ऐसे साथ लगी कि फिर न छूटी। 

वह वर्ष 1857 का कोई दिन रहा होगा, 28 वर्षीय लियो के दिल और दिमाग में मानवता और तार्किकता की जो जंग शुरू हुई, उसने दुनिया को एक बेहतरीन दानी, समाजसेवी इंसान और साहित्यकार दिया। लियो तो रूसी सैनिक थे, युद्ध लड़ चुके थे। हालांकि उनका मन युद्ध के लिए बना ही नहीं था। युद्ध से छूटे, तो यूरोप घूमने निकले, पेरिस पहुंच गए, बर्बर तमाशा देखा। लियो उस लुटेरे-हत्यारे का नाम भी नहीं भूल पाए, उसका नाम था फ्रांसिस रिचेक्स। लियो ने अपनी डायरी में लिखा है, ‘मैं सात बजे सुबह उठ गया और एक सरेआम सजा-ए-मौत देखने गया। एक तगड़े, श्वेत, ऊंची गर्दन और तनी हुई छाती वाले व्यक्ति ने एक धार्मिक ग्रंथ को चूमा और फिर... मौत।

कितना संवेदनहीन...? मुझे इसके पीछे कोई मजबूत धारणा नहीं मिली। मैं राजनीति का आदमी नहीं हूं। नैतिकता और कला, प्यार और समझ का मुझे पता है। गिलोटिन (सिर कलम करने का एक तरीका) ने मेरी नींद उड़ा दी और बरबस मेरे दिमाग में लौटती रही। उस तमाशे ने मुझ पर ऐसी छाप छोड़ी कि मैं भुला नहीं पाऊंगा। मैंने युद्ध में कई बार भयावहता देखी है। युद्ध में अगर मेरी मौजूदगी में एक आदमी को टुकड़े-टुकड़े कर दिया जाता, तो यह उतना खतरनाक नहीं होता, लेकिन यहां तो सरल और सुरुचिपूर्ण व्यवस्था के तहत उन्होंने एक मजबूत, स्वस्थ आदमी को पल भर में मार डाला।... न्यायिक लोग ईश्वर के नियम को निभाने की ढीठ और अभिमानी इच्छा रखते हैं। न्याय उन वकीलों द्वारा तय किया जाता है, जिनमें से हर एक खुद को सम्मान, धर्म और सच्चाई पर खरा मानता है। आदमी के बनाए ऐसे कई नियम बकवास हैं। सच्चाई यह है कि राज्य न केवल शोषण के लिए है, बल्कि मुख्य रूप से अपने नागरिकों को भ्रष्ट करने की एक साजिश भी है।... मेरे लिए राजनीति के नियम-कायदे भयानक झूठ हैं।... मेरी यह मान्यता कम से कम कुछ हद तक मुझे राहत दिलाती है। आज के बाद ऐसी कोई चीज न मैं देखने कभी जाऊंगा और न मैं कभी किसी सरकार की सेवा करूंगा।’ 

वह समाजसेवा को समर्पित हो गए। किताब लिखकर जो भी कमाते थे, दान कर देते थे। राजनीति के प्रति लियो के ऐसे दर्द से ही प्रेरित होकर महात्मा गांधी और अनेक दिग्गज नेताओं ने सत्य-प्रेम-अहिंसा की राजनीति से सभ्यता का नया इतिहास लिख दिया। फ्रांस में 1939 में ही ऐसी सजा का तमाशा थम गया और अब कानून की किताबें भी ऐसी बर्बरता से अपना दामन छुड़ा चुकी हैं।

