ज्ञानेश उपाध्याय
इतना पानी किसे चाहिए...डूबने को तो चुल्लू भर काफी है, लेकिन क्या शहर का कोई जवाबदेह चुल्लू भर पानी में खुद को डूबने लायक मानेगा? दिक्कत यही है कि हम अपनी कमी और गलती को जल्दी नहीं मानते। लगभग बीस साल बाद ऐसी झमाझम बारिश जोधपुर में हुई है। घंटों तक रुकने का नाम न लेने वाली बारिश ने बहुतों की पोल खोल कर रख दी है कि देख लो, ऊपर वाला देता है पानी, लेकिन रखने की हमारी औकात नहीं है? पानी रखने की औकात तो हमारे पूर्वज रखते थे, हम तो उस औकात की धज्जियां उड़ाकर बस जाम और जमाव का तमाशा देख रहे हैं। पानी की राह में हम कॉलोनियां बसा चुके हैं, तो जाहिर है सडक़ों को हम ने ही नाला बनने पर मजबूर किया है। जिस शहर को वाहन के जरिये एक छोर से दूसरी छोर तक लगभग एक घंटे में पार किया जा सकता है, उस शहर में लोग पांच-पांच घंटे जाम में फंसने के बाद किसी तरह से पानी से तरबतर घर पहुंचे हैं। लाखों बच्चों-परिजनों को हमने अनहोनी की चिंता में डाला है। सडक़ों पर कितने झगड़े हुए हैं, कितने नुकसान हुए हैं, आकलन आने वाले दिनों में होगा।
लेकिन ऐसा क्यों हुआ? हमारे शासन-प्रशासन को जवाब देना चाहिए। दरअसल, ये अफसर पानी को साल में चार-पांच दिन की समस्या मानते हैं। ये सोचते हैं, ३६५ दिनों में से महज ५ दिन जोर की बारिश होगी, पानी जमा होगा, शहर में जाम लगेगा, जनजीवन अस्त-व्यस्त होगा, फिर पानी उतर जाएगा, तो स्थितियां अपने आप सामान्य हो जाएंगी। ऐसे में, पांच दिन के लिए नालियां क्यों बनाएं, जगह-जगह तालाब क्यों साफ रखें? कोशिश करके देख लीजिए, ऐसा सोचने वाले अफसरों के फोन अभी एक दो दिन व्यस्त या बंद मिलेंगे। मुंह चुराना भी एक मौसमी अदा है।
आखिर कौन बना रहा है शहर में कंक्रीट की दीवारें? कौन नालों को पाट रहा है, रोक रहा है? निगम, जेडीए ही नहीं, सेना भी इस काम में शामिल है। सडक़ों के दोनों ओर दीवारें खड़ी हैं, सडक़ें नाला बनने को मजबूर हैं। सडक़ें नीचे हैं और कॉलोनियां ऊपर। मतलब साफ है सडक़ें ही आधुनिक नाला हैं, केवल घोषणा शेष है। शहर में ढोल पीटकर मुनादी करा देनी चाहिए कि खबरदार, बारिश होगी, तो सडक़ रूपी नालों में न निकलें। अगर आप बारिश में कहीं बाहर निकलते हैं, तो आप स्वयं अपनी जान की जिम्मेदारी लीजिए, निगम-निकाय और बड़े-बड़े इलाकों के बड़े-बड़े मालिक कतई जिम्मेदार नहीं होंगे? शहर की कहां-कहां की किस-किस सडक़ या हाईवे का नाम लें, आम आदमी या ‘सिविलियंस’ के लिए शायद ही कोई ऐसी सडक़ छोड़ी गई है, जिसे देखकर मूंछों पर ताव देने का मन करे। मूंछें गीली पड़ी हैं और सारी स्मार्टनेस कचरे के साथ सरेआम बहती दिख रही है। वाकई, शहर में तो खूब पानी बह रहा है, लेकिन थोड़ा आंखों में भी जिंदा हो जाए, तो बात बन जाएगी। मिलकर सब देंगे पानी को रास्ता और जगह, तो सडक़ें पानी की गुलामी से आजाद हो जाएंगी। बारिश की बड़ी-बड़ी बूंदें जोधपुर को ऐसा बहुत कुछ बोल गई हैं, लेकिन सुना कितना गया, समय बताएगा।
(राजस्थान पत्रिका जोधपुर में प्रकाशित टिप्पणी)
