Friday 1 January, 2010

जगदगुरु रामनरेशाचार्य जी : पूज्य से भेंट



नव वर्ष में आकर जब पिछले को देखता हूं, तो सोचता हूं कि आखिर पिछले का क्या अगले में याद रह जाएगा या पिछले का क्या विशेष अगले में साथ रखने योग्य है। अगर किसी एक इंसान की चर्चा करूं, जिससे मैं लगातार मिलना चाहूंगा, तो वो हैं जगदगुरु रामनरेशाचार्य जी। हत् भाग्य पत्रकारिता ने मानसिकता ऐसी बना रखी है कि मन में प्रश्न आवश्यकता से अधिक उपजते हैं। प्रश्नों ने जितना भला नहीं किया है, उससे ज्यादा कबाड़ा किया है। हालांकि खोज तो सदा रही है कि कोई मेरे कबाड़ व पूरी मानसिक अव्यवस्था को व्यवस्थित कर दे। शास्त्री कोसलेन्द्रदास जी का धन्यवाद देता हूं और अफसोस भी जताता हूं कि उनके कई आग्रहों पर मैं ध्यान नहीं दे पाया, वरना अदभुत हस्ती रामनरेशाचार्य जी से मेरी भेंट बहुत पहले ही हो गई होती। इसी को सौभाग्य कहते हैं, वह तभी संभव है, जब भाग्य प्रबल हो, वरना दुर्भाग्य तो मेरे जीवन का एक अहम हिस्सा रहा है। ग्रेगोरियन कलेंडर के वर्ष 2009 को मैं इसलिए याद रखना चाहूंगा, क्योंकि इस वर्ष मेरी भेंट पूज्य रामनरेशाचार्य जी से हुई। 30 दिसंबर की वह दोपहर सदा मेरी स्मृति में अंकित रहेगी। गेरुआ चादर लपेटे लंबी कद काठी के लगभग छह फुट के पूज्य श्री की छवि सदैव स्मरणीय है। पांव में गेरुआ मोजे, सिर और कान को ढकते हुए बंधा गेरुआ स्कार्फ यों बंधा था, मानो किसी ईश्वर ने अपने इन योग्य सुपुत्र को अपने हाथों से बाँधा हो। चेहरे पर सहजता-सरलता ऐसी मानो कुछ भी बनावटी न हो, कुछ भी आडंबरपूर्ण न हो, कुछ भी छिपाना न हो, कुछ भी पराया न हो, सबकुछ अपना हो, सब सगे हों। मेरे साथ समस्या है, मेरी दृष्टि उस चेहरे पर नहीं टिक पाती, जो चेहरा मुझसे बात करता है, लेकिन पहली बार बिना बगलें झांके मैंने अनायास पूज्य श्री को देखा। मेरे बारे में शास्त्री कोसलेन्द्रदास जी ने उन्हें पहले ही बता रखा था। वे एक तरह से मेरे जैसे तुच्छ ब्यक्ति से मिलना चाहते थे । आदर -सत्कार के बाद पहले उन्होंने संपादन की चर्चा की। यहां यह बताना उचित होगा कि पूज्य श्री के श्रीमठ (जो वाराणसी में पंचगंगा घाट पर स्थित है) से स्वामी रामानन्द जी पर एक पुस्तक प्रकाशित हो रही है, जिसके संपादन में शास्त्री कोसलेन्द्रदास जी ने मेरा सहयोग लिया है, जिसके लिए मैं स्वयं को धन्य मानता हूं। जिस पावन श्रीमठ की स्थापना महान श्री स्वामी रामानन्द जी ने की थी, जिससे कबीर, रैदास, धन्ना, पीपा, सैन, तुलसीदास जी जैसी अनगिन महान विभूतियां निकलीं। जिन्होंने न केवल राम के नाम को जन-जन तक पहुंचाया, बल्कि समाज में धर्म भेद और जाति भेद को भी गौण बनाया। ऐसी महान विभूतियों को समाहित करने का प्रयास करती पुस्तक के संपादन में कुछ समय देकर सहयोगी बनना निस्संदेह सौभाग्य की बात है।
यह शायद मेरे भाग्य में लिखा था कि पहले मैं पूज्य रामानन्द जी को जानूं, उनके योगदान व शिष्यों को जानूं, उनकी छटांक भर सेवा करूं, उसके बाद ही मुझे पूज्य रामनरेशाचार्य जी के दर्शन सुलभ होंगे। देश में स्वतंत्र मन वाले जो कुछ सम्मानित धर्मगुरु हैं, उनमें रामनरेशाचार्य जी का नाम पूरी ईमानदारी के साथ समाहित है। राष्ट्र की मुख्यधारा राजनीति भी उनका महत्व जानती है। वे एक ऐसे गुरु हैं, जो किसी दलित को पुजारी बनाते हिचकते नहीं हैं, जो किसी मुस्लिम से मंदिर की नींव डलवाने का भी सु-साहस रखते हैं। तो संपादन की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा, कौन-सा लेख कहां जाना चाहिए, किसका लेख पहले जाना चाहिए, यह तय करना महत्वपूर्ण कार्य है। अच्छे संपादन से अखबार चमक जाते हैं। स्वामी रामानन्द जी पर मेरे स्वयं के लेख ,थोथा दिया उड़ाय, को सराहते हुए उन्होंने कहा कि पुस्तकों से उद्धरण देकर तो बहुत लोग लिख लेते हैं। ऐसा हमेशा से होता रहा है। साल दर साल यही सब चलता है। इतिहास पुरुषों पर मौलिक लेखन कम होता है।