As Published In Hindustan - 15 Spt- 2019

Monday, 28 October 2019

अच्छा होता, तुम भी सो गए होते

शेख सादी शिराजी

उस दिन ईरान के शिराजी शहर में आसमान पर चांद भरपूर नुमाया था। हवा थोड़ी ठंडक लिए बह चली थी। वैसे भी रेगिस्तान में दिन जहन्नुम-सा तपता है, तो रात जन्नत-सी सजती है। चांद की रोशनी में मानो इल्मो ईमान जाग जाता है। लोग एक दूजे के करीब जुट आते हैं। बालक सादी का कुनबा भी ऐसी रातों में लगभग रोज एक जगह जुट जाता था। अब्बाजान, सारे चचाजान, सगे-चचेरे भाईजान करीब आ जाते थे। फिर शुरू होता पाक कुरान  का पाठ और उस पर चर्चा का दौर। उस दिन भी एक चचाजान जोर-जोर से कुराने पाक का पाठ कर रहे थे। बालक सादी भी अपने पिता के पास बैठकर सुन रहा था। उसने गौर किया कि सुनते-सुनते ज्यादातर चाचा और भाई सोने लगे हैं। कुछ तो गहरी नींद में उतर गए हैं। सादी को बहुत अजीब लग रहा था और एक गर्व भी हो रहा था कि वह खुदा के लिए जग रहा है। सादी ने शायद पूरे बचपने के साथ कहा, ‘अब्बा देखो, सब सो रहे हैं। इन दर्जनों लोगों में से कोई भी पैगंबर के लफ्जों को नहीं सुन रहा है। ऐसे सोएंगे, तो ये लोग कभी अल्लाह तक नहीं पहुंच पाएंगे।’ 

अचंभित पिता अब्दुल्ला शिराजी ने घूरकर देखा कि पुत्र ने तो अपना फैसला ही सुना दिया है। पिता बहुत गुणी थे, वह बहुत नाराज नहीं हुए। उन्होंने प्यार से समझाया, ‘मेरे प्यारे बेटे, अपने ईमान और यकीन के साथ अपनी राह की खुद तलाश करो और दूसरों को अपना ख्याल खुद रखने दो। आखिर कौन जानता है, शायद ये सब सो जाने के बाद अपने सपनों में अल्लाह से बात कर रहे होंगे या अल्लाह को ही देख रहे होंगे। यकीन करो, तुम्हारी बात पर मुझे गम हो रहा है। मुझे ज्यादा अच्छा लगता, अगर तुम भी इन्हीं के साथ सो गए होते, कम से कम तुम्हारे मुंह से फैसले और मजम्मत के इतने बेरहम अल्फाज तो नहीं सुनने पड़ते।’ 
पिता और पुत्र की बातचीत चल रही थी। सोने वाले सो रहे थे, लेकिन बालक सादी मानो किसी नींद से झटके से जाग गया। पिता ने अफसोस भरी नजरों से ऐसे देखा था कि बालक सादी की रूह कांप गई थी। यह नसीहत हमेशा के लिए दिल में उतर गई कि वह कौन होता है, दूसरों का ठेकेदार? अल्लाह ने सबको अलग-अलग बनाया, सब अलग-अलग ही दुनिया में आए, सब अलग-अलग ही रुखसत होंगे। सबकी अपनी अलग राह होगी, तो फिर दूसरे की राह और जिंदगी पर फैसला देने वाला मैं कौन? 

उस लम्हे ने सादी की पूरी जिंदगी और सोच की दशा-दिशा को बदल दिया। उस दिन सादी को शर्म भी बहुत आई थी कि कोई रिश्तेदार अगर उसकी बातों को सुन लेता, तो क्या सोचता? कौन नहीं चाहेगा कि उसके नाते-रिश्तेदार जन्नत जाएं, अल्लाह से बात करें? तब वह महज 11 वर्ष के रहे होंगे, उस रात के कुछ ही दिन बाद पिता का इंतकाल हो गया। पिता के रूप में सादी का सबसे अच्छा उस्ताद भी दुनिया से चला गया, लेकिन दुनिया को इल्म, इश्क, ईमान से लबरेज इंसानियत का एक सच्चा रहनुमा दे गया। दिन-साल गुजर गए, लेकिन सादी उन लम्हों और अपनी उस खता के लिए ताउम्र माफी मांगते रहे। 

आज इल्म की दुनिया में शायद ही कोई होगा, जो शेख सादी शिराजी (1210-1291) को न जानता हो, जो उनकी अनमोल लोकोक्तियों, रुबाइयों को न जानता हो, जो उनकी विश्व प्रसिद्ध रचनाओं बोस्तान  और गुलिस्तान  को न जानता हो। जिंदगी के करीब 25 साल इल्म हासिल करने में गुजारने के बाद 30 साल यायावर के तौर पर दुनिया घूमते रहे। वह अरब, सीरिया, तुर्की, मिस्र, मोरक्को, मध्य एशिया और शायद भारत भी आए थे। पिता ने ऐसा सहिष्णु इंसान बना दिया था कि वह जहां भी जाते, हरदिल अजीज हो जाते। बादशाहों, सरदारों के दरबारों में उनके लिए जगह निकल आती। शेख सादी को उन लम्हों ने इतना विनम्र बना दिया था कि वह किसी भी तरह की बेरहमी, बहस से आसानी से बच निकलते थे। कभी इल्म का घमंड हुआ भी, तो वो लम्हे याद आ गए। कभी कहीं बहस हुई भी, तो उन लम्हों को याद करके खामोश हो गए। 