इतना पानी किसे चाहिए...डूबने को तो चुल्लू भर काफी है, लेकिन क्या शहर का कोई जवाबदेह चुल्लू भर पानी में खुद को डूबने लायक मानेगा? दिक्कत यही है कि हम अपनी कमी और गलती को जल्दी नहीं मानते। लगभग बीस साल बाद ऐसी झमाझम बारिश जोधपुर में हुई है। घंटों तक रुकने का नाम न लेने वाली बारिश ने बहुतों की पोल खोल कर रख दी है कि देख लो, ऊपर वाला देता है पानी, लेकिन रखने की हमारी औकात नहीं है? पानी रखने की औकात तो हमारे पूर्वज रखते थे, हम तो उस औकात की धज्जियां उड़ाकर बस जाम और जमाव का तमाशा देख रहे हैं। पानी की राह में हम कॉलोनियां बसा चुके हैं, तो जाहिर है सडक़ों को हम ने ही नाला बनने पर मजबूर किया है। जिस शहर को वाहन के जरिये एक छोर से दूसरी छोर तक लगभग एक घंटे में पार किया जा सकता है, उस शहर में लोग पांच-पांच घंटे जाम में फंसने के बाद किसी तरह से पानी से तरबतर घर पहुंचे हैं। लाखों बच्चों-परिजनों को हमने अनहोनी की चिंता में डाला है। सडक़ों पर कितने झगड़े हुए हैं, कितने नुकसान हुए हैं, आकलन आने वाले दिनों में होगा।
लेकिन ऐसा क्यों हुआ? हमारे शासन-प्रशासन को जवाब देना चाहिए। दरअसल, ये अफसर पानी को साल में चार-पांच दिन की समस्या मानते हैं। ये सोचते हैं, ३६५ दिनों में से महज ५ दिन जोर की बारिश होगी, पानी जमा होगा, शहर में जाम लगेगा, जनजीवन अस्त-व्यस्त होगा, फिर पानी उतर जाएगा, तो स्थितियां अपने आप सामान्य हो जाएंगी। ऐसे में, पांच दिन के लिए नालियां क्यों बनाएं, जगह-जगह तालाब क्यों साफ रखें? कोशिश करके देख लीजिए, ऐसा सोचने वाले अफसरों के फोन अभी एक दो दिन व्यस्त या बंद मिलेंगे। मुंह चुराना भी एक मौसमी अदा है।
आखिर कौन बना रहा है शहर में कंक्रीट की दीवारें? कौन नालों को पाट रहा है, रोक रहा है? निगम, जेडीए ही नहीं, सेना भी इस काम में शामिल है। सडक़ों के दोनों ओर दीवारें खड़ी हैं, सडक़ें नाला बनने को मजबूर हैं। सडक़ें नीचे हैं और कॉलोनियां ऊपर। मतलब साफ है सडक़ें ही आधुनिक नाला हैं, केवल घोषणा शेष है। शहर में ढोल पीटकर मुनादी करा देनी चाहिए कि खबरदार, बारिश होगी, तो सडक़ रूपी नालों में न निकलें। अगर आप बारिश में कहीं बाहर निकलते हैं, तो आप स्वयं अपनी जान की जिम्मेदारी लीजिए, निगम-निकाय और बड़े-बड़े इलाकों के बड़े-बड़े मालिक कतई जिम्मेदार नहीं होंगे? शहर की कहां-कहां की किस-किस सडक़ या हाईवे का नाम लें, आम आदमी या ‘सिविलियंस’ के लिए शायद ही कोई ऐसी सडक़ छोड़ी गई है, जिसे देखकर मूंछों पर ताव देने का मन करे। मूंछें गीली पड़ी हैं और सारी स्मार्टनेस कचरे के साथ सरेआम बहती दिख रही है। वाकई, शहर में तो खूब पानी बह रहा है, लेकिन थोड़ा आंखों में भी जिंदा हो जाए, तो बात बन जाएगी। मिलकर सब देंगे पानी को रास्ता और जगह, तो सडक़ें पानी की गुलामी से आजाद हो जाएंगी। बारिश की बड़ी-बड़ी बूंदें जोधपुर को ऐसा बहुत कुछ बोल गई हैं, लेकिन सुना कितना गया, समय बताएगा।
(राजस्थान पत्रिका जोधपुर में प्रकाशित टिप्पणी)