बिहार चर्चा
पूज्य श्री के साथ हुई बिहार चर्चा विशेष रही। उन्हें जब ज्ञात हुआ कि मेरी पैतृक भूमि बिहार है, तब उन्होंने उत्तर बिहार अर्थात पुराने छपरा जिला की विभूतियों को गिनाना शुरू किया। नामी संस्कृत विद्वानों के साथ-साथ उन्होंने कुंवर सिंह, डॉ राजेन्द्र प्रसाद, जयप्रकाश नारायण, भिखारी ठाकुर इत्यादि को याद किया। मैंने उन्हें बताया कि मेरे गांव से राजेन्द्र जी का घर 52 किलोमीटर दूर और जयप्रकाश नारायण का घर 34 किलोमीटर दूर स्थित है। मैंने यह भी बताया कि ठग नटवरलाल भी वहीं के थे, राजेन्द्र प्रसाद के गांव के बगल के, तो उन्होंने कहा कि लालू प्रसाद यादव भी वहीं के हैं। लेकिन उनका जोर उस भूमि की प्रशंसा पर था। उन्होंने बताया, सिकंदर ने पंजाब जीत लिया, लेकिन उसकी हिम्मत मगध या बिहार की ओर बढ़ने की नहीं हुई, क्योंकि वहां नंद वंश का शासन था। ऐसी धारणा थी कि अगर सिकंदर की सेना बिहार पर आक्रमण करती, तो कोई जीवित नहीं लौटता। इस बीच उन्होंने रहस्योद्घाटन किया कि हम भी वहीं से आते हैं। यह अत्यंत हर्ष का विषय है कि पूज्य श्री का गांव भोजपुर के जगदीशपुर के परसिया में पड़ता है। ईश्वर ने चाहा, तो कभी उनके गांव की यात्रा करूंगा।
मेरे पैर सो गए
उनके चरणों में बैठे-बैठे मेरे पैर सो गए, तो अनायास मन में भाव आया कि पैर ये संकेत दे रहे हैं कि अब यहां थमा जा सकता है, आगे चलने या आगे खोजने की कोई जरूरत नहीं है। यहां निश्चिंत हुआ जा सकता है, खुद को पूज्य श्री को समर्पित करते हुए। उनके साथ केवल धर्म नहीं है, उनके साथ एक राष्ट्रीय आंदोलन है, जो वास्तव में राष्ट्र को सशक्त करने की क्षमता रखता है। उनके साथ केवल कर्मकांडी नहीं, कर्मयोगी हुआ जा सकता है। ऐसा कर्मयोगी बना जा सकता है, जो राष्ट्र के सच्चे मर्म को समझता हो। उनकी कृपा की सदैव अपेक्षा रहेगी। अत्यंत संकोच के साथ बताना चाहूंगा कि महात्मा स्वामी रामानंद जी को पढ़ते-जानते हुए मेरी आंखों में आंसू आ गए थे और पूज्य श्री रामनरेशाचार्य से भेंट के उपरांत भी मेरे मन में आंसुओं का वैसा ही ज्वार उठा, जैसा ज्वार किसी खोए हुए अभिभावक को पाकर किसी अभागे पुत्र के मन में उठता होगा। लगा, मैं बहुत दिनों बाद फिर बच्चा हो गया हूं, उंगली पकड़कर चलना सीखने को तैयार बच्चा।
वही राम दशरथ का बेटा, वही राम घट-घट में व्यापा, वही राम ये जगत पसारा, वही राम है सबसे न्यारा।
निष्कर्ष
अब अपनी विवेचना करूं, तो पाता हूं कि मैं विचार भूमि पर प्रारंभ से ही रामानन्दी रहा था, अभी भी हूं और आगे भी रहूंगा।

3 comments:

महेन्द्र मिश्र said...

नववर्ष की आपको और आपके परिवारजनों और मित्रो को हार्दिक शुभकामना .

कोसलेंद्रदास said...

Akarskan ki seema ko chuta yah lekh bhav ki bhumi par dera daal jagmaga raha hai.

Udan Tashtari said...

उनके चरणों में बैठे-बैठे मेरे पैर सो गए, तो अनायास मन में भाव आया कि पैर ये संकेत दे रहे हैं कि अब यहां थमा जा सकता है, आगे चलने या आगे खोजने की कोई जरूरत नहीं है।


-यह सोच प्रभावित कर गई.

पूज्य को प्रणाम!!
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नववर्ष की बहुत बधाई एवं अनेक शुभकामनाएँ!

समीर लाल