कई बार अपनी तकरीरों में वह उन लम्हों की कहानी लोगों के सामने दोहराते थे और बताते थे कि कैसे खेल-खेल में ही सहजता से इल्मो अदब की रोशनी फैल जाती है, जैसे उस रात फैल गई थी। शेख सादी फारसी के सबसे बड़े कवि माने जाते हैं। उनकी जिंदगी का वो लम्हा मुकम्मल गवाह है कि मुस्लिम दुनिया में सकारात्मक सोच का वह स्वर्णकाल कैसा था। कई मुस्लिम वैज्ञानिकों, अदीबों ने दुनिया को कुछ न कुछ देते रहने का सिलसिला-सा बना लिया था। फिरकापरस्तों की दुनिया से अलग वह ऐसी लाजवाब दुनिया बन गई थी, जहां इंसान का कत्ल तो भूल ही जाइए, किसी के ख्वाब-ख्याल का कत्ल भी हराम था।

As published in Hindustan
https://www.livehindustan.com/blog/expert-daily-blogs/story-wo-lamhe-article-of-1-september-2720673.html

एक ख्वाब जिसे दुनिया पहनती है

एलिअस होव, सिलाई मशीन के आविष्कारक

एक भयावह दरबार लगा है, जहां बर्बर राजा के सामने लोग घसीटकर लाए जाते हैं। थर्र-थर्र कांपते, रहम की गुहार में बिलखते। रक्त की प्यासी निगाहें घात लगाए टिकी हैं, शातिर मुस्कान से इस्तकबाल करतीं। मुझे भी घसीटकर लाया जाता है और पटक दिया जाता है। मुकदमा पेश होता है, ‘माय लॉर्ड, ये दोषी मैकेनिक, बता नहीं पा रहा कि सुई की आंख कहां होनी चाहिए।’  मैं घुटनों पर बैठ गिड़गिड़ाया, ‘माय लॉर्ड, मैं दिन-रात बहुत कोशिश कर रहा हूं कि सुई की आंख खोज लूं, लेकिन...’

राजा ने बीच में ही रोककर फरमान सुना दिया, ‘बस बहुत हो गया, महज 24 घंटे का समय दिया जाता है। ये आदमी सुई की आंख नहीं खोज पाए, तो इसे आदमखोरों को सौंप दिया जाए।’ जब आखिरी फरमान ही आ गया, तो फिर फरियाद की गुंजाइश कहां थी? मुझे पकड़कर छोटी प्रयोगशाला में धकेल दिया गया। मरता क्या न करता? मैं फिर खोज में जुट गया।

आखिरी बार युद्ध स्तर पर, बहुत सोचा, तरह-तरह से प्रयोग किए। सुई में जगह-जगह छेदकर देखा कि सही सिलाई में कामयाबी मिल जाए। उंगलियां लहूलुहान हो गईं। बेरहम समय पल-पल रिस रहा था। प्रयोग में बेकार हुई सुइयों का ढेर लग गया। दिमाग ने काम करना मानो बंद कर दिया। बाद में तो घायल उंगलियां हिल भी नहीं पा रही थीं। बीतना ही था, समय बीत गया। फिर क्या, मुझे आदमखोरों को सौंप दिया गया, जो मुझे कहीं निर्जन इलाके में घसीट ले गए। उन आदमखोरों ने मुझे बांध दिया। मेरी ओर अपने भाले दिखा-दिखाकर डराने लगे। देर तक भाले से डराने का दौर चला। भाले जब मेरी देह में चुभे, तब हठात् वह डरावनी दुनिया ओझल हो गई।

यह एक ख्वाब था, जो टूट गया। एक ख्वाब, जो अमेरिकी शहर स्पेंसर के एक कारीगर एलिअस होव देख रहे थे। त्रासद ख्वाब से गुजरकर पसीने से लथपथ वह सोचने लगे कि यह सपना आखिर क्या था? चूंकि वह एक सिलाई मशीन का आविष्कार करने में दिलोजान से जुटे थे, तो सोते-जागते हर समय उन्हें सिलाई के औजार ही दिखते थे। सिलाई से जुड़ा औजार है सुई और सुई जैसा ही भाला। अचानक ख्वाब में दिखे भालों पर उनका ध्यान गया। भाले कैसे थे? क्या उनकी नोक में छेद था? यह खयाल आते ही एलिअस होव बिस्तर से उछलकर उठे। सुबह के चार बज रहे थे। तत्काल अपनी प्रयोगशाला में घुसे और एक सुई की नोक में उन्होंने छेद किया। उसे सिलाई मशीन में लगाया और धागा लगाकर आजमाया। सुई धागे को बहुत सफाई से कपड़े के नीचे ले जाती और सिलकर ऊपर आ जाती। सिलाई भी निखर उठी।

कामयाबी एलिअस के कदमों में आ गई। जब सुई को आंख मिल गई, तब वह कहां रुकने वाली थी। वह ऐसी ही सुई की तलाश में पिछले तीन वर्ष से लगे थे। तमाम प्रयोग-प्रयास के बावजूद उन्हें कामयाबी नहीं मिल रही थी। मन हारने लगा था, तभी वह ख्वाब आया। अगर उन्हें वह ख्वाब न आता, यदि उन्हें ख्वाब में राजा सजा न सुनाते, यदि उन्हें आमदखोर अपने उन खास भालों से न डराते, तो शायद सिलाई मशीन को मुकम्मल सुई के लिए और कई वर्ष-दशक इंतजार करना पड़ता। यह आज से करीब पौने दो सौ साल पहले की बात है। शिल्प क्रांति के दौर में बड़े-बड़े कारखानों में कपड़े बनने लगे थे, लेकिन दुनिया एक कारगर सिलाई मशीन के लिए तरस रही थी। बताते हैं, उस दौर में वैसी सिलाई मशीन बनाने की कोशिश में 60 से ज्यादा आविष्कारक या मैकेनिक लगे थे, लेकिन वह ख्वाब, वो लम्हा तो एलिअस होव को ही नसीब हुआ। होव यह मानते थे कि जीवन में कड़े संघर्ष की वजह से ही उन्हें वह ख्वाब आया। करीब 48 की उम्र उन्हें नसीब हुई और उनका लगभग पूरा जीवन संघर्षमय रहा।

उन्होंने वर्ष 1846 में उस सुई का पेटेंट करा लिया था, लेकिन अपनी मशीन बेचने में कामयाबी नहीं मिली, तो अमेरिका से इंग्लैंड चले गए। लेकिन वहां तो गरीबी ने घेर लिया, फिर अमेरिका लौटे और देखा कि उनकी सुई का सिक्का सिलाई बाजार में चल निकला है। सिलाई मशीन बनाने वाली सबसे बड़ी कंपनी खूब चांदी कूट रही है। उन्होंने पेटेंट दिखाकर दावा पेश किया। वर्ष 1854 में वह पेटेंट का मुकदमा जीत गए। कहते हैं, उन्हें इतना धन मिला कि वह अमेरिका के दूसरे सबसे अमीर आदमी हो गए थे। दुनिया में कहीं भी कोई सिलाई मशीन या सिलाई की सुई बिकती थी, तो एलिअस की तिजोरी बड़ी हो जाती थी। कौन कहता है, ख्वाब का वो लम्हा वहीं थम गया, उसका तमाशा तो दुनिया डेढ़ सौ साल से पहने घूम रही है और हमेशा घूमेगी।

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Monday, 23 September 2019

फिर कोई धोखे की सोच न सका


पेशवा बाजीराव बल्लाल भट्ट

हमारी मातृभूमि ने अनगिनत वीर दिए हैं, जो किसी परिचय के मोहताज नहीं, लेकिन उनमें चंद वीर ऐसे भी हैं, जिन्हें दुनिया वीरों का वीर मानती है। ऐसे ही एक महावीर बाजी राव बल्लाल भट्ट को तीन सौ साल बाद भी हम भूल नहीं पाए हैं। 18 अगस्त, 1700 को जन्मे बाजी राव का सामरिक ज्ञान विदेशी सैन्य संस्थानों में भी पढ़ाया जाता है। युद्ध कौशल का बखान करने वाली किताबों में उनकी ‘संपूर्ण संग्राम शैली’ या ‘स्कोच्र्ड अर्थ वारफेयर’ को सबसे कारगर माना जाता है।
अपने जीवन में पचास से ज्यादा युद्धों-अभियानों में हिस्सा लेने वाले प्रसिद्ध ब्रिटिश फील्ड मार्शल बर्नार्ड मोंटगोमरी ने अपनी किताब हिस्ट्री ऑफ वारफेयर  में लिखा है कि बाजी राव संभवत: भारत में अब तक के सबसे बेहतरीन घुड़सवार सेनापति थे। उनकी शैली का प्रयोग अमेरिका में गृह युद्ध का अंत करने के लिए भी किया गया और आज भी अनेक सैन्य कमांडर उनकी नकल करने की कोशिश करते हैं। उनके जीवन का ‘वो लम्हा’ जानने से पहले हमें इस सर्वज्ञात तथ्य को ताजा कर लेना चाहिए कि बाजी राव ने कुल 39 वर्ष के जीवन में करीब आठ बड़े, 32 छोटे युद्ध लड़े और पराजय की हवा भी उन्हें कभी छूकर नहीं निकली। युद्ध अर्थात संपूर्ण युद्ध, उसमें कोताही की नोंक बराबर आशंका भी नहीं। युद्ध में रणनीतिक गतिशीलता इतनी तेज कि दुश्मन को पलक झपकाने का मौका न मिले। उसके संचार, परिवहन, आपूर्ति, उद्योग, जनजीवन, सबको ऐसे प्रचंड आक्रमण से बाधित कर देना कि दुश्मन जल्द से जल्द घुटने टेक दे। देश के एक शानदार शहर पुणे की नींव रखने वाले बाजी राव के जीवन में आखिर ‘वो लम्हा’ क्या था, जिसने महावीर बाजी राव को जन्म दिया?

उस दिन किशोर बाजी राव बहुत खुश था, क्योंकि मराठा योद्धा पिता बालाजी विश्वनाथ भी आश्वस्त थे। जिस मराठा ताल्लुकेदार दामाजी थोरट को काबू करने राजा छत्रपति साहू जी महाराज ने भेजा था, वह बिना लडे़ ही समझौते के लिएमान गया था। मराठा एकता का विस्तार होना था, तो बाजी राव अपने पिता के साथ दामाजी के हिंगनगांव स्थित मजबूत छोटे किले में सहर्ष कदम रखते बढ़ रहे थे। तभी वह बात हो गई, जो केवल दामाजी के शातिर दिमाग में थी। घात लगाकर विश्वासघात किया गया, बाप-बेटे को बंदी बना काल कोठरी में डाल दिया गया। मध्ययुगीन बर्बर तरीकों से प्रताड़ना का दौर चला। घोड़ों के मुंह पर चारे का जो झोला बांधा जाता है, वैसे ही झोले में राख भरकर पिता-पुत्र के मुंह पर बांध दिया जाता। पीड़ा पहुंचाने का क्रम दिनोंदिन तेज होता जा रहा था। दामाजी कहने को तो मराठा सरदार था, लेकिन अपनी पूरी नीचता पर उतर आया था। अव्वल दर्जे का लालची, धूर्त और धन के लिए किसी भी स्तर तक गिर जाने वाला। ऐसे निंदनीय व्यक्ति के शिकंजे में फंसे पिता तो उम्मीद छोड़ चुके थे। चौथ-लगान के लुटेरे दामाजी ने राजा छत्रपति के सामने फिरौती की मांग रखी। राजा छत्रपति चूंकि बालाजी विश्वनाथ को बहुत मानते थे, इसलिए उन्होंने फिरौती देकर बला टालना स्वीकार कर लिया।

महज 11-12 साल के रहे बाजी राव के दिलो-दिमाग पर इस घटना का गहरा असर हुआ। बाजी राव ने हिंगनगांव की दुखद-निर्मम कैद से निकलकर शुद्ध युद्ध कौशल पर काम किया। उनकी अपनी नीति बन गई कि यदि युद्ध के लिए निकले हो, तो किसी पर विश्वास नहीं करो। पिता ने यही गलती की थी। जब बंदी बनाकर उन्हें दामाजी के सामने पेश किया गया, तब पिता ने पूछा, ‘दामाजी, तुमने तो बेल वृक्ष और हल्दी के नाम पर शपथ ली थी कि छल नहीं करोगे, किंतु यह क्या किया?’ थोराट ने कुटिल हंसी के साथ कहा था, ‘तो इसमें क्या है? बेल आखिर एक पेड़ ही तो है और हल्दी तो हम रोज ही खाते हैं।’ 

उस लम्हे या झटके ने बाजी राव को आमूलचूल बदल दिया। एक वर्ष बाद तो वह स्वयं युद्ध पर जाने लगे। वह किसी भी तरह की विपरीत स्थिति पैदा होने पर प्रहार के लिए इतने चौकस और तैयार रहते थे कि उनके विरोधी और दुश्मन उनसे मिलने में भी डरते थे। ऐसी युद्धनीतियां रचने लगे, जिनमें घोखा खाने या हारने की रत्ती भर गुंजाइश नहीं होती थी। मात्र 20 की उम्र में मराठा साम्राज्य के पेशवा (प्रधानमंत्री-सेनापति) बन गए। जब बाजी राव ने दक्खन के नवाब-निजाम को घेरकर झुकने को मजबूर कर दिया, तब शपथ दिलाने की बारी आई। बाजी राव ने कुरान  मंगवाई और कहा, ‘ईमान वाले हो, तो पाक कुरान  पर हाथ रखकर कायदे से कसम खाओ कि मुगलों और मराठों की लड़ाई में कभी नहीं पड़ोगे।’ तब निजाम ने बाजी राव की बहादुरी और चतुराई के आगे सिर झुका दिया था, और दुनिया तो आज भी झुकाती है।

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Tuesday, 17 September 2019

मेरा खेल खत्म हो गया था


मुस्तफा कमाल पाशा, तुर्की गणराज्य के संस्थापक

मानो सब कुछ खत्म हो गया था। उस्मानी सल्तनत के सिपाही घात लगाए बैठे थे। तुर्की के इस्तांबुल शहर के उस फ्लैट पर 24 वर्षीय सैन्य कप्तान को पहुंचते ही पकड़ लिया गया। सामान्य किसान परिवार से आए उस वीर युवा के सैन्य करियर पर शुरुआत में ही अंत की मुहर लग गई। कैद से निकलने की रत्ती भर गुंजाइश नहीं थी। अरब दुनिया में, और वह भी सुल्तान व खलीफा के दौर में रहम की उम्मीद कौन कर सकता था? निष्ठा पर शक की सुई जरा भी घूम जाए, तो सीधे मौत की सजा दी जाती थी या किसी देश या मोर्चे पर मरने भेज दिया जाता था।
उस दिन सुल्तान के सिपाही जिस युवा को बहुत आसानी से पकड़कर ले जा रहे थे, वह था भावी दुनिया का सर्वश्रेष्ठ सैन्य कमांडर, राजनीतिज्ञ मुस्तफा कमाल पाशा, जिन्हें पूरी दुनिया ने अतातुर्क के नाम से जाना। उस समय युवा मुस्तफा की आंखों के आगे वे दृश्य बार-बार उभर रहे थे, जब एक रात फेथी नाम का पुराना दोस्त फटेहाल मिलने पहुंचा था। सेना से बर्खास्त हो चुके फेथी ने गिड़गिड़ाकर कहा था, ‘मेरे पास न तो पैसे हैं और न कहीं सिर छिपाने की जगह।’ साथियों ने फेथी को उसी फ्लैट में रख लिया, जिसे मुस्तफा ने विचार-विमर्श के लिए किराये पर ले रखा था। दो दिन बाद जब फिर मिलने का मौका आया, तो गाज गिर गई। बाकी साथी पहले ही पकड़ लिए गए थे। फेथी ने दगा किया था, वह सल्तनत का गुप्तचर निकला।
सैन्य कॉलेज से साथ पढ़कर निकले मुस्तफा और उनके साथी तो देश की बेहतरी पर चिंतन करते थे, लेकिन उन्हें नहीं पता था कि उन पर नजर रखी जा रही है। उस्मानी सल्तनत की अदालत में कड़ी पूछताछ होती और फिर अंधेरे कमरों में धकेल दिया जाता। वे बहुत भारी, ठहरे हुए उदास दिन थे। कभी मां, कभी बहन, तो कभी प्यारे गृहनगर सलोनिका की याद आती, कभी देश सेवा के अधबने सपने सताते, कभी सेना में बने-बनाए करियर की मौत नजर आती।
मुस्तफा कमाल पाशा ने बाद में खुद बताया, ‘वो लम्हा मेरी जिंदगी का ऐसा मोड़ था, जिसने मेरे काम करने और सोचने के तरीके को पूरी तरह से बदलकर रख दिया।’ उन्होंने गहराई से सोचा कि नीति-रणनीति में गलती कहां हुई? उन्होंने तभी फैसला कर लिया था कि यदि कैद से निकलकर फिर जिंदगी मिली, तो एक भी गलती नहीं दोहराएंगे, मगर करेंगे वही, जो अपने और अपने वतन तुर्की के लिए बेहतर होगा।
खैर, कुछ महीने की कैद के बाद उनकी जिंदगी में नई सुबह हुई। हालात ऐसे बने कि उस्मानी सल्तनत को जंग के लिए कई मोर्चों पर प्रशिक्षित कमांडरों की जरूरत पड़ी। कैद से निकालकर मुस्तफा को राजधानी से बहुत दूर सीरिया के सैन्य मोर्चे पर भेज दिया गया। उसके बाद नित नई जंग और बेमिसाल हौसले का सिलसिला चला। मुस्तफा को सुल्तान के करीबी कमांडरों ने देश के सबसे कठिन मोर्चों पर भेजना शुरू किया। साजिश तो यही होती कि किसी मोर्चे पर मुस्तफा शहीद हो जाएं। मुस्तफा यह जानते थे, उन्होंने स्वयं कहा है, ‘मैं अक्सर मौखिक या लिखित आलोचना कर देता। इससे विशेष रूप से बूढ़े कमांडर आहत हो जाते थे। दंडस्वरूप ही मुझे कमांडर बना दिया गया, पर उनके गुस्से को मैंने आशीर्वाद में बदल दिया। जब मैं कमांडर बना, तो सारी यूनिटें मेरे साथ अभ्यास में शामिल होने लगीं। मुझे सुनने अफसर जुटने लगे।’
वह गिरफ्तारी और कैद के उन लम्हों में किया गया चिंतन ही था कि मुस्तफा जिंदगी में फिर कभी जासूसों या दुश्मनों के हाथ नहीं आए। देश के लिए लड़ी गई एक भी जंग नहीं हारे। संयोग है कि आज से सौ साल पहले, यानी 7 अगस्त, 1919 को वह नेशनलिस्ट कांग्रेस के चेयरमैन बनाए गए थे। संगठन-प्रबंधन की खूबियों से भरे मुस्तफा जिस भी काबिल कमांडर या विद्वान से मिलते, उसे हमेशा के लिए अपना बना लेते। अपनी लकीर इतनी लंबी करते गए कि दुश्मनों की लकीरें बौनी होती गईं। अपने ईद-गिर्द उन्होंने ऐसा मजबूत घेरा बना लिया कि जब एक दफा सुल्तान ने उनकी गिरफ्तारी का हुक्म दिया, तो कोई कमांडर हुक्म बजाने आगे नहीं आया। वह पुलिस तो शर्म से गड़ रही थी, जो कभी मुस्तफा के लिए घात लगाए बैठी थी। 5 अगस्त, 1921 को नेशनल असेंबली ने उन्हें बुलाकर देश का कमांडर इन चीफ नियुक्त किया। 24 की उम्र में जिस नौजवान का अंत होने वाला था, वह 42 की उम्र में तुर्की गणराज्य का पहला राष्ट्रपति बन गया। मुस्तफा के नेतृत्व में एक दिन वह भी आया, जब सुल्तान और खलीफा का अंत हुआ। उनका तुर्की गणराज्य सबसे आधुनिक, सबसे प्रगतिशील देश के रूप में हमेशा के लिए मिसाल बन गया। यह मंजिल शायद उन्हें न मिली होती, अगर एक दोस्त की दगाबाजी ने उन्हें जेल न पहुंचा दिया होता।